शनिवार, 2 मई 2020

एक चेहरे पे कई चेहरे ...

   
 


  अरुण अपनी  शादी की 12वी  सालगिरह मना रहा था, छोटी सी पार्टी थी, उसके कुछ खास दोस्त अपनी पत्नियों के साथ आये थे। हँसी -ढहाको का दौर चल रहा था , अरुण अपने दोस्तों के साथ मस्त था और उसकी पत्नी सुहानी सबकी आवो-भगत में लगी थी। अरे, भाभी आप भी आओ न... कहाँ बीजी हो आप -अरुण के दोस्त सुरेश ने सुहानी को आवाज़ दी। हाँ -हाँ सुहानी आ जाओ तुम भी- अरुण का ध्यान सुहानी के तरफ गया और उसने भी उसे आवाज़ दी।अभी आई -सुहानी ने हँसते हुए कहा और  जूठे बर्तनो को समेटते हुए  किचन में चली गई। तभी अरुण ने आवाज़ लगाई-  अरे, सुहानी आना तो सबके लिए कॉफी बनाकर भी लेते आना ....डिनर के बाद कॉफी पीने का मज़ा ही अलग होता है.... क्युँ हैं न यार , वो सुरेश की तरफ मुखातिब होकर बोला। अरे ,छोडो ना यार भाभी को कितना परेशान करेगा -सुरेश ने टोका। कॉफी ही तो बनानी है कौन सा मुश्किल काम है -अरुण लापरवाही से बोला। सुहानी कॉफी लेकर आई सबको पकड़ते हुए अपनी कॉफी का कप हाथ में लिए उन सब के बीच आकर बैठ गई। कोई लफ़ीते सुना रहा था तो कोई अपनी  पत्नी के शान में कशीदें पढ़ रहा था और पत्नियाँ अपने पति की कमियाँ गिना रही थी और सब ठहाके लगा रहें थे। सुहानी भी उनकी हँसी में अपनी हँसीं मिलाने की कोशिश कर रही थी। हँसते-हँसते उसकी नजर आईने में दिखती अपनी परछाई पर गई... उसे अपना ही चेहरा अजनबी सा लगने लगा। क्या  "ये मैं ही हूँ" क्या मैं जो दिखती हूँ वैसी ही हूँ....कितने मुखोटे लगा रखे हैं मैंने अपने चेहरे पर...ख़ुशी के,संतुष्टि के ...मैं तो अपना ही चेहरा नहीं पहचान पा रही हूँ- कई सवाल खुद-ब-खुद उसके होठों पर आ गए। वो अपने ही अक्स में खुद को तलाशने लगी। 
   तभी अरुण उसके करीब आकर बैठते हुए बोला-देख रही हो न..धीरज अपनी  बीवी के शान में कितने कशीदें पढ़ रहा है, कमीना कही का ...अगर इतनी ही प्यारी है तो बाहर क्यों गुलछर्रे उडाता है... वो रोहन को देखो बहादुरी के कितने डींगे मार रहा है घर जाए बीवी भींगी बिल्ली बना देगीं....और देखो सबसे कमाल के तो सुरेश जी है...दुसरो की बीवियों की परवाह करना कोई इनसे सीखे....अपनी बीवी के मरने जीने की खबर ही नहीं रहती इन्हें।  सुहानी बोली-  उन्हें छोड़िए ,अस्थाना जी को देखिये ...कितना मुस्कुरा रहें हैं....जबकि उन्हें अच्छे से पता है वो अब चंद दिनों के मेहमान है....मौत उनका बुलावा लेकर कभी भी आ सकती है। हाँ यार,यहाँ हर एक के चेहरे पर एक मुखौटा लगा है....बदचलनी पर शराफत का ....बेईमानी पर ईमानदारी का....तो किसी के दर्द भरे चेहरे पर ख़ुशी  का-अरुण ने कहा। 
     सुहानी पतिदेव के चेहरे को गौर से देखती हुई बोली-  हाँ ,सच कह रहे हैं आप, ऐसा लगा जैसे वो भी अरुण को  पहचानने की कोशिश करती हुई....खुद से ही सवाल कर  रही हो -शादी के 12  साल के लम्बे सफर के बाद भी क्या मैं आपको और आप मुझे जान पाए है....हमने भी तो अपने चेहरे पर कई मुखौटे लगा रखें हैं....और सबसे बड़ा मुखौटा हैं "समझौते" का। सुहानी की चेहरे पर शायद सारे सवाल उभर आये थे...अपनी तरफ उठी हुई उसकी  आँखो को देख अरुण थोड़ा सहमा...और वो भी सुहानी के चेहरे को निहारने लगा....शायद, वो सुहानी के चेहरे पर आए सवालो को पढ़ने की कोशिश कर रहा था  ... आज सुहानी उसे थोड़ी अजनबी सी लगी ...

   सुहानी गहरी साँस लेते हुए बोली- हाँ , हम सब ने  "दिखावट का मुखौटा" लगा रखा हैं। "मुखौटा" यानी एक चेहरे पर लगा दूसरा चेहरा ....कभी-कभी तो एक ही चेहरे पर कई-कई मुखौटे लगे होते हैं....कही, पाप के मुख पर पुण्य का मुखौटा....कही, दुःख दर्द पर हँसी का मुखौटा.....कही, बेबसी-लाचारी पर आत्मनिर्भरता का  मुखौटा....कही, कई-कई बंधनो में हाथ-पाँव ही नहीं आत्मा तक बंधी होने के वावजूद खुद को बंधन मुक्त दिखाने का मुखौटा.... ये जीवन ही तो असली रंगमंच है जहाँ जरूरत और सहूलियत के मुताबिक मुखौटे बदलते रहते हैं.... हमने खुद पर इतने मुखोटे लगा रखे हैं कि - खुद ही खुद का असली चेहरा भूल गए है- कहते हुए सुहानी ने जूठे कप समेटे और चल पड़ी किचन की ओर...

" शोहरत "


     शोहरत ,प्रसिद्धि ,प्रतिष्ठा एक व्यक्ति के जीवन में ये शब्द बड़े मायने रखते हैं और इस" शोहरत रुपी फल" को खाने के लिए सभी लालायित भी रहते हैं। लेकिन ये फल खाना तो दूर उसे पाना भी आसान नहीं और अगर पा लिया तो खा कर पचाना भी आसान नहीं। शोहरत बाजार में बिकती तो हैं नहीं इसे खुद कमाना पड़ता हैं। इसे पाने  के लिए पहले खुद में दृढ़ इच्छाशक्ति का बीजारोपण करना होता हैं फिर अथक मेहनत से कर्म कर उसे सींचना होता हैं ,जब ये बीज अंकुरित होने को होता  हैं तो उस पल प्रकृति आपकी परीक्षा लेती हैं और  वक़्त बे वक़्त के आंधी -तूफान जैसी बिपरीत परिस्थितियां  आती रहती हैं ,कभी कभी तो ओला वृष्टि भी हो जाती हैं। उस पल इन परस्थितियों से घबराये बिना ,अपनी हिम्मत और अपनी हौसलो की मजबूत कर्मठ बाहों में उस अंकुरित बीज को समेटकर सुरक्षित रखना होता हैं तब कही जाकर वो बीज पेड़ बनता हैं और फिर उस पर शोहरत के फल लगते हैं।
    अथक  प्रयास के बाद जब  शोहरत मिल भी जाती  हैं तो भी उस फल का स्वाद मीठा तभी होगा जब उसको पाने के बाद आपको आत्मसंतुष्टि मिले वरना वो फल भी कड़वा ही लगेगा।उस शोहरत को संभालना भी बेहद जरुरी होता हैं उसका " मद " यदि सर चढ़ गया तो वो नासूर बन जाता हैं। शोहरत के फल को पचाना भी तभी सम्भव होगा जब आप अपने पैर जमीन पर टिकाए रहेंगे ,साथ ही साथ सयम,विनम्रता  और सज्जनता बनाए रखेंगे।

    हमें तो सिर्फ व्यक्ति विशेष की प्रसिद्धि दिखाई देती हैं उसके सफर की कठिनाईयां  नहीं। शोहरत और प्रसिद्धि पाने वाले कई महान व्यक्ति की जीवन गाथा जानने के बाद उनके हौसले के प्रति नतमस्तक होना पड़ता हैं।
संगीत के सम्राट कहे जाने वाले नौशाद जी ,जिनके नाम पर मुंबई में एक मार्ग भी  हैं,  उन्होंने भी एक दिन में ये उपाधि अर्जित नहीं की थी। 16 साल के कठिन सफर से उन्हें गुजरना पड़ा था।  16 साल अपने लक्ष्य को पाने के लिए वो सघर्षरत रहें। कहते हैं- उनके द्वारा संगीतबद्ध की हुई  उनकी पहली फिल्म " बैजू बाबरा "ने  ब्रॉड -वे  सिनेमा हॉल में अपनी गोल्ड जुबली मनाई। उसी  ब्रॉड-वे सिनेमा हॉल में उस सफलता का  जश्न मनाया जा रहा था,  उस वक़्त सारे पत्रकार उन्हें ढूँढ रहे थे और  नौशाद जी उसी सिनेमा हॉल के  बालकनी में खड़े होकर रो रहे थे। तब फिल्म के डायरेक्टर विजय भट्ट जी ने उनसे पूछा - " क्या ये ख़ुशी के आँसू हैं ?"  तो नौशाद जी उस बालकनी के सामने से जाती चौड़ी सड़क के उस पार फुटपाथ की ओर इशारा करते हुए बोले -" विजय जी ,उस पार के फुटपाथ से इस पार आते -आते सोलह साल लग गए ,सोलह साल पहले कई सालो तक वही  फुटपाथ ही मेरा घर था जहाँ कई राते मैंने सिर्फ पानी पीकर काटी हैं,जहाँ पर जागती आँखों से यहाँ तक आने के सपने देखता था,मगर ना कभी हिम्मत हारी ना आँसू बहाए ,ये वही आँसू हैं जो उस वक़्त बहा नहीं पाया था। "

" शोहरत " जिसे पाने के लिए कई त्याग करने होते हैं और कितनी ही  कठिन परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ता हैं तब कही जाकर हम इसका रसपान कर पाते हैं। 

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

साथ हो माझी तो किनारा भी करीब है....



     मन थोड़ा विचलित सा हो रहा था.... शायद, अकेलेपन से घबड़ा रहा था.... सोची,  थोड़ी देर छत पर जा कर खुली हवा में  बैठती हूँ.... शायद,  थोड़ा अच्छा लगे। छत से समुन्द्र का नजारा भी सुंदर दिखता है... मैं कुर्सी पर बैठी-बैठी समुन्द्र की लहरों को देखती रही... पता नहीं,  क्या ढूँढ रही थी उसमे....शायद, एक झूठी उम्मींद सी थी कि - इसमें से कोई देवदूत बाहर आएगा और मुझे मेरी सारी समस्याओं से निजात मिल जायेगी । मेरी आँखें  पूरी समुन्द्र का मुआयना कर जैसे,  सचमुच कुछ ढूँढ रही थी। तभी लहरों पर हिचकोले लेती एक नाव दिखाई पड़ी... बिना नाविक के ...शायद,  किसी मछुआरे की नाव डोर से टूटकर समुन्द्र में बह आई थी। लहरों के साथ वो अल्हड़ सी नाव.... कभी इधर डोलती कभी उधर। लहरों और हवाओं का साथ पाकर कभी-कभी वो किनारे तक आने में सफल होती दिखाई पड़ रही थी....मगर,  जैसे लगता कि- अब तो वो किनारे पर आ ही जाएगी... तभी कोई बिपरीत लहर आकर उसे फिर से किनारे से दूर कर देती। उसे देख मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी ...क्या ये नाव किनारे तक आ पायेगी ? दिल ने उसके लिए दुआ भी करनी शुरू कर दी....काश,  ये नाव किनारे तक सुरक्षित पहुँच  जाती... तो एक मछुआरे का नुकसान होने से बच जाता। पता नहीं कैसे,उस नाव को देखते-देखते मुझे ये लगने लगा जैसे वो नाव नहीं "मैं" खुद हूँ। मेरी जीवन नईया भी तो ऐसे ही डगमग डोल रही है...जब भी अथक प्रयास कर,  मैं अपनी मंजिल तक पहुँचने को होती हूँ... तभी कोई ना कोई बिपरीत परिस्थितियों  की लहर मुझे  धकेलती हुई फिर से मझधार में ला खड़ी करती है और "मैं" फिर से किनारे तक पहुँचने के जुगत में लग जाती हूँ....फिर से हिम्मत जुटती हूँ और फिर से एक नई शुरुआत करने को विवश हो जाती हूँ। क्या , इस नाव की तरह मैं भी हिचकोले ही खाती रहूँगी..... मुझे, अपना किनारा  कभी मिलेगा भी या नहीं?  अब तो मेरी उत्सुकता और बढ़ गई... ऐसा लगने लगा जैसे, अगर ये नाव किनारे पर आ लगेगी तो,  एक- न -एक  दिन अवश्य मैं  भी अपनी मंजिल पा ही लूँगी।
घंटों मैं  बैठी,  नाव को देखती रही.... नाव किनारे पर आने में असमर्थ होती और मेरा दिल बैठने लगता ..तभी दूर से एक और नाव आती दिखाई दी.... उसकी चाल देखकर लग रहा था वो बिना माझी  की नाव नहीं है... उसकी पतवार किसी ने सम्भाल रखी है....वो नाव धीरे-धीरे करीब आती गई... माझी ने मझधार में डोलती नाव पर कुछ काँटे जैसा फेका जिससे वो नाव माझी के हाथ में थमी उस मजबूत डोर से बँध गई , माझी उस नाव को साथ लेकर किनारे की तरफ बढ़ने लगा। दोनों नाव सही सलामत किनारे आ लगी थी। मेरी जान में जान आई... ऐसा लगा जैसे मुझे किनारा मिल गया हो। समझ में आ गया था कि -यदि माझी साथ हो तो नाव को किनारा जरूर नसीब होता हैं । मेरा माझी  भी तो हर पल मेरे साथ हैं... भले ही वो मुझसे दूर सही... मगर, एक मजबूत डोर से उसने मुझे खुद से बाँध रखा हैं....फिर,  मैं क्युँ डर रही हूँ ... देर से ही सही.... मुझे भी एक-न -एक दिन किनारा जरूर मिलेगा ....जब,  साथ हो माझी तो  किनारा भी करीब है....

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...