सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

हमारे त्यौहार और हमारी मानसिकता

ये है हमारी परम्परागत दिवाली 

गैस चैंबर बन चुकी दिल्ली को क्या कोई सरकार ,कानून या धर्म बताएगा कि  " हमें पटाखे जलाने चाहिए या नहीं?" क्या  हमारी बुद्धि- विवेक बिलकुल मर चुकी है ? क्या हममे सोचने- समझने की शक्ति ही नहीं बची जो हम समझ सकेंं  कि - क्या सही है और क्या गलत ? क्या अपने जीवन मूल्यों को समझने और उसे बचाने के लिए भी हमें किसी कानून की जरुरत है ? क्या हमें हमारे बच्चों के बीमार फेफड़े नहीं दिखाए देते जो एक- एक साँस मुश्किल से ले रहे है ? क्या तड़प तड़प कर दम तोड़ते हमें हमारे बुजुर्ग दिखाई नहीं देते ?तो लानत है हम पर,  हम इंसान क्या जानवर कहलाने के लायक भी नहीं है।  और पढ़िये 


रहम करें अपनी प्रकृति और अपने बच्चों पर 

मैं समझ नहीं पा रही हूँ  कि " पटाखें जलाने पर सुप्रीम कोर्ट की रोक को"हर बार बहस का मुद्दा क्यूँ बनाया जाता  है? पहले तो हमें शर्म आनी चाहिए कि ऐसे बिषय पर भी कानून बनाने की जरूरत पड़ रही है।हमने अपने जमीर अपनी इंसानियत को किस हद तक गिरा लिया है। क्या इंसानियत के लिए भी किसी कानून और स्कूल की जरूरत है?  2016 के अक्टूबर -नवम्बर महीने में हुई भारी  प्रदूषण ने मेरे हठे- कठे पिता की जान ले ली थी। उस वक़्त हमारे 5 साल के भतीजे और आठ साल  के बहन के बेटे ने जब हम से पूछा कि - दादा जी को साँस लेने में परेशानी क्यों हो रही थी, वो अचानक हमें  छोड़ कर कैसे चले गये? तो हमने उन्हें समझाया कि - प्रदूषण ने दादा जी की जान ली है । उस वक़्त उन्होंने ये कसम खाई कि अब हम कभी पटाखे नहीं जलाएगे। उन्हें किसी कानून ने नहीं कहा था बल्कि उनका खुद का जमीर जगा था और अब हमारे घर का हर बच्चा पटाखें  ना जलाने के लिए अपने सारे दोस्तों को भी मना करते हैं । क्या हम इन बच्चों से भी कुछ नहीं सीख  सकते ? तो सचमुच धिधकार हैं हम पर ।

    कब तक हम धर्म के नाम पर खुद का ,समाज का और अपने पर्यावरण का शोषण करते रहेंगे ? क्या क्रिसमस ,ईद , दिवाली और नववर्ष पर पटाखें  जलाने से ही हमारा त्यौहार मनाना सम्पन होगा ?क्या जगह जगह  रावण जलाकर ही हम ये सिद्ध कर सकते  हैं  कि हमने रावण को मार दिया? रावण भी ऊपर से देखकर हँस रहा होगा और कहता होगा - "मूर्खो मारना ही है तो अपने भीतर के रावण को मारो,मैं तो तुम सब के अंदर जिन्दा हूँ ,तभी तो किसी ना किसी रूप में हर साल हज़ारो की जान ले ही लेता हूँ ,पाँखंडियो खुद के  भीतर के रावण को तो मार नहीं सकते इसलिए हर साल मेरे पुतले को जला मुझे मारने का ढोंग करते हो। " इन दिनों हुए इन सारे घटनाकर्मो को देख कर क्या आप को नहीं लगता कि हमने अपनी इंसानियत पूरी तरह खो दी  है ? क्या हमने अपने सभी "त्योहार " चाहे वो किसी भी धर्म का हो उसे  बदनाम नहीं कर दिया है? क्या सभी त्यौहारों की पाकीज़गी , उसकी खूबसूरती और उसके उदेश्य को हमने मिटटी में नहीं मिला दिया ?

    कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि  हमारे पूर्वजों ने ये इतने सारे "त्यौहार "क्यूँ बनाये। ें इन त्योहारों के पीछे उनकी क्या मानसिकता रही होगी ,कही  ऐसा तो नहीं कि उस वक़्त कोई मनोरजन के साधन नहीं थे तो इसी बहाने लोग अपने रोजमर्रा के दिनचर्या को छोड़ एक हँसी ख़ुशी का माहौल और मिलने-मिलाने का अवसर  बना लेते थे ,सब एक साथ खाते -पीते  और नाचते -गाते थे। क्योंकि सभी धर्मो के त्यौहारों में एक बात तो सामान्य रूप से दिखता है कि सारे  त्यौहार सामाजिक रूप से ही मनाये जाने का चलन  है। किसी धर्म  का कोई एक त्यौहार ऐसा नहीं जो अकेले-अकेले मनाने को  कहता हो। ये तो तय है कि हर धर्म का हर त्यौहार आपस में मिल-जूलकर सुख-दुःख बाँटने और खुशियाँ मानाने के लिए ही बने थे। हिन्दुओं की होली -दिवाली हो, मुस्लिमो का ईद या ईसाइयों की क्रिसमस सब में एक ही संदेश है प्रेम और भाईचारे का। लेकिन क्या आज के परिवेश में ऐसा हो रहा है ?

    लेकिन फिर सोचती हूँ कि अगर सिर्फ खुशियाँ मनाने  के लिए त्यौहार बने  थे तो फिर हर धर्म के हर त्यौहार के पीछे कोई न कोई  कहानी कैसे है ? ये तो मानना पड़ेगा कि इन कहानियों में सचाईयाँ तो है जो की हमारे इतिहासकरों ,पुरातत्व बिभाग और शोध कर्ताओ ने सिद्ध कर दिया है। हिन्दुओं के पर्व में दशहरा "विजयादशमी "के रूप में मनाते है।  मान्यता है कि उस दिन रामजी ने रावण जैसे दुष्ट राक्षस जिसने सीता माता का हरण किया था उसका का वध किया था यानि बुराई पर अच्छाई की जीत हुई थी। उस जीत के जश्न के रूप में हम दशहरा मनाते  हैं । इस्लाम में ईद का त्यौहार भी जीत के जश्न के रूप में ही मानते हैं । कहते हैं  कि उस दिन पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने बद्र के युद्ध में विजय प्राप्त की थी। वैसे ही ईसाई समुदाय ईसामसीह के जन्म दिवस के रूप में क्रिसमस मानते हैं । ईसामसीह ने ईसाई समाज को उस समय की क्रूर शासको के यातना से बचाया और इंसानियत और भाईचारे का संदेश दिया। यानि हर त्यौहार किसी जीत या युँ कहे कि बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न है। हर जीत के जश्न को त्यौहार के रूप में मनाने की परम्परा शायद इसलिए बनाई गई हो कि हम याद रखे  - बुराई की जीत कभी नहीं होती और ये भी बताते हैं  कि कोई भी युद्ध अकेले नहीं लड़ा जाता सामूहिक एकता ही हर विजय दिलाती है। लेकिन क्या हम त्यौहार मानते वक़्त इस सन्देश को याद रखते हैं ?

     हिन्दू धर्म को सबसे प्राचीन धर्म मानते हैं । इसलिए इसमें त्यौहार भी अनगिनत है। तो क्या सारे त्योहारों के पीछे यही दो कारण होंगे? हिन्दुओं में हर देवी देवता के जन्म दिवस को भी एक भव्य त्यौहार के रूप में मनाया जाता है ऐसा क्यों ? शायद हमारे पूर्वज हमें हर उस महापुरुष, जिन्होने हमें जीवन दर्शन का ज्ञान दिया उनके जीवन चरित्र को याद रखने और जीवन में अपनाये रखने के लिए इस त्यौहार की परम्परा बनाई होगी। उन्हें लगा होगा कि शायद साल का वो एक दिन याद कर उनके बच्चे जो भटकाव के राह पर यदि चल पड़ें होंगे तो वो संभाल जायेगें। लेकिन क्या रामनवमी ,कृष्णआष्ट्मी या गणेशचतुर्दसी मानते समय हम एक बार भी उन देवपुरुषों के गुणों और  कर्मों  को याद करते हैं ?

    हिन्दुओं में सरस्वती पूजा ,लक्ष्मीपूजा और दुर्गा पूजा भी बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है । शायद इन देवी स्वरूपा  नारियों की पूजा कर हमारे पूर्वज हमें  ये बताना चाहते थे कि नारी सर्वशक्तिमान है। कहते हैंं  कि जब सारे देवगण राक्षसों के प्रकोप से अपने आप को बचाने में असहाय हो जाते थे तो वो देवी के शरण में जाते थे। तो शायद वो हर साल इन देवियों की पूजा करने की परम्परा बना कर हमें ये याद रखने को कहते थे कि नारियाँ  पुरषो से कमजोर नहीं उनका आदर -सम्मान करो। आज पुरषो की बात छोड़ें क्या नारियों ने खुद अपनी मान-मर्यादा को कायम रखकर अपनी शक्ति को पहचान पा रही है?

    सारे त्योहारों के पीछे उपवास की भी परम्परा बनाई गई क्यों? हिन्दू में तो अनगिनत दिन उपवास के लिए बनाये गए है लेकिन इस्लाम और ईसाइयो में भी उपवास रखने का रिवाज़ है क्यों ? उपवास के साथ दान करने का भी रिवाज़ बना है। इस्लाम में भी ईद के दिन दान का रिवाज़ है जिसे जकात कहते है ,ईसाई भी क्रिसमस के दिन गरीबो में मिठाई और कपडे बाँटते हैं । शायद इसके पीछे धर्म को जोड़ उन्होंने ये बताना चाहो हो कि यदि हम एक दिन के भोजन का त्याग करे तो वो भोजन किसी  दूसरे इंसान का पेट भर सकती है। दान देने को भी धर्म से जोड़ा ताकि हम गरीबो की मदद कर सकें।

     इन त्योहारों को मनाने और उपवास भी रखने के पीछे मानसिक, सामाजिक  और  धार्मिक  कारणों के अलावा कोई वैज्ञानिक कारण भी हो सकता है क्या ? हो सकता है, अब उपवास को ही ले विज्ञान भी कहता है कि  हमें समय-समय पर अपने पाचनतंत्र को एक दिन का बिश्राम देना चाहिए और उस दिन ज्यादा से ज्यादा पानी पीना चाहिए ताकि हमारे पाचनतंत्र की सफाई हो सके। हमारे पूर्वजों ने भी तो यही कहा  है। अब दिवाली मनाने की परम्परा को ही ले ले। कहते हैं  रामजी उस दिन 14 वर्ष का वनवास काट अयोध्या लोटे थे इस लिए घरों की सफाई की गई दीये जलाये गये और इस घटना को त्यौहार और परम्परा का रूप दिया गया। ताकि हम याद रखे कि कोई अपना जब वर्षो बाद लौटता है तो उसका दिल से स्वागत कैसे करते हैं ।

     अब इसके पीछे एक वैज्ञानिक तथ्य शायद ये भी हो  सकता हैं  कि चार माह के बारिस के मौसम के बाद सर्दी के मौसम का आगमन होता है और बरसात के मौसम में घर के अंदर से लेकर बाहर तक गंदगी और कीड़ें -मकोड़ों की संख्या काफी बढ़ जाती है। सर्दी बढ़ने से पहले अगर इनकी सफाई नहीं हुई तो बीमारियों का प्रकोप बढ़ जायेगा। हमारे पूर्वजों ने दिवाली को लक्ष्मी पूजा से भी जोड़ा और कहा कि अपना घर और अपने आस पास का वातावरण अगर साफ नहीं रखोगे तो लक्ष्मीजी तुमसे नाराज़ हो जाएगी और तुम्हारे घर नहीं आएगी।स्वभाविक है, यदि घर में बिमारियों का प्रकोप होगा तो लक्ष्मी नाराज़ ही कहलाई न।  दिवाली पर तेल या घी के दीपक जलाने की परम्परा बनाई ताकि उस दीये के आग में वो सारे बरसाती कींट -पतंगे जल कर खत्म हो जाये जो हमारे शरीर के साथ साथ आगे चलकर हमारे खेतो को भी नुकसान पहुचायेगें। घी और तेल से निकलने वाले धुएं हमारे पर्यावरण को शुद्ध करेंगें। कितनी बड़ी वैज्ञानिकता छिपी थी इस त्यौहार में। क्या आज  हम इस तथ्य को समझ त्यौहार मना रहे हैं ?
     इन सारे "क्यों ?"का जबाब आप भी जानते हैं कि -"नहीं "है। आज तो हम इस बात पर बहस करने में लगे हैं  कि  दिवाली पर कोर्ट ने पटाखें ना जलाने का  फैसला क्यों दिया है। कोई उसे धार्मिक बहस का मुदा बना रहा है तो कोई उसे राजनीतिक रूप दे रहा है। तो सिर्फ अपने बारे में सोचने वाले लोग अपना आर्धिक नुकसान का रोना रो रहे है। क्यूँ ,हमने अपना इतना मानसिक पतन कर लिया है कि  हमें सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ दिखाई दे  रहा है।
कहते हैंं  इंसानों ने अपने बुद्धि  और विवेक से बहुत प्रगति किया है। एक बार हर व्यक्ति अपनी आत्मा को साक्षी मान दिल से कहे- क्या  हम ने सचमुच प्रगति की है या हमारा पतन हुआ है?  हमारी बुद्धि ने हमें चाँद पर घर बसाने का रास्ता तो दिखा दिया लेकिन अपनी स्वर्ग जैसी धरती को हमने नर्क का रूप दे दिया। जब धरती धुधुँ कर जलेगी तो क्या चाँद पर शरण मिलेगी हमें ?क्युँकि चाँद तक पहुंचने का रास्ता भी तो धरती से ही जायेगा न। आश्चर्य होता है हम इतने मुर्ख ,इतने बुद्धिहीन कैसे हो सकते हैं कि खुद ही अपने खाने पीने में यह तक कि जीने के लिए सबसे जरुरी चीज़ हवा में भी अपने हाथो जहर मिला रहे है।ऐसा लगता हैं ना तो हमारे अंदर कोई भावना बची है ना संवेदना ना बुद्धि ना विवेक। यही चार चीज़ जानवरों से ज्यादा दे कर ही तो परमात्मा ने हमें इन्सान बनने का सौभाग्य दिया है और आज हम ही अपने परिवार ,अपने समाज ,अपने त्योहारों , यहाँ तक कि अपने धरती माता का स्वरूप भी युँ बिगड़ रहे कि -ईश्वर भी हमें देख स्वयं को लज्जित महसूस कर रहे होंगें और सोच रहे होंगे क्युँ -बनाया हमने इन इंसानों को ?
चले,इस दिवाली हम खुद से ये वादा करें कि हम अब से  परंपरागत दिवाली मनाएंगे और अपने बच्चों को प्रदूषण रहित वातावरण देंगे ताकि आने वाली पीढ़ी  कुछ तो हमें सम्मान की दृष्टि से देखें। 
आप सभी को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं



28 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी मौज-मस्ती और अंधपरम्परा-अन्धसंस्कृति के धरोहर की सुरक्षा जैसी भावना में हम भावी पीढ़ी को भूल ही जाते हैं ना !? .... मान भी ले कि कभी ये परम्परा रही भी होगी तो समयानुसार बदला भी जा सकता है। "फलिया" में पलने वाले बच्चे बड़े होकर क्रमशः जरूरतनुसार हाफ पैंट फिर फूल पैंट पहनते हैं।
    आपके आलेख को नमन ... काश ! ये बातें आमजन की मानसिकता बदल पाती ...

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    1. सहृदय धन्यवाद सुबोध जी ,आप की सार्थक प्रतिक्रिया से बेहद ख़ुशी हुई आभार ,आप को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  2. कामिनी दी, विडंबना तो यहीं है कि प्रदूषण के मामले में हर कोई जानकार तो हैं कि जानबूझ कर अनजान बनता हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि मेरे अकेले के पटाखे आदि न फोड़ने से क्या होगा? न जाने हैम कब सुधरेंगे? सुंदर आलेख।

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    1. सहृदय धन्यवाद ज्योति जी ,मुझे भी सबसे ज्यादा एतराज़ इसी एक कथन से हैं कि -" अकेले मेरे करने से क्या होगा " उन्हें कैसे समझाएं कि" गुनाह के भागीदार हम तो नहीं होंगे न" क्या इतना काफी नहीं हैं। फिर भी उमींद रख सकते हैं कि एक दिन बदलाव जरूर आएगा। आप को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ अक्टूबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. मेरे लेख को स्थान देने के लिए सहृदय धन्यवाद श्वेता जी ,कल उपस्थित ना होने के लिए क्षमा चाहती हूँ ,आप को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  4. बेहतरीन सृजनात्मकता .. पर्यावरण प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु तथ्यपरक लेख । दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं कामिनी जी ।

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    1. सहृदय धन्यवाद मीना जी ,आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ ,आप को भी दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  5. शानदार सोच।
    बारूद के बाद ही पटाखे चलन में आये होंगे...इससे पहले निश्चित ही दीवाली पर्यावरण शुद्धि के लिए मनाए जाने वाला त्योहार रहा होगा।

    सरकारें भी पटाखे फेक्टरीज़ बैन नहीं करती बल्कि पटाखे बैन करती है। इससे कुछ होगा भी मालूम नहीं।

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    1. सहृदय धन्यवाद रोहितास जी ,आपकी उत्साहवर्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार ,आपने सही कहा -यकीनन पहले दीवाली पर्यावरण शुद्धि के लिए ही मनाए जाने वाला त्योहार ही रहा होगा।ये भी सही हैं कि -सरकार को पहले पटाखें फैक्ट्रियों पर ताले लगाने होंगे ,लेकिन लोगों को खुद भी जागरूक होना भी तो जरुरी है. खैर ,अच्छे की उमींद तो कर ही सकते हैं। आप को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  6. लाजवाब सृजन....
    कम से कम पर्यावरण के विषय में तो हमें जागरूक होना ही चाहिए...।

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    1. सहृदय धन्यवाद सुधा जी ,आपकी सार्थक प्रतिक्रिया हमेसा मेरा मनोबल बढाती हैं ,हृदयतल से आभार आप का

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  7. आपको एवं आपके पूरे परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं कामिनी जी !

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    1. आपके समस्त परिवार के मंगलकामना सहित आप को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  8. हमें तो भारतीय परंपरा या किसी धर्म शास्त्र में पटाखे बजाने का उल्लेख तो नहीं मिलता है। यदि आप लोगो को कहीं मिले, किसी वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, पुराण,ब्राह्मण, गीता, रामायण आदि में तो बताईयेगा। सुंदर लेख का आभार।

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    1. बिलकुल सही कहा आपने ,ये काम तो चंद इंसानियत और प्रकृति के दुश्मन स्वार्थी लोगो की शुरुआत की हुई परम्परा हैं ,जिसे " लकीर के फ़क़ीर" लोग अपनाते चले गए और किसी ने इस अंध मस्तीखोरी को रोकने का प्रयास ही नहीं किया और आज हमारे बच्चे इसका खामियाजा भुगत रहे हैं। दिल्ली की हालत तो चिंताजनक हुई हैं। मेरे लेख को पढ़ने और उस पर अपनी अनमोल प्रतिक्रिया देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया विश्वमोहन जी ,आपको और आपके समस्त परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  9. किन्ही विडम्बनाओं में उलझे इन परम्पराओं व धार्मिक मूल्यों को एक अलग आईने से देखने व परखने की आपकी कोशिश, सच में हमारे आन्तरिक तत्वों को झकझोरती है।
    फिर भी, इन अनुष्ठानों के महत्व को हम इतनी आसानी से दरकिनार नहीं कर सकते। इनमें छुपे संदेश इतने महीन होते हैं कि जिनका शब्दों में वर्णन कर पाना शायद सम्भव न हो।
    परम्पराओं की स्थापना, एक जटिल प्रक्रिया का नतीजा होता है जिसके दूरगामी परिणाम होते हैं तथा ये आर्थिक, सामाजिक, नैतिक , दार्शनिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं ।
    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं सहित बधाई ।

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    1. मेरे लेख को विस्तार देती हुई आपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से आभारी हूँ परुषोतम जी ,आपने सही कहा कि -"परम्पराओं की स्थापना, एक जटिल प्रक्रिया का नतीजा होता है जिसके दूरगामी परिणाम होते हैं"चाहे वो परम्परा सही हो या गलत ,जिसने भी ये पटाखे जलने की रीत शुरू की होगी उससे तो अंदाज़ा भी नहीं होगा कि वो आने वाली पीढ़ी को कितना जहरीला वातावरण देने की शुरुआत कर चूका हैं ,परन्तु अब जागना बहुत जरुरी हो चूका हैं कबतक हम अन्धपरम्परा का अनुसरण करते रहेंगे। आपको और आपके समस्त परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  10. सत्य कहा आपने सखी, मैं आपके विचार से पूर्णतः सहमत हूं।मेरे घर में मेरी मां और पति
    दोनों ही अस्थमा से पीड़ित हैं।ये आतिशबाजी
    का धुआं उनकी परेशानी बढ़ा देता है। नियम-कानून को ताक पर रख देर रात्रि तक आतिशबाजी करने वाले ये नहीं समझ पाते कि ध्वनि और वायु का प्रदूषण कितनों को परेशान करता है।

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    1. सहृदय धन्यवाद सखी ,आप सही कह रही हैं मैं भी इसकी भुगभोगी हूँ। दिल्ली के हालत तो और बुरे हैं ,लोगों में जागरूकता आ ही नहीं रहा ,कल पटाखे जलाकर हवा में जहर घोले और आज सब साँस की समस्या से पीड़ित हो विस्तर पकड़ें हैं कुछ समझाओं तो यही जुमला होता हैं कि -एक मेरे नहीं जलाने से क्या होगा। अब कल के दिन का भुगतान पूरी सर्दी करनी पड़ेगी ,सारे बीमार ही रहेंगे ,कम से कम दिल्ली के हालात तो यही होते हैं। सादर आभार आपका

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  11. बच्चे तो छोटे होते हैं माँ-बाप को पटाखे के धुंए से होने वाले गंभीर परिणाम की जानकारी बच्चों को देनी चाहिए। हमारे यहाँ
    भी कोई पटाखे नहीं चलाता। सिर्फ प्रदूषण ही समस्या नहीं है,हर साल छोटे कारोबारियों के यहा़ँ काम करने वाले जानें कितने साल श्रमिक पटाखों में बारूद भरने से गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।हम पलभर में मेहनत की कमाई धुंए में उड़ाकर बड़प्पन दिखाते हैं और कुछ नहीं। बहुत सुंदर और सटीक प्रस्तुति सखी

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    1. सहृदय धन्यवाद सखी ,माँ बाप ही तो नहीं समझ रहे है जब वो खुद नहीं समझगें तो बच्चों को क्या समझाएगें ,आज दिल्ली परिणाम भुगत रही हैं ,कितनी भयावह स्थिति हुई हैं। दिवाली वाले दिन किसी को समझनें पर यही कहते कि -"साल का एक ही दिन तो होता हैं त्यौहार मनाने को ,अब ख़ुशी भी नहीं मनाएं "और आज वही लोग सबसे ज्यादा प्रदूषण का रोना भी रो रहें हैं। यही नहीं इतनी बुरी हालत होने के वावजूद छठपूजा वाले दिन भी ऐसे वेवकूफों की कमी नहीं थी जो पटाखें जलाते हैं। इंसान अपनी ही हाथ अपनी कब्र खोद रहा हैं और साथ साथ कुछ बेगुनाह भी दफन हो रहे हैं। आभार सखी

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  12. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 13-11-2020) को "दीप से दीप मिलें" (चर्चा अंक- 3884 ) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

    "मीना भारद्वाज"

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    1. मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद मीना जी

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  13. वर्तमान समस्या पर सटीक लेख 🙏
    दीपोत्सव पर हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🚩🙏
    - डॉ शरद सिंह

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    1. तहेदिल से शुक्रिया शरद जी, आप को भी दिपावली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  14. प्रभावशाली आलेख - -दीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं।

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  15. सहृदय धन्यवाद सर, आप को भी दिपावली की हार्दिक शुभकामनाएं एवं सादर नमस्कार

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