शुक्रवार, 17 जून 2022

"आ अब लौट चले"




"निकले थे कहाँ जाने के लिए,पहुँचे  है कहाँ मालूम नहीं 

        अब अपने भटकते क़दमों को,मंजिल  का निशां मालूम नहीं "


इस सदी के मानव जाति का आज यही ह्रस हो रहा है "कहाँ जाने के लिए निकले थे और कहाँ पहुँच गए है"।   

एक युग था जब मानव घर से  निकलता था आध्यात्म की तलाश में,निर्वाण की तलाश में,मानव कल्याण के मार्ग की तलाश में ,विश्व शांति के उपाय की तलाश में और खुद की तलाश में....जब लौट कर आता था तो खुद का ही नहीं सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण करता था। उन्हें पता होता था वो कहाँ और क्यों जा रहें और यकीन होता था कि  जब लौटेगे तो शुभ फल के साथ। जब जीने के मूल्य कुछ और थे,साधन कुछ और,प्राथमिकता  कुछ और होती थी। जब ऐश्वर्य की अधिकता के वावजूद "साधा जीवन और उच्च विचार" था। जब संघर्ष भी होता था तो सिर्फ  अपने मान-मर्यादा,स्वाभिमान-संस्कार और अधिकार  की रक्षा हेतु। जब प्रकृति भी भरपूर थी तब भी मानव तो मानव जानवर भी उससे उतना ही लेते थे जितने से उनकी क्षुधा पूर्ति हो  जाए। जितना लेते  थे उससे कही ज्यादा प्रकृति को वापस  भी करते थे संतुलन बना रहता था। घर,समाज और देश में शांति के साथ-साथ  वातावरण में भी शांति व्याप्त होता था।  उन दिनों की कल्पना करने मात्र से ही आज भी शांति की अनुभूति होती है। क्यूँ,सच कहा न ?

ज्यादा नहीं आज से तीस-पैतीस वर्ष पूर्व तक भी जीवन इतना मुश्किल तो नहीं था जितना अभी है। सूरजदेव कितनी भी तपिश बरसाए आम-बरगद और पीपल की  ठंडी छाँव हर जगह मिल  जाती थी,गर्मी बढ़ते ही बगीचे की ठंडी छाँव में खाट बिछ जाया करते थे,जब प्यास बुझाने  के लिए सिर्फ पशु-पक्षी और जानवरों  के लिए ही नहीं मानव के लिए भी नदी,ताल-तलईयां और कुपो में भरपूर स्वच्छ जल था। मट्टी के घड़े में सौंधी खशबू से भरा जल तन और मन दोनों को शीतलता प्रदान करने में सक्षम होता था। जीवन सुखद स्वप्नों सा था। आज तो शहर को छोड़े गांव में भी  यदा-कदा ही ये सब देखने को मिलता है। चंद सालों में क्या से क्या हो गया,है न  ??

अब कुछ लोगों का उत्तर होगा "जीवन बहुत आरामदायक और सुविधाओं से लेस हो गया,क्या कुछ नहीं पाया हमने,विज्ञान के चमत्कार ने हमारी हथेलियों में वो ऊर्जा भर दी कि क्षण भर में हम चाँद को छू लेते है,प्यास बुझाने लिए ताल-तलैया तक चलकर कौन जाए, घर में ही शीतल पेय की मशीन पड़ी है,पेड़ों की छाँव किसे चाहिए जब एक बटन दबाते ही सारा घर ठंडा-ठंडा,कूल-कूल हो जाए। शीतल ठंडी हवा का तो मोल ही ख़त्म हो गया,घर हो या ऑफिस चिल ही चिल है। अब इनसे कोई पूछे कि- जब इतने चिल हो ही तो फिर गर्मी-गर्मी क्यों चिल्लाना। अच्छा हाँ,एसी से  निकलते ही तुम्हारा कोमल तन सूरज की तपिश को नहीं सह पाता होगा न। वैसे जनाब हकीकत भी यही है कि-गर्मी आप जैसे लोगो के लिए है भी कहाँ,जलवायु परिवर्तन से आपको क्या ? गर्मी तो बस गरीबो और पशु-पक्षियों के लिए है,उनके एसी-कूलर और फ्रिज को तो तुमने तबाह बर्बाद कर दिया। अपने सुख-सुविधा और अत्यधिक की चाह में तुमने अपना वर्तमान ही नहीं भविष्य को भी जहनुम बना दिया। थूकेगी आने पीढ़ी तुम सब पर,तोहमत लगाएगी कि-तुम सब के किये की  सजा हम और हमारी आने वाली नस्लें भोगेगी। 

अविष्कार करना अनुचित नहीं होता,गलत होता है बिना सोचे-समझे उनका  ज़रूरत से ज्यादा उपभोग करना,उसके  हानिकारक पहलू के विषय में सोच-विचार नहीं करना। हमने भी यही किया -"कहाँ जाने की लिए निकले थे और कहाँ पहुँच गए है।"हम भी एक दिन घर से निकले थे अपने जीवन को सहुलियतो से भरने, चांद तारों पर घर बनाने, धरती से आकाश की दुरी को नापने, पाया भी बहुत कुछ परन्तु, क़ीमत क्या चुकाई ? हमारी नादानी ने हमें मौका ही नहीं दिया सोचने का कि प्रकृति से अप्राकृतिक होने की हमें सजा क्या मिलेगी?  आज सूरज आग उगल रहा है,दिन-ब-दिन गर्मी अपनी अपनी हदे पार करती जा रही है,नदी-तालाब सुख गए, पेड़ झुलस रहें हैं, धरती तप रही है, अम्बर जल रहा है। हमारे नौनिहालों का बचपन बदहाल है और वो घर में कैद रहने को मजबूर है,अब हमारे बनाये एसी-कूलर भी नाकाम हो रहें हैं, अब क्या करेंगे ??

ये अविष्कारों के जनक और हमारे बाप-दादाओ ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि- हम किस आग में झोंक रहे हैं अपनी नस्लों को और ना अभी तक हमें ही सोचने की फुर्सत मिली है।विज्ञान ने ही हमारा भला किया और विज्ञान ही हमारा विनाश भी कर रहा है क्योंकि कोई भी गतिविधि सीमावद्ध ही अच्छी और सार्थक होती है। जलवायु परिवर्तन और  बढ़ते तापमान ने हर एक जागरूक इन्सान की चिंता बढ़ा दी है। यदि इस पर अभी भी रोक लगाने का प्रयास नहीं किया गया तो आने वाले दिन इतनी डरावनी होगी जिसकी कल्पना मात्र से ही रूह कंपा जा रही है।

समस्या होती है तो सामाधान भी होता है। ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका सामाधान ना हो। इस तपते और बदलते वातावरण के साथ  दिनचर्या अर्थात सोने,उठने,काम करने,या स्कूल और दफ्तर के समय को बदलना विकल्प नहीं है। दिनचर्या बदलने से तापमान नहीं बदलने वाला, बदलना ही है तो खुद को बदलिए। अपने जीवन शैली को ही  बदलना होगा और कोई विकल्प है ही नहीं । अब ये ना कहे कि-एक हमारे करने से क्या होगा ? "हमें लौटना ही होगा अपनी भारतीय जीवन शैली की ओर"  जो प्रकृति और संस्कृति दोनों के करीब थी ।भारतीय सभ्यता सबसे पुरानी वेदिक सभ्यता है जहाँ "सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय" का सिद्धांत था। सर्वजन से अभिप्राय सिर्फ मनुष्य जाति से ही नहीं था इनमे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी,समेत सम्पूर्ण ब्रह्मांड आता था। बहुत जी लिये पश्चिमी जीवन शैली से, अब तो उन्हें भी एहसास हो गया है कि उनका तरीका सही नहीं था उन्होंने "यूटर्न" ले लिया है और हमारी सभ्यता अपना रहें हैं।लेकिन हम अभी भी अपनी छोड़ दूसरों के नकल में ही लगे है। अपनी मानसिकता बदलिए,सब कुछ बदलना आसान हो जायेगा। अब ये भी ना कहे कि सिर्फ भारत के लोगो के बदलने से क्या होगा बाकि दुनिया तो परमाणु युद्ध के कगार पर खड़ी है,रूस और यूक्रेन के युद्ध ने वातावरण का कितना नाश किया होगा ?? हम अपने हिस्से की जिम्मेदारी ले सकते हैं पूरी दुनिया की नहीं और हमें पूरी ईमानदारी से वही निभाना है।   

 सोशल मिडिया में जहाँ बहुत बुराई है वहाँ कुछ अच्छाई भी है ये हम पर निर्भर है कि- हम अच्छाई को बढ़ावा दे रहें हैं या बुराई को। सोशल मिडिया पर दिख रहा है कि -बहुत से ऐसे लोग है जो प्रकृति को लेकर फिक्रमंद है। प्रकृति के संरक्षण की दिशा में बहुत से जागरुक लोग नित्य नए प्रयास भी कर रहे हैं और सफल भी हो रहें हैं। उनमे से एक तो हमारे "आदरणीय संदीप जी" ही है। मुझे सोशल मिडिया पर ऐसे कई पेज मिलते है जहाँ पर परम्परागत पुरानी जीवन शैली को अपनाकर  प्रकृति को संरक्षित करने के प्रयास में जागरूक लोगो के बारे में बताया जाता है। जीवन शैली बदलेगी तो प्रकृति खुद को स्वतः ही बदल लेगी। करोना-काल में इस बात के प्रत्यक्षदर्शी हम स्वयं रहें हैं। एक सोशल पेज को में यहाँ साझा कर रही हूँ। इस पेज को साझा करते हुए मेरा उदेश्य सिर्फ इतना है कि-हम इनसे प्रेरणा ले सकते हैं। मैंने अपनी जीवन में इससे प्रेरित होकर बदलाव किये है। (मैं इस पेज को वक्तिगत फायदे के लिए प्रमोट नहीं कर रही) यकीन मानिये, हमारे छोटे-छोटे प्रयास वातावरण में बड़े-बड़े बदलाव लाने में सक्षम है। 

नोट-सोशल मिडिया पेज का नाम है-EcoFreaks by Anuj Ramatri (एक बार देखिएगा जरूर )

("प्रकृति दर्शन"पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित मेरा लेख,आदरणीय संदीप जी को बहुत बहुत धन्यवाद )


 



गुरुवार, 26 मई 2022

"सच्ची प्रहरी तो तुम हो "माँ"



कहते हैं, सब मुझको "सैनिक"

पर, सच्ची प्रहरी तो तुम हो "माँ" 

मैं सपूत इस जन्मभूमि का 

ज्ञान ये तुमने दिया। 


मस्त-मगन था तेरी गोद में 

भेज दिया तुमने फिर रण में। 

बोली, माटी का कर्ज़ चुकाओ 

मातृभूमि के लाल कहलाओ। 


आँचल तेरा छूट गया "माँ"

छूटा गाँव, घर और चौबारा। 

रोया था मैं फूट-फूट के

जिस दिन छूटा था साथ तुम्हारा। 


तुमने मुझको जन्म दिया "माँ"

इस मिट्टी ने पाला है। 

मातृभूमि का कर्ज़ चुकाना 

तुमने ही तो सिखलाया है। 


तू ही हिम्मत,तू ही हौंसला 

शौर्य उपहार तुमने दिया है। 

चीर सकूँ दुश्मन का सीना 

वो,बल भी तुमने दिया है। 


आज धरा का कर्ज़ चुकाकर 

तिरंगे में लिपट गया "मैं"। 

तेरी ममता का मान बढ़ाकर 

लो,देश का बेटा बन गया "मैं"। 

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 देश के वीर सपूतों को और उन्हें जन्म देने वाली वीरांगनाओं को मेरा सत-सत नमन                                                                                          

रविवार, 15 मई 2022

"विश्व वानिकी दिवस" के दिन जलता वन



पुरे विश्व में रिश्तें,समाज,पर्यावरण,किसी व्यक्ति विशेष और यहाँ तक की बीमारियों को भी याद रखने के लिए एक खास दिन तय किया गया है। मगर,क्या सिर्फ एक दिन तय कर देने से उन रिश्तों,उन परम्पराओं, हमारी संस्कृति और प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है ? ये दिन यकीनन एक खास उदेश्य से तय किये गए थे,इन के माध्यम से हम अपनी अगली पीढ़ी को उस विषय से परिचित करा सकें,उन्हें जागरूक कर सकें और उन्हें ये जिम्मेदारी भी दे सकें कि इसे आगे तुम्हे निर्वाह करना है। मगर क्या ऐसा हो पा रहा है ?

आज से तीस साल पहले  ऐसा ही एक दिन तय किया गया था "विश्व वानिकी दिवस" जो हर साल 21 मार्च को मनाया जाता है। यह दुनियाभर में लोगों को वनों की महत्ता तथा उनसे मिलने वाले अन्य लाभों की याद दिलाने के लिए पिछले 30 वर्षों से मनाया जा रहा है। विश्व वानिकी दिवस का उद्देश्य यही था कि विश्व के सभी देश अपनी वन−सम्पदा और वनों को संरक्षण प्रदान करें। मगर,सोचने वाली बात है -अगर इस विषय की गंभीरता को समझकर इस दिवस को हम दिल से मनाये होते और एक पौधा लगाकर भी अपना कर्तव्य निभाए होते तो क्या आज पर्यावरण की ये दुर्दशा हुई होती ? सबसे दुखद बात ये है कि "इसी महीने में सबसे ज्यादा वन जलते भी है।" जब हमें पहले से पता होता है कि-इन्ही दिनों जंगल जलते है तो वन विभाग पहले से सतर्क क्यों नहीं रहता या वो भी दिवस मनाने में व्यस्त रहते है ?

 

पहले ऐसा कोई दिन तय नहीं किया गया था मगर फिर भी,वनों के प्रति सब दिल से समर्पित थे। वनों की महत्ता कौन नहीं जानता कि पेड़ पृथ्वी के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं और पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करते हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई एवं सिमटते जंगलों की वजह से भूमि बंजर और रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है जिससे दुनियाभर में खाद्य संकट का खतरा मंडराने लगा है। वन न केवल पृथ्वी पर मिट्टी की पकड़ बनाए रखता है बल्कि बाढ़ को भी रोकता और मिट्टी को उपजाऊ भी बनाए रखता है। 

मगर,आज पृथ्वी पर लगभग 11 प्रतिशत वन ही संरक्षित है जो विश्व पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही कम है। स्वस्थ्य पर्यावरण हेतु पृथ्वी पर लगभग एक तिहाई वनों का होना अति आवश्यक है। लेकिन विकास की अन्धी होड़, जनसंख्या विस्फोट, औद्योगिकरण एवं गलत वन नीतियों के कारण वनों के क्षेत्रफल में लगातार कमी आ रही है जो एक विश्व स्तरीय समस्या बन चुकी है।नये पेड़-पौधे लगाना तो दूर, जो है हम उसे भी गवाते जा रहें हैं। 

मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही मनुष्य का जंगल से गहरा रिश्ता रहा है।जंगल ही वो स्रोत है जहाँ से हमें ऑक्सीजन की सबसे ज्यादा आपूर्ति होती है साथ ही जलाने के लिए ईंधन की पूर्ति, खेती में प्रयुक्त होने वाले औजार, खाद हेतु पत्तियाँ,  जानवरों के लिए चारा और घास, घर बनाने के लिए लकड़ी आदि और सबसे जरुरी औषधियों के लिए अनमोल जड़ी-बूटियों का  सबसे बड़े स्रोत वन ही रहे हैं।पहाड़ों में रहने वाले लोगों के लिए जीवनयापन का मुख्य आधार अभी भी खेती और पशुपालन रहा है। इन दोनों का आधार स्थानीय वनों से प्राप्त होने वाली उपज है।जंगल हमारे पशु-पक्षियों,जानवरों का घर है। यहाँ आज भी अनेक दुर्लभ जीवों की प्रजातिया पाई जाती है,जंगल के साथ उनका भी आस्तित्व जल रहा है। हर साल पुरे विश्व में जंगल की आग तबाही मचा रहा है।  

 हमारे भारत में भी हर साल गर्मियों के मौसम में झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू−कश्मीर के जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ती ही जा रही है। पिछले साल तो सर्दियों के मौसम में ही उत्तराखंड के जंगल जलने लगे थे इस बार भी मार्च आते ही तापमान में ऐसा परिवर्तन हुआ कि 8 मार्च से लेकर 14 मार्च तक जंगल में आगजनी की 20 घटनाएं दर्ज की जा चुकी थी जिनमे 24.5 हेक्टर जंगल का क्षेत्र प्रभावित हुआ था। यदि वन विभाग उसी वक़्त सचेत हो जाते तो ये तबाही नहीं होती।अब तक सिर्फ उत्तराखंड में  604 वनाग्नि की घटनाएं रिपोर्ट की जा चुकी हैं और  कुल 822 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। इसका पर्यावरण पर कितना बुरा असर हो रहा है वो अकल्पनीय है। 

अब सवाल ये उठता है कि-ये आग कैसे लगती है और क्यों बेकाबू भी हो जाती है ?

जंगल में आग लगने के कई कारण होते हैं। गर्मियों के मौसम में गर्म हवा, ज्यादा तापमान के कारण सूखा पड़ना है।  सूखा पड़ने पर तो ट्रेन के पहिए से निकली एक चिंगारी भी आग लगा सकती है, इसके अलावा कभी−कभी आग प्राकृतिक रूप से भी लग जाती है, ज्यादा गर्मी की वजह से पत्तों या टहनियों में घर्षण के कारण या फिर बिजली कड़कने या गिर जाने से भी आग लगती है।आग लगने के मुख्य कारण बारिश का कम होना भी है। जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण इंसानी लापरवाही है। 

इनमे से सबसे महत्वपूर्ण है-मजदूरों द्वारा शहद, साल के बीज जैसे कुछ उत्पादों को इकट्ठा करने के लिए जानबूझकर आग का लगाया जाना और फिर उसे सावधानी से  नहीं बुझाना। 

दूसरा कारण-कैम्पफायर, बिना बुझी सिगरेट फेंकना, जलता हुआ कचरा छोड़ना आदि भी है। 

तीसरा कारण-आस-पास के गाँव के स्थानीय लोगों द्वारा दुर्भावना से आग लगा देना या आग लगने पर तत्काल वन विभाग तक सुचना नहीं पहुँचाना। 

अब लपरवाह तो इंसान है ही अगर नहीं होता तो पर्यावरण की ऐसी हालत नहीं होती मगर स्थानीय लोगों में दुर्भावना क्यों ?

वन कानून जंगलों को दो भागों में बांटता है आरक्षित वन और संरक्षित वन। आरक्षित वनों में शिकार, चराई,पेड़ों की कटाई आदि सहित अनेक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, जब तक कि कोई  विशिष्ट आदेश जारी नहीं किए जाते हैं और संरक्षित वनों में कभी-कभी जंगल के किनारे पर रहने वाले समुदायों के लिए ऐसी गतिविधियों की अनुमति दी जाती है, जो आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से वन संसाधनों या उत्पादों से अपनी आजीविका चलाते हैं।तो जब कुछ समुदाय के लोगों को रोक-टोक के कारण अपनी आजीविका पालन में परेशानियाँ आती है तो गुस्से में वो अपनी ही सम्पदा को आग लगाने का दुष्कर्म कर देते हैं। जबकि वनों को बचाने और पुनर्जीवित करने में सबसे बड़ा योगदान स्थानीय ग्रामीणों का ही रहा  है लेकिन अक्सर वन विभाग उन्हें जंगलों से दूर रखना ही वनों की सेहत के लिये फायदेमंद मानता है। 

पौधों का रोपण और देखभाल एक सामुदायिक एवं आध्यात्मिक गतिविधि है।जो कि जंगल के आस-पास के समुदाय स्वेच्छा से करते थे। वनों को वो देवता समझते थे। लेकिन ये अधिकार उनसे छीन लिया गया और समूचे जगलात को एक महकमे के हवाले कर दिया गया कि ये जंगल का ख्याल रखेंगे। वनों की तुलना में ये महकमा एक तिनके बराबर है वनों के इतने मुद्दे है कि वो एक विभाग के बस की बात नहीं। वैसे तो उत्तराखंड में वन पंचायत ने इस सन्दर्भ में अच्छा काम किया है। मगर यदि अब भी जंगल पर समुदाय का हक़ होता और उन्हें जंगल बचाव कार्य में भागीदार बनाया गया होता तो शायद जंगल की आग की इतनी भयावह स्थिति नहीं होती क्योंकि जंगल उनका घर है और अपने घर को जलता कोई नहीं देख सकता। 

जंगलों की आग से न केवल प्रकृति झुलस रही  है, बल्कि प्रकृति के प्रति हमारे व्यवहार पर भी सवाल खड़ा होता है कि-हम कितने लापरवाह और स्वार्थी हो चुके हैं ? जंगलों में विभिन्न पेड़−पौधे और जीव−जन्तु मिलकर समृद्ध जैवविविधता की रचना करते हैं। पहाड़ों की यह समृद्ध जैवविविधता ही मैदानों के मौसम पर अपना प्रभाव डालती है फिर भी हम नहीं चेत रहें है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी घटनाओं के इतिहास को देखते हुए भी कोई ठोस योजना नहीं बनाई जाती है। सबसे दुःखद घटना है कि-एक व्यक्ति जिन्हे "वृक्ष-मानव" के नाम से जाना जाता था जिन्होंने अपना सारा जीवन इन जंगलों के नाम कर दिया था,जिनके शब्दों में- "तीन किलो की कुदाल मेरी कलम है,धरती मेरी किताब है,पेड़-पौधे मेरे शब्द है,मैंने इस धरती पर हरित इतिहास लिखा है" ऐसे स्वर्गीय विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के उगाए जंगल का हरित इतिहास भी तेज हवा के साथ उठ रहे दावानल में राख हो गया है।ये हमारे और सरकार दोनों के लिए बड़ी शर्म की बात है। 

पेड़ संस्कृति के वाहक है, प्रकृति की सुरक्षा से ही संस्कृति की सुरक्षा हो सकती है।पेड़−पौधे रहेंगे तो हमारा वजूद रहेगा। उनके नष्ट होते ही मानव सभ्यता का भी पतन हो जायेगा।इसलिए हर नागरिक का धर्म है कि वह वनों की रक्षा और वानिकी का विकास में अपना योग्यदान करें।वन संसाधनों के बेहतर प्रबंधन और संवर्धन से ही हम भावी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रख सकेंगे। हमें अगर जिन्दा रहना है तो प्रकृति से प्रेम करना ही होगा वरना सर्वनाश निश्चित है। सरकार को भी वनों की अवैध कटाई और इस आगजनी की समस्या को गंभीरता से लेना होगा और पिछली गलतियों से सबक लेकर आगे की योजना बनानी होगी। वन विभाग या वन पंचायत को जंगलो के आस-पास के ग्रामीण समुदाय को जागरूक करना होगा उन्हें प्रशिक्षित करना होगा, साथ ही साथ उन्हें ये यकीन भी दिलाना होगा कि -"ये अब भी तुम्हारा ही घर है इसे सहेजना तुम्हरा  कर्तव्य है इससे उतना ही लो जितने से तुम्हारी भी जीविका चले और इसका भी आस्तित्व बना रहें।"  हम अपनी सम्पदा में बढ़ोतरी यदि नहीं कर पा रहें है तो कम से कम जो धरोहर मिली है उसे ही सहेज ले। 


मई महीने के "प्रकृति दर्शन" में मेरा ये लेख प्रकाशित हुआ है। जिस वक़्त लेख लिखा था स्थिति बहुत भयावह थी  उम्मींद थी कि जल्द ही संभल जायेगी मगर, अब तक हालत में कुछ विशेष सुधार नहीं हुआ है ,गर्मी का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। भगवान सबको सद्बुद्धि दे। 
आपसे एक विनम्र निवेदन है -"संदीप जी प्रकृति संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने के लिए प्रयासरत है,एक जागरूक नागरिक के रूप में हमें भी उनका सहयोग करना चाहिए और कुछ नहीं तो लेखन के माध्यम से ही हम इस शुभ कार्य के भागीदार बन जाए "

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...