शनिवार, 5 अक्टूबर 2019

माँ तेरे चरणों में ...

   " नवरात्रि " हमारे मयके के परिवार में ये त्यौहार सबसे ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता था। जब हम बहुत छोटे थे तब से  पापा जीवित थे तब तक। नौ दिन का अनुष्ठान होता था जप ,उपवास ,भजन कीर्तन ,हवन ,कन्या भोजन सब कुछ बड़े ही बृहत स्तर पर होता था।हमारे घर पंडित जी नहीं आते थे ,हमारे पापा स्वयं सब कुछ कराते थे।  नौ दिन ऐसे हर्षोउल्लास में गुजरते थे कि उसकी यादे अब भी ऐसे जीवित हैं जैसे सब कुछ कल की बात हो। पर अब सबकुछ खत्म हो चूका हैं ,पापा अपने साथ वो सारे हर्षोउल्लास लेकर चले गये हैं और छोड़ गये हैं अपने दिए संस्कार और ढेरों यादें ,अपनी वो मधुर आवाज़ जिसमे  वो माता का ये भजन भावविभोर होकर गाते थे। जब वो " हे माँ ,हे माँ " की तान लगाते तो उनकी आँखों से आँसू की धारा निकल उनके पुरे मुख को कब भिगो जाती थी ये उन्हें भी पता नहीं चलता था।सुननेवाले भी मन्त्र्मुग्ध हो जाते। हमारे कानों में तो अब भी उनकी वो भक्ति रस में डूबी तान गूँजती रहती हैं। आज पापा की याद में वो भजन मैं आप सब से भी साझा कर रही हूँ। ...... 




माँ तेरे चरणों में
हम शीश झुकाते हैं 
श्रद्धा पूरित होकर
दो अश्रु चढ़ाते हैं 

झंकार करो ऐसी
सदभव उभर आये 
हे माँ ,हे माँ 
हुंकार भरो ऐसी
दुर्भाव उखड़ जायें॥
सन्मार्ग न छोड़ेगें

हम शपथ उठाते हैं॥
माँ तेरे चरणों में..... 
यदि स्वार्थ हेतु माँगे

दुत्कार भले देना।
हे माँ ,हे माँ
जनहित हम याचक हैं
सुविचार हमें देना॥
सब राह चलें तेरी

तेरे जो कहाते हैं॥
माँ तेरे चरणों में.....
वह हास हमें दो माँ

सारा जग मुस्काये।
हे माँ ,हे माँ
जीवन भर ज्योति जले

पर स्नेह न चुक पाये॥
अभिमान न हो उसका

जो कुछ कर पाते हैं॥
माँ तेरे चरणों में.....
विश्वास करो हे! माँ  

हम पूत तुम्हारे हैं।
हे माँ ,हे माँ
बलिदान क्षेत्र के माँ

हम दूत तुम्हारे हैं॥
कुछ त्याग नहीं अपना

बस कर्ज चुकाते हैं॥
माँ तेरे चरणों में 
हम शीश झुकाते हैं। 
श्रद्धा पूरित होकर

दो अश्रु चढ़ाते हैं॥


माता के चरणों में आओ, हम सब शीश झुकायें।
हीन, तुच्छ, संकीर्ण वृत्ति को, हम सब दूर भगायें।।
लोभ, मोह,अभिमान भाव को,आओ दूर करें हम।
हैं सपूत माता को हम सब, यह विश्वास दिलायें।।

पर्दा नहीं जब कोई खुदा से ....



    
    " पर्दा "  यानि किसी भी खूबसूरत  या बदसूरत व्यक्ति ,वस्तु या बातो के ऊपर एक आवरण रख देना या यूँ भी कह सकते हैं कि उसकी हक़ीक़त को छुपा देना। जीवन में हमे अक्सर जरूरत पड़ ही जाती हैं एक ऐसे आवरण की जो हमारे जिस्म को, हमारी सोच को, हमारे बोल को, यहां तक की हमारे कर्मो को भी ढके रखे। जिस्म को तो एक पर्दें से ढकना जरुरी हैं ये तो सभ्यता हैं। हम आदि मानव तो रहे नहीं जिसको जिस्म  पर भी पर्दें डालने की जरुरत नहीं थी। जिस्म को तो कभी कभी  लोगो की बुरी नजर से बचाने के लिए जरुरत से  ज्यादा भी छुपाना पड़ता हैं। लेकिन  सोच ,बोल और कर्म को पर्दे की क्या जरूरत ? पर इन्हे भी छुपाना पड़ता हैं ???? 

     अब सवाल ये उठता हैं कि हमे किससे छुपाना पड़ता हैं  खुद से ,खुदा से या दुनिया वालो से। हम दुनिया वालो से भले ही सब कुछ छुपा ले पर खुद से और खुदा से कुछ छुपाना  मुमकिन हैं क्या ? खुदा की बात छोड़े क्या हम अपने सोच ,बोल और कर्म पर अच्छाई या बुराई रुपी पर्दा  डाल कर खुद के मन से वो सब छुपाने में सफल हो पाते  हैं क्या ? कभी ना कभी तो हमारा मन उस पर्दे से बाहर निकलने के लिए मचलेगा न ????

    कभी  कभी आप अपने अच्छे कर्मो को तो छुपा सकते हैं, छुपाना भी चाहिए क्योकि " अपना आप बड़ाई " शोभा नहीं देता। वैसे भी अच्छे कर्मो पर तो आप ज्यादा दिन तक पर्दा डाल भी नहीं सकते। क्योकि अच्छे कर्मो की खुश्बू बंद दरवाजे से भी   खुद ब  खुद बाहर निकल समूचे वातावरण को सुगंधित कर देती हैं। हाँ  ,बुरे कर्मो को आप जरूर पर्दा-दर - पर्दा ढ़क सकते हैं। अपनी गन्दी अंतरात्मा पर अच्छाई का आवरण डाले बहुत ही सम्भ्रांत व्यक्तित्व आप को आपने आस पास हमेशा देखने को मिल ही जाते होंगे या यूँ भी कह सकते हैं कि ऐसे ही लोगो की तदाद ज्यादा हैं, हम चारो तरफ से उनसे ही घिरे हैं। 

     मैं अक्सर सोचती हूँ ऐसे व्यक्ति जो अच्छाई का आवरण ओढ़े घूमते हैं उनका मन कभी तो उन्हें धिधकारता होगा। हाँ ,जरूर धिधकारता होगा ,आप लाख अपने अंतर्मन को दबाना चाहे वो चीत्कार जरूर करेगा ,आप उसकी आवाज़ को भले ही अनसुना करे पर वो चीख चीख कर अपनी आवाज़ खुदा तक जरूर पंहुचा देगा। फिर कुछ छुपा नहीं रहेगा ,सारे पर्दे हट जायेगे ,सारे राज खुल जाएंगे। फिर कहाँ जाकर और किस चीज से आप अपना मुख छुपायेंगे। सोचे जरा ........ 

     मुझे बचपन में सुनी  एक कहानी याद आ रही है -एक व्यक्ति था सात्विक  जीवनशैली ,सात्विक विचार और सात्विक भोजन अर्थात उसका  व्यक्तित्व दुनिया के सामने संतरूपी था। परन्तु  वो जैसा दिखता था वैसा था नहीं तो जाहिर हैं वो सारे गलत काम पर्दे में करता था। वो जब भी नदी में नहाने जाता और जब वो पानी में डुबकी लगता तो पानी के अंदर ही बड़ी  चालाकी से एक मछली गटक जाता और मन ही मन खुश होकर कहता -" ऐसा चोरी किया जो खुदा ने भी नहीं देखा " एक दिन एक मछली उसके गले में अटक गई और खुदा ने उसे समझा दिया कि मुझसे कुछ नहीं छिपा। उसे अपने किये की सजा मिल गई। 

      ये कहानी  पापा अक्सर हमे सुनाया करते थे जब भी हम कुछ गलत करते थे और वो हमे पकड़ लेते तो यही जुमला कहते - आप लोग  क्या सोच रहे थे कि " ऐसा चोरी किये जो खुदा ने भी नहीं देखा " और ये कह वो ठहाके लगाकर हंसने लगते।  हम सब झेप जाते थे और अपनी गलती मान पापा के आगे कान पकड़ लेते थे। बचपन में तो इस कहानी के असली भाव को हम समझ नहीं पाते थे लेकिन अब समझ आता हैं कि -हम लाख कोशिश करे अपने व्यक्तित्व को, अपने सोच -विचार को ,अपने बोल को और अपने कर्मो को कभी भी किसी भी तरह के पर्दे से नहीं ढक़ सकते या यूँ भी कह सकते हैं कि ऐसा कोई पर्दा ईश्वर ने बनाया ही नहीं जिससे ये ढका जा सके। हाँ , अपने मद में मदहोश हम ये झूठा प्रयास अवश्य करते रहते हैं। 

     आज ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं कि कल  जिन्होंने भी संत का नकाब ओढ़ रखा था ,आज वो दुनिया के सामने बेनकाब हैं। लाख पर्दे में अपने गुनाहो को छुपा लो वो एक न एक दिन सबको नजर आ ही जायेगा। क्यों छुपाये हम अपनी खूबसूरती या बदसूरती को किसी से ? क्यों किसी भी वस्तु की हकीकत को छुपाने के लिए उस पर आवरण रख दे ? क्यों मुख से ऐसा कुछ निकले जिसके प्रभाव को कम करने के लिए हमे उसके ऊपर कोई दूसरी बात कह कर पहली  बात पर आवरण डालना पड़े ? क्यों हम ऐसा कोई भी काम करे जिस के लिए  हमे खुद से , खुदा से या जग से मुँह छुपाना पड़े ? 
   क्युँ न हम अपनी सोच को ,अपने लफ्जो को ,अपने कर्मो को इतना प्रभावशाली और पारदर्शी बनाएं कि हमे किसी भी आवरण की जरूरत ही ना पड़े। अपनी नजरों को इतना पाक बनाएं कि किसी को भी अपनी खूबसूरती या बदसूरती को छुपाना ही ना पड़े। क्युँ न हम ऐसे काम करे कि निःसकोच हो, बिना डरे, हम शान से सर उठाकर ये कह सके -
                               
                             " पर्दा नहीं जब कोई खुदा से बंदो से पर्दा करना क्या "







गुरुवार, 26 सितंबर 2019

तेरे सुर और मेरे गीत .....

                           
                                                     " तेरे  सुर और मेरे  गीत 
                                             दोनों मिलकर बनेगे प्रीत " 


      इस गीत के सिर्फ एक पंक्ति से  ही गीतकार भरत व्यास ने जीवन में सच्चे प्रेम और ख़ुशी को पाने का हर रहस्य खोल दिए हैं। यदि  सुर और गीत की तरह एक हो गए तो जीवन में शास्वत प्रेम की धारा स्वतः ही बहने लगेगी। फिर ना कोई बिक्षोह का डर होगा ना कोई मिलने की तड़प। फिर इस  नश्वर जगत में  भी जीवन  इतना सुरमयी हो जायेगा कि जीते जी स्वर्ग सुख की अनुभूति हो जाएगी। 


     इस गीत के एक पंक्ति ने ही जीवन के बड़े गूढ़ रहस्यो को अपने भीतर समाहित कर रखा हैं कि सच्ची प्रीत वही हैं ,सच्चा रिश्ता वही हैं जो सुर और गीत की तरह एकाकार हो। उस वक़्त के तत्कालीन परिवेश में ( जब ये गीत रचा गया था ) ये भावनाएं विशुद्ध रूप से देखने को मिलती थी। परन्तु आज के समाज में हर एक रिश्ते में  " अपनी ढ़पली अपना राग  " जैसे हालात हैं। कोई अपना  सुर दे रहा हैं तो कोई अपना ही गीत गए जा रहा हैं। उन्हें नहीं मतलब हमारे सुर और गीत एक दूसरे से मिल भी रहे हैं या नहीं ,हर एक को अपना ही  किया हुआ अच्छा लग रहा हैं। बस एक दूसरे को दोष देने में लगे हैं कि - " मेरे तो सुर बड़े मधुर हैं तुम्हारे ही गीत के बोल अधूरे हैं " तो कोई कहता हैं - " नहीं जी ,मैंने तो गीत के बोल बहुत सुंदर लिखे हैं तुमने ही सही सुर नहीं दिए।" 
    
    कोई नहीं कहता -"  मैं अपने  गीतों के बोल को तुम्हारे  सुरो के अनुरूप बदल लेती हूँ। "  या " मैं तुम्हारे हर गीत के बोल को अपने सुरों में बड़े प्यार से  पिरो लुगा। "  माना किसी और के गीत के साथ सुर और ताल मिलना कभी कभी मुश्किल हो जाता है.गीत को सुर ना दे पाए तो क्या हुआ सुर को ताल तो दे ही सकते हैं वो भी नहीं कर पाए तो भी कोई बात नहीं सुर के साथ सुर तो मिला ही सकते हैं। दूरदर्शन पर बहुत पहले एक गीत आता था " मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा " अगर हम  सुर से सुर ही  मिला ले तो भी हमारा जीवन सुरमयी हो जायेगा। 


      जब तक एक गीत को सुंदर सुरो से लयबद्ध नहीं किया जायेगा तब तक  मनभावन संगीत सुनने को नहीं मिलेगा। परन्तु आज के परिवेश में व्यक्ति के जीवन में ना सुर हैं ना ताल ,गीत के बोल भी भावहीन हो चुके हैं ,ऐसे में  मधुर संगीत कहाँ से सुनाई देगा। हर तरफ बस हाहाकार मचा हैं ,हर रिश्ते में दरार पड़ी हैं ,चाहे वो पति पत्नी हो ,माँ -बेटी हो ,पिता- पुत्र हो ,दोस्त- रिश्तेदार हो या प्रेमी- प्रेमिका हो। क्योकि जीवन से सच्चा संगीत चला गया हैं ,संगीत बेसुरा हुआ पड़ा हैं और भावनाएं खंडित। हर एक  मनुष्य की आत्मा तड़प रही हैं एक मधुर बोल सुनने को, जिसे सुन उसका  अंतःकरण भी  सुरमयी बन सके। लेकिन समस्या ये हैं कि सब सुनना ही चाहते  हैं कोई बोलने का प्रयास नहीं कर रहा। पहले आप खुद अपने अंतःकरण से एक सच्चा और मधुर सुर तो निकलो ,उस सुर पर कोई ना कोई एक मधुर गीत की रचना जरूर कर देगा। 


      सिर्फ संगीत में ही नहीं ,जीवन में भी सुर और ताल का मिलना बहुत ही जरुरी हैं।जीवन का सुर और ताल हैं -सच्ची "श्रद्धा और विश्वास " ये दोनों जिस किसी भी रिश्ते में समाहित होगा उस रिश्ते में संगीत की तरह मधुरता तो होगी ही, साथ ही साथ इस तरह के प्यारे रिश्ते से जन्मे जीवन संगीत की मधुरता  से उस व्यक्ति का जीवन ही नहीं वरन उसका घर- परिवार और  समाज भी सुरमयी  हो जायेगा।  गीतकार रविन्द्र जैन ने आज  के दौड में सच्चे प्यार के लिए तरसते  हर एक दिल की ख्वाहिश को कुछ इस तरह से वया किया हैं -


                                           तु जो मेरे सुर में सुर मिला ले ,संग गा ले।  
                                          तो जिंदगी हो जाये  सफल।। 
                                  तु जो मेरे मन को घर बना ले ,मन लगा ले। 
                                            तो बंदगी हो जाए सफल।। 

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...