वायु ,बयार ,पवन , समीर ,हवा के कितने ही नाम हैं और यकीनन रूप भी।" कभी सर्दियों की कंपकपाती सर्द बयार जैसे कोई बोल तो कड़वे बोल रहा हो पर मन को मीठे लग रहे हैं। जैसे कोई सता रहा हो पर उसका सताना भी एक सुखद एहसास करा रहा हो। कभी तो प्यार से उसे झड़क देने का भी दिल करता हैं -" हटों ना क्युँ सता रहें हो,दूर चलें जाऒ " फिर लगता हैं क्या झिड़कना ये दो महीने का मेहमान ही तो हैं। शिकायत भी होती हैं इस सर्द बयार से और याराना भी।
यही सर्द बयार बसंत ऋतु आते आते शीतल मंद बयार का रूप ले लेती हैं। जो निष्तेज़ से पड़ें शरीर में प्राण फुक देती हैं और अंतःकरण को एक सुखद एहसास से भर देती हैं। ये बासंती बयार ऐसे छू जाती हैं जैसे किसी ने कानों में प्यार से कुछ कहा हो और तन -मन रोमांचित हो उठा। बासंती बयार का जिक्र होते ही मुझे बचपन की एक कविता याद आ जाती हैं -
हवा हूँ हवा मैं
बसंती हवा हूँ
बड़ी बावली हूँ
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फिकर हैं ,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ ,
उधर घूमती हूँ।
श्री केदारनाथ अग्रवाल जी द्वारा रचित ये कविता मुझे मुँह जबानी याद होती थी,बासंती बयार चलते ही हम बच्चे झूम झूमकर ये कविता गाते रहते थे। ज्यादा कुछ समझ तो आता नहीं था बस रटे -रटाये बोल ही याद होते थे। बस इतना समझ आता था कि ये बासंती बयार बड़ी चंचल होती हैं। भावार्थ तो अब समझ आता हैं कि ये बासंती बयार सिर्फ चंचल ही नहीं होती बल्कि अल्हड़ ,सोख और मदमस्त भी होती हैं। जिसे भी ये छु ले थोड़ी देर के लिए ही सही उन्हें भी बाबली बना ही जाती हैं। कविता की आखिरी कुछ पंक्तियाँ -
हँसी जोर से मैं ,
हँसी सब दिशाएँ ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे ,
हँसी चमचमाती
भरी धुप प्यारी ,
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी।
ये पंक्तियाँ मुझे बेहद पसंद हैं। हवा का ये बासंती रूप सृष्टि की सबसे सुंदर सौगात हैं और कवियों की पहली पसंद।
ग्रीष्म ऋतू आते आते यही बयार लू का रूप धारण कर लेती हैं। ऐसा लगता हैं जैसे वो हम से बहुत ज्यादा क्रोधित हो गई हो और अपने क्रोधाग्नि में हमें झुलसा देना चाहती हो। हम उसकी क्रोधाग्नि से बचने की हर सम्भव प्रयास करते हैं मगर वो हमें अपनी चपेट में ले ही लेती हैं। फिर हम भी उससे नाराज हो जाते हैं और सोचते हैं कब ये जाएँगी ,इसका आना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा। लेकिन वो हमारी मर्जी कहाँ सुनती हैं ,उसे तो अपनी ही मनमानी करनी होती हैं।
कभी कभार जब यही हवा उग्र होकर आंधी का रूप धारण कर लेती हैं तो ऐसा लगता हैं जैसे अपना कोई प्रिये जो हमारी हर साँस के लिए जरुरी हैं लेकिन आज वो हमसे रुष्ट हो गया हो और हमें हमारी किसी अनजान गुनाह की सजा देने पर उतारू हो गया हो। उस वक़्त ये अंधी बयार, प्यार -दुलार ,अपना पराया सब भूल हर घर ,हर आँगन को उजाड़ने को आतुर हो जाती हैं। सब कुछ तहस -नहस कर आखिर में छोड़ जाती हैं तबाही का मंजर , सन्नाटा सा पसर जाता हैं चहुँ ओर।
सारी तबाही फैलाकर फिर ऐसे शांत पड़ जाती हैं जैसे एक मासूम बच्चा हो ,जो किसी कारण जिद पर आ गया था चीख -चीखकर ,रो -रोकर सब को हलकान कर रहा था ,गुस्से में घर के सामानों को बिखेर था ,उसे पता ही नहीं कि उसकी इस हरकत से उसके घरवालें ,उसके प्रियजन कितना परेशान हो रहे थे ,उनके कुछ कीमती सामानों का नुकसान भी हो गया हैं। वो तो बस अपनी मनमर्जी किये जा रहा था। मगर अब उसका गुस्सा शांत हो गया हैं और वो मुस्कुरा रहा हैं। इतना परेशान करने के बाद भी जब वो बच्चा शांत हो मुस्कुराता हैं तो हम सब भूल जाते हैं ,घर में बिखरी हुई चीजों को समेटते हुए उसकी मीठी मंद -मंद मुस्कान का आनंद उठाने लगते हैं।
वैसे ही ये उग्र बयार सारी तबाही मचाकर जब शांत हो जाती हैं तो एक मासूम बच्चे की मीठी मुस्कान की तरह वातावरण में अपनी शांति और शीतलता बिखेरने लगती हैं। इसके शांत स्वरूप को देख हम गुजरा वक़्त भूलने लगते हैं और एक एक बिखरी चीजों को समेटने लगते हैं। उस मासूम बच्चे की तरह उस हवा से भी हम नारज तो हो ही नहीं सकते हैं न। क्योंकि वही हमारे जीने का सहारा जो होता हैं। हाँ ,थोड़ा दुखी और परेशान जरूर हो रहे होते हैं, झल्लाते हुए घर की सफाई कर रहे होते हैं। तभी ऐसा लगता हैं जैसे वो शांत बयार हमारी मनोदशा समझ गई हो और हौले से पास आकर हमारे कानों में फुसफुसा रही हैं -" उठो ,उदासी छोड़ों ,मुस्कराओं ,ये अंत नहीं हैं "
कभी कभी सोचती हूँ , हमारे रिश्ते भी तो इन हवाओं के जैसे ही होते हैं न ,कभी सर्द ,कभी गर्म ,कभी गुदगुदाती ,कभी झुलसती ,कभी ऐसा जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया और कभी जैसे वो ख़त्म ही नहीं हो सकता साँसोँ के साथ अंत तक चलेगा। हवाएं चाहे अपना जो भी रूप दिखाए हम उससे अपना नाता तो नहीं तोड़तें न। फिर रिश्तों में जरा सी गर्मी- सर्दी बढ़ते ही हम उस से झट से दूर क्यों हो जाते हैं? यकीनन हम जानते हैं कि हवा के बिना हमारा एक पल भी जीवित रहना मुश्किल हैं इसीलिए उसकी सारी अच्छाई बुराई हमें दिल से कबूल होती हैं ,कोई विकल्प जो नहीं हैं। रिश्तों का क्या हैं उससे दूर होकर हम मर थोड़े ही जाएंगे।
क्या सचमुच रिश्तों के होने ना होने से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता ? क्या सचमुच हम उनके बिना जीवित रह लेते हैं? मुझे तो लगता हैं रिश्तों के बिना हमारी साँसे तो चल रही होती हैं मगर हम जिंदा लाश से ज्यादा कुछ नहीं होते। हमारी भावनाएं ,हमारी संवेदनाएं सब कुछ मर चुकी होती हैं। काश ,हम अपने जीवन में रिश्तों को भी ऐसे ही अपने अंदर समाहित कर लेते जैसे हवाओं को कर लेते हैं। उनकी ठिठुरन ,उनकी तपिस ,उनकी क्रोधाग्नि ,उनकी मधुमास सी मिठास को वैसे ही सहजता से स्वीकार लेते जैसे हवाओं को करते हैं।काश, जैसे ही हमारे रिश्ते में असहजता आए खुद को सहज कर लेते और खुद से ही प्यार से बोलते -नारजगी छोड़ों यार ," ये हमारा अंत तो नहीं हो सकता "
बड़ी बावली हूँ
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फिकर हैं ,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ ,
उधर घूमती हूँ।
श्री केदारनाथ अग्रवाल जी द्वारा रचित ये कविता मुझे मुँह जबानी याद होती थी,बासंती बयार चलते ही हम बच्चे झूम झूमकर ये कविता गाते रहते थे। ज्यादा कुछ समझ तो आता नहीं था बस रटे -रटाये बोल ही याद होते थे। बस इतना समझ आता था कि ये बासंती बयार बड़ी चंचल होती हैं। भावार्थ तो अब समझ आता हैं कि ये बासंती बयार सिर्फ चंचल ही नहीं होती बल्कि अल्हड़ ,सोख और मदमस्त भी होती हैं। जिसे भी ये छु ले थोड़ी देर के लिए ही सही उन्हें भी बाबली बना ही जाती हैं। कविता की आखिरी कुछ पंक्तियाँ -
हँसी जोर से मैं ,
हँसी सब दिशाएँ ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे ,
हँसी चमचमाती
भरी धुप प्यारी ,
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी।
ये पंक्तियाँ मुझे बेहद पसंद हैं। हवा का ये बासंती रूप सृष्टि की सबसे सुंदर सौगात हैं और कवियों की पहली पसंद।
ग्रीष्म ऋतू आते आते यही बयार लू का रूप धारण कर लेती हैं। ऐसा लगता हैं जैसे वो हम से बहुत ज्यादा क्रोधित हो गई हो और अपने क्रोधाग्नि में हमें झुलसा देना चाहती हो। हम उसकी क्रोधाग्नि से बचने की हर सम्भव प्रयास करते हैं मगर वो हमें अपनी चपेट में ले ही लेती हैं। फिर हम भी उससे नाराज हो जाते हैं और सोचते हैं कब ये जाएँगी ,इसका आना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा। लेकिन वो हमारी मर्जी कहाँ सुनती हैं ,उसे तो अपनी ही मनमानी करनी होती हैं।
कभी कभार जब यही हवा उग्र होकर आंधी का रूप धारण कर लेती हैं तो ऐसा लगता हैं जैसे अपना कोई प्रिये जो हमारी हर साँस के लिए जरुरी हैं लेकिन आज वो हमसे रुष्ट हो गया हो और हमें हमारी किसी अनजान गुनाह की सजा देने पर उतारू हो गया हो। उस वक़्त ये अंधी बयार, प्यार -दुलार ,अपना पराया सब भूल हर घर ,हर आँगन को उजाड़ने को आतुर हो जाती हैं। सब कुछ तहस -नहस कर आखिर में छोड़ जाती हैं तबाही का मंजर , सन्नाटा सा पसर जाता हैं चहुँ ओर।
सारी तबाही फैलाकर फिर ऐसे शांत पड़ जाती हैं जैसे एक मासूम बच्चा हो ,जो किसी कारण जिद पर आ गया था चीख -चीखकर ,रो -रोकर सब को हलकान कर रहा था ,गुस्से में घर के सामानों को बिखेर था ,उसे पता ही नहीं कि उसकी इस हरकत से उसके घरवालें ,उसके प्रियजन कितना परेशान हो रहे थे ,उनके कुछ कीमती सामानों का नुकसान भी हो गया हैं। वो तो बस अपनी मनमर्जी किये जा रहा था। मगर अब उसका गुस्सा शांत हो गया हैं और वो मुस्कुरा रहा हैं। इतना परेशान करने के बाद भी जब वो बच्चा शांत हो मुस्कुराता हैं तो हम सब भूल जाते हैं ,घर में बिखरी हुई चीजों को समेटते हुए उसकी मीठी मंद -मंद मुस्कान का आनंद उठाने लगते हैं।
वैसे ही ये उग्र बयार सारी तबाही मचाकर जब शांत हो जाती हैं तो एक मासूम बच्चे की मीठी मुस्कान की तरह वातावरण में अपनी शांति और शीतलता बिखेरने लगती हैं। इसके शांत स्वरूप को देख हम गुजरा वक़्त भूलने लगते हैं और एक एक बिखरी चीजों को समेटने लगते हैं। उस मासूम बच्चे की तरह उस हवा से भी हम नारज तो हो ही नहीं सकते हैं न। क्योंकि वही हमारे जीने का सहारा जो होता हैं। हाँ ,थोड़ा दुखी और परेशान जरूर हो रहे होते हैं, झल्लाते हुए घर की सफाई कर रहे होते हैं। तभी ऐसा लगता हैं जैसे वो शांत बयार हमारी मनोदशा समझ गई हो और हौले से पास आकर हमारे कानों में फुसफुसा रही हैं -" उठो ,उदासी छोड़ों ,मुस्कराओं ,ये अंत नहीं हैं "
कभी कभी सोचती हूँ , हमारे रिश्ते भी तो इन हवाओं के जैसे ही होते हैं न ,कभी सर्द ,कभी गर्म ,कभी गुदगुदाती ,कभी झुलसती ,कभी ऐसा जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया और कभी जैसे वो ख़त्म ही नहीं हो सकता साँसोँ के साथ अंत तक चलेगा। हवाएं चाहे अपना जो भी रूप दिखाए हम उससे अपना नाता तो नहीं तोड़तें न। फिर रिश्तों में जरा सी गर्मी- सर्दी बढ़ते ही हम उस से झट से दूर क्यों हो जाते हैं? यकीनन हम जानते हैं कि हवा के बिना हमारा एक पल भी जीवित रहना मुश्किल हैं इसीलिए उसकी सारी अच्छाई बुराई हमें दिल से कबूल होती हैं ,कोई विकल्प जो नहीं हैं। रिश्तों का क्या हैं उससे दूर होकर हम मर थोड़े ही जाएंगे।
क्या सचमुच रिश्तों के होने ना होने से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता ? क्या सचमुच हम उनके बिना जीवित रह लेते हैं? मुझे तो लगता हैं रिश्तों के बिना हमारी साँसे तो चल रही होती हैं मगर हम जिंदा लाश से ज्यादा कुछ नहीं होते। हमारी भावनाएं ,हमारी संवेदनाएं सब कुछ मर चुकी होती हैं। काश ,हम अपने जीवन में रिश्तों को भी ऐसे ही अपने अंदर समाहित कर लेते जैसे हवाओं को कर लेते हैं। उनकी ठिठुरन ,उनकी तपिस ,उनकी क्रोधाग्नि ,उनकी मधुमास सी मिठास को वैसे ही सहजता से स्वीकार लेते जैसे हवाओं को करते हैं।काश, जैसे ही हमारे रिश्ते में असहजता आए खुद को सहज कर लेते और खुद से ही प्यार से बोलते -नारजगी छोड़ों यार ," ये हमारा अंत तो नहीं हो सकता "
आपकी लेखन में जीवन सार निहित होता है, जो बरबस ही पाठकों को खींच लेता है । रिश्तों के मायने समझ पाना मुश्किल है और जो ना समझे उनके लिए जीवन आसान नहीं । बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद पुरुषोतम जी ,लेखिका तो हूँ नहीं बस मन की बातों को कह जाती हूँ ,मेरा मनोबल बढाती आपकी इस प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार आपका ,सादर नमन
हटाएंहँसी चमचमाती
जवाब देंहटाएंभरी धुप प्यारी ,
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि
सही कहा सखी हवाएं चाहे जो भी रूप दिखाए,हम हवा के बिना एक पल भी नहीं रह सकते। बेहतरीन लेख 👌👌👌👌💐
दिल से धन्यवाद सखी ,सादर नमन
हटाएंमुझे तो लगता हैं रिश्तों के बिना हमारी साँसे तो चल रही होती हैं मगर हम जिंदा लाश से ज्यादा कुछ नहीं होते। हमारी भावनाएं ,हमारी संवेदनाएं सब कुछ मर चुकी होती हैं। काश ,हम अपने जीवन में रिश्तों को भी ऐसे ही अपने अंदर समाहित कर लेते जैसे हवाओं को कर लेते हैं
जवाब देंहटाएंउचित कहा आपने,परंतु जबतक अपनों की स्मृतियाँ रहती हैं, न भावनाएँ मरती हैं और न ही संवेदनाएँ ...
ऐसे मनुष्य का जीवन वेदनाओं से भरा रहता है। वह स्वयं के प्रति तनिक सहानुभूति रखने वाले ग़ैरों से अपनापन पाने केलिए ताउम्र भटकता रहता और सारा स्नेह लुटा कर भी उसे बदले में क्या मिलता है- सिर्फ तिरस्कार,
ग्लानि और अपराध बोध।
भावपूर्ण सृजन, नमन।
दिल से धन्यवाद शशि जी ,अपने हैं तो रिश्ते हैं और रिश्ते हैं तो उनकी स्मृतियाँ हैं ,और स्मृतियाँ हैं तो संवेदनाएं जीवित हैं ,आपकी इस सुंदर समीक्षा के लिए आभार ,सादर नमन
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(०१-०२-२०२०) को "शब्द-सृजन"-६ (चर्चा अंक - ३५९८) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
-अनीता सैनी
सहृदय धन्यवाद अनीता जी ,मेरी रचना को चर्चामंच पर स्थान देने के लिए दिल से आभार ,सादर स्नेह
हटाएंबहोत सकारात्मकता के साथ छापा है आपने ये लेख।
जवाब देंहटाएंहवा के कितने ही रूप हैं सब कुछ न कुछ सिखाते हैं हमें जीवन से जुड़ी सचाइयों को।
रिश्तों के बगैर हम सब जिंदा लाश ही तो हैं। एकांकी जीवन भी कोई जीवन हुआ भला।
बेहद उम्दा।
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है- लोकतंत्र
दिल से धन्यवाद सर ,आपकी इस सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार ,सादर नमन
हटाएंहवा के समस्त स्वरूप प्रकट हुए हैं आपके लेख में ...सदैव की तरह सारगर्भित लेख कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद मीना जी ,आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,नमन
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 03 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद दी ,मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार एवं सादर नमन
हटाएंप्रकृति की सुंदरता और रिश्तों की मधुरता का सुन्दर प्रस्तुतीकरण बेहतरीन
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद आदरणीय ,आभार सादर नमन आपको
हटाएंबहुत सुंदर !कितने भाव लेकर आगे बढ़ता लेख ।
जवाब देंहटाएंबसंत ,बसंती हवा रिश्ते बहुत कुछ समेटा है आपने।
रिश्तों के बगैर जीता तो जरूर है इंसान पर रस और सौरभ से हीन पुष्प की तरह जो शायद आकर्षक तो रखता है पर निरर्थक ।
या फिर गौतम महावीर जैसे धरातल पर उगे रिश्तों से निकल विश्व से रिश्ता जोड़ लें।
बहुत बहुत सुंदर प्रस्तुति।
सहृदय धन्यवाद कुसुम जी ,मेरी लेख से भी ज्यादा सुंदर आपकी प्रतिक्रिया पाकर मैं धन्य हो जाती हूँ।
हटाएंआपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,सादर नमन
वाह!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक सार्थक एवं सारगर्भित लेख....
हवा के कितने रूप सामने रखें हैं आपने वह भी बेहद खूबसूरती से...और फिर रिश्ते और इनमें आती गर्माहट...
-नारजगी छोड़ों यार ," ये हमारा अंत तो नहीं हो सकता
वाह!!!
कामिनी जी बहुत ही भावपूर्ण लाजवाब लेख
दिल से शुक्रिया सुधा जी ,आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया हमेशा मेरा मनमोह लेती हैं ,आभार एवं सादर नमस्कार आपको
हटाएं