मेरी नजर जैसे ही घड़ी पर गई ये सारे दृश्य चलचित्र की भाँति मेरी आँखों के आगे से गुजरने लगे,चार बजते ही घाट पर जाने के लिए बिलकुल यही शोर होता था। चार दिन तक घर का माहौल कितना खुशनुमा होता था ,सब अपने अपने जिम्मेदारियों को निभाने में रत रहते साथ साथ एक दूसरे से हँसी ठिठोली भी करते रहते,शाम घाट के दिन भी सुबह ढाई तीन बजे तक उठकर पकवान बनाने में लग जाना ,बनाते तो दो तीन ही लोग थे पर सारा परिवार जग जाता था ,सुबह से ही छठीमाता के गाने होने लगते ,शाम के घाट जाने के लिए सब अपने अपने तैयारियों में जुट जाते ,शाम घाट से वापस आकर कोशी भरने का काम होता ,सारा परिवार हवन करता ,फिर फिर मैं माँ के पैरो में तेल मालिस करती ,फिर खाना खा कर जल्दी जल्दी सोने की तैयारी क्योंकि सुबह ढाई बजे तक उठकर घाट जो जाना है देर हुई तो जगह नहीं मिलेंगी न,घाट पर झिलमिलाती लाड़यों से सजी पंडाल में ,सर्दी में ठिठुरे हुए बैठकर सूर्यदेव के उदय होने का इंतज़ार करना। जैसे ही सूर्य देव उदित हुए अर्घ्य देना शुरू करना ,अर्घ्य देने के बाद माँ सबको टीका लगाती,औरतो के मांग में सिंदूर लगती और सबको अपने हाथो से प्रसाद देती ,हम माँ का पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते ,फिर घर आकर माँ के पैर पखारने के लिए परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्य लाइन में लग जाते। सबके करने के बाद मैं माँ का पैर गर्म पानी से धोती और तेल मालिस करती फिर तुलसी, अदरक के साथ नींबु का शर्बत बनाकर देती,उनके लिए सूजी का पतला सा हलवा बनाकर उन्हें पारण कराती ,एक एक दृश्य याद आने लगी और मेरी आँखे स्वतः ही बरसने लगी ,अंतर्मन में दर्द भरने लगा, यूँ लगा जैसे आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ेंगा,मैंने खुद को संभाला और झट से डायरी और कलम ले आई ,तत्काल यही तो मेरे सच्चे साथी बनें हैं और बैठ गई यादों के झरोखें के आगे और देखने लगी अतीत के वो खुशियों भरे पल जो हम सपरिवार साथ में बिताए हैं। सच, जितना दर्द देती हैं न उतना ही सुकून भी देती हैं ये यादें और आज इस दर्द भरे अकेलेपन में मुझे सुकून की बड़ी दरकार हैं।
वैसे छठीमाता के सेवा में भी एक परम् सुख की अनुभूति होती हैं। व्रत कोई भी करें चाहे माँ या बहन सेवा की जिम्मेदारी मेरी ही होती हैं [पहले माँ के घर ही बहन और माँ दोनों करती थी माँ ने जब उद्यापन कर दिया तो सारा परिवार बहन के घर एकत्रित होते हैं ] खरना [व्रत का दूसरा दिन]के दिन शाम के चार बजे से ही मेरी डियूटी छठपूजा वाले कमरे में हो जाती। प्रसाद बनाने की ,व्रती का हर काम करने की जिम्मेदारी मेरी होती ,हां,सुबह पकवान [ठेकुआ ] बनाने में बहन और भाभी मदद करती थी।जब तक सूपली और दउडा सज नहीं जाता ,पूजा की सारी सामग्री एकत्रित नहीं हो जाती मैं भी सिर्फ जल पीकर ही रहती हूँ। जब तक व्रती को पारण नहीं करा देती घर से लेकर घाट तक पूजा की सारी जिम्मेदारी मेरी ही तो होती हैं और आज कैसा दिन हैं ,घाट जाने का वक़्त हो चूका हैं और मैं सारे परिवार से बहुत दूर अकेली बैठी आँसू बहा रही हूँ। नियति के आगे किस की चली हैं, यहाँ तो सबको झुकना ही पड़ता हैं। मैं अपने आप से ये वादा करती हूँ -अगले साल फिर से धूम धाम से छठीमाता का स्वागत करेंगे ,मेरे बच्चें जो आज गमगीन बैठे हैं कल उन्हें मैं फिर से वही मुस्कुराहट और खुशियाँ दूंगी।
जिंदगी रूकती तो हैं नहीं ,जाने वाले की कमी कभी कोई और पूरा नहीं कर सकता। हाँ ,मेरी बहनोई नहीं होंगे ,हल्ला मचाने वाले मेरे पापा भी नहीं होंगे पर उन्हें याद कर हम आँसू नहीं बहाएंगे। बच्चों के उज्वल भविष्य के कामना से हम फिर से छठपूजा करेंगे ,फिर घाट पर जाते वक़्त वही सजना सवरना होगा।सच, छठपूजा में बच्चों का उत्साह उनकी तैयारियां देखते ही बनती हैं ,घाट पर कौन सबसे ज्यादा सुंदर लगेगा ,जैसे व्याह -शादी में होता हैं। मैं बच्चों को कभी उनकी खुशियाँ मनाने से नहीं रोकती ,मैं भी वैसी ही थी। अक्सर उन्हें सजते सवरते देख मैं भी अपने दिन याद करने लगती। हमने तो अपने बच्चों को घर की हर जिम्मेदारी से दूर कर दिया हैं पर हमारे वक़्त में ऐसा नहीं होता था। बचपन से लेकर युवा अवस्था तक उम्र के हिसाब से हमें हमारी जिम्मेदारियाँ सौप दी जाती थी। पूजा के दिनों में भी यही नियम थे।
बचपन में तो छठ घाट जाने के समय तक पापा से मेरी फरमाइसे ही ख़त्म नहीं होती ,सर से पैर तक सजना होता था मुझे,सब कुछ नया होता था। उतना शृंगार तो मैंने शादी के बाद भी कभी नहीं किया। अब सोच कर खुद पर बड़ी हँसी आती हैं।युवावस्था होने पर तो घर के कामों की मेरी जिम्मेदारियाँ और बढ़ गई थी फिर भी सारा काम ख़त्म कर मैं,मेरी सारी बहनें और मेरी बुआ तैयार होने के लिए दादी से दो घण्टे का समय मांग ही लेते थे । हम पहले ही कह देते जितना काम करवाना हो अभी करवा लो तैयार होने के बाद और घाट पर हम कुछ नहीं करने वाले। घाट पर की सारी जिम्मेदारी माँ -पापा भैया और चाचा लोगो की होती। हम तो बस घाट का नजारा देखते ,अरे देखे भी कैसे नहीं ,वही से तो हमें लेटेस्ट कपडे और मेकअप का पता चलता था।
हमारे समय में इंटरनेट तो था नहीं ,हमें तो ये सब जानने के लिए पुरे साल इंतज़ार करना पड़ता था । सुबह के घाट पर तो कुछ ज्यादा ही उत्सुक रहते थे ,ये देखने के लिए कि स्वेटर की नई डिजाइन कौन कौन सी आई हैं।उस समय तो इस माह तक सर्दी पड़नी शुरू हो जाती थी और सबके लिए एक नया स्वेटर तो बनाना ही चाहिए था।मैं तो नए स्वेटर के बिना घाट पर जा ही नहीं सकती थी और वो भी बिलकुल नए डिजाइन में,रात रात भर जागकर हम स्वेटर बनाते थे। जो भी लोग मुझे जानते थे वो मेरे स्वेटर को देखने के इंतजार में रहते थे। स्वेटर बुनाई को लेकर अजीब पागलपन था मुझ में ,जूनून कह सकते हैं। घाट पर तो मेरी नजर सबके स्वेटर पर ही होती ,किसी के स्वेटर को बस एक झलक देख लूँ सारे पैटर्न मेरे आँखों में फोटो की तरह खींच जाते थे और घाट से लौटते हो ऊन और सलाई ले कर बैठ जाती और सारे पैटर्न को बना कर जब तक रख नहीं लेती मुझे चैन नहीं मिलता था।
अब तो वैसी कोई उत्सुकता लड़कियों में दिखती ही नहीं ,[ ना किसी पूजा के प्रति ,ना किसी काम के प्रति ,ना बड़ों के सेवा और सम्मान के प्रति ]अब तो वो खुद की ही सूरत पर इतराती सेल्फी लेने में बिजी रहती है उन्हें किसी और चीज़ से मतलब ही नहीं होता। क्योकि इन्हे तो हर चीज़ आसानी से मिल जाता हैं। हमें तो बहुत परिश्रम के बाद कुछ मिलता था। क्या दिन थे वो -" छठपूजा आस्था ,विश्वास ,श्रद्धा और प्रेम से भरा एक उत्सव था "अब भी हमारा परिवार तो एक जुट हो सुख दुःख साथ बाँटते हैं,वही उत्सव मानते हैं। हमारा परिवार यूँ ही एकजुट रहे ,मुझे पूर्ण आस्था और विश्वास भी हैं कि -" छठीमाता की कृपा से हम सपरिवार अगले साल फिर से धूम धाम के साथ उनका स्वागत करेगें। "
जिंदगी रूकती तो हैं नहीं ,जाने वाले की कमी कभी कोई और पूरा नहीं कर सकता। हाँ ,मेरी बहनोई नहीं होंगे ,हल्ला मचाने वाले मेरे पापा भी नहीं होंगे पर उन्हें याद कर हम आँसू नहीं बहाएंगे। बच्चों के उज्वल भविष्य के कामना से हम फिर से छठपूजा करेंगे ,फिर घाट पर जाते वक़्त वही सजना सवरना होगा।सच, छठपूजा में बच्चों का उत्साह उनकी तैयारियां देखते ही बनती हैं ,घाट पर कौन सबसे ज्यादा सुंदर लगेगा ,जैसे व्याह -शादी में होता हैं। मैं बच्चों को कभी उनकी खुशियाँ मनाने से नहीं रोकती ,मैं भी वैसी ही थी। अक्सर उन्हें सजते सवरते देख मैं भी अपने दिन याद करने लगती। हमने तो अपने बच्चों को घर की हर जिम्मेदारी से दूर कर दिया हैं पर हमारे वक़्त में ऐसा नहीं होता था। बचपन से लेकर युवा अवस्था तक उम्र के हिसाब से हमें हमारी जिम्मेदारियाँ सौप दी जाती थी। पूजा के दिनों में भी यही नियम थे।
बचपन में तो छठ घाट जाने के समय तक पापा से मेरी फरमाइसे ही ख़त्म नहीं होती ,सर से पैर तक सजना होता था मुझे,सब कुछ नया होता था। उतना शृंगार तो मैंने शादी के बाद भी कभी नहीं किया। अब सोच कर खुद पर बड़ी हँसी आती हैं।युवावस्था होने पर तो घर के कामों की मेरी जिम्मेदारियाँ और बढ़ गई थी फिर भी सारा काम ख़त्म कर मैं,मेरी सारी बहनें और मेरी बुआ तैयार होने के लिए दादी से दो घण्टे का समय मांग ही लेते थे । हम पहले ही कह देते जितना काम करवाना हो अभी करवा लो तैयार होने के बाद और घाट पर हम कुछ नहीं करने वाले। घाट पर की सारी जिम्मेदारी माँ -पापा भैया और चाचा लोगो की होती। हम तो बस घाट का नजारा देखते ,अरे देखे भी कैसे नहीं ,वही से तो हमें लेटेस्ट कपडे और मेकअप का पता चलता था।
हमारे समय में इंटरनेट तो था नहीं ,हमें तो ये सब जानने के लिए पुरे साल इंतज़ार करना पड़ता था । सुबह के घाट पर तो कुछ ज्यादा ही उत्सुक रहते थे ,ये देखने के लिए कि स्वेटर की नई डिजाइन कौन कौन सी आई हैं।उस समय तो इस माह तक सर्दी पड़नी शुरू हो जाती थी और सबके लिए एक नया स्वेटर तो बनाना ही चाहिए था।मैं तो नए स्वेटर के बिना घाट पर जा ही नहीं सकती थी और वो भी बिलकुल नए डिजाइन में,रात रात भर जागकर हम स्वेटर बनाते थे। जो भी लोग मुझे जानते थे वो मेरे स्वेटर को देखने के इंतजार में रहते थे। स्वेटर बुनाई को लेकर अजीब पागलपन था मुझ में ,जूनून कह सकते हैं। घाट पर तो मेरी नजर सबके स्वेटर पर ही होती ,किसी के स्वेटर को बस एक झलक देख लूँ सारे पैटर्न मेरे आँखों में फोटो की तरह खींच जाते थे और घाट से लौटते हो ऊन और सलाई ले कर बैठ जाती और सारे पैटर्न को बना कर जब तक रख नहीं लेती मुझे चैन नहीं मिलता था।
अब तो वैसी कोई उत्सुकता लड़कियों में दिखती ही नहीं ,[ ना किसी पूजा के प्रति ,ना किसी काम के प्रति ,ना बड़ों के सेवा और सम्मान के प्रति ]अब तो वो खुद की ही सूरत पर इतराती सेल्फी लेने में बिजी रहती है उन्हें किसी और चीज़ से मतलब ही नहीं होता। क्योकि इन्हे तो हर चीज़ आसानी से मिल जाता हैं। हमें तो बहुत परिश्रम के बाद कुछ मिलता था। क्या दिन थे वो -" छठपूजा आस्था ,विश्वास ,श्रद्धा और प्रेम से भरा एक उत्सव था "अब भी हमारा परिवार तो एक जुट हो सुख दुःख साथ बाँटते हैं,वही उत्सव मानते हैं। हमारा परिवार यूँ ही एकजुट रहे ,मुझे पूर्ण आस्था और विश्वास भी हैं कि -" छठीमाता की कृपा से हम सपरिवार अगले साल फिर से धूम धाम के साथ उनका स्वागत करेगें। "
" हे छठीमाता ,सबको सद्ज्ञान और सद्बुद्धि दे ताकि ये पृथ्वी फिर से साँस लेने योग्य हो सकें ,आपका स्वागत हम फिर से सच्ची आस्था ,विश्वास और प्रेम से कर सकें। "
सदैव की भांति ही भावपूर्ण रचना है..
जवाब देंहटाएंठीक कहा आपने छठी मैया सबको सद्बुद्धि दे।
ईश्वर अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। सबको सन्मति दे भगवान, सारा जग तेरी सन्तान ...
सहृदय धन्यवाद शशि जी ,इस बार ये लेख नहीं हैं ,आपकी तरह अपनी वेदना को नियंत्रित करने के लिए संवेदनाओ को उकेरती चली गई हूँ ,बस थोड़ा मन शांत गया ,आभार आपका
हटाएंबहुत सुंदर प्रिय सखी | तुम्हारे इस भावपूर्ण संस्मरण में बीते दिनों के बहुत से दृश्य सजीव हो गये | और तुम्हारे बारे में जाना कि भावनाओं से भरी रचनाकार के पीछे एक सुदक्ष गृहिणी और समर्पित माँ, बहन और बेटी छुपी है | मुझे भी यही लगता है आज के बच्चे दायित्वों से मुंह चुराते अपने आप में आत्म मुग्ध हो
जवाब देंहटाएंडूबे हैं | पर हम लोगों ने बहुत सुंदर बचपन जिया वैसा हमारे बच्चों को कहाँ नसीब हो पाया ? वे जैसे माहौल में पले हैं , उसी हिसाब का आचरण करते हैं | हम लोगों के लिए जो दुर्लभ और सपना मात्र था आज बच्चों को वो सुविधाएँ यूँ ही मिल जाती हैं |तुमने बहुत अच्छा लिखा प्रिय कामिनी | परिवार और समाज के प्रति तुम्हारा चिंतन बहुत प्रेरक हैं जिसमें सबके लिए असीम सदभावनाएँ भरी हैं | ऐसे ही लिखती रहो मेरी शुभकामनायें तुम्हारे साथ हैं |
प्रिये रेणु ,ये मेरा सोच समझकर लिखा हुआ लेख नहीं हैं सखी ,बस परिवार के उन पालो को यादकर मन द्रवित हो उठा मन को सँभालने के लिए लैपटॉप लेकर बैठ गई ,मैंने इसका कोई रफ वर्क नहीं किया हैं सखी ,जो दिल में उमड़ रहा था उसे ही लिखती चली गई। छठपूजा से जुडी इतनी यादें हैं, कि मैं लिखती जाती और ख़त्म नहीं होता कुछ बहुत सुखद,कुछ बेहद दुखद और कुछ आश्चर्यचकित कर देने वाले।परन्तु अंतर्मन के दुःख ने मेरी आँखों को धुंधला कर दिया था वो थक गई थी सो जहाँ तक हुआ वही रोक दी। इसमें कितनी गलती हैं वो मैं अब देखकर ठीक करुँगी। तुम तो सब जानती हो सखी ,आभार जो आपसब लोगों ने इसे भी मान दिया ,सादर स्नेह सखी
हटाएं.. शब्द नहीं है बस एक बार पढ़ना शुरू किया तो अंत तक पढ़ती ही गई सब कुछ समेट दिया आपने इस संस्मरण में पूजा के समय घर का माहौल अफरा-तफरी बच्चों की चिलम पों.. ससुराल और नेहर की मिली जुली यादें ..और पूजा की सामग्री जैसे मुझे पता ही नहीं थी कि दाउड़ा( जिसने पूजा की सामग्री रखी जाती है,) कहा जाता है.. एक एक पंक्तियां अपनेपन के भाव से लिपटी हुई है... ज्ञान वर्धक होने के साथ साथ बहुत आनंद भी महसूस किया मैंने ..बहुत अच्छा लिखा आपने
जवाब देंहटाएंआपको अपने ब्लॉग पर देख बेहद ख़ुशी हुई ,आपकी स्नेह भरी इस प्रतिक्रिया के लिए दिल से शुक्रिया अनु जी ,जैसे की मैंने रेणु बहन को बताया हैं कि ये मेरा लेख नहीं बस यूँ ही मन को सुकून देना भर था ,लेकिन आप सबने इसे भी मान दिया दिल से आभार आपका अनु जी ,सादर स्नेह
हटाएंभावपूर्ण और लाजवाब संस्मरण कामिनी बहन ..आपके संस्मरण और लेख अनूठे और भावनाओं से लबरेज होते हैं ।सदैव प्रतीक्षा रहती आपकी नई पोस्ट की ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार मीना जी ,आपके इस स्नेह और प्रोत्साहन से दिल भर आया ,अपना स्नेह यूँ ही बनाएं रखेंगी इस आभासी दुनिया के स्नेहिल साथी अब तो जीवन का हिस्सा सा बनते जा रहे हैं ,आप सब से निःसकोच हो मैं अपनी हर बात कह सकती हूँ ,सादर नमन आपको
हटाएंहृदय की असीम गहराईयों से स्वागत कामिनी बहन आपकी अनमोल भावनाओं का । सस्नेह वन्दे ।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(०४-११ -२०१९ ) को "जिंदगी इन दिनों, जीवन के अंदर, जीवन के बाहर"(चर्चा अंक
३५०९ ) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
तहे दिल से शुक्रिया अनीता जी ,मेरे मन के भावों को चर्चामंच पर स्थान देने के लिए ,सादर स्नेह
हटाएंशुरू से अंत तक एक चलचित्र सा खिंच गया आँखों के सामने कामिनी बहन। एकदम सहज सरल सुंदर भावपूर्ण लेख।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया मीना जी ,आप की स्नेहिल प्रतिक्रिया पाकर आपार हर्ष होता हैं बस मीना जी ,ये मेरे मन के भाव थे ,मुझे नहीं पता इसमें कितनी गलतियां हैं ,मैं सचमुच बिना ये सब सोचे लिख रही थी। आभार एवं सादर नमन आपको।
हटाएंवाहहहह अद्भुत लेखन, बेहतरीन यादों की झलक पढ़ने को मिली, आपका हार्दिक आभार एवं शुभकामनाएं सखी
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद अनुराधा जी ,यादें तो बेहतरीन होती ही हैं उसे तो यदि शब्दों में पिरोने लगे तो शायद उसका अंत ही ना हो ,वो तो उन्हें समेटना पड़ता हैं। आभार एवं सादर नमन
हटाएंबचपन की कितनी ही मोहक यादों को समेत कर लिखी है ये पोस्ट, ये संस्मरण नहीं एक डायरी है जो सदा दिल के करीब रहती है ... गहरे सुकून में ले लाती है जो उदास मन को ... छठ की बहुत बहुत शुभकामनायें ...
जवाब देंहटाएंआप बिल्कुल सही कह रहे हैं ,ये यादें एक अनमोल डायरी ही तो हैं जो दिल के करीब रहता हैं जब मन उदास हो खोल लो उसके दो चार पन्ने ,खुद ब खुद सुकून आ जाता हैं ,आपके इस अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से धन्यवाद दिगंबर जी ,सादर नमस्कार
हटाएंकामिनी दी, बचपन की यादों को समेटे हुए बहुत ही सुंदर संस्मरण। सही कहा आपने की जाने वाले के साथ जा नहीं सकते। जो हैं उन्हीं की ख़ुशी बीके लिए हमे खुश रहना पड़ता हैं।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद ज्योति जी ,आपके स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,सादर नमन
हटाएंजिंदगी रूकती तो हैं नहीं ,जाने वाले की कमी कभी कोई और पूरा नहीं कर सकता
जवाब देंहटाएंबेहतरीन यादों की झलक पढ़ने को मिली
बहुत ही पकड़ भरी लेखन शैली
आभार अच्छा लेखन हम सब से सांझा करने के लिए
आपका मेरे ब्लॉग पर दिल से स्वागत हैं जोया जी ,आपकी इस सकारात्मक प्रतिक्रिया से आपार हर्ष हुआ ,सादर
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद विजय जी ,आपका मेरे ब्लॉग पर तहे दिल से स्वागत हैं ,सादर नमस्कार
हटाएंबहुत रोचक और दिल को छूने वाला संस्मरण, वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है पर भावनाएं नहीं बदलतीं
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद अनीता जी ,सादर नमन
हटाएंbahut achi rachna hai Rahasyo Ki Duniya par aapko India ke rahasyamyi Places ke baare me padhne ko milegi, Rupay Kamaye par Make Money Online se sambandhit jankari padhne ko milegi.
जवाब देंहटाएंRTPS Bihar Plus Services RTPS BIHAR Service Apply for Certificate
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