मन थोड़ा विचलित सा हो रहा था.... शायद, अकेलेपन से घबड़ा रहा था.... सोची, थोड़ी देर छत पर जा कर खुली हवा में बैठती हूँ.... शायद, थोड़ा अच्छा लगे। छत से समुन्द्र का नजारा भी सुंदर दिखता है... मैं कुर्सी पर बैठी-बैठी समुन्द्र की लहरों को देखती रही... पता नहीं, क्या ढूँढ रही थी उसमे....शायद, एक झूठी उम्मींद सी थी कि - इसमें से कोई देवदूत बाहर आएगा और मुझे मेरी सारी समस्याओं से निजात मिल जायेगी । मेरी आँखें पूरी समुन्द्र का मुआयना कर जैसे, सचमुच कुछ ढूँढ रही थी। तभी लहरों पर हिचकोले लेती एक नाव दिखाई पड़ी... बिना नाविक के ...शायद, किसी मछुआरे की नाव डोर से टूटकर समुन्द्र में बह आई थी। लहरों के साथ वो अल्हड़ सी नाव.... कभी इधर डोलती कभी उधर। लहरों और हवाओं का साथ पाकर कभी-कभी वो किनारे तक आने में सफल होती दिखाई पड़ रही थी....मगर, जैसे लगता कि- अब तो वो किनारे पर आ ही जाएगी... तभी कोई बिपरीत लहर आकर उसे फिर से किनारे से दूर कर देती। उसे देख मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी ...क्या ये नाव किनारे तक आ पायेगी ? दिल ने उसके लिए दुआ भी करनी शुरू कर दी....काश, ये नाव किनारे तक सुरक्षित पहुँच जाती... तो एक मछुआरे का नुकसान होने से बच जाता। पता नहीं कैसे,उस नाव को देखते-देखते मुझे ये लगने लगा जैसे वो नाव नहीं "मैं" खुद हूँ। मेरी जीवन नईया भी तो ऐसे ही डगमग डोल रही है...जब भी अथक प्रयास कर, मैं अपनी मंजिल तक पहुँचने को होती हूँ... तभी कोई ना कोई बिपरीत परिस्थितियों की लहर मुझे धकेलती हुई फिर से मझधार में ला खड़ी करती है और "मैं" फिर से किनारे तक पहुँचने के जुगत में लग जाती हूँ....फिर से हिम्मत जुटती हूँ और फिर से एक नई शुरुआत करने को विवश हो जाती हूँ। क्या , इस नाव की तरह मैं भी हिचकोले ही खाती रहूँगी..... मुझे, अपना किनारा कभी मिलेगा भी या नहीं? अब तो मेरी उत्सुकता और बढ़ गई... ऐसा लगने लगा जैसे, अगर ये नाव किनारे पर आ लगेगी तो, एक- न -एक दिन अवश्य मैं भी अपनी मंजिल पा ही लूँगी।
घंटों मैं बैठी, नाव को देखती रही.... नाव किनारे पर आने में असमर्थ होती और मेरा दिल बैठने लगता ..तभी दूर से एक और नाव आती दिखाई दी.... उसकी चाल देखकर लग रहा था वो बिना माझी की नाव नहीं है... उसकी पतवार किसी ने सम्भाल रखी है....वो नाव धीरे-धीरे करीब आती गई... माझी ने मझधार में डोलती नाव पर कुछ काँटे जैसा फेका जिससे वो नाव माझी के हाथ में थमी उस मजबूत डोर से बँध गई , माझी उस नाव को साथ लेकर किनारे की तरफ बढ़ने लगा। दोनों नाव सही सलामत किनारे आ लगी थी। मेरी जान में जान आई... ऐसा लगा जैसे मुझे किनारा मिल गया हो। समझ में आ गया था कि -यदि माझी साथ हो तो नाव को किनारा जरूर नसीब होता हैं । मेरा माझी भी तो हर पल मेरे साथ हैं... भले ही वो मुझसे दूर सही... मगर, एक मजबूत डोर से उसने मुझे खुद से बाँध रखा हैं....फिर, मैं क्युँ डर रही हूँ ... देर से ही सही.... मुझे भी एक-न -एक दिन किनारा जरूर मिलेगा ....जब, साथ हो माझी तो किनारा भी करीब है....