रविवार, 30 जनवरी 2022

"गीता ज्ञान"-सत्य और असत्य

दो-चार दिन पहले सम्पूर्ण गीता को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वैसे तो कौन नहीं जानता कि गीता का मुख्य सार है- आत्मा अजर-अमर, अविनाशी है तो मृत्यु का शोक कैसा, मृत्यु आत्मा के नये वस्त्र बदलने की प्रक्रिया मात्र है और दूसरा निष्काम कर्मयोगी बनो अर्थात कर्म करो फल की चिंता नहीं करो।

प्रत्येक व्यक्ति अर्थात आत्मा बचपन से ही ये ज्ञान सुन रहा है या यूं कहें कि कई जन्मों से सुन रहा है फिर भी इसे आत्मसात नहीं कर पाता। फिर  क्या मरणासन्न स्थिति में गीता का ज्ञान सुन कर किसी को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अर्थात किसी को जीवन का ज्ञान मिल सकता है ?

पहले कर्म की बातें करते हैं- कर्म कर फल की इच्छा ना करना ये कैसे स्वीकार कर लें कोई? छोटी से छोटी बात में भी प्रतिफल की इच्छा तो होती ही है न? यदि हम किसी से मुस्कुरा कर बात भी करते हैं तो हमारी यही कामना होती है कि सामने वाला भी हम से उतना ही प्यार से बातें करें। बाकी कर्मों का तो हिसाब ही छोड़ दें। अपने दैनिक जीवन पर नजर डालें तो पाएंगे कि- कर्मफल पाने की चाह तो हमें बचपन से ही सिखाया जाता है।

अब आत्मा की बात करें तो,जो शरीर सारा दुःख सुख,हर्ष और पीड़ा झेलता है सारे रिश्ते नाते निभाता है उसे एक अदृश्य आत्मा कैसे मान लें? जबकि सारा जीवन हमें शरीर को ही स्वस्थ और सुंदर बनाने शिक्षा दी जाती है, आत्मा को कैसे स्वस्थ और सुंदर बनाए ये तो कभी सिखाया ही नहीं गया। रिश्ते नाते को तोड़ मोह भंग कैसे कर पाएंगे जबकि सारा जीवन इन्हीं बंधनों में बांधे रखा गया हो।

 मरणासन्न अवस्था में आकर भी जब  किसी व्यक्ति के प्राण नहीं निकलते अर्थात उसको देह त्याग करने में पीड़ा होती है तो पंडित जन कहते हैं कि- गीता का पाठ करवा दो मुक्ति मिल जाएगी। 

कैसे? इस बात पर वो ये र्तक देते हैं कि-ज्ञान सुनने से मोह का त्याग होगा और मोह त्यागने से मुक्ति।

समस्त जीवन जिस पाठ का "क ख ग" भी नहीं जाना क्या, आखरी पलों में इस मुल ज्ञान को हम समझ भी पायेंगे, आत्मसात करने की बात तो दूर है ?

सारी उम्र जिस शरीर के सुन्दरता और इससे जुड़े रिश्ते नातों में उलझे रहे क्या एक पल में उसे अदृश्य आत्मा मान मोह भंग कर पाना सम्भव है? 

 जीवन पर्यन्त जिन कर्मों का वहिखाता खोलें रखा एक पल में उसे बंद कर पाना आसान है क्या?

मेरी समझ से तो बिल्कुल नहीं। ये एक असत्य सत्य है जो ना जाने कितने युगों से हमारी मन मस्तिष्क पर हावी है।

तो फिर, गीता का हमारे जीवन में महत्व क्या है?

क्यों इसे एक महान ग्रंथ का दर्जा मिला है?

हमने अपने बुजुर्गो को हमेशा ये कहते सुना होगा कि- गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। तो फिर क्यों, उन्होंने इस जीवन जीने की कला को ना ही खुद अपनाया ना हमें ही सिखाया ? क्यों जीवन के आखिरी क्षणों में ही इस ज्ञान को सुनने का कर्मकांड बनाया गया। क्यों इतने महान ग्रंथ को सिर्फ अदालत में शपथ लेने के लिए ही उपयोग में लाया गया

  क्या इसके सुत्र (इक्वेशन) इतना मुश्किल था जिसे आम जीवन में अपनाना सम्भव नहीं था ?

 सम्पूर्ण गीता को सुनने के बाद मेरी बुद्धि विवेक तो यही कहती है कि- इस ज्ञान को आत्मसात करने से सरल कुछ है ही नहीं बशर्ते इसकी शिक्षा हमें बचपन से दी गई होती।

एक बार गीता के प्रमुख सुत्रो पर विचार करते हैं- 

१.मै एक आत्मा हूं जो अमर है, शरीर हमारा वस्त्र है जिसका एक निश्चित समय पर नष्ट हो जाना तय है।

"आत्मा का मतलब क्या है- आत्मा यानि वह शक्ति जो सोचती है निर्णय लेती है,कर्म करती है।ये शरीर इन कर्मों को करने का माध्यम है।"

इस एक बात को मानने से हमें गुरेज क्यों होता है। जबकि हमारे सामने अनेकों उदाहरण आ जाते हैं जहां ये सिद्ध होता रहता है कि एक ही आत्मा कई रूपों में आती है। हममें से हर एक ने ये अनुभव भी किया होगा कि घर का सदस्य मरणोपरांत किसी ना किसी रूप में उसी घर में जन्म लेकर आता है। ये सारी बातें सब मानते हैं अनुभव भी करते हैं मगर ना जाने क्यों आत्मसात करने से कतराते हैं? अब यदि इसे आत्मसात कर लिया तो जन्म मरण के भय से मुक्ति मिल जाएगी। अब तो विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि- आत्मा जैसी कोई शक्ति है।

२.सुत्र- कर्म करो फल की चिंता नहीं करो।

कितना सरल है इसे समझना,यदि हम अच्छे कर्म करते हैं तो उसके फल के बारे में क्या सोचना क्योंकि अच्छे कर्म वही करता है जिसे प्रतिफल की आशा ही नहीं होती। अच्छाई सिर्फ़ देना जानती उसे पाने की आस ही नहीं होती।

चिन्ता सिर्फ़ बुरे कर्मों की करनी चाहिए। अच्छाई को चिंता करने की जरूरत ही नहीं।

 ३.प्रमुख सुत्र- जो हुआ वो सही हुआ जो होगा सही होगा।

आप जैसा करोगे वैसा ही तो पाओगे। फिर इसमें क्या सोचना? ये तो प्रकृति का नियम है कर्मों के हिसाब से ही परिणाम होता है तो जो हुआ सही हुआ।

४.सुत्र- मनुष्य का प्रथम धर्म है स्वयं को जानना।

मगर, हमें बाहरी दुनिया में ही खोये रहना पसंद है खुद को जानने का कभी प्रयास ही नहीं करते। यदि स्वयं को जान लिया तो कुछ जानने के लिए बचा ही नहीं।

ऐसे ही गीता में अनेक ऐसे सुत्र है जहां काम,क्रोध,लोभ, मोह जैसी प्रवृतियों पर कैसे अंकुश लगाएं ये समझाया गया है। गीता के सभी सुत्र आपको अज्ञानता के अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाएगा। इसके एक एक सुत्र अर्थात इक्वेशन को जीवन में अपनाने की कला यदि बचपन से ही हमें सिखाई जाती तो जीवन इतना दुष्कर ना होता।एक सफल जीवन के निर्माण करने में गीता का ज्ञान अहम भूमिका निभाता है इसमें तो कोई संशय था ही नहीं फिर क्यों इसे सिर्फ एक धर्म ग्रंथ बना कर रखा गया?

"मेरी समझ से गीता का मूल सार बस यही है कि- आप की सोच आप के व्यक्तित्व का निर्माण करती है और आप का व्यक्तित्व आपको कर्म करने की प्ररेणा देता है और आप का कर्म आपके भाग्य का निर्माण करता है।"

गीता को विश्व की सबसे महान ग्रंथ का दर्जा मिला है। इसके जैसी पुस्तक ना पहले लिखा गया ना ही आगे लिखें जाने की संभावना ही है।इस पुस्तक में दिए गए सुत्र (इक्वेशन) किसी खास जाति,देश या प्रदेश पर लागू नहीं होता विश्व के समस्त मानव जाति पर लागू होता है।

मुझे बहुत दुःख होता है कि जीवन जीने की कला सीखाने वाली इस ग्रंथ को एक खास तबके ने अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु जनमानस से दूर रखा और भ्रमित भी किया कि मरणासन्न पर सुन लो मोक्ष की प्राप्ति होगी। गीता के ज्ञान को तो हर घर में बचपन से ही सिखाने समझाने और आत्मसात कराने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ जैसे रटे रटाए प्रार्थना के साथ हमें ईश्वर पुजन की विधि सिखाईं गई और सही मायने में ईश्वर क्या है, कौन है उनसे कैसे जुड़े, उनसे अपना सम्बन्ध कैसे बनाएं जो हर पल वो हमारे सुख दुःख में काम आ सकें।ये नहीं बताया गया वैसे ही गीता को भी सिर्फ एक धार्मिक और पुजनीय पुस्तक बताया गया ये कहा गया - "बहुत गूढ़ विषय है इसे आम जीवन में अपनाना  मुश्किल है।"  जबकि इसके एक एक सुत्र व्यक्त्तिव निर्माण की प्रक्रिया सिखाती है जीवन जीने की कला सिखाती है । इसके सुत्रो को जीवन में अपना कर जीवन सुखमय भी बनाया जा सकता है इस सत्य से हमेशा दूर रखा गया।

पांच हजार साल से भी ज्यादा वक्त बीत गया हैं लेकिन गीता के उपदेश आज भी हमारे जीवन में उतने ही प्रासंगिक है।

मेरे मन में ये प्रश्न उठ रहा है-

पहला प्रश्न- तो फिर इसे जीवन में अपनाने की कला क्यों नहीं सिखाई गई?

दुसरा प्रश्न-  आज भी हम खुद भी इसके ज्ञान को जीवन में धारण कर और अपने बच्चों को भी इसकी शिक्षा क्या नहीं दे सकते ?






29 टिप्‍पणियां:

  1. अक्षर अक्षर सही है आपका और हर प्रश्न भी सही है ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरे मन में उठ रहे सवालों को अपनी सहमति प्रदान करने के लिए हृदयतल से धन्यवाद सर, सादर नमन

      हटाएं
  2. गीता के मूल सार का संदेश - “आप की सोच आप के व्यक्तित्व का निर्माण करती है और आप का व्यक्तित्व आपको कर्म करने की प्रेरणा देता है और आप का कर्म आपके भाग्य का निर्माण करता है।”
    व्यक्ति को व्यवहारिक जीवन में सर्वांगीण विकास के लिए इसी संदेश को आत्मसात करने की आवश्यकता होती है बाकी मोक्ष..आत्मा का अजर-अमर होना.. पुनर्जन्म आदि का सार मेरे समझ से सदा बाहर ही रहा है । आपने बहुत लाजवाब लिखा
    है । बहुत बहुत बधाई इतने गहन लेख के लिए कामिनी जी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. गीता का असली ज्ञान तो सिर्फ यही है- वो व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया ही सिखाती है। और जहां तक आत्मा और पुनर्जन्म की बात है तो ये सिर्फ अपने अनुभव से ही जाना जा सकता है। वैसे विज्ञान ने इसे भी सिद्ध कर दिया है फिर भी.. आप की इस अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से धन्यवाद मीना जी 🙏

      हटाएं
  3. कामिनी जी बहुत सारगर्भित लेख है आपका विचार मत आपने रखें हैं पर महावीर की तरह कह दिया जो तुम्हारी प्रज्ञा स्वीकार करें वहीं करो।
    और उन्होंने यहां बुद्धि नहीं कहा प्रज्ञा कहा है।
    बहुत शानदार लेख।
    सस्नेह साधुवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपने सही कहा कुसुम जी, बुद्धि तो र्ताकिक होती है मगर प्रज्ञा का तो मतलब ही यही है कि "बुद्धि विवेक से किसी विषय पर चिंतन करो फिर उस पर प्रयोग कर उसकी सत्यता परखो फिर उसका सतत अभ्यास कर जीवन में धारण करो" और इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद किसी भी विषय के सत्यता पर शंका नहीं रह जाती। इस विषय पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद आपको, सादर नमस्कार

      हटाएं
  4. वाजिब प्रश्न और स्वयं से ही उनका उत्तर ...
    शायद गीता का ज्ञान यह भी है ... बहुत ही सारगर्भित और आत्मा तक प्रवेश करने वाला ज्ञान है ये ... और जैसा आपने कहा शायद उसको बचपन से ग्रहण करना ज़रूरी है ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कुछ ऐसे प्रश्न ही होते जिनके उत्तर स्वयं ही तलाशने होते हैं, सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद दिगम्बर जी,सादर नमन

      हटाएं
  5. बहुत ही सरल ढंग से गीता के महत्व को दर्शाता सुंदर सृजन ! यदि बचपन से ही बच्चों को इसे सरल ढंग से पढ़ाया जाए तो वे अवश्य आत्मज्ञानी बनेंगे

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी जिज्ञासा पर अपनी सहमति देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद अनीता जी,सादर नमन आपको

      हटाएं
  6. विचारों की गहनता लिए सराहनीय सृजन।
    कम शब्दों गीता के सार को कहना आसान नहीं सच सराहनीय।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दिल से शुक्रिया अनीता, बस मन में उठ रहे सवालों को आप सभी से साझा किया है, सराहना हेतु हृदयतल से धन्यवाद

      हटाएं
  7. बहुत ही चिंतनपूर्ण और विचारणीय प्रासंगिक आलेख ।
    ये विचार मेरे भी मन में आता है, स्वाभाविक भी है आना । बिलकुल सत्य बात है कि न हमने गीता को अपने आचरण में उतारा न ही हम अपनी अगली पीढ़ी को गीता ज्ञान की तरफ आकर्षित कर पाए ।
    बहुत ही सारगर्भित प्रश्न उठाने के लिए आपको बहुत बधाई कामिनी जी 💐💐👏👏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. गीता के ज्ञान को तो हम सभी ने ना जाने कितनी बार सुना होगा, मेरे मन में हमेशा ये प्रश्न बना ही रहता था कि- क्यों इतने महान ग्रंथ की बातें सिर्फ कहीं सुनी जाती है इसे जीवन में अपनाने की सीख क्यों नहीं दी गई। जिज्ञासा जी,इन दिनों मैं कुछ ऐसी ही मनोदशा से गुजर रही हूं जब पंडित जन कहते हैं कि "गीता का पाठ करवा दो सब ठीक हो जाएगा।" ये बात मेरे मन मस्तिष्क में बेचैनी पैदा कर रही थी सो आप सभी से साझा कर लिया । आप सभी की सारगर्भित प्रतिक्रिया ने लेखन को सार्थक किया, हृदय तल से धन्यवाद आपको

      हटाएं
  8. सही कहा जब जीवन भर न गीता ज्ञान लिया न आत्मसात किया फिर अंत समय गीता पाठ से मुक्ति कैसे....।गीता उपदेश को सही अर्थ में अपनाने एवं आत्मसात करने हेतु हमें दैनिक जीवन में गीता पाठ अपनाना चाहिए।
    बहुत ही सारगर्भित एवं सार्थक लेख हेतु बधाई एवं शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदय तल से धन्यवाद सुधा जी, आप की प्रतिक्रिया ने लेखन को सार्थक किया, मुझे हमेशा से इस बात से एतराज था, अब तो ये बात मेरे जीवन में सिद्ध हो गया है।बस यही कारण है कि अपने भावों को आप सभी से साझा कर लिया।, दिल से शुक्रिया आपका 🙏

      हटाएं
  9. कामिनी जी,
    गीता का संपूर्ण सार का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण कर सहज सरल भावों में जन के मन तक पहुँचा दिया आपने।
    सुंदर लेखन।
    आपके प्रश्न जाएज़ हैं और यह हम अभिभावकों का कर्तव्य है कि बच्चों में संस्कार के रूप में कर्मयोग का यह बीज डालें ताकि स्वस्थ मानसिकता से युक्त लोककल्याण कारी मानववृक्ष का निर्माण हो।

    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

      हटाएं
    2. श्वेता जी, मेरी बुद्धि तो यही कहती है कि-अब सिर्फ कोरी प्रवचन सुनना किसी को मंजूर नहीं, अब बच्चों को हर बात सावित कर दिखाना होगा और इसके लिए पहले किसी भी आदत या प्रविति को पहले खुद धारण करना होगा। अपनी संस्कृति को अब नहीं अपनाया तो बहुत देर हो जायेगी और हमारी नई पीढ़ी हम से बहुत दूर हो जाएगी दुसरे शब्दों में कहें तो हमेशा के लिए भटक जाएगी। मेरे लेख पर आपकी अभिव्यक्ति पा कर बेहद खुशी हुई, दिल से शुक्रिया आपका श्वेता जी 🙏

      हटाएं
  10. बहुत ही सारगर्भित आलेख एवं प्रश्न भी अत्यंत विचारणीय आदरणीय मेम ।

    जवाब देंहटाएं
  11. बहुत ही चिंतनपूर्ण अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  12. मेरे लेख को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद दी,सादर नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  13. आपने बहुत ही सुन्दर विषय का चयन किया है…गीता मरते व्यक्ति को सुनाने से क्या लाभ होगा ? प्रतिस्पर्धा व चुनौतियों से घबड़ा कर जिज तरह से बच्चे व युवा जीवन से सहजता से पलायन कर रहे हैं आजकल या अवसाद का शिकार हो रहे हैं तो गीता में वर्णित निष्काम कर्मयोग का अनुसरण करते हुए इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। गीता मो़ से भी पहले सही तरीक़े से जीना सिखाती है …मुझे लगता है कि इसके कुछ श्लोक संस्कृत के पाठ्यक्रम में अवश्य होने चाहिए ।

    जवाब देंहटाएं
  14. आपके सुझाव से मैं पूर्णतः सहमत हूं उषा जी, अपनी युवा पीढ़ी को यदि र्गत में जाने से बचाना है तो इस ज्ञान (जिसे मैं ज्ञान नहीं इक्वेशन कहूंगी) बच्चों को सिखाना बेहद जरूरी है। आपकी इस अनमोल विचार के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं नमन आपको

    जवाब देंहटाएं
  15. हम अपने बच्चों को प्रारंभ से जो शिक्षा देते हैं वह सिर्फ़ कमाऊ-खाऊ विद्या की -अच्छे संस्कार और चरित्र-निर्माण पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है .

    जवाब देंहटाएं
  16. सही कहा आपने प्रतिभा जी, पता कब कहां से हमारे संस्कार दुषित होते चले गए, अब इतना बिगड़ चुका है कि यदि अब भी नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी, बहुत बहुत धन्यवाद आपको इस चर्चा में शामिल होने के लिए और मेरे प्रश्नों पर अपनी विचार देने के लिए,सादर नमस्कार आपको

    जवाब देंहटाएं
  17. औपनिवेशिक आधुनिकता हमारी चरित्र निर्माण के जड़ को ही उखाड़ चुकी है। हमें पुनः अपनी संस्कृति की ओर लौटने की आवश्यकता है।

    जवाब देंहटाएं

kaminisinha1971@gmail.com

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...