रविवार, 19 जनवरी 2020

बेनाम रिश्ते

         

                               "कही तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते ,कहीं से निकल आये जन्मों के नाते 
                                       घनी थी उलझन बैरी अपना मन ,अपना ही होके सहे दर्द पराए "

    गीत के इस दो पंक्तियों में जीवन के कितने गहरे राज छिपे हैं ,है न । कभी कभी खून के रिश्ते भी शूल बन चुभते हैं और कभी जिनसे कोई नाता नहीं होता ,जो जाने -अनजाने कब आपके जीवन में चले आते हैं आपको इसका पता भी नहीं चलता, वो आपके दिल में फूल बन बसे होते हैं ,जिसकी खुशबु तक को आप सारी दुनिया से छिपा कर रखते  हैं। दुनिया के नजर में ऐसे रिश्ते का कोई वजूद नहीं होता पर आपके लिए वो जन्मों जन्मों का नाता होता हैं। जो आपकी हर साँस के साथ चलता हैं ,आपके रगों में लहु बनकर बहता हैं ,आपकी धड़कनों के साथ धड़कता हैं और हरपल आपको जिन्दा होने का अहसास दिलाता हैं। इस रिश्ते की गहराई को सिर्फ और सिर्फ आपकी आत्मा समझ सकती हैं और कोई नहीं। ये रिश्ते जिस्मों से परे होते हैं ,इसका कोई नाम नहीं होता ,आप दुनिया को नहीं समझा सकते इसकी अहमियत को। ऐसे रिश्ते " हर एक " के जीवन में होता ही हैं। वो " हर एक "जो खुद के दिल में ऐसे रिश्ते को सब से छुपाये फिरता हैं मगर दूसरों की इसी भावना को नहीं समझता या समझना नहीं चाहता ।इस तरह जो रिश्ता सबसे पावन -पवित्र और रूहानी होता हैं वो दुनिया के नजर में बेनामी रिश्ता कहलाता हैं और अक्सर बदनाम रिश्ता भी। 
     लेकिन आप ना चाहते हुए भी उस रिश्ते में ऐसे उलझें होते हैं कि चाहकर भी उस बंधन से मुक्त नहीं हो पाते। वो एक बेनामी रिश्ता मीलों दूर से भी आपके आस्तित्व को प्रभावित करता रहता हैं। मीलों दूर से ही उसके हँसने -रोने ,ख़ुशी या गम का आप पर गहरा असर होता हैं। लेकिन उस असर को भी आप दुनिया के सामने प्रकट नहीं कर सकते। वो आपकी आत्मा की गहराइयों में ही इन भावनाओं के साथ अठखेलियां करता रहता हैं और आपको चुपचाप एक दर्शक की भाँति देखना होता हैं खुद को विचलित किए बिना।आप उसकी ख़ुशी में मुस्कुरा नहीं सकते और ना ही उसके बड़े से बड़े गम में भी एक कतरा आँसू ही बहा सकते। क्योकि इस मुस्कान और आँसू को कोई नहीं समझ सकता।हाँ ,मगर कही से भी गलती से भी आपके दिल में छुपे इस फूल की महक दुनिया को लग गई तो उस पवित्र -पावन रिश्ते को बदनामी जरूर मिल सकती हैं।

   रिश्ते इंसान के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन समाज में रिश्ते वही माने जाते हैं जिसकी मान्यता समाज ने दी हैं उस पर रिश्तों के नाम की मुहर लगी हो। कभी कभी ये मुहर लगे रिश्ते बोझ भी बन जाते हैं लेकिन उन्हें संभालना,सवरना,उनके ख़ुशी और गम में पूर्ण भागीदारी देना ये सब आपका कर्तव्य होता हैं जिसे निभाना ही होता हैं और निभाना भी चाहिए ये आपका सामाजिक दायित्व हैं। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो समाज में बिखराव पैदा होगा। [जो कि आज की पीढ़ी के कारण हो रहा हैं।] 

     परन्तु जो रिश्ते आत्मा के होते हैं उसका क्या ?उसके प्रति तो हमारा कोई कर्तव्य ही नहीं होता न । क्योकि समाज हमें इसकी इजाजत ही नहीं देता। जब वो आत्मा से जुड़ा बेनाम रिश्ता किसी तकलीफ में होता हैं,वो असहनीय दर्द से गुजर रहा होता हैं तब भी इंसानियत के नाते ही सही आप उसकी चोट पर मरहम भी नहीं लगा सकते,दर्द से भरे उसके नयनों के नीर को भी पोछने तक की इजाजत नहीं आपको। क्योकि वो रिश्ता बेनाम हैं बहुत जल्द बदनाम हो जायेगा। 
  उस वक़्त आप खुद को इतना मजबूर इतना लाचार पाते हैं जैसे कि आपके हाथ पैर को  बाँधकर,आपके होठों को सील कर आपको एक अंधे कुए में डाल दिया गया हो और आपका वो बेनाम रिश्ता आपकी तरफ लाचार बेबस निगाहों से देख रहा हैं,वो मदद की आस लगाए हुए अपने हाथ बढ़ाकर आपको आवाज दे रहा हैं पर आप कुछ नहीं कर सकते। यहाँ तक कि उसकी तकलीफ देखकर आपके मुँह से आह तक नहीं निकलती,आपकी आँखे बंजर सी हो जाती हैं जिसमें एक कतरा नमी तक नहीं आ सकती। शायद दुनिया की सबसे बड़ी लाचारी और सबसे बड़ा दर्द यही हैं। 
   आप उस अंधे कुए में बैठे बैठे समाज के बनाये रिश्तों के जंजीरों में जकड़े हुए सिर्फ और सिर्फ  अपने आपको सांत्वना देने के लिए ये कह सकते हैं -

                                " तेरा गमख्वार हूँ लेकिन मैं तुम तक आ नहीं सकता 
                                      मैं अपने नाम तेरी वेकसी लिखवा नहीं सकता "
                                  
                                  "तेरे आँख के आँसू पी जाऊँ ऐसी मेरी तक़दीर कहाँ 
                                     तेरे गम में तुझको बहलाऊँ ऐसी मेरी तकदीर कहाँ  "






बुधवार, 1 जनवरी 2020

"नववर्ष का शुभारम्भ "-एक विनम्र प्रार्थना के संग 



एक विनम्र प्रार्थना सर्वशक्तिमान परमात्मा से 
          

   परमात्मा से प्रार्थना तो हम रोज ही करते हैं ,परन्तु उस प्रार्थना में हम ईश्वर से कुछ ना कुछ माँगते ही रहते हैं ,सुख -समृद्धि ,यश -कृति ,संतान-परिवार ,खुशियाँ-स्वस्थ और भी बहुत कुछ । लेना या माँगना ही हमारी प्रवृति हैं ,कभी कुछ देने की चाह ही नहीं होती। ये सच हैं कि - माँगना ही हमारी प्रवृति हैं और ईश्वर से नहीं माँगेगें तो और किससे माँगेगें । परन्तु माँगने के साथ साथ देने की प्रवृति भी होनी ही चाहिए न । 
तो चलें ,इस नववर्ष में ईश्वर से कुछ नया माँगते हैं और साथ ही साथ प्रभु से कुछ वादें भी करतें हैं -" अज्ञानतावश  अपने तन-मन ,देश-समाज ,प्रकृति और पर्यावरण का हमनें  जो भी नुकसान किया हैं उसका ईश्वर से क्षमा माँगते हुए ,उन्होंने हमें जो कुछ भी दिया हैं उसका धन्यवाद कर ,हम उनसे कुछ वादें करतें हैं। हे प्रभु ,आपने हमें ये जो मानव तन दिया हैं उसके लिए आपको कोटि कोटि धन्यवाद ,आपकी दी हुई इस मानव तन की रक्षा करना ,इसे स्वस्थ रखना हमारा पहला कर्तव्य हैं। साथ ही साथ आपकी इस अनमोल सृष्टि और सृष्टि से जुड़े प्रत्येक जीवधारी का संरक्षण भी हमारा ही कर्तव्य हैं। इस समाज ,सभ्यता और देश के प्रति भी हम अपने कर्तव्य के लिए सजग हैं। हे प्रभु ,हमें वो शक्ति दे कि हम अपने वादें को निभा सकें और अपने कर्तव्य पथ पर डटें रहें ......."

वह शक्ति हमें दो दयानिधि कर्तव्य मार्ग पर डट जाएँ  
पर सेवा पर उपकार में हम ,निज जीवन सफल बना जाएँ 
वह शक्ति....... 

हम दिन दुखी निर्बलों -विकलों ,के सेवक बन संताप हरे 
जो हो भूले भटकें -बिछुड़े ,  उनको तारे  खुद तर जाएँ 
वह शक्ति ......

छल द्वेष- दंभ ,पाखंड -झूठ ,अन्याय से निस दिन दूर रहें 
जीवन हो शुद्ध सरल अपना ,सूचि प्रेम सुधा रस बरसाए 
वह शक्ति .......

निज आन -मान मर्यादा का ,प्रभु ध्यान रहें  अभिमान रहें 
जिस देवभूमि पर जन्म लिया बलिदान उसी पर हो जाएँ 
वह शक्ति 

वह शक्ति हमें दो दयानिधि कर्तव्य मार्ग पर डट जाएँ  
पर सेवा पर उपकार में हम ,निज जीवन सफल बना जाएँ 

हम इस धरा पर फिर से सुख ,शांति और समृद्धि ला सकें, इस नए संकल्प के साथ हम इस नववर्ष का स्वागत करते हैं। आप सभी को भी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं ,नववर्ष मंगलमय हो। 

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

" एक सोच "-  बदलाव  की ओर पहला कदम

   

    हर तरफ हाहाकार मचा हैं ,हर आत्मा चीत्कार कर रही हैं ,हर मन की भावनाएं आक्रोशित हो रही हैं। हर हृदय व्यथित हैं,दुखी हैं हालत से ,परिवार और बच्चों से ,समाज से ,कानून से ,व्यवस्था से,पर्यावरण से। दोषारोपण कर रहे हैं एक दूसरे के मानसिकता पर ,युवापीढ़ी पर ,सरकार पर । प्रश्नचिन्ह लगा रहे कि -क्या होगया हैं मानव को ,कहा जा रहा हैं हमारा समाज ,क्युँ मरती जा रही हैं संवेदनाएं ,आखिर और कितना गिरेगा मनुष्य ,कहा जा कर रुकेगी हमारी ये तत्कालीन सभ्यता ?ऐसे कितने सवाल रोज उठ रहे हैं ,एक स्वर में हम कह रहे हैं -"कितने बुरे दिन आ गए हैं ,ये तो घोर कलयुग  हैं। "

   कुछ के लिए तो ये सिर्फ शोर मचाना भर हैं ,उन्हें बस ये जताना हैं कि -देखो जी, मैं भी देश समाज और मानवता के लिए चिंतित हूँ जबकि बहुत हद तक इन परिस्थितियों के जिम्मेदार वे स्वयं होते हैं। इसी हालत में कुछ मनुष्यरूपी जानवर भी हैं जो मस्त हैं अपनी मस्ती में ,सूअरों की तरह कीचड़ में डूबे हुए,उन्हें सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति नजर आती हैं ,उन्हें तो बस भूख मिटानी हैं अपनी क्षुधा की , अपनी जिस्म की ,वो गिद्धों की तरह बोटियाँ नोच नोचकर खा रहे हैं ,वो बोटी इंसानी जिस्म की हैं या जानवरों की कोई फर्क नहीं उन्हें। दूसरों के  तन और मन दोनों को प्रताड़ित करना ही इन  पिचासरुपी आत्माओं का काम होता हैं।
    परन्तु कुछ संवेदनशील आत्माएं हैं जो विचलित हो रही हैं इंसान और प्रकृति के इस बदलते स्वरूप को देखकर ,चिंतित हो रही हैं कि -कहाँ तक जाएगी ये बर्बरता ,कब तक बने रहेंगे हम गैरजिम्मेदार,क्या मनुष्य अंततः जानवर ही बन जाएगा ?बंदर से विकसित होकर मानव बने थे और अब धीरे धीरे दानव और भेड़ियां या उनसे भी गिरे हुए वेह्शी दरिंदे बनते जा रहे हैं। नहीं पता कहाँ अंत होगा इसका? हवाओं में साँस लेना मुश्किल हैं ,पानी पीने के लायक नहीं ,भोजन जहरीले हो चुके हैं ,मानव को नोच कर मानव खा रहा हैं ,दुःख -दुःख और सिर्फ दुःख ही नजर आ रहा हैं ,क्या ये धरती नरक बन जाएगी ?कोमल आत्माएं अधीर हो रही हैं, खुद को लाचार महसूस कर रही हैं ,विकल हैं कि -कैसे बदलेगे  ये हालत ,ये परिस्थितियाँ ,ये समाज ,ये  पर्यावरण ?
   बस एक बार इन परिस्थितियों से खुद को इतर रख चिंतन करें -घर -परिवार ,देश -समाज मानव मात्र से बनता हैं और मानव बनता हैं संवेदनाओं से ,संवेदनाएं ख़त्म तो मानव -दानव और जानवर सब एक समान , संवेदनाएं उपजती हैं हमारी अच्छी सोच और शुद्ध विचारों से ,और शुद्ध विचार  पनपते हैं हमारे अच्छे संस्कारों से। हमारे संस्कार ही हमारा कर्म निर्धारित करते हैं और हमारे कर्म ही हमारा भाग्य या हमारी परिस्थिति जन्य दशा निर्धारित करता हैं।
   परिस्थिति और परिवेश एक दिन में नहीं बनता और ना ही बिगड़ता हैं। ये एक धीमी प्रक्रिया हैं इसलिए ये बदलाव हमें दीखता नहीं ,जब तक हमें इस बदलाव का अहसास होता हैं तब तक परिस्थितियाँ हमारे नियंत्रण से बाहर चली गई होती हैं। परिस्थितियां  खुद नहीं आती ,परस्थितियों के पैर नहीं होते ,हम बुलाते हैं उन्हें आमंत्रण देकर ,जब वो आ जाते हैं और जब तक नियंत्रण में होते हैं तब तक हमें उनके अच्छे या बुरे प्रभाव का एहसास ही नहीं होता ,फिर जब वो नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं तो हम विचलित होने लगते हैं। अक्सर एक पीढ़ी के द्वारा आमंत्रित की हुई परिस्थितियों के प्रभाव को उनकी अगली पीढ़ी और फिर उनकी अगली पीढ़ी भुगतती हैं। 
   हर तरफ शोर हैं "घोर कलयुग आ गया हैं ",घोर कलयुग एक दिन में तो आया नहीं हैं। इसे आमंत्रित तो हमारे दादा -परदादों ने किया था ,हमारे माँ -बाप की पीढ़ी ने उसे  फूलने-फलने  में पानी देने का काम किया। उन बेचारों की नादानी ये थी कि -" इन परस्थितियों का आगे क्या प्रभाव पड़ेगा ये वो समझ ही नहीं पाए और उनसे गलतियाँ होती चली गई."  परन्तु हमारी पीढ़ी को ये " घोर कलयुग "का बुरा प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था फिर भी हमने सावधानियां वरतने के वजाय खुद को लाचार बना उन परस्थितियों के आगे सर झुकाते ही नहीं चले गए वरन अपनी स्वार्थपरता में लिप्त हो उसे और बद-से-बतर बनाते चले गए.ये कह कर अपना पला झाड़ते चले गए कि -एक मेरे सुधरने से क्या होगा और आज जब परिस्थितियाँ  सुरसा की तरह मुँह फाड़े हमें निगलने के लिए आ खड़ी हुई हैं तो सबसे ज्यादा हाय -तौबा भी हम ही मचा रहे हैं। 
   सबसे ज्यादा हाय -तौबा वही मचाता हैं जो जानता हैं कि "ज्यादा गलती हमने की हैं "परन्तु ना इस बात को वो खुद कबूल करना चाहता हैं ना ही दुनिया के सामने आने देना चाहता हैं ,इतना ही नहीं सबके सामने खुद को सुर्खरू भी रखना चाहता हैं। अभी के परस्थिति में भी ज्यादा संख्या ऐसे ही लोगो की हैं। जो बेचारे नादान हैं वो तो मंथन करने में लगे हैं कि " कहाँ चूक हो गई मुझसे ,कैसे सुधार लाऊँ " परन्तु इनकी संख्या बहुत कम हैं। एक तीसरा तबका भी हैं जिनका  काम ही होता हैं हैवानियत फैलाना ,ऐसे हैवान हर युग में होते थे ,होते हैं और होते रहेगें। 
   परिस्थितियाँ जैसे बिगड़ती हैं वैसे धीरे धीरे उनमे सुधार भी लाया जा सकता हैं अगर ये " हाय -तौबा मचाने वाला तबका " अपनी गलतियों को स्वयं ही काबुल कर ले (दुनिया के सामने कबूलने की जरूरत नहीं हैं )और "नादान लोगों "का हाथ थाम उनके साथ सुधार के रास्ते पर चल पड़ें तो इन हैवानो से मुक्ति मिल सकती हैं और फिर समय का अच्छा दौड भी लाया जा सकता हैं। फिर शायद जिन  बुरे दिनों से हम गुजर रहे हैं वो हालत अगली पीढ़ी को ना देखना पड़ें। 
   परिस्थितियों का रोना रोना छोड़ ,एक बार हम खुद से एक सवाल करें कि -क्या घर- परिवार ,बाल -बच्चे ,माँ -बाप ,भाई- बहन ,दोस्त -रिश्तेदार ,आस -पड़ोस से हमारे अच्छे संबंध हैं ?क्या उनके प्रति ,समाज और पर्यावरण के प्रति हमने अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया हैं? क्या हम खुद को कुछ लोगों के नजरों में भी स्नेह और सम्मान के काबिल बना सकें हैं? यदि हमारा मन एक पल में बिना झिझके " हाँ "में उत्तर देता हैं तो हमें घोर कलयुग की चिंता ही नहीं करनी। हम  बेफिक्र रहे हमारे आस -पास आज भी सतयुगी वातावरण हैं। ऐसे सकारात्मक ऊर्जा वाले वातावरण में हम बिलकुल सुरक्षित हैं। परन्तु.......यदि हमें उत्तर सोचने के लिए तर्क -वितर्क करना पड़े या दूसरों को जिम्मेदार ठहराना पड़े तो हमें "घोर कलयुग ,घोर कलयुग "कहकर चिल्लाने का भी कोई हक नहीं हैं। 
  क्योकि इस तत्कालीन परिवेश को बनाने में हमारा भी पूरा योग्यदान हैं। हर युग ,हर परिस्थिति की शुरुआत घर से ही होती हैं। हमसे तो एक घर ,चंद रिश्तेदार ,माँ -बाप और बच्चे नहीं संभलते ,अपने साथी तक को तो हम पूर्ण सहयोग दे नहीं पाते और हम ही हैं जो समाज, कानून और सरकार पर अपनी बड़ी बड़ी राय देते रहते हैं। यकीनन हम सब अपने अपने विचारों का शुद्धिकरण कर, ईमानदारी से अपना अपना घर संभाल ले तो बाकि परिस्थितियां अपने आप संभल जाएगी। दुनिया में अगर प्यार ,शांति और भाईचारा चाहिए तो वो शुरुआत घर से ही होगी। 
    " सतर्कता गई दुर्घटना हुई " ये बात भी यूँ ही नहीं कही गई हैं। शुद्ध और सकारात्मक सोच के साथ साथ सतर्कता ही इस परिस्थिति से निकलने में हमारी सहायता कर सकती हैं। किसी भी घटनाक्रम पर तर्क वितर्क करने से बेहतर सोच यही हैं कि हम सदा ही ये कोशिश करें कि  अपने घर -परिवार में ,आस पड़ोस में सतर्कता वरते और एक ऐसी सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सकें जो आगे हमें ये दिन ना दिखाए। जो गुजर गया उसे बदला नहीं जा सकता पर आगे ना हो इसकी कोशिश तो की जा सकती हैं। 

ये सत्य हैं कि -" हम सुधरेंगे युग सुधरेगा ,हम बदलेगें युग बदलेगा "और सत्य हर तर्क -कुतर्क से परे हैं।


"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...