आज सुबह से ही वसुधा का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। ऐसा अक्सर होता था और मन को शांत करने के लिए वसुधा खुद को घरलू कामों में व्यस्त कर लेती थी, आज भी वो यही कर रही थी। लेकिन आज धड़कने बेकाबू हुई जा रही थी ऐसी अनुभूति उसे 30 सालों बाद हो रही थी। कामों में व्यस्त होने के वावजूद आज घबड़ाहट बढ़ती ही जा रही थी। वो मन बहलाने के लिए मोबाईल पर कुछ गाने बजाने के लिए फोन उठाई ही थी कि फोन की घंटी बज उठी, नंबर अनजाना था। वैसे अक्सर वो अन-नोन कॉल रिसीव नहीं करती थी लेकिन, उसने फोन रिसीव कर लिया, फोन उठाते ही हल्की सी आवाज आई "हैलो" आवाज सुनते ही वसुधा के रोम रोम में एक सिहरन सी उठी और वो खुद में बड़बड़ाई-"ये नहीं हो सकता"। लेकिन अगले ही पल वो खुद को संयमित कर बोली -कौन ?उसकी दिल की धड़कन तेज हो रही थी। "मैं" उधर से आवाज आई। बड़ी मुश्किल से अपनी सांसों को रोके हुए वसुधा ने पूछा "मैं कौन"? अच्छा, तो अब मेरी आवाज भी भूल गई। नहीं-नहीं...ये नहीं हो सकता....ये मुमकिन ही नहीं है....मुझे वहम हो रहा है...उसने खुद को समझाया। "मैं आकाश" वसुधा के हाथों से फोन छूटकर गिर गया और डिस्कनेक्ट हो गया।
वो काँप रही थी.....नहीं, ये नहीं हो सकता.....30 साल बाद....ये कैसे सम्भव है.....उसने तो मुझसे वादा लिया था कि मैं उससे कोई सम्पर्क नहीं रखूंगी...भूल जाऊँगी उसे...और आज खुद....उसे मेरा नंबर कैसे मिला....मैं तो 30 साल से किसी के सम्पर्क में भी नहीं हूँ....फिर कैसे सम्भव है...?? फोन की घंटी फिर बज उठी। काँपते हाथों से उसने फोन रिसीव किया और बोली -"आप" उसकी आवाज़ थरथरा रही थी। उधर से आवाज आई हाँ मैं, कैसी हो तुम....अब ये मत पूछना कि -मुझे तुम्हारा नंबर कैसे मिला....मैं बताऊंगा नहीं। नहीं पूछूँगी.....ये तो पूछ सकती हूँ न कि इतने बर्षों बाद मेरी याद कैसे आई - वो भरे गले से बोली। उसे अब तक यकीन ही नहीं हो रहा था कि-जो हर पल उसकी धड़कनों के साथ धड़कता रहता है आज वो उसकी आवाज़ सुन रही है 30 साल बाद....
दो मिनट की ख़ामोशी छा गई थी शायद, दोनों का सब्र आंसुओं के साथ बह रहा था। फिर आवाज आई-"भुला ही कब हूँ तुम्हें...आज तुम्हारी जरूरत आन पड़ी है इसलिए फोन किया" -आकाश के आवाज में भी थरथराहट थी, उसका गला भी रुंध रहा था। वसुधा फुसफुसाई -मेरी जरूरत ? हाँ,आज तक मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं चाहा मगर, आज मुझे तुम्हारा साथ चाहिए....वो साथ चंद घड़ियों का ही क्यों ना हो...मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ वसुधा, क्या तुम अपने जीवन के चंद पल मुझे दे सकती हो...मेरे तपते रूह को सुकून मिल जायेगा ? आकाश के स्वर में याचना थी जैसे एक फरियादी तड़पकर भगवान से फरियाद कर रहा हो। देखों ना नहीं कहना - वसुधा कुछ बोलती उससे पहले वो तड़पकर बोल पड़ा। आप याचना ना करें आज्ञा करें... आपका तो मेरे पूरे जीवन पर हक है....मैं जरूर मिलूंगी आपसे...बोले कब और कहाँ मिलना है - वसुधा ने सिसकते हुए कहा। देखों, तुम रोओ मत...तुम्हारे आंसू मुझे और कमजोर करते हैैं...मुझे इस वक़्त तुम्हारे सहारे की जरूरत है...मैं तुम्हारे ही शहर में हूँ...तुम जहाँ कहो मैं वहां आ जाऊँगा -आकाश बोला। मैं एक घंटे में आपसे मिल रही हूँ....मैं आपको लोकेशन भेज रही हूँ आप वही आ जाईये -अपने आँसू पोछते हुए वसुधा ने कहा।
सुबह से उसके दिल की धड़कने उससे क्या कहना चाह रही थी वसुधा समझ चुकी थी। पहले भी यही होता था आकाश जैसे उसे याद करता उसका दिल उसे बता देता था वो अगर उदास होता तो वसुधा के दिल में जोर की टीस उठती थी। बीते कई दिनों से ऐसा लगातार हो रहा था इसलिए वसुधा कुछ बेचैन भी रहने लगी थी, घर के कामों में भी उसका दिल नहीं लगता था। आज सुबह से बैचेनी बढ़ती जा रही थी मगर, वसुधा इसे नाकरने की भरपूर कोशिश कर रही थी।घर के सारे कामों को छोड़ वसुधा जल्दी-जल्दी तैयार होने लगी। आज पहली बार उसके प्रियतम ने उसे आवाज दी थी, उसे जल्द से जल्द उसके पास पहुँचना था। बालों को सवांरते हुए उसने आईने में खुद को देखा, बालों में सफेदी झलक रही थी कितने दिनों से उसने कलर भी नहीं किया था, उसे खुद को संवारने का ख्याल ही नहीं रहता मगर आज वो खुद को निरख रही थी, मुरझाया सा चेहरा उदास आँखे...वो पहले वाली तेज ना चेहरे पर थी ना आँखों में वो चमक....आकाश क्या सोचेगा मुझे कोई दुःख तो नहीं है....सुखी सम्पन्न परिवार है पति भी बहुत अच्छे है....भगवान ने एक प्यारी सी बेटी दी है...दोनों उसे बहुत प्यार करते है फिर....अरे, छोडो पूछेगा तो कह दूंगी बुढ़ापा है....सोचते हुए वो अपने आप में मुस्कुराई और साड़ी बांधने लगी। उसे पता था आकाश को साड़ी ही पसंद था, सफेद साड़ी और खुले बाल।
इतने वर्षों बाद प्रियतम से मिलने को वो भी बेचैन हो रही थी। सज-संवर कर वो खुद को एक बार फिर आईने में देखने लगी अचानक उसे अपने भीतर से आवाज आई -ये क्या कर रही हो....किससे मिलने जा रही हो....वो कौन है तुम्हारा....कोई देख ले और पूछेगा तो क्या बोलोगी.....पतिदेव या बेटी को पता चला तो.....हजार सवाल खड़े हो जायेगे.....30 सालों की बसी-बसाई गृहस्थी में आग लग जाएगी....ये ख्याल आते ही उसके पैर काँपने लगे और वो धम से बिस्तर पर जा गिरी....मैं ये क्या कर रही हूँ ??? लेकिन अगले ही पल आकाश की आवाज उसके कानों में गूँजने लगी "मुझे तुम्हारी जरूरत है वसुधा" उसका दम घुटने सा लगा। आज तक आकाश ने उससे कभी कुछ नहीं माँगा, उसकी चाहत हमेशा निःस्वार्थ रही। 12 सालों की मुहब्बत और कभी कोई फरमाईश नहीं...ना मिलने की जिद्द ना खत लिखने को मजबूर करना...बस, एक ही बात कहता- "मैं सिर्फ तुम्हें चाहता हूँ...मेरी सांसों की डोर तुमसे बंधी है और हमेशा बंधी रहेंगी...लेकिन तुम्हें मैं कभी नहीं बांधूंगा।" फिर आज उसने मिलने की जिद्द क्यूँ की...क्या मजबूरी आ पड़ी है.... हे ईश्वर मुझे शक्ति दो...मैं सही निर्णय कर सकूं- कतार स्वर में वो गिड़गिड़ाई। कुछ देर वो आँखे बंद कर यूँ ही पड़ी रही और फिर अचानक, उठ खड़ी हुई जैसे उसने निर्णय ले लिया हो, मेरे आराध्य ने पहली बार मुझसे कुछ माँगा है...मैं उसे "ना' नहीं कह सकती...आगे जो होगा देखा जायेगा....मेरा मन पवित्र है....मेरे पति के प्रति मेरी पूरी आस्था है...मैं तन-मन से अपनी गृहस्थी को समर्पित हूँ.....मैं कोई पाप करने नहीं जा रही....परमात्मा मेरी लाज जरूर बचाएंगे- ये सोचते हुए उसने पर्स उठाया और चल पड़ी अपने आराध्य से मिलने।
टैक्सी में बैठे-बैठे उसका सम्पूर्ण अतीत उसके आँखों के सामने से गुजर रहा था, वो खुद को उसी शहर के उन्ही गलियों में देख रही थी जहाँ, उसे अपने प्रियतम की एक झलक पाने लिए कितनी जुगत लगानी पड़ती थी। उन दिनों तो आज के जैसा माहौल नहीं था न,जहाँ सब खुल्म-खुला है,उन दिनों तो लड़का -लड़की का एक दूसरे को चाहना तो जैसा महापाप था। घर से बाहर भी जाना होता तो कोई ना कोई साथ होता, बेचारे प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे को दूर से ही देखकर सब्र कर लेते थे और बातें करने का माध्यम तो बस खत होता, वो भी किसी विश्वसनीय सहेली के हाथों ,लेकिन वो कहते है न कि -इश्क़ और मुश्क कभी छुपाये नहीं छुपता, हवा में सुगंध फैल जाती है। वसुधा के घरवालों को भी उसकी गंध मिल गई, उसकी रेगुलर पढाई रोक दी गई, वो घर से ही पढाई करने लगी। वसुधा पापा की लाड़ली थी मगर, पापा भी समाज से बाहर जाकर उसकी ख़ुशी पूरी नहीं कर सकते थे। ना ही आकाश के माँ-बाप ही उसका साथ देते तो....उस वक़्त की हर प्रेम कहानी की तरह वसुधा का प्यार भी अधूरा ही रहा। 12 साल जब तक दोनों की शादी नहीं हुई थी किसी ना किसी माध्यम से खतों का आदान-प्रदान होता रहा, 12 साल की मुहब्बत और दोनों कभी एक बार भी एक दूसरे से नहीं मिले थे, जो भी इज़हारे मुहब्बत थी वो ख़त के जरिए ही थी। दोनों ने तय किया था कि-शादी के बाद हम अपने रिश्तों के साथ ईमानदार रहेंगे इसलिए कोई सम्पर्क नहीं रखेंगे और आज अचानक 30 सालों बाद ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी है जो आकाश मिलना चाहता है।
अतीत की याद आते ही उसकी आत्मा तड़प उठी -"मेरे साथ ऐसा क्यूँ हुआ था" ?
क्यूँ,कुदरत ने ऐसा फैसला किया था ?
क्यूँ, दो हिस्सों में मेरा बंटवारा किया था ?
क्यूँ, दिए एक चन्दा को दो चकोर ?
क्यूँ ,खेल रचाया उसने पुरजोर ?
शादी के बाद वसुधा को पता चला था कि-बालपन से ही वो और उसके पति समीर एक ही शहर के एक ही मोहल्ले में रहते थे। यहाँ तक की जिस घर में वसुधा का जन्म हुआ था, दो साल का समीर भी उसी के बगलवाले घर में था।बचपन से लेकर जवानी तक समीर का हर उस घर में आना-जाना था जहाँ-जहाँ वसुधा का आना-जाना था। एक ही कॉलेज में दोनों का परीक्षा सेंटर भी होता था। मगर, कभी उन दोनों ने एक-दूसरे को देखा तक ना था,काश ! देख लिए होते और उन्हें ही एक दूसरे से प्यार हो जाता तो दिल नहीं टूटते न। और आकाश जिससे मिलना नहीं लिखा था उसे एक झलक देखते ही महज 14 साल की उम्र में ही वसुधा ने दिल में बसा लिया था और फिर किसी को देख ही नहीं पाई थी। वो सोच रही थी -
एक जो जन्म के साथ ही जिस्म के
आस-पास ही मंडरा रहा था।
और एक, जो होश संभालते ही
रुह में आन बसा था।
एक जो हर पल निगाहों के सामने था
पर,उस पर मेरी नजर ना थी।
एक जो नजर नहीं आता था
पर, हर पल नजरें उसको ढुँढती थी।
एक जिससे बंध गई जीवन की डोर
एक जो दूर चला गया होकर मज़बूर।
एक जिसे मुझसे कोई लगाव तक ना था
एक जो मेरे इश्क में डुबा हुआ था।
वसुधा और समीर वैसे तो आदर्श जोड़े थे। दोनों का जीवन बाहर से देखने पर बिल्कुल शाँत-और सुखमय ही था। समीर की नजर में वसुधा एक आम पत्नी थी जिसका काम उसकी जरूरतों को पूरा करना था। समीर रिश्तों में भी गुडलक और बैडलक ढूंढता था और उसके जीवन में वसुधा के आने से कुछ खास बदलाव नहीं हुआ था। उसे दिल-विल,प्यार-व्यार में बिल्कुल यकीन ना था। उसका मानना था सारे रिश्तें जिस्म से शुरू होते है और जिस्म पर ही जाकर ख़त्म होते है। ,उसे "चित्रलेखा" के उस कथन पर ज्यादा यकीन था कि"ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानों" और वसुधा वो तो आजीवन तन से परे मन की पुजारन थी।और "आकाश" जो उसे छूना तो दूर, कभी करीब से देखा तक नहीं था,मगर इन बातों पर समीर को कभी यकीन नहीं था,उसका कहना था-ऐसा हो ही नहीं सकता। दोनों एक दूसरे की ये बात समझ नहीं सकते थे। आखिर कैसा ये संयोग है -
एक जिसकी हर दुआओं में जिक्र था मेरा
एक जिसने कहा, तुम बदुआ हो मेरी
एक जिसकी होकर भी मैं नहीं थी
एक जो मेरा होकर भी मेरा नाम था
एक जिसकी मैं सिर्फ पत्नी हूँ
एक जिसकी कुछ भी ना होकर, सबकुछ हूँ।
एक जिसके साथ उम्र गुजर रही है,
एक जिसके साथ वक्त वहीं ठहर हुआ है।
एक मेरा सुहाग है,
जिससे मुझे प्यार है
एक सांसों का आधार है,
जिसके बिना जीना एक श्राप है।
लेकिन कुछ फैसले तो उपरवाले के हाथ ही होता है उस पर इंसानो का कोई जोर नहीं। लेकिन भुगतता तो इंसान है।
एक जिसे दिल ने चुना था,
एक जिसे भगवान ने दिया था।
फैसला ये दिल और भगवान ने किया था
मगर,दो हिस्सों में मुझे बांट दिया था।
और वाह रे इंसाफ,बंटवारा भी क्या खूब किया था
जिसे जिस्म चहिए था
उसे जिस्म ही मिला।
मोहब्बत की किस्मत में हार होती है
तो,उसे हार ही मिला था।
वो अपने ही ख्यालों में उलझी थी तभी टैक्सी ड्राईवर की आवाज आई-लो मैडम,आ गया आपका कैफे हॉउस। वसुधा जैसे नींद से जगी हो,टैक्सी रुकते ही थोड़ी दूर पर खड़े आकाश पर उसकी नज़र गई वो आज भी हमेशा की तरह राहों में पलकें बिछाए अपनी वसुधा का इंतजार कर रहा था।30 साल पहले भी वो हर उस गली में,उस नुक्क्ड़ पर खड़ा वसुधा का इंतजार करता जहाँ से होकर उसकी वसुधा की गुजरने की संभावना होती। दोनों की नज़रे मिली और वक़्त ठहर सा गया....
क्रमशः
रोचक .... पढ़ते पढ़ते अचानक क्रमशः का ब्रेक लग गया ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दी 🙏
हटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार 10, अक्टूबर 2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद दी,,🙏
हटाएंकथानक को सहज सरल शब्दों में खूबसूरती पिरोया है आपने , आगे के भाग की प्रतीक्षा रहेगी ।
जवाब देंहटाएंसराहना हेतु हृदयतल से धन्यवाद मीना जी 🙏
हटाएंकामिनी दी, कहानी बहुत ही रोचक लगी। किसी कारणवश भी आगे का भाग न छूटे इसलिए आगे के भाग की लिंक प्लीज मुझे ई मेल कर दीजिएगा। मेरा ई मेल है jyotidehliwal708@gmail.com
जवाब देंहटाएंज्योति जी, आप को ये कहानी पसंद आई ये जानकार बेहद खुशी हुई । मैं आपको अगली किश्त जरुर भेज दुंगी, दिल से शुक्रिया आपका 🙏
हटाएंक्रमशः ने उत्सुकता बढ़ा दी है।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद रेखा जी 🙏
हटाएंरोचक ,आगे जानने की उत्सुकता है ,सुंदर कहानी
जवाब देंहटाएंआपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से बेहद खुशी हुई रंजू जी 🙏
हटाएंबहुत ही रोचक मोड़ पर कहानी ने क्रमशः का आमंत्रण दे दिया .. बीती यादों में डूबते और वर्तमान से जुड़ते संदर्भों पर सुंदर कहानी।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया पाकर लेखन सार्थक हुआ , दिल से शुक्रिया जिज्ञासा जी 🙏
हटाएंकुछ कुछ अंदाजा हो रहा है, दे३क३ह्ते हैं आगे क्या होता है. पठनीय
जवाब देंहटाएंदेखें,आपके अंदाजे पर खड़ी उतारती हूं कि नहीं। हार्दिक आभार आपका शिखा जी 🙏
हटाएंअगली कड़ी की प्रतीक्षा में हूँ,बेहद उत्सुक हूँ।
जवाब देंहटाएंभावनाओं का अत्यंत सुंदर, सरल,सहज ताना-बाना पिरोया आपने कामिनी जी जिसके प्रवाह में पाठक बहता जाता है।
सस्नेह।
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया पाकर लेखन सार्थक हुआ, जल्दी ही कहानी आगे बढ़ेगी , हृदय तल से धन्यवाद श्वेता जी 🙏
हटाएंबहुत ही रोचक ए्वं उत्सुकता जगाती कहानी....आगली कड़ी के इंतजार में...
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सुधा जी, कोशिश करुंगी कि आप सभी को ज्यादा इन्तजार ना करना पड़े,सादर नमन आपको 🙏
हटाएंबहुत ही सुन्दर रोचक मन को छूती रचना आगे के भाग का इंतजार
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सखी 🙏
हटाएंखूबसूरती से पिरोया सुन्दर कहानी
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी
जवाब देंहटाएंकुछ फैसले तो उपरवाले के हाथ ही होता है उस पर इंसानो का कोई जोर नहीं। लेकिन भुगतता तो इंसान है...........सुन्दर रोचक मन को छूती रचना
जवाब देंहटाएंप्रिय कामिनी, मन के रिश्ते की अत्यंत
जवाब देंहटाएंमार्मिक कथा सरलता और सहजता से बुनी गई है।इस तरह के रिश्ते अकसर जीवन के किसी मोड़ पर छूट ही जाते हैं।संभवतः एक सुखी गृहस्थी के साथ इन संबंधो को लेकर चलना मुमकिन नहीं हो पाता।ये कहानी उसी दिन पढ़ ली थी।पर प्रतिक्रिया आज हो पाई।भावनाओं को अच्छी तरह से व्यक्त किया है तुमने।