गुरुवार, 14 दिसंबर 2023

कर्मानन्द और भाग्यनंद

"यूट्यूब" ज्ञान बाँटने की सबसे बड़ी पाठशाला। वही के ज्ञानी बाबा के मुख से मेरी बहन की लड़की ने एक कहानी सुन ली। (जो अभी 18 साल की है ) उसने वो कहानी मुझें सुनाई और मुझसे अपने कुछ सवालों के जबाब मांगने लगी। उस कहानी को सुन मैं थोड़ी confuse हो गई। आजकल के बच्चें हमारी तरह तो है नहीं। हमें तो बड़े जो समझा देते थे बिना तर्क-वितर्क के मान लेते थे। आज के पीढ़ी के पास तो ज्ञान बाँटने का महासागर पड़ा है अब वो ज्ञान कितना सही है या गलत उसे भी वो उसी जगह खोजते हैं। 

कहानी कुछ इस तरह है- एक कर्मानन्द थे एक भाग्यनंद,दोनों ही अपने आपको बड़ा मानते थे। जब वो खुद इस बात का फैसला नहीं कर सकें तो पहुचें ज्ञानिनंद के पास कि -"आप इसका फैसला कीजिये। ज्ञानिनंद ने कहा कि "मैं तुम दोनों को आज रात एक अँधेरे कोठरी में बंद रखूंगा और सुबह तुम दोनों का फैसला सुनाऊँगा। दोनों राजी हो गए और अँधेरी कोठरी में बंद हो गए। रात को उन्हें बहुत जोर की भूख लगी क्योंकि ज्ञानिनंद ने उन्हें कुछ खाने को दिया नहीं था। कर्मानन्द जी अपने कर्म में लग गए,अँधेरे में ही कोठरी में खाने की कुछ चीज तलाशने लगे। ढूंढते-ढूंढते उन्हें एक मटका मिला टटोला तो उन्हें समझ आया कि -इसमें कुछ भुने चने है, वो उसे मजे से खाने लगे। उधर भाग्यनंद भगवत भजन कर रहे थे और इस उम्मींद में थे कि-भगवान उनके लिए कुछ जरूर करेंगे। कर्मानन्द चने खा रहा था तो बीच-बीच में कुछ कंकड़ आ जाता वो उसे निकल कर भाग्यनंद की तरफ फेंक देता। भाग्यनंद पहले तो झल्लाया फिर उन कंकड़ों को ये कहते हुए इकठ्ठा करने लगा कि-शायद ईश्वर ने उसके भाग्य में आज यही दिया है। खैर, सुबह हुई ज्ञानिन्द आये तो कर्मानन्द ने खुश होते हुए रात का अपना करनामा कह सुनाया। ज्ञानिनंद ने भाग्यनंद से पूछा "तुमने क्या किया " तो वो बोला मैंने ये मान लिया कि-भगवान ने मेरे भाग्य में भूखा  रहना ही लिखा था और मैं कर्मानन्द के फेंके पथ्थरों को चुन-चुनकर अपने अगौछे में बांधता रहा। ये कहते हुए उसने अपने अंगोछे की गांठ खोली तो उसकी आँखे चौंधिया गई वो जिसे पथ्थर समझकर इकठ्ठा कर रहा था वो तो सारे हीरे निकलें। कहानी को ख़त्म करते हुए यूट्यूब के ज्ञानी बाबा ने कहा कि-अब आप खुद ही समझ ले "कर्म और भाग्य में अंतर " (मुझे यहाँ ये बताने की आवश्यकता नहीं कि-वो बाबा जी एक ज्योतिषाचार्य थे।)

अब मेरी बेटी का सवाल ये था कि -"जब भगवान ही हमे सब कुछ दे देंगे तो हम बे वजह इतनी मेहनत क्यों करते हैं।" मैंने कहा -बेटा हमने तो अपने गुरुजनों से यही सीखा और समझा है कि " आपका कर्म ही आपका भाग्य निर्धारित करता है,भगवन भी उसी को देते हैं जो कर्म करता है,बैठे-बिठाये सिर्फ भजन करने से तो कुछ नहीं मिलता "

उसने कहा- लेकिन आज के सन्दर्भ में तो बाबा जी की कही बात ही सही दिखाई दे रही है। क्योंकि आज बिना किसी काबिलियत के अकर्मक लोग गुलझरे उड़ा  रहे है और काबिल तथा कर्मठ लोगों की कोई कद्र ही नहीं है। अब इंस्ट्राग्राम और यूट्यूब पर ही देख लो क्या हालत है। 

मैंने कहा-लगता है ये कहावत सच हो रही है कि "रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा युग आएगा,हँस चुनेगा दाना-तिनका और कौआ मोती खायेगा "

ये कहते हुए मैंने अपनी बेटी से मुँह छुपा लिया और क्या कहती आज के हालत को देखते हुए। 

आप क्या कहते हैं ?????

गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

माँ तुम बदल गयी हो...






माँ तुम बदल गयी हो....मनु ने बड़े प्यार से मुझे अपनी बाँहों में पकड़ते हुए कहा। अच्छा....कैसे बदली लग रही हूँ.....तुम्हे डांट नहीं लगा रही हूँ इसलिए। वो हँसकर थोड़ी इतराते  हुए बोली -अरे नहीं यार, मुझे पता है अब मैं बड़ी हो गयी हूँ और थोड़ी समझदार भी इसलिए....तुम मुझे नहीं डांटती.....मैं तो ये महसूस कर रही हूँ कि-तुम अब पहले से शांत हो गई हो,ना गुस्सा ना किसी बात पर रोक-टोक करना , ना किसी बात की चिंता-फ़िक्र करना,मैं जो भी कहती हूँ बिना सवाल किये "हाँ "कह देती हो सच कहूं तो अब तुम मुझे बच्ची सी प्यारी-प्यारी लगने लगी हो।

     मैंने हँसते हुए कहा-अच्छा! उसने कहा-हाँ बिल्कुल। मैं उसका हाथ पकड़कर अपने पास बिठाते हुए बोली-बेटा जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है न वैसे-वैसे खुद में कुछ बदलाव करना जरुरी होता है....बच्चों को अच्छे संस्कार देने के लिए, उनके उज्वल भविष्य के लिए हमें सख्ती का आवरण ओढ़ना जरूरी होता है....लेकिन जब बच्चें बड़े हो जाते है और समझदार भी तो, हमें भी उनकी समझदारी पर भरोसाकर उनसे उचित दुरी बना लेनी चाहिए.....उनके भले-बुरे की चिंता भी उन्ही पर छोड़ देनी चाहिए....उनके निर्णय का सम्मान करना चाहिए.....जबरदस्ती की अपनी मर्जी उनपर नहीं थोपनी चाहिए। 

 बस, शांत भाव से उनपर छिपी हुई एक नज़र भर रखनी चाहिए जब कही कुछ गलती देखें तो एक बार समझा भर देना चाहिए ये कहते हुए कि- इस बात पर विचार करना मेरे मत से ये सही नहीं है इसका खामियाज़ा तुम्हे भविष्य में भुगतनी पड़ सकती है बस, इसके आगे मौन और जब बच्चें सफल और समझदार हो जाये तो फिर हर चिंता छोड़ देनी चाहिए हमें ये यकीन रखना चाहिए कि -आज तक हमने बच्चों का हाथ पकडे रखा है तो जब वक़्त आएगा तो वो भी हमें संभाल ही लगे।  और हाँ,जहाँ तक तुम्हारी बात मानाने का सवाल है तो चौबीस साल तक तुम मेरी बात को सर झुककर मानती रही हो तो अब ये मेरी बारी है.....क्युँ सही कहा न ? वो मुस्कुराते हुए मुझसे लिपट गई। 

एक बात और कहूँ बेटा "जैसे जैसे उम्र आगे बढ़ती है न हमें पीछे की ओर लौट ही जाना चाहिए यानि "बच्चा" ही बन जाना चाहिए तभी बच्चों का भरपूर प्यार मिलेगा और जीवन का असली आंनद भी " 

बुधवार, 22 नवंबर 2023

"हमने देखी है "


हमारी पीढ़ियां  बदलाव की अप्रत्याशित दौर को देख रही हैं । कभी-कभी यकीन करना भी मुश्किल हो जाता है।गुजरा जमाना सपने सा लगता है और जो गुजर रहा है वो अपना नहीं लग रहा है और आने वाला कल डरा रहा है। 

वो हम ही है जिन्होंने रक्षाबंधन पर्व से लेकर छठ पर्व तक अति उत्साह और उमंग से भरे बचपन को जिया है, वो हम ही हैं जो छठ पूजा पर समस्त खानदान को एकत्रित होते देखा है,पूजा की पवित्रता और उसके सभी रीत- प्रीत को पुरी श्रद्धा - भक्ति से निभाते अति हर्षित एक-एक चेहरे को देखा है, त्योहारों पर मिलकर एक दूसरे पर प्यार और आशीर्वाद लुटाते अपनों को देखा है और अब भी वो हम ही हैं जो टुटते घरों को देख रहे हैं, एक-एक कर के  दूर होते हुए अपनों को देख रहे हैं,त्योहारों के अति विकृत होते स्वरूपों को भी देख रहे हैं।

   याद है हमें वो दिन भी जब, छठ पूजा पर दादी  के घर सारा खानदान यानी दादा का परिवार ही नहीं दादा के सारे भाइयों का परिवार भी एकत्रित होता था।फिर आया माँ का दौर तब भी दादा का पूरा परिवार जिसमे चचेरे हो या फुफेरे सभी अपने थे, जो एकजुट होकर त्योहार की खुशी मनाते थे।फिर आया हमारा दौर हम सिर्फ अपने भाई बहनों के साथ ही निभा रहे थे। लेकिन हम इसे भी ज्यादा दिनों तक संभाल नहीं पाए और सब से दूर हो कर कुछ दिखावे के दोस्तों तक सीमित रहने लगे।बीते कुछ सालों से खास तौर से करोना काल से ऐसे एकल हुए कि वो दोस्त भी कब छूट गए पता ही नहीं चला और अब ना जाने कौन सा युग शुरू हुआ जिसे समझना मेरे लिए तो बहुत मुश्किल हो रहा है।आज त्योहार सिर्फ सोशल मीडिया पर दिखावा भर बन कर रह गया है। सजना-संवरना सब कुछ हो रहा है है मगर, उत्साह- उमंग, श्रद्धा-भक्ति, प्यार और अपनापन ना जाने कहा खो गया। त्योहारों पर भी सिर्फ अपने परिवार के दो चार सदस्य वो भी त्योहारों से जुड़े रस्मों को बस दिखावे के तौर पर निभाकर गुम हो जाते हैं इस मोबाइल रूपी मृग मरीचिका में। और हमारी पीढ़ी गुज़रे ज़माने में खोई हुई जबरन अपने संस्कारों की अक्षतों को समेटने की कोशिश करती रहती है, आज और कल में सामंजस्य स्थापित करती ढूंढती फिरती है उस खुशी और उमंग को, कहना चाहती है सबसे कि " हमने देखी है रक्षाबंधन में भाई- बहनों के निश्छल प्रेम को, महसूस किया है नवरात्रि में भक्ति के शीतल व्यार को, भाई दूज में कच्चे सूत से बंधे पक्के रिश्तो को, छठ पूजा के चार दिनों के कठिन कर्मकांडो को भी उत्साह और उमंग से निभाते अपनों को, मगर......वो भी नहीं कह सकते क्योंकि सुनेगा कौन...??? फिर थक कर उदास हो बीती यादों को समेटे बैठ जाती है एक कोने में....सोना चाहती है अतीत के तकिये पर सर रखकर मगर.....सो नहीं पाती, उलझी जो है अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित करने में...... अगली सुबह सोच रही होती है 

त्योहार कब आया और कब चल गया पता ही नहीं चला........

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...