गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

"जो तन बीते वो तन जाने, क्या जानेगे मुर्ख-सयाने"

 



चंद मनुष्यों की स्वार्थवादी निति जिसमे मनुष्यता के लिए कोई जगह नहीं....बस, एक लालसा विश्व पर राज करना। इतिहास गवाह है कि हर बार बस यही एक वजह होती है....एक पूरी मानव सभ्यता को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा करने की। एक बार फिर यही हो रहा है। पिछली गलतियों  से सीख नहीं लेना और गलतियों पर गलतियां करते जाना,  ये मनुष्य का आचरण बन गया है।हम मनुष्य जाति खुद को सुधारने की जगह दिन-ब-दिन खुद को नीचे और नीचे गिराते जा रहें है। 

माना, चीन की गलतियों की सजा  हम भुगत रहें है मगर क्या हमारी कोई गलती नहीं ? वो चंद मानवता के दुश्मनों को जो करना था उसने किया मगर क्या, हम चाहते तो इस काल से समय रहते चेत नहीं जाते ? माना,पिछली बार अनभिज्ञ थे नहीं समझ आ रहा था क्या करना है क्या नहीं। मगर,दूसरी बार भी हमने बैल को खुद न्यौता दिया "आ बैल मुझे मार। "

मानव मन में मानवता की भावना का आभाव, विवकहीनता और लापरवाहियों ने इस काल को फिर से आमंत्रण दे दिया है।  अब परमात्मा को नहीं हमें ही इसका अंत करना होगा,भगवान कुछ नहीं कर पायेगा अब। वो तो महाभारत के कृष्ण की तरह हमें चेतावनियाँ दे-देकर थक चूका है और हममें से कुछ  दुर्योधन,दुःशासन की तरह जिद्द पर अड़े है, कुछ  धृतराष्ट्र की तरह आँखों  पे पट्टी बाँधे हुए है, कुछ स्वार्थवश तथा सत्ता की लालसा में द्रोण और कृपाचार्य बने है और बहुत सारे लोग  पितामह की तरह बेबस है, चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनकी कोई सुनता ही नहीं है और द्रोपदी के  चीर की तरह मानवता तार-तार हो रही है।  युद्ध छिड़ चूका है जीवन और मृत्यु के बीच....अस्पताल युद्ध का  मैदान बन चूका है....लाशों की ढ़ेर लग रही है और श्री कृष्ण खामोश है...कुछ नहीं कर सकते...शर्मसार है मनुष्य जाति से। 

ये काल खुद-ब-खुद आपकी चौखट तक नहीं आ रहा है (ये काल क्या, कोई भी काल खुद-ब-खुद आपकी चौखट तक नहीं आता ) इसे दुर्योधन की तरह आपके ही घर का एक सदस्य घर तक लेकर आ रहा है और घर के बाकी सदस्य उस दुर्योधन को समझाने और रोकने का प्रयास नहीं कर रहें और उसकी सजा वो खुद भी भुगत रहें और समाज भी भुगत रहा है। गांधारी अपने एक लाल को समझा लेती तो उसे अपने सौ पुत्रों की बलि नहीं चढ़ानी होती। हम भी अगर गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बाँधे रहे और घर के सदस्यों पर कड़ी नज़र नहीं रखें तो हमारा घर भी जीवन और मृत्यु के लड़ाई में शामिल हो जाएगा। 

(मेरे पहचान के एक दुर्योधन ने ये गलती की और सारा परिवार सजा काट रहा है)

शर्म आती है जब ऐसी स्थिति में भी राजनीति होती है,शर्म आती है जब ऐसी स्थित में भी अस्पतालों में लुटरे बैठे है ,( लूट लिया उस परिवार को लुटेरों ने )शर्म आती है जब ऐसी भयावह स्थिति को देखकर,अनगिनत जलती चिताओं को देखकर भी लोग दोषारोपण करते हैं,शर्म आती जब एक पढ़ा-लिखा समझदार दिखने वाला बंदा  लापरवाही से ये कहता है "ये कोरोना-वेरोना कुछ नहीं है सब नेताओं की चाल है। अरे !मानवरूपी पशु जाकर देखों उन घरों में जिन्होंने अपने प्रिय को तड़प -तड़पकर मरते देखा है और कुछ नहीं कर पाए  है यहाँ तक कि-उनकी अंत्येष्टि में  भी सम्मिलित नहीं हो पाए। 

"जो तन बीते वो तन जाने, क्या जानेगे मुर्ख-सयाने।"

हम मनुष्य जाति की सबसे बड़ी बिडंबना ही यही है कि -जब विपत्ति आती है तो हम बैठकर भगवान को कोसते है या उनसे मुनहार करते,मन्नते भी माँगकर प्रभु को रिश्वत देते हैं हाँ,कभी-कभी ये वादा भी करते हैं कि -"इस बार बचा लो प्रभु, अगली बार पूरी तरह सतर्क रहूँगा ,कोई गलती नहीं करूँगा,कान पकड़कर क्षमा मँगता हूँ "पर जैसे ही विपदा दूर हुई  "ढाक के वही तीन पात" फिर तो तुर्रमखां बन गए और वही गलती बार-बार नहीं हजार बार करते रहे हैं। 

आखिर क्यूँ करते हैं हम ऐसा ?क्या,हम अपनी गलतियों से सीखकर उसे सुधार नहीं सकते ?

अब भी देर नहीं हुई,अब भी सतर्कता और सावधानियां बरतेंगे, नियमो का पालन करेंगे,अपनी और सिर्फ अपनी गलतियों पर ध्यान देंगे तो इस काल से हमें मुक्ति मिल सकती है। जब तक ये कहते रहेंगे कि-"अरे दुनिया तो लापरवाही कर रही है हम ही क्यों सावधानी बरते" तो हो सकता है कि आप खुद काल का ग्रास ना बने मगर आपके अपने या आप से जुड़ा आपका कोई प्रिय या अनजान भी आपकी गलती की सजा भुगत सकता है। क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि -जब कोई रोड एक्सीडेंट होता है तो जिसकी गलती होती है वो तो बच जाता है मगर बेगुनाह मारा जाता है। सड़क पर चलते हुए हमें नहीं पता कौन अपनी लापरवाही  से मृत्यु को साथ लिए फीर रहा है तो ऐसे में सावधानियां हमें ही बरतनी है, हमें ही अपनी गाड़ी का कण्ट्रोल अपनी हाथों में रखना है । 

आर्युवेद और योग पर भरोसा करें...वक़्त आ गया है अपने पर भरोसा करने का..... अब भी नहीं किया तो फिर कभी नहीं..... 

(मैंने स्वयं कई घरों में आर्युवेद का चमत्कार होते देखा है, मौत के मुख से निकल आये है वो )

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

"एक और ज़िन्दगी"

 


कहते हैं "शरीर मरता है मगर आत्मा अमर होती है"

और वो बार-बार नई-नई पोषक पहनकर पृथ्वी पर आना-जाना करती ही रहती है। इसे ही जन्म-मरण कहते हैं। अगर इस आने-जाने की प्रक्रिया से मुक्ति पाना चाहते हैं तो आपको मोक्ष की प्राप्ति करनी होगी और मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर से लौ लगानी होगी। बहुत से लोग इस जन्म-मरण से छूटने के लिए ईश्वर की पूजा,तपस्या,साधना और भी पता नहीं क्या-क्या करते हैं। मगर मैं..."मोक्ष" नहीं चाहती...... 


 मैं जीना चाहती हूँ 

 एक और ज़िन्दगी 


पाना चाहती हूँ 

मां का ढ़ेर सारा प्यार, 

पापा का दुलार,

खोना चाहती हूँ 

बचपन की गलियों में

 फिर से, एक बार

जहाँ ना गम, ना खुशी

मस्ती और सिर्फ मस्ती

फिर से.... 

एक घरौंदा बनाकर,

 सखियों संग गुड़ियों का,

 ब्याह रचाकर,

 नाचना-गाना चाहती हूँ। 

यौवन के प्रवेश द्वार पर,

फिर से..... 

किसी से नजरें मिला कर, 

पलकें झुकाना चाहती हूँ। 

किसी के दिल को चुरा कर, 

उसे अपने दिल में छुपा कर,

फिर से... 

एक बार इश्क में फ़ना 

हो जाना चाहती हूँ। 

छुप-छुप कर रोना,

बिना बात मुस्कुराना,

आँखें बिछाए पथ पर,

फिर से....

 उसकी राह तकना चाहती हूँ। 

दुआओं में उसे मांगकर, 

 उसको अपना बनाकर,

उसकी सांसों में समाकर,

उसकी ही आगोश में

  मरना चाहती हूँ। 

उसकी झील सी गहरी आँखों में,

जहाँ बसते हैं प्राण मेरे,

 डुब जाना चाहती हूँ।

उसकी बाहों का 

सराहना बनाकर

चैनो-सुकून से 

सोना चाहती हूँ। 

आँखें जब खोलूं 

 मनमोहन की छवि निहारु 

माथे को चूम कर

उसे जगाना चाहती हूँ। 

 होली में उसके हाथों के  

लाल-गुलाबी-पीले रंगों से 

 तन-मन अपना 

 रंगना चाहती हूँ। 

 दिवाली के दीप जलाकर,

 उसके घर को रोशन कर,

 उसके प्रेम अगन में,

 जल जाना चाहती हूँ। 

संग-संग उसके 

  हवाओं में 

उड़ना चाहती हूँ। 

बारिशों में 

भीगना चाहती हूँ। 

कोरा जो पन्ना रह गया

उस पर

ख़्वाब अधूरे

लिखना चाहती हूँ।

एक और ज़िन्दगी 

 मैं जीना चाहती हूँ......

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

"पार्क"


"पार्क" अर्थात खुला मैदान 

लेकिन बिडंबना ये है कि-इतने खुले में भी आकर सब अपने आप में ही बंद रहते हैं। पुरे मैदान में हर तरह के हर उम्र के लोग दिखते है पूरा मैदान भरा होता है मगर कोई किसी का नहीं होता। आप दुसरे को देखते है दूसरा आपको। एक दूसरे के चेहरे को देखकर बस मन ही मन ये अनुमान लगाते रहते हैं कि -क्या वो खुश है या दुखी ?क्या वो अपने जीवन से संतुष्ट है या मेरी तरह वो भी असंतुष्ट। किसी को उदास देखकर भी कोई उसके पास जाकर संतावना के दो बोल भी नहीं बोलता। हाँ,कभी-कभी उसकी उदासी आपको और भी गहरी उदासी दे जाती है तो कभी किसी की मुस्कुराहट देख आप भी मन ही मन मुस्कुरा लेते है, पास में हँसते-खेलते,खिलखिलाते बच्चों को देखकर आप भी थोड़ी देर के लिए अपने बचपन में लौट जाते हैं बस। बिना किसी के दर्द बाँटे भी शायद थोड़ी तसल्ली तो यह जरूर मिलती होगी। शायद यही वजह है कि जब अकेले कमरे में तकलीफ बढ़ने लगती है तो अक्सर लोग बाहर निकल जाते हैं सड़कों पर,पब्लिक पार्क में या किसी पब में ही। यहाँ कोई आपको तसल्ली ना भी दे तो भी आपका दुःख या आपका मूड दूसरी तरफ करवट ले लेता है,इससे दुखों का बोझ कम तो नहीं होता बस  एक कंधे से दूसरे कंधे पर चला जाता है और थोड़ा रिलैक्स हो जाते है। 

 "पार्क" हमें ही सुकून नहीं देता होगा यकीनन हमारी मौजूदगी से उसे भी सुकून मिलता ही होगा,बच्चों की किलकारियों से वो भी गुलजार रहता था बड़ों के सुख-दुःख का साक्षी होना उसे भी भाता होगा।  मगर इन दिनों तो सबका ये सहारा भी छूट गया है।आप कामकाजी है तो एक दहशत के साथ दफ्तर जा रहे हैं और  डरते-डरते घर वापस आ रहे हैं। अगर घरेलु है तो बस एक बंद कमरा और साथ में आपकी नींद उड़ाने वाली खबरें। हमारे जीवन के साथ-साथ पार्क  में भी वीरानियाँ पसरी हुई है और बच्चें चारदीवारियों में कैद है....साँझ की बेला कटे नहीं कटती।  

जीवन का ये रूप पहले कभी नहीं देखा गया था और परमात्मा ना करें आगे किसी पीढ़ी को देखना पड़ें। 

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...