शुक्रवार, 27 मार्च 2020

" मन और मानवता "


 मानव " हाड़ -मांस- रक्त से निर्मित सृष्टि की सबसे नायब कृति और " मन "  मानव शरीर का वो अदृश्य अंग जो दिखाई तो नहीं देता मगर होता सबसे शक्तिशाली हैं।मानव का मन ही समस्त शक्तियों का स्त्रोत होता हैं। काम-, क्रोध लोभ- मोह, ईर्ष्या -द्वेष, पाना- खोना, हँसना- रोना ये सारे कर्म मन ही करता हैं। 

मन ही देवता, मन ही ईश्वर
मन से बड़ा ना कोए
मन उजियारा जब जब फैले
जग उजियारा होये
और  " मानवता " यानि " मानव की मूल प्रवृति "   प्राणी मात्र से प्रेम  ,दया- करुणा,परोपकार, परस्पर सहयोगिता ही मानवता हैं और  विश्व में प्रेम, शांति, व संतुलन के साथ-साथ मनुष्य जन्म को सार्थक करने के लिए मनुष्य में इन मानवीय गुणों का होना अति आवश्यक है। " जिस मन में परमात्मा का वास हो वहाँ मानवता का वास स्वतः ही हो जाता हैं।" मानवता में ही सज्जानता निहित हैं। मानव होने के नाते जब तक हम दूसरो  के दु:ख-दर्द में साथ नहीं निभाएंगे तब तक ये जीवन सार्थक नहीं हैं और हम मानव कहलाने के योग्य भी नहीं हैं।वर्तमान में हमने मानवता को भुलाकर अपने आप को जाति-धर्म, उच्च -नीच ,गरीब-अमीर जैसे कई बंधनों में बांध लिया हैं। हमारे अति पाने की लालसा और स्वार्थ में लिप्त हमारी बुद्धि ने हमारे मन को विकार ग्रस्त कर दिया हैं.और हमने  इन सभी मानवीय गुणों से खुद को रिक्त कर लिया हैं। 


और आज मानवता खोने के कारण ही पूरा विश्व त्राहिमाम कर रहा हैं। एक देश की लापरवाही ने पूरी मानव जाति को संकट में डाल रखा हैं। कोई भी अविष्कार यदि प्रकृति , मानव और मानवता के भले के लिए हो तो  हमारी उपलब्धि हैं मगर उनका ये अविष्कार मानवता के हनन के लिए था। मगर कहते हैं न कि -" प्रत्येक इफेक्ट का एक साइड इफेक्ट भी होता हैं। " इस भयावह महामारी में डॉक्टर ,नर्स ,पुलिसकर्मी और सफाईकर्मियों की  एक एक बलिदान की घटना जो सुनने को मिल रहे है तो यकीन हो रहा हैं कि -" आज भी मानवता जिन्दा हैं "बिलकुल मृत नहीं हैं बस आवश्यकता हैं उसे फिर से सींचने की।और ये वही वक़्त हैं जब हमें प्रकृति ने डराकर, सचेतकर मानवता को सीचने का  अवसर दिया हैं ,वो कह रही हैं  -" अब भी वक़्त हैं सम्भल जाओं ,वरना मैं तुम्हारा समूल नाश करने से नहीं चुकूँगी। 
" कोरोना " हमसे कह रही हैं -करो- ना ( नहीं करो ) यानी 
प्रकृति का हनन नहीं करों ,
संस्कृति -सभ्यता का हनन नहीं करों 
बेजुबानो का हनन नहीं करों 
आवश्यकता से अधिक के लालच में आकर परिवार का हनन नहीं करों 
मानवता का हनन नहीं करो 
इस धरा से प्रेम ,विश्वास ,भाईचारा का हनन नहीं करो 
कोरोना कह रही हैं ---एक बार सोचो --मानव से मानव का कितना गहरा संबंध हैं --एक मानव ने पुरे विश्व में मुझे फैला दिया ---सिर्फ छूकर ---मैं फैली हूँ सिर्फ छूने से। ये बता रही हैं मानव का मानव के लिए क्या अहमियत हैं। हम लाख खुद को परिवार से समाज से अलग कर ले लेकिन --जैसे पानी पर लकीरे नहीं खींची जा सकती---वैसे ही मानव से मानव का दूर होना सम्भव नहीं हैं---लकीरे खींचकर देश अलग हो जाते हैं मानव नहीं। अपने  अच्छे बुरे कर्मो से जब एक देश का मानव दूसरे देश को भी चपेट में ले सकता हैं तो हमारे कर्मो का  हमारे परिवार, हमारे समाज और हमारे देश  पर कितना गहरा असर होता होगा । " कोरोना " समझा रही हैं --मानव से मानव की श्रृंखला सिर्फ स्पर्श मात्र से जब रोग फैला सकती हैं तो क्या प्रेम ,अपनत्व ,भाईचारा नहीं फैला सकती। मगर आज  मानवता की सबसे बड़ी सेवा यही  होगी कि -" हम खुद को भी इस महामारी से सुरक्षित रखे और अपने परिवार ,समाज और देश को भी। "









शनिवार, 21 मार्च 2020

" मिलावट अच्छी हैं "

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    समाज के चंद लोगो ने अपने स्वार्थ में लिप्त होकर हम्रारे जीवन के उन सभी मुलभुत  जरुरत की चीजों में  अपनी लालच की मिलावट करते गए और पूरा समाज आँखें मूंदे इन मिलावट को बर्दास्त करता रहा।अनाज में रसायन ,फल और दूध  में रसायन ,सब्जियों में रसायन मिलते रहे और हम देखते ही नहीं रहे बल्कि उसका सेवन भी बिना हिचके करते रहें। कर भी क्या सकते थे ?खाना पीना बंद तो नहीं कर सकते थे। भोजन ही नहीं बाजार में नकली दवाओं का भी सम्राज्य फैल गया मगर हम चुप रहें ,हमें क्या ? यहाँ तक कि -जीवित रहने के लिए सबसे जरुरी हवा और पानी जिसे प्रकृति ने हमें  बिना मोल दिया था उसमे भी हमने जहर मिला दिया और आज मिलावट का रोना भी हम ही रो रहे हैं।आज .. हद तो तब हो गई, जब एक देश की बेवकूफी और लापरवाही ने सम्पूर्ण विश्व के वातावरण में चिंता ,डर ,खौफ और मौत की मिलावट कर दी हैं।क्या  अब भी हम नहीं जागेंगे ?  विज्ञान और वैज्ञानिकों ने खुद को भगवान ही समझ रखा हैं मगर -" प्रकृति कभी भी किसी को भी नहीं बख्शती.....हाँ ,जैसे जौ के साथ घुन भी पीसते हैं वैसे ही हम भी उनके गुनाहों में पीस रहें हैं ...

    आज "  मिलावट " का सम्राज्य अपनी सारी  हदों को पार कर चुका  हैं और अब तो हम इस मिलावट के आदि भी  हो गए हैं।  मिलावट करने की प्रवृति हम में इस कदर समाहित हो गई हैं कि हमें  खुद ही आभास तक नहीं होता कि -हम कब - कब, कहाँ -कहाँ, कैसी- कैसी मिलावट कर जाते हैं। हमने अपने धर्म ग्रंथो  में मिलावट की ,अपने संस्कारों में मिलावट की ,अपनी स्नेह और सहयोग में मिलावट की, यहां तक कि - आज ममता भी मिलावटी हो गई हैं। कितना गिरेंगे, कहाँ तक गिरेंगे ,कही रुकेंगे भी या नहीं ? 
    हमारी हर गलती हमे सबक भी सिखाती हैं मगर सबक सीखना कौन चाहता हैं ?  जब पहली बार प्रगति के नाम पर हमारे खाध समाग्रियों में मिलावट शुरू की गई होगी, उस वक़्त सभी आँखें मूंदे ना बैठे होते तो आज भोजन -हवा -पानी शुद्ध होता। मगर किसी ने उन्हें रोकना टोकना तो छोड़े लालच में आकर खुद भी उसी मिलावट का हिस्सा बनते चले गए।हमें ये समझ ही नहीं आया कि -इसी भोजन -पानी का सेवन तो हम और हमारा परिवार भी तो करेंगा ।  काश ,जब अधोगिकरण के नाम पर शुरू हुई इस"  मिलावट " के खिलाफ उसी वक़्त किसी ने भी आवाज़ उठाई होती तो आज हालात ऐसे नहीं होते।  आज इन मिलावटी खाद्य समाग्रियों का सेवन करते करते जब हम आपने आप को रुग्ण कर बैठे हैं तो ऑर्गेनिक फ़ूड की तलाश में निकल रहें हैं। 

     जब पहली बार आधुनिकता के नाम पर हमारे संस्कारों का हनन होना शुरू हुआ ,काश किसी ने उसका विरोध कर उन्हें वही रोक दिया होता। आज जब पूरा विश्व इस कोरोना नामक महामारी के चपेट में आ चूका हैं तब हम सबको अपने उन्ही  संस्कारों का महत्व  समझ आने लगा हैं जिन्हे हम दकियानूसी बताते थे। आज हमें  हमारी हर एक खूबी दिखाई दे रही हैं ,मगर कब तक ,ये जागरण भी तो क्षणिक ही हैं जैसे ही इस  महामारी की हवा गुजर जाएगी हम फिर  से सब भूल जाएंगे।ऐसे जागरण को हम "श्मसान जागरण  " का नाम दे सकते हैं। श्मसान में जाने पर थोड़ी देर के लिए  सभी  को ये एहसास  हो ही जाता हैं कि -ये जीवन नश्वर हैं ,इससे मोह नहीं होना चाहिए " मगर श्मसान से बाहर आते ही फिर वही मोह -माया और वही जीवनशैली बन जाती हैं। 

     हम इंसान हैं तो हम से गलती होती है और होती रहेगी ,हमारा स्वार्थी मन हमसे बार बार गलतियाँ करवाता ही रहेगा मगर समझदार वही हैं जो गलतियों से सबक सीखें और फिर उसे ना दोहराए। वो कहते हैं न -" जब जागों तभी सवेरा " जब तक नींद में थे कोई बात नहीं जब जाग गए तब तो विस्तर पर पड़े रहने की गलती ना करे। वैसे तो कोरोना नामक बिपदा प्रकृति जन्य नहीं इसे हम मानव ने ही बुलाया हैं मगर फिर भी प्रकृति माँ अपना फर्ज पूरा कर रही हैं वो इस बिपदा में भी हमें जगाना चाहती हैं, हमें सचेत करना चाहती हैं ,हमें रोकना चाहती हैं ,हम से मिन्नते कर रही हैं -" अब तो मेरे महत्व को समझो ,मेरा रूप और ना बिगड़ों, अपनी मुलभुत चीजों में जहर घोलना बंद करो। "  अब तो हम अपने देश ,अपनी संस्कृति अपने संस्कारों को पहचाने  उसे  अहमियत देकर उसका मान करना  सीखें। क्या हम अब भी नहीं जागेंगे ? अब भी देर नहीं हई हैं अपने भोजन -पानी - हवा में ,अपने विचार- व्यवहार- संस्कार में पश्चिमी सभय्ता की मिलावट करना बंद  करें।

    अगर मिलावट करनी ही  हैं तो ऐसी मिलावट करे - " जैसे पानी में शक़्कर ,दूध में दही " ताकि उसका स्वरूप भी बदले तो भी वो फायदेमंद ही रहे। अब वक़्त आ गया हैं -"  अब हमें मिलावट करनी ही होगी -प्रकृति में ऑक्सीजन की ,खाद्य समग्रियों में प्रकृतिक खाद की ,परिवार में संस्कार की ,समाज में सदभावना की ,देश में भाईचारे की और सबसे जरुरी प्रेम में परवाह की ,ताकि हम गर्व  से कहें -" मिलावट अच्छी हैं "




शुक्रवार, 20 मार्च 2020

" आखिरी साँस "

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      " मैं तुम्हारे साथ जीवन जी नहीं पाऊँगी तो क्या हुआ... मेरा वादा हैं तुमसे मरूँगी तुम्हारी ही बाँहों में .....आखिरी वक़्त में ... जब मैं तुम्हे आवाज़ दूँगी तो तुम आओगे न ......."  .कहते हुए मेरे होठ थरथरा रहे थे.....   आवाज़ लड़खड़ा रही थी .... " हाँ " में सर हिलाते हुए उसने कहा था.... तुम्हारी  उस आखिरी आवाज़ का मैं  आखिरी साँस तक इंतज़ार करूँगा..... फिर हम दोनों हमेशा हमेशा के लिए जुदा होकर अपने अपने कर्मपथ पर निकल पड़ें थे और फिर......

    इस कठिन कर्मपथ पर चलते हुए 35 साल गुजर गए ..... और आज मैं जीवन के आखिरी लम्हों से चंद कदमो के दुरी पर खड़ी हूँ।  मेरा तन और मन दोनों जीवन के इस लम्बे सफर को तय करते करते थक चूका हैं .....
रोगग्रस्त हो चूका हैं....... मैं विस्तर पड़ पड़ी हूँ .... अपने ही कहे उन शब्दों को , उससे किये अपने वादें को याद कर तड़प रही हूँ...... हर एक साँस में कश्मकश हो रही हैं...  अपने मर्यादाओं के दायरे को लांघकर.....कैसे आवाज़ दूँ उसे ..... अगर हिम्मत जुटाकर मैं आवाज़ दे भी दूँ तो..... ..क्या वो आ पाएगा .....अपनी घर -गृहस्थी 
और समाज के बंदिशों को तोड़कर .......?

      मेरी अंतरात्मा की तड़प बढ़ती जा रही हैं..... मेरा शरीर धीरे -धीरे मेरा साथ छोड़ता जा रहा हैं.... एक एक साँस को सहेजते हुए मैं उसके आने की राह देख रही हूँ ...उसे आवाज़ तो नहीं दे पाई हूँ फिर भी ...आस लगाए बैठी हूँ.... वो आएगा ,जरूर आएगा ......बस ,मुझे उसके  इंतज़ार में अपने साँसों  को थामे रखना हैं ....बस, ये काली स्याह रात गुजर जाए .......अगर सुबह तक वो नहीं आया तो ....एक बार उसे पुकारूँगी जरूर..... मर्यादाएं टूटती हैं तो टूट जाए ...
    
    भोर की पहली किरण के साथ मेरी नजर चौखट पर जा टँगी ....तभी दरवाज़े पर एक साया सा दिखा...... लगा अब तो ये मेरा आखिरी पल ही हैं ....शायद यमराज आ ही गए ....वो कहते हैं न कि-- आखिरी पल, एक साया के रूप में आता हैं .....धीरे धीरे वो साया मेरे करीब आता जा रहा था  ...... मगर ये क्या उसे देख मुझे भय नहीं लग रहा...... मुझे तो सुकुन मिल रहा हैं ......मेरी तरफ बढ़ते उसके हर एक  कदम के साथ मेरे जिस्मो -जान में ख़ुशी की तरंगे उठ रही हैं .....अब वो साया मेरे बिलकुल करीब खड़ा था.... मेरी आँखों में जैसे नूर आ गया .... तुम आ गए ....  उसकी तरफ अपनी बाँहे फैलते हुए .मैंने कहा .....
      उसने फिर से उसी  चिरपरिचित अंदाज़ में " हाँ " में सर हिलाया और  मेरे सरहाने आकर बैठ  गया ....मेरे सिर को उसने अपने गोद में ले लिया..... उसके आँखों से टप- टप मोती टपके और वो मेरे होठो से लगते हुए मुख में जा गिरे.....मेरे मुख में  अब पवित्र गंगाजल की बुँदे आ गिरी  हैं ..... मेरे मोक्ष का पल अब मेरे करीब हैं। मेरी नजर उसके चेहरे पर टिकी हैं ....आँखों से बहते आँसूं उसके स्नेह से अभिभूत हो ,उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहें हैं .....आँखे उसे जी भर के देखना चाहती हैं .....उसके चेहरे को ,उसके रोम रोम को समेट कर अपनी अंतरात्मा में  समा लेना चाहती हैं मगर ......ये क्या मेरी दृष्टि तो धुंधली हुई जा रही हैं .....यकीनन अब मेरी साँसे भी मेरा साथ छोड़ना चाह रही हैं पर....... अब गम नहीं हैं... मैंने वो पल पा लिया हैं .... जिसके लिए इतनी लम्बी तपस्या की थी ......मैंने उसे नमन करते हुए सुकुन भरी अपनी आखिरी साँस ले ली...
वो मौत थी या मेरी जिन्दगी........ ?
नहीं पता .....








"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...