गुरुवार, 4 मार्च 2021

"खिलतें हैं फुल बनके चुभते हैं हार बनके"


   

"रिश्ते जो जिंदगी में मिलते हैं प्यार बनके  

    खिलतें हैं फुल बनके चुभते हैं हार बनके" 

वैसे तो, सामान्य जीवन में रिश्तों का बहुत महत्व है, अनमोल होते हैं ये रिश्ते। सच्चे और दिल से जुड़े रिश्ते कभी चुभते नहीं...वो हार बनकर भी गले की शोभा ही बढ़ाते हैं। ये गीत तो आज कल के युग की एक खास रिश्ते को बाखुबी परिभाषित कर रहा है वो रिश्ते हैं "आभासी दुनिया के रिश्ते" जो आजकल समाज में यथार्थ रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण जगह बना चुका है। सोशल मीडिया के नाम से प्रचलित अनेकों ठिकाने हैं  जहाँ ये रिश्ते बड़ी आसानी से जुड़ रहें हैं और हवाई पींगे भर रहें हैं "फल-फूल भी रहें हैं" ये कहना अटपटा लग रहा है क्योंकि वैसे तो हालात कही भी नजर नहीं आ रहें हैं। 

रिश्ते बनाना अच्छी बात है..किसी से बातें करना... किसी के अनुभव से जुड़कर कुछ सीखना...किसी का दर्द बाँटना.... किसी का हमदर्द बनने में कोई बुराई नहीं है। कितना सुखद होता है ये सब... किसी अजनबी से जुड़ आप खुद को उससे साझा करते हो....वो अपना ना होते हुए भी आपका हमराज बनता है....सही है। 

तो गलत क्या है ? आजकल के ऐसे रिश्तों को देख मेरा मन अक्सर ये सवाल खुद से ही कर बैठता है तो सोचा  क्यूँ न इस पर थोड़ा मंथन किया जाए,कुछ विचार-विमर्श हो। आभासी रिश्तों में फँस कर दर्द पालते हुए लोगों को देखकर मुझे बड़ी उलझन सी होती और ऐसी परिस्थिति में मन खुद ही मंथन करने लगता है।

  तो  चलते हैं, आज से बीस साल पीछे - जब हमारे पास रिश्तों के नाम पर कुछ खून से जुड़े रिश्तें और चंद गिने-चुने दोस्त ही हुआ करते थे। अब आपका उनके साथ जैसा भी संबंध हो बस, आपको निभाना होता था। क्योंकि उससे आगे का आप सोच भी नहीं सकते थे और यक़ीनन हम खुश रहते थे....भटकाव के रास्ते जो नहीं थे। आज बे-अंत द्वार खुले हैं....अनगिनत रास्ते है....आप जहाँ चाहे विचरण कर सकते हैं....जिससे चाहे संबंध बना सकते हैं.....मेरा मतलब दोस्त बना सकते हैं....कोई रोक-टोक नहीं है....कोई पहरेदारी नहीं है...आप स्वछंद है और सबसे बल्ले-बल्ले ये है कि -उन रिश्तों को निभाने की आप पर कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं है... यूँ कह सकते हैं कि -आप बिंदास होकर इन रिश्तों का लुफ़्त उठा सकते हैं। 

अब सवाल ये है कि-क्या ये रिश्ते दिल से जुड़े होते हैं और टिकाऊ होते हैं या ये सिर्फ मनोरंजक होते हैं ? मेरे समझ से तो ये बात अपने-अपने व्यक्तित्व पर निर्भर करता है,कुछ तो सचमुच दिल से जुड़ जाते हैं मगर अधिकांश के लिए ये सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन होता है (मनोरजन करने  वालों की तादाद ही ज्यादा है ) मनोरंजन करने वाले तो मनोरंजन करके निकल लिए....कोई और खिलौना  ढूंढने मगर....जो दिल से जुड़ जाते हैं वो तो यही कहते हैं -"खिलते हैं फुल बनके चुभते हैं हार बनके" इन रिश्तों में स्पष्ट दिखता है कि -इसकी ख़ासियत कम और ख़ामियाँ ज्यादा है फिर भी इसके मोहपाश में लोग बँधते  ही जा रहें हैं।

ऐसे रिश्ते बनाने की पीछे आखिर क्या मानसिकता है ? 

 आजकल की युवा पीढ़ी ऐसे रिश्तों का खेल खेल रहें है तो उनकी मानसिकता तो फिर भी समझ आती है। क्योंकि उन्होंने तो आँखें ही इस युग में खोली है जहाँ हर चीज़ उनके लिए बस "यूज एंड थ्रो" हो गयी है। उन्हें किसी चीज़ का मोह ही नहीं है हमारी तरह। लेकिन गौर करने वाली बात ये भी है कि-पिछले दस-पंद्रह सालों में इन फरेबी रिश्तों के चक्कर में पड़कर कितने युवक-युवतियों ने ( नाबालिगों ने तो और भी ज्यादा ) अपने हँसते-खेलते जीवन को तबाह कर लिया  है। जो समझदार है वो इन आभासी रिश्तों को आभासी ही समझ मनोरंजन कर निकल आते हैं और उस हार को गले में  डालते ही नहीं जो चुभें। 

  हैंरत तो तब होती है जब प्रौढ़ लोग और उससे भी ऊपर 50-60 साल के बेटे-बहु ,नाती-पोतो से भरे परिवार वाले समझदार लोग इन आभासी रिश्तों में उलझ जाते हैं। मैं ऐसे लोगो को बदचलन या रसिक मिज़ाज की संज्ञा बिलकुल नहीं दे रही। ऐसा नहीं है कि- ये सब इन्ही तरह के लोग है,सीधे-साधे भोले प्रकृति के लोग भी इस आभासी रिश्तों के बीमारी के शिकार हुए जा रहें हैं। हाँ,मैं तो इसे "बीमारी" ही कहूँगी क्योंकि स्वस्थ मानसिकता के लोग ऐसे रिश्ते बनाते जरूर है मगर इन रिश्तों के धागों में उलझतें नहीं है,इन रिश्तों को एक मर्यादित सीमा में ही रखते हैं जो उन्हें सिर्फ खुशियाँ ही देता है। 

आखिर क्या वजह है ऐसे रिश्तों को दिल से लगाने की और उसमे दर्द पालने की ? 

आखिर क्यूँ आज सब हक़ीक़त की धरातल छोड़ आभासी आसमान में उड़ना चाहते हैं ?आखिर  क्या पाने की चाहत होती है ? कोई प्रलोभन  या दिखावे के ही सही स्नेह और अपनत्व के चंद बोल की लालसा या उलझ जाते हैं दूर से चाँद का  लुभावना  रूप-रंग देखकर या खुद के मन को खोलकर साझा करना चाहते है वो दर्द जो यथार्थ के रिश्तों में उन्हें मिले होते हैं या भरना चाहते हैं अपने मन और जीवन के ख़ालीपन को ? 

 जब एक स्त्री दूसरी स्त्री से आभासी दोस्ती की डोर में बँधती है (जो कि अमूमन कम ही होता है ) तो अवश्य ये उनके लिए सुखद है क्योंकि वो इस आभासी रिश्ते में अपनी वो बातें, अपना वो दर्द, जो वो किसी से साझा नहीं कर पाती वो सुनने और समझने वाला उसे कोई दोस्त मिल जाता है,जो उसकी बात किसी और तक नहीं पहुँचाएगी। लेकिन जब एक स्त्री और पुरुष की आभासी दोस्ती होती है तो यहाँ भी ये  फार्मूला लागू  होता है कि -"एक लड़का-लड़की कभी दोस्त नहीं होते" (अपवाद से इंकार नहीं किया जा सकता )  तो ये रिश्ते बहुत कॉम्प्लिकेटेड हो जाते हैं और अक्सर दर्द और बदनामी ही दे जाते हैं। 

फिर हमारी पीढ़ी की कुछ  खास बुराई भी है वो सपने में ज्यादा जीती है शायद हक़ीक़त  की धरातल पर उसे वो सुख नहीं मिल पता जो उसे चाहिए और दूसरा सपनों को भी सच मान यदि वो किसी रिश्ते से जुड़ गई तो उसका दर्द भी दिल में पाल लेती है। हाँ,कुछ लोग तो इस गम से निकल आते हैं कुछ का इससे उबर पाना मुश्किल होता है। यहाँ स्त्री या पुरुष कहना उचित नहीं है क्योंकि पुरुष तो पहले से समझदार थे अब तो स्त्रियाँ भी समझदार हो गयी है। 

ये कहावत बिलकुल सही है और यहाँ शत-प्रतिशत लागू होता है कि-"दूर के ढ़ोल सुहाने लगते हैं" पास आते ही वो मात्र शोर होता है। आभासी रिश्ते भी कुछ ऐसे ही होते हैं।  वैसे तो रिश्तों में थोड़ा बहुत स्वार्थ तो होता ही है मगर ये रिश्ता तो शायद, पूर्णतः स्वार्थ और आकर्षण में ही लिप्त होता है इसीलिए और जल्दी दर्द दे जाता है।( इसमें भी अपवाद से इंकार नहीं किया जा सकता)  मेरी समझ तो यही कहती है कि -आभासी  या मिथ्य रिश्तों को छोड़ यथार्थ के रिश्तों के साथ में जीना ही समझदारी है। दूर के दोस्त से भला पास का दुश्मन होता है। एक ऐसे व्यक्ति के साथ रिश्तों में उलझना जिसके व्यक्तित्व से आप पूरी तरह अनभिज्ञ हो  जो सिर्फ एक भ्रम है ये खुद को छलना ही होता है। 

वैसे एक  नज़रिये से देखा  जाए तो आभासी रिश्ते बेहद पवित्र होने चाहिए क्योंकि इसमें देह से जुडा कोई स्वार्थ नही होता। भक्त और भगवान का रिश्ता भी तो आभासी ही होता है।   कही-कही तो देखने में आता है कि -अकेलेपन के शिकार बुजुर्गों के लिए तो ये वरदान भी साबित होता हैं। कभी-कभी तो ये रिश्ते  बड़ी ही सुखद अनुभूति कराते हैं.....आप जिसे जानते नहीं....जिससे कभी देखा नहीं....उससे मन से जुड़ जाते हैं...वो अपना सा लगने लगता है....कभी-कभी तो वो पिछले जन्म का  बिछुड़ा  मीत सा लगता है। इस नज़रिये से देखा जाए तो आभासी रिश्ते बेहद खूबसूरत और सुकून देने वाले होने चाहिए।मगर ऐसा होता नहीं है..... अक्सर लोग इस रिश्ते को अपवित्र बना लेते है ( खासतौर पर स्त्री और पुरुष का रिश्ता)  क्योंकि आज की हक़ीक़त  ही यही है कि-रिश्तों से पवित्रता ही खत्म हो गई है वो चाहे आभासी हो या यथार्थ। आभासी रिश्ते भी अमूमन किसी न किसी स्वार्थ वश ही बन रहे हैं। 

  एक दर्द को मिटाने के लिए दूसरा गम पाल लेना ये कहा की समझदारी है। मेरी समझ तो यही कहती हैं कि -इन आभासी रिश्तों में उलझ कर एक और दर्द पालने से अच्छा है जो रिश्ते हमारे पास है उसे ही खूबसूरत और खूबसूरत बनाने में अपना मनोयोग लगाना ही उचित है। 

जिनके पास खूबसूरत आभासी रिश्ते है जो उन्हें सिर्फ खुशियां और सुकून देते है तो वो बड़े भाग्यशाली है। मैं भी भाग्यशाली हूँ,मेरे पास भी मेरी कुछ प्यारी सखियाँ है। मगर ऐसे रिश्ते जो दर्द दे उनसे खुद को बचाने में ही समझदारी है। मेरी  मनसा किसी की भावनाओं को आहत करना बिलकुल नहीं है ये बस  मेरी व्यक्तिगत सोच है आपकी राय मेरे से इतर हो सकती है और उसका मैं सम्मान भी करती हूँ। 



 

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

"ह्यूमन साइकोलॉजी"

 


 

 "आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे 

          बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए " 

इस गीत की मधुर सुरलहरी वातावरण को एक सुखद एहसास से भर रहा  है सोनाली खुद को आईने में निरखते हुए अपनी बालों को सवाँर रही है और गीत के स्वर के साथ स्वर मिलाते हुए  गुनगुना भी रही। और मैं ...खुद को निरखती हुई सोनाली को निरखे जा रही हूँ। अचानक सोनाली की नजर मुझ पर  पड़ी, मेरी भावभंगिमा को देख वो थोड़ी झेप सी गई। थोड़ा शर्म थोड़ा नखरा दिखाते हुए बोली-"क्या देख रही हो माँ।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा-"बस, अपनी बेटी को खुश होते हुए देख रही हूँ....उसके चेहरे के निखरते हुए रंग-रूप को देख रही हूँ....उसके बदले हुए हाव-भाव को देख रही हूँ।वो मेरे पास आकर मुझसे लिपटते हुए बोली-" हाँ माँ,जब से राज मेरे जीवन में आया है न सबकुछ अच्छा-अच्छा सा लग रहा है" फिर मेरे चेहरे को गौर से देखते हुए पूछ बैठी -"तुम भी खुश हो न माँ"  मैं झट से खुद को उससे  अलग कर ये कहते हुए उठ गई कि -अब हटो मुझे जाने दो, बहुत काम पड़ा है। पता नहीं ऐसा क्यूँ लगा जैसे सोनाली ने मेरी दुखती रंग पर हाथ रख दिया हो या मेरी कोई चोरी पकड़ ली हो। 

(राज और सोनाली की कहानी जानने के लिए पढ़े-"पीला गुलाब " और "बदनाम गालियाँ या फूलों से भरा आँगन ")

   राज और सोनाली ने जब से मेरे सामने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया था और मैंने उनकी ख़ुशी पर अपनी रज़ामंदी की मुहर लगा दी थी तब से वो दोनों बड़े खुश रहने लगे थे और मेरे आगे भी थोड़े खुल से गए थे। अब उन्हें अपनी भावनाओं को छुपाने की जरूरत जो नहीं थी। चुकि शुरू से भी मैं उनके साथ दोस्त बनकर ही रही थी तो अब वो मुझे और भी अच्छा दोस्त समझने लगे थे और उन्हें मुझसे कोई खास झिझक नहीं थी। मगर वो अपनी मर्यादाओं का उलंघन कभी नहीं करते। राज हमारे ही बिल्डिंग के एक फ्लैट में ही रहता था तो काम से आने के बाद अक्सर वो हमारे साथ ही रहता था या यूँ कहे सिर्फ सोने अपने घर जाता था। वैसे तो ज्यादा वक़्त वो दोनों मेरे साथ ही गुजारते थे,कही भी आना जाना हो मुझे साथ ही लेकर जाते थे। मैं कहती भी कि -बेटा, आप दोनों जाओं मुझे रहने दो। पर दोनों नहीं मानते कहते, आपके बिना मज़ा नहीं आएगा....फिर आप घर में अकेली कैसे रहोगी....क्या करोगी, वगैरह-वगैरह। वो दोनों एक दूसरे के साथ खूब मौज-मस्ती करते,एक दूसरे को छेड़ते या लड़ते,लड़ने के बाद सॉरी बोल एक दूसरे को मनाते,एक दूसरे की पसंद के खाने बनाते या ऑडर कर मंगवाते, एक दूसरे के पसंद-नापसंद का भी पूरा ख्याल रखते।जब से राज मिला था सोनाली रोज सुबह उठकर मेरे लिए चाय बनाकर मुझे जगाने आती। मुझे प्यार करके जगाने के बाद कहती- माँ राज को बुला लाऊँ। मैं भी हामी भर देती वो ख़ुशी-ख़ुशी भागकर जाती और राज को बुला लाती फिर हम तीनो एक साथ ही चाय पीते। जबकि, पहले मुझे चाय लेकर सोनाली को जगाना पड़ता था। उसे ऐसा करते देख मुझे बेहद ख़ुशी होती और तसल्ली भी कि-मेरी सोनाली बड़ी हो गयी अब कल को घर-गृहस्ती का बोझ जब उसके कंधे पर पड़ेगा तो वो सरलता और ईमानदारी से संभाल लेगी। 

    उनका ये प्यार और साथ देखकर मैं खुश होती ..बहुत-बहुत खुश होती मगर, कभी-कभी मन यूँ ही उदास हो जाता। जब भी उन दोनों को एक दूसरे में मगन देखती, हँसी-ठिठोली करते देखती.....होठों पर तो मुस्कान आ जाती मगर, पता नहीं क्यूँ आँखों में आँसू भी आ जाते। उन दोनों की ख़ुशी मेरे लिए बहुत मायने रखती थी यूँ कहे अनमोल थी मगर, उनकी ख़ुशी को देखकर अंदर एक टीस सी उभर जाती। शायद, थोड़ी जलन सी भी होने लगती....एक खालीपन सा महसूस होने लगता......अपने जीवन को टटोलने लगती.....ये तलाश मुझे अतीत में धकेल देती.....अतीत में घूमते हुए खुद से सवाल कर बैठती -"क्या मैंने जीवन जिया हैं या बस वक़्त गुजरा है ?"  वक़्त भी कैसा कि- जिसे खगालने पर ख़ुशी के एक मोती तक को पाने का सुख भी ना मिलाता  हो..... एक दुःख अंदर कचोटने लगता काश,  हम भी आज की पीढ़ी में जन्म लिये होते.....हमारे माँ-बाप भी हमारी भावनाओं को समझ पाते....अतीत की गलियों में भटकते-भटकते आँखों में ऐसी चुभन होने लगती कि -आँसू स्वतः ही निकल पड़ते.....आँसुओं के खारेपन का स्वाद आते ही झट, वर्तमान में लौट आती......आँसू पोछती.....खुद को मजबूत करती और खुद से ही एक प्रण लेती....."जो मुझे नहीं मिला वो मैं  अपनी संतान को दूँगी....वो हर ख़ुशी  पाने में उनका साथ दूँगी जो उनके वर्तमान और भविष्य दोनों को महका दे।" और वो पल मुझे खुद पर ही गर्व करने के लिए काफी होता। ऐसे  लम्हे  एक बार नहीं कई बार मेरे आगे से गुजरता.....मैं उदास होती....भीतर एक टीस उभरती....जिस पर खुद ही मरहम लगाती.....खुद की हौसला अफजाई करती......खुद की ही पीठ थपथपाती मगर, खुद पर गुजरते इन पलों का एक भी असर अपनी सोनाली पर ना होने देती। 

    साइकोलॉजी पढ़ा तो बहुत था मैंने मगर,  इन दिनों मैं ह्यूमन  साइकोलॉजी के कुछ खास थ्योरी को अच्छे से महसूस कर पा रही हूँ। आप कितने भी निस्वार्थी हो जाओं, कही ना कही एक छोटा सा स्वार्थ छुपा ही रहता है......आप कितने भी त्यागी बन जाओं मगर, कही ना कही उस त्याग की कसक दिल में बनी ही रहती है..... दूसरे की ख़ुशी में कितने भी खुश हो जाओं मगर, हल्की सी जलन आपको जलाती ही है।  (वो दूसरा आपका सबसे प्रिय ही क्यों ना हो ) इतना ही नहीं खुद को किसी के ख़ुशी का निमित समझना या खुद को ये  श्रेय देना कि-मेरी वजह से ये अच्छा हुआ है, ना चाहते हुए भी आपके भीतर अहम भाव ला ही देता है। एक और सच से रूबरू हुई "बहुत ज्यादा ख़ुशी भी कभी-कभी तन्हाई और खालीपन का एहसास करवाती है।" सच,यही है "ह्यूमन  साइकोलॉजी"

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

"बैठ झरोखे सोच रही हूँ----"

मेरी पहली कविता, एक तुच्छ प्रयास 

(जानती हूँ गलतियाँ बहुत हुई होगी,यकीन करती हूँ कि-आप सब के सानिध्य में सीख भी जाऊँगी )

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बैठ झरोखे सोच रही हूँ 

क्यूँ,पतझड़ के दिन आते हैं

         हर वर्ष बसंत आकर             

क्या, जीवन-पाठ  पढ़ाते हैं  

परिवर्तन है सत्य सृष्टि का 

याद दिलाकर जाते हैं 

रंग बदलते शाखों के पत्ते 

धीरे-धीरे मुरझाते हैं 

तोड़कर बंधन 

अपनी शाखों से 

फिर धरा पर गिर जाते हैं 

 सूनी डाली हो जाती है 

दर्द लिए  बिछड़न का 

बैठी-बैठी मैं देखूं 

ढंग भी ये कुदरत का  

अगली सुबह 

अब उसी शाख पर 

नई सृजन देख रही हूँ 

छोटी-छोटी कोमल पत्तियां  

नन्हे शिशु के कोमल तन सा 

जन्म देकर नई रचना को 

 प्रकृति हमें समझाती है 

जन्म-मरण तो लगा रहेगा 

जीवन आनी-जानी है 

चंचल शैशव धीर-धीरे 

यौवन को छूता जाएगा  

यौवन खुद के रूप पर 

इठलाता नजर आएगा

लेकिन एक समय के बाद  

बुढ़ापा भी आएगा  

सत्य-सनातन है मृत्यु तो  

हे मानव ! इससे तू 

कब तक भाग पायेगा 

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चित्र-स्वयं के कैमरे से 

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...