मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

किस्मत कनेक्शन  (संस्मरण )

  


     कभी कभी जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ घटित हो जाती हैं कि -प्रेम,आस्था और विश्वास जैसी भावनाओं पर नतमस्तक होना ही पड़ता हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसी ही घटना घटित हुई थी और मेरे आत्मा से ये तीनो  भावनाएँ ऐसे जुडी कि -ना कभी उन्होंने मेरा साथ छोड़ा और ना मैंने उनका। 

    बात उन दिनों की है जब हम शादी के बाद हनीमून के लिए  काठमांडू ( नेपाल ) गए थे। दरअसल हनीमून तो बस एक बहाना था हमें तो अपनी नन्द की बेटी के जन्मदिन पर जाना था। मेरे पति की मुझबोली बहन वहाँ रहती थी और उन्होंने ही हमें अपनी बेटी के जन्मदिन पर बुलाया था। मेरी ननद की कहानी बड़ी ही मार्मिक थी, उनके तीन बच्चे हुए मगर कोई भी छह माह से ज्यादा जीवित नहीं रह पाया था। ये उनकी चौथी संतान थी जो एक साल पूरा कर रही थी। इसलिए मेरी ननद के लिए अपनी बेटी का पहला जन्मदिन मनाना सचमुच बड़े ही सौभाग्य का दिन था। इसलिए हमारा उनकी ख़ुशी में शरीक होना लाजमी था।

    मेरी ननद और नन्दोई का मेरे पति के साथ बड़ा ही प्यारा रिश्ता था और उन्होंने मुझे भी बड़ा मान दिया ,हमारी आवभगत में कोई कमी नहीं की। तीन बच्चों  के मरणोपरांत चौथी संतान का  एक साल पूरा होते देखना मेरी ननद और हम सब को बहुत ही ज्यादा ख़ुशी की अनुभूति करा रहा था। मेरी ननद के आँखों से ख़ुशी के  आँसू  रुक ही नहीं रहे थे। उन्होंने बेटी के जन्मदिन की सारी जिम्मेदारी मुझे दे दी, यानि बेटी को सजाना -सवारना ,पूजा में बैठना ,केक कटवाना सब कुछ उन्होंने मेरे ही हाथो करवाया। उनके शब्दों में -" भाभी आपके कदम मेरी बेटी के लिए शुभ हो और उसे स्वस्थ लम्बी उम्र का वरदान मिले। " मैं उनके इस स्नेह और विश्वास पर पूरी तरह नतमस्तक थी। दो चार दिनों में सोनाली  (बच्ची) भी मुझसे ऐसे घुल मिल गई कि मुझे भी मम्मा ही बुलाने लगी। 

      जन्मदिन के अगले दिन हमारा " स्वयंभू "दर्शन करने जाने का प्रोग्राम था। नन्द ने कहा  -भाभी आप सब हो आओ ,मैं तो कई बार गई हूँ और मैं थक भी बहुत गई हूँ। हमने कहा ठीक हैं। नन्दोई , उनकी छोटी बहन और हम दोनों पति -पत्नी जैसे ही चलने को हुए सोनाली रोने लगी और मुझे पकड़ लिया ,वो मेरे साथ ही जाने की जिद करने लगी।ननद बोली- " इसे भी साथ ले जाइयें ,अच्छा हैं मैं थोड़ा आराम भी कर लूँगी  " मैं खुश हो गई क्योकि सोनाली से मुझे भी  काफी लगाव हो गया था । 

" स्वयंभू "भगवान बुद्ध का मंदिर हैं और काठमांडू में सबसे ऊंचाई पर बसा हैं। घर से एक- डेढ़ घंटे का रास्ता था। वहाँ  हर वक़्त बे मौसम की बरसात होती ही रहती थी ,उस दिन भी  रात में  काफी बारिश हुई थी और लगातार हल्की फुल्की बारिश हो ही रही थी। काठमांडू के पहाड़ी रास्ते बड़े ही संकरे होते हैं। अभी हमें निकले आधा घंटे ही हुए थे कि एक जगह हमारी गाड़ी बड़ी तेजी से फिसली ,लेकिन ड्राइवर ने संभाल लिया। सोनाली उस वक़्त मेरी गोद में थी ,झटके लगने पर मैं खुद को संभाल नहीं पाई और सोनाली को हल्की चोट लग गई। मैंने उसे नन्दोई को दे दिया जो अगली सीट पर बैठे थे। पता नहीं क्यों ,उस झटके ने मेरी धड़कने बढ़ा दी ,मुझे किसी अनहोनी की आशंका सी होने लगी और मैं मन ही मन गुरुदेव को याद कर  गायत्री मंत्र का जाप करने लगी।
       लेकिन जैसे ही हम थोडा और आगे गए ,पीछे से एक गाड़ी  तेज रफ्तार में आई और हमें ओवरटेक करती हुई निकली ,हमारा ड्राइवर गाड़ी संभाल नहीं पाया और गाड़ी का पिछला पहिया सीलिप कर गया, हमारी गाड़ी पलटने लगी। चुकि ढलान ज्यादा खड़ी नहीं थी सो गाड़ी आहिस्ता आहिस्ता पलटी खाने लगी। जैसे ही गाड़ी ने पहली पलटी खाई ,उस वक़्त पतिदेव का हाथ मेरे हाथ में ही था मैंने उनका हाथ जोर से पकड़ लिया और मेरे मुख से एक ही आवाज़ आई -" हे गुरुदेव मेरी सोनाली की रक्षा करना "और गायत्री मंत्र स्वतः ही मेरे मुख से तेज़ स्वर में निकलने लगा। पता नहीं क्युँ उस वक़्त मुझे सोनाली के अलावा और किसी का ख्याल ही नहीं आया। अचानक लगा जैसे हमारी गाड़ी रूक गई। देखा तो ,ढेरों पहाड़ी लोग हमारी गाड़ी को एक तरफ से पकड़ रखे हैं ,उनमे से कुछ लोगों ने  हमारी गाड़ी के खिड़की का सीसा तोडा और हाथ बढ़ाकर एक एक करके धीरे धीरे हमें  निकालने लगे। हम बड़ी सावधानी से सरकते हुए बाहर निकल रहे थे। गाड़ी बुरी तरह हिल रही थी ,ऐसा लग रहा था कि अब पलटी की तब पलटी ,दिल धड़क रहा था कि कौन बचेगा कौन नहीं?
    
   दरअसल गाडी लुढ़कती हुई करीब 40-45 फीट नीचे जहाँ गिरी थी वहाँ गोभी के खेत थे और बारिस की वजह से खेत की मिट्टी काफी गीली थी जिसकी वजह से गाड़ी के एक साइड के दोनों पहिए मिट्टी में धंस गए थे। यदि उसके बाद गाड़ी एक बार भी पलटती तो सीधे हजारों फीट गहरी खाई में गिरती।ऐसी स्थिति में पहाड़ियों ने गाडी को पकड़ रखा था लेकिन अगर जरा सा भी उनका  संतुलन बिगड़ता तो गाड़ी और हमारे साथ साथ कई पहाड़ी भी नीचे  जा सकते थे जहाँ से अंतिम संस्कार के लिए हमारी हड्डियों का मिल पाना भी मुश्किल था। पहाड़ियों के साहस  और सहयोग से हम एक एक करके बाहर निकले। बाहर निकलते ही मेरी नजर सबसे पहले सोनाली को ढूँढने  लगी। मैं जोर से बोली -सोनाली कहाँ हैं ? एक प्यारी सी आवाज़ आई -" मम्मा ..."मैंने देखा दोनों बाहें फैलाये सोनाली मेरी तरफ देखती हुई मुझे आवाज़ दे रही थी। मैं दौड़कर नन्दोई के गोद से सोनाली को अपनी बाहों में भरकर गले से लगा ली ,मेरी आँखों से अश्रुधारा फुट पड़े। सोनाली भी मम्मा -मम्मा कहती हुई  मेरे चेहरे को चूमें जा रही थी।

   सोनाली को सुरक्षित देख मेरी जान में जान आई। सभी सुरक्षित बाहर निकल आये थे। आश्चर्य की बात किसी को एक खरोंच भी नहीं आई थी बस ड्राइवर को थोड़े से जख्म आये थे। अब 40 फीट ऊपर सड़क तक पहुंचना भी हमारे लिए बहुत कठिन था वो तो भला हो उन पहाड़ी देवताओं का उन्होंने हमारा हाथ पकड़ संभाल संभाल कर ऊपर सड़क तक ले आये ।ऊपर आने के बाद हम सबने उन पहाड़ी फ़रिस्तों को दिल से शुक्रिया कहा। उन्होंने बड़े भोलेपन से कहा "-परमात्मा को धन्यवाद कहो यहाँ से गिर कर कोई नहीं बचता हैं। " सचमुच जब ऊपर से अपनी गाड़ी को हमने देखा तो हमारे लिए भी यकीन करना मुश्किल था कि -" हम ज़िंदा हैं "

   मेरे पति ने मुझसे पूछा -"अब क्या करे घर चलें " मैंने कहा -"नहीं ,हम मंदिर जाएंगें "उन्होंने कहा -आगे का रास्ता भी ऐसा ही हैं। मैंने कहा -अब कुछ नहीं होगा ,अनहोनी टल गई। हमनें अपने कपड़ों पर लगे कीचड़ को साफ किया ,दूसरी गाड़ी बुक की और चल पड़े " स्वयंभू " दर्शन को। जब वापसी लौट रहे थे तो ड्राइवर उसी रास्ते की ओर मुड़ने लगा तो मेरे नन्दोई ने उससे नेपाली भाषा में कहा कि -" इस रास्ते नहीं चलों ,दो घंटे पहले इसी सड़क पर हमारा एक्सीडेंट हुआ हैं। " ड्राइवर हमें गौर से देखता हुआ बोला -" मजाक कर रहें हो सर ,इस रास्ते पर किसी का एक्सीडेंट हो और वो जिन्दा बच जाएं ,हो ही नहीं सकता और आप लोगो में से किसी को तो खरोंच तक नहीं आई हैं। " नन्दोई ने समझाया -यकीन करों भाई ,ऐसा ही हुआ हैं। अब तो ड्राइवर जिद पर अड़ गया बोला -मुझे तो देखना हैं ,कहाँ एक्सीडेंट हुआ था और मोड़ लिया गाड़ी उसी रास्ते पर। जब हम उस जगह पर पहुंचे तो वहाँ अब भी भीड़ इकठी थी ,ड्राइवर गाडी रोक कर उतरा और देखने लगा ,हम सभी भी उतरे। पहाड़ियों ने देखते ही हमें पहचान लिया और हमें घेर लिया ,सब सोनाली के माथें को सहलाते हुए  दुआएं देने लगे ,आपस में बातें करने लगे -" इनकी रक्षा तो परमात्मा ने की हैं।"  हमारा ड्राइवर भी देखकर दंग था बोला - " बड़ी लकी हो आप सब। " वहाँ गाड़ी का मालिक आ गया था ,गाडी को क्रेन के द्वारा निकला जा रहा था। घायल ड्राइवर को हॉस्पिटल भेज दिया गया था।

   जब हम घर पहुंचे तो मेरी नन्द सारी घटनाक्रम को सुनकर मुझे पकड़कर रोने लगी और बोली -" भाभी आप की वजह से सोनाली पर से एक खतरा टल गया और उसकी जान बच गई "  मैंने कहा - " आप गलत बोल रही हैं ,हमारी किस्मत अच्छी थी कि सोनाली हमारे साथ थी ,उसकी वजह से  हम सब की जान बची "  हम सभी ने ईश्वर का धन्यवाद किया। उस दिन यकीन हो चला था कि -" आस्था में बहुत शक्ति होती हैं " मेरी एक गुहार -" गुरुदेव ,मेरी सोनाली की रक्षा करना " इतना सुन गुरुदेव ने हम सभी को बचा लिया था। 

   शायद हमारे देश में आस्था को इसीलिए इतना महत्व दिया जाता हैं। एक आस्था पथ्थर को भी भगवान बना देती हैं, आस्था से ही विश्वास की उत्पति होती हैं और विश्वास  निस्वार्थ प्रेम को जन्म देता हैं। या यूँ भी कह सकते हैं कि -" प्रेम से आस्था उपजती हैं और आस्था से विश्वास " बात एक ही हैं। मुझे नहीं पता उस दिन उस बच्ची सोनाली के कारण हम बचें या हमारी वजह से सोनाली। सत्य तो यही था कि -" हम दोनों के निश्छल प्रेम ने हमारी रक्षा की थी। " (संस्मरण )






गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

सिर्फ एहसास हैं ये.....

   



   "पता नहीं कहाँ रख दिया मैंने सारे पुराने कागजात यही तो संभाल कर रखता हूँ ,आज जरूरत हैं तो मिल नहीं रहा " पुराने कागजातों को समेटते समेटते झल्लाहट सी हो रही थी तभी अचानक से एक डायरी नीचे आ गिरी , उस डायरी पर  नजर पड़ते ही अतीत के पदचाप सुनाई पड़ने लगे  ,अभी मैं सम्भलता  तब तक तो वो दिल का दरवाजा खटखटाने लगा। दिमाग  ने कहा -"अनसुना कर दो इस दस्तक को " पर दिल के कदम पता नहीं कब आगे बढ़ गए और उसने कुण्डी खोल दी। डायरी रुपी दरवाजे की कुण्डी खोलते ही चंद गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखर कर मेरे कदमों पर आ गिरें ।तन मन सिहर उठा -उफ़ ,ये क्या हो गया ,ये पवित्र फूल मेरे पाँव को छू गया ,ये कैसा गुनाह हो गया।  मैंने झट से उन पंखुड़ियों को समेट माथे से लगाया ,और फिर उसे डायरी के पन्नो में समेट कर बंद कर देना चाहा। पर एक बार जब अतीत का  दरवाजा  खुल जाता हैं फिर उसे बंद करना ............नहीं हो पाया मुझसे भी।

   डायरी खोलते ही अतीत ऐसे  रूबरू हो आया जैसे अभी भी वो मेरा हाथ पकड़कर बैठी हैं ,उसकी आँखें डबडबाई  हुई हैं ,उसके मुख से निकले एक एक शब्द अंतर्मन में उतर रहें हैं -" नहीं जी पाउँगी  तुम्हारे वगेर ,जीवन का ये लम्बा सफर अकेले कैसे तय कर पाउँगी  ,थक  जाऊँगी ,गिर कर टूट जाऊँगी , शायद मर भी जाऊँ " मैंने झट उसके लबों पर अपनी हथेली रख दी -" अब एक लफ्ज भी आगे नहीं बोलोगी  ,मरना  तो दूर मैं तुम्हे थकने भी नहीं दूँगा  ,जहाँ लडखड़ाओगी  थाम लूँगा ,ना कभी गिरने दूँगा ना बिखरने ,मेरी बाहें हर पल तुम्हें समेटने के लिए खुली होगी। "  वो तड़प उठी  -" मगर कब तक... "  जब तक मैं जिन्दा हूँ ,नहीं मरने के बाद भी -  उसकी हथेलियों को चूमते हुए मैंने कहा । उसके होठों पर एक मीठी दर्द भरी मुस्कान आ गई -" दिलासा दे रहें हो ?" मैंने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा  - नहीं ,ये कोरी दिलासा नहीं हैं ,जीवन के सफर में तुम जब भी पीछे मुड़कर देखोगी ,अपने पद चिन्हों पर एक और पद चिन्ह पाओगी। ,मैं तुम्हारे हर पदचाप को सुनते हुए  तुम्हारे पीछे पीछे चलता  रहूँगा  ,जीवन के किसी भी मोड़ पर तुम खुद को अकेला नहीं पाओगी  ,मेरा जिस्म तुमसे जुदा हो रहा हैं रूह नहीं। "
    अरे पापा  मिला क्या ,अंकल आपको बुला रहे हैं। आवाज़ कानों में पड़ते ही मैं वर्तमान के आँगन में आ खड़ा हुआ ,डायरी को बंद कर आलमारी में डाला और कागजात ढूँढने लगा । लेकिन ये कहाँ संम्भव हैं.....अतीत का दरवाज़ा जब एक बार खुल जाता हैं तो उसके बाद आप उसे बंद करने की लाख कोशिश करो ,नहीं होता वो अंदर आने को कोई ना कोई झरोखा ढूँढ ही लेता हैं । पुरे दिन वर्तमान और अतीत के बीच खींचा -तानी होती रही। रात का सन्नाटा फैलते ही  अतीत शक्तिशाली हो उठा ,दिन भर जिन दरवाज़ों और खिड़कियों को मैं जबरन बंद करता  रहा था रात होते ही उसने वो सारे दरवाज़े खिड़कियां  तोड़ डालें। अब वो मेरे भीतर स्वछंद विचरण कर रहा था। 
   मैं उसका सामना करने से कतरा रहा था,आत्मग्लानि सी हो रही थी मेरे भीतर, मगर तभी वो मेरे सामने आ गई। मैं नजरें चुरा रहा था मगर वो मेरे सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी। मैं उसके आगे हाथ जोड़ें खड़ा हो गया  - " माफ़ कर दो मुझे ,मैं अपना वादा नहीं निभा पाया , मैंने बहुत कोशिश की, मैं तुम्हारे कदमों की आहट सुनते हुए ,तुम्हारे पद -चिन्हों पर चलते हुए दूर तलक तुम्हारे पीछे पीछे भी चला  ,मगर वक़्त के साथ मेरे क़दमों से बहुत सारी जिम्मेदरियाँ लिपटती गई ,मेरे कर्तव्यों ने मेरे पैरों के रफ्तार को कम कर दिया मैं तुमसे पीछे होते चला गया,मेरे कानों में अधिकारों की भिन्न भिन्न आवाजे आने लगी और मैं तुम्हारे पैरों की आहट सुनने में असमर्थ होता चला गया,  माफ़ी दे दो मुझे ,मेरे आखों से अश्रुधारा फुट पड़े। 
 " तुमने हमेशा मेरे पीछे चलने का वादा किया था मगर क्या कभी पीछे मुड़कर देखा भी था  " मेरे आँसुओं को पोछते हुए उसने कहा। " नहीं तो "- मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा । बड़े प्यार से मेरे चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए उसने कहा - तुम मेरे पीछे ना आ पाए  तो क्या हुआ ,मैं तुम्हारे पीछे पीछे आ गई । जब तुम्हारे पदचाप मुझे सुनाई पड़ने बंद हो गए तो मैं समझ गई  कि -तुम थक रहें हो ,अब तुम्हे मेरी जरुरत हैं और मैं तुम्हारे पीछे -पीछे आ गई । तुम्हारे कदमों की आहट को सुनते हुए ,तुम्हारे हर पद चिन्ह पर अपने पाँव रखते हुए तुम्हारे पीछे पीछे आती रही  हूँ। याद करों ,जब भी तुम लड़खड़ाई हो कोई साया तुम्हारा हाथ थमा हैं या नहीं ,जब भी तुम्हारे पलकों से आँसूं के बूँद टपके हैं  मेरी लबों ने उन्हें चूमा हैं या नहीं। मैं औरत हूँ ,एक साथ कई रिश्ते निभाना जानती हूँ ,मेरे आँचल में इतनी जगह होती हैं कि हर एक को समेट लेती हूँ, लाख जिम्मेदारियों में उलझकर भी ,कई कर्तव्यों का बोझ उठाकर भी किसी को अनदेखा नहीं कर पाती। मैं औरत हूँ पहला प्यार ,पहला एहसास और पहली छुवन हमारी रूह बन जाती हैं,तुम तो मेरी रूह हो मैं तुम्हारा साथ कैसे छोड़ सकती हूँ ,रूह से जिस्म अलग हुई तो उसका आस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा न। 
    
   वो बोलती जा रही थी और मैं उसकी ओर अपलक देखे जा रहा था । हाँ सच हैं ये ,यकीनन कोई तो शक्ति हैं  जो हर पल मेरे साथ होने का एहसास दिलाती रहती हैं  ,तभी मैं अपने सारे कर्तव्य निभाता चला आया हूँ,भीड़ में होकर भी तन्हा हो जाता  हूँ और तन्हाई में भी मुझे किसी के होने का अहसास होता हैं। मेरी रूह खिल उठी -सच तुम तो हर पल मेरे साथ ही थी लेकिन तुमने मुझे आवाज़ क्युँ नहीं दी ? उसने मेरी पलकों को अपनी हथेली से सहलाते हुए बंद कर दिया और धीरे से मेरी कानों के पास आकर बोली  -" अब सो जाओ ,एक एहसास हूँ मैं रूह से महसूस करों "  ना कभी हम जुदा थे ना हैं ना होंगे।
    मेरी आँखें बंद हो गई ,खुद को उसकी बाहों में समेट सुकून की नींद सो गया।  सुबह उठते ही डायरी में रखें उन सूखी गुलाब की पंखुड़ियों को अपनी अंजुली में लेकर उसकी खुशबू को जी भर कर अपनी सांसों में भर लिया और फिर से उसे उस डायरी के हवाले कर दिया। ऐ मेरी प्यारी डायरी ,हमेशा सहेजकर रखना इन पंखुड़ियों को।  
माना कि -  " अब ये पहले की तरह सुंदर फूल के रूप में नहीं हैं ,माना कि एक एक पखुड़ी मुरझा गई हैं मगर आज भी इनमे उसी प्यार की  खुसबू हैं.जो मेरे जिस्मो -जान में आज भी ताजगी भर देती हैं ,तभी किसी की  पदचाप सुनाई दी पीछे मुड़ा तो कोई ना था ,लेकिन एहसास हो रहा था वो पीछे से मुझे अपने बाँहों में भरते हुए गुनगुना रही हैं  -
                      
                    " सिर्फ एहसास हैं ये रूह से महसूस करों प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो "

शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

ये हवाएं


  


   वायु ,बयार ,पवन , समीर ,हवा के कितने ही नाम हैं और यकीनन रूप भी।" कभी सर्दियों की कंपकपाती सर्द बयार जैसे  कोई बोल तो कड़वे बोल रहा हो पर मन को मीठे लग रहे हैं। जैसे कोई  सता रहा हो पर उसका सताना भी एक सुखद एहसास करा रहा हो। कभी तो प्यार से उसे झड़क देने का भी दिल करता हैं -" हटों ना क्युँ सता रहें हो,दूर चलें जाऒ " फिर लगता हैं क्या झिड़कना ये दो महीने का मेहमान ही तो हैं। शिकायत भी होती हैं इस सर्द बयार से और याराना भी। 
   यही सर्द बयार बसंत ऋतु आते आते शीतल मंद बयार का रूप ले लेती हैं। जो निष्तेज़ से पड़ें शरीर में प्राण फुक देती हैं और अंतःकरण को एक सुखद एहसास से भर देती हैं। ये बासंती बयार ऐसे छू जाती हैं जैसे किसी ने कानों में प्यार से कुछ कहा हो और तन -मन रोमांचित हो उठा। बासंती बयार का जिक्र होते ही मुझे बचपन की एक कविता याद आ जाती हैं -                                   
हवा हूँ हवा मैं 
 बसंती हवा हूँ 
                                          
                   बड़ी बावली हूँ 
                    बड़ी मस्तमौला। 
                     नहीं कुछ फिकर हैं ,
                      बड़ी ही निडर हूँ। 
                      जिधर चाहती हूँ ,
                     उधर घूमती हूँ। 

श्री केदारनाथ अग्रवाल जी द्वारा रचित ये कविता मुझे मुँह जबानी याद होती थी,बासंती बयार चलते ही हम बच्चे झूम झूमकर ये कविता गाते रहते थे। ज्यादा कुछ समझ तो आता नहीं था बस रटे -रटाये बोल ही याद होते थे।  बस इतना समझ आता था कि ये बासंती बयार बड़ी चंचल होती हैं। भावार्थ तो अब समझ आता हैं कि ये बासंती बयार सिर्फ चंचल ही नहीं होती बल्कि अल्हड़ ,सोख और मदमस्त भी होती हैं। जिसे भी  ये छु ले थोड़ी देर के लिए ही सही उन्हें भी बाबली बना ही जाती हैं। कविता की आखिरी कुछ पंक्तियाँ -

                                हँसी जोर से मैं ,
                                हँसी सब दिशाएँ ,
                                हँसे लहलहाते 
                                हरे खेत सारे ,
                                            हँसी चमचमाती 
                                            भरी धुप प्यारी ,
                                            बसंती हवा में 
                                            हँसी सृष्टि सारी।  

   ये पंक्तियाँ मुझे बेहद पसंद हैं। हवा का ये बासंती रूप सृष्टि की सबसे सुंदर सौगात हैं और कवियों की पहली पसंद। 
    ग्रीष्म ऋतू आते आते यही बयार लू का रूप धारण कर लेती हैं। ऐसा लगता हैं जैसे वो हम से बहुत ज्यादा क्रोधित हो गई हो और अपने क्रोधाग्नि में हमें झुलसा देना चाहती हो। हम उसकी क्रोधाग्नि से बचने की हर सम्भव प्रयास करते हैं  मगर वो हमें अपनी चपेट में ले ही लेती हैं। फिर हम भी उससे नाराज हो जाते हैं और सोचते हैं कब ये जाएँगी ,इसका आना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा। लेकिन वो हमारी मर्जी कहाँ सुनती हैं ,उसे तो अपनी ही मनमानी करनी होती हैं। 
   कभी कभार जब यही हवा उग्र होकर आंधी का रूप धारण कर लेती हैं तो ऐसा लगता हैं जैसे अपना कोई प्रिये जो हमारी हर साँस के लिए जरुरी हैं लेकिन आज वो हमसे रुष्ट हो गया हो और हमें हमारी किसी अनजान गुनाह की सजा देने पर उतारू हो गया हो। उस वक़्त ये अंधी बयार, प्यार -दुलार ,अपना पराया सब भूल हर घर ,हर आँगन को उजाड़ने को आतुर हो जाती हैं। सब कुछ तहस -नहस कर आखिर में छोड़ जाती हैं तबाही का मंजर , सन्नाटा सा पसर  जाता हैं चहुँ ओर। 
  सारी तबाही फैलाकर फिर ऐसे शांत पड़ जाती हैं जैसे एक मासूम बच्चा हो ,जो किसी कारण जिद पर आ गया था चीख -चीखकर ,रो -रोकर सब को हलकान कर रहा था ,गुस्से में घर के सामानों को बिखेर था ,उसे पता ही नहीं कि उसकी इस हरकत से उसके घरवालें ,उसके प्रियजन कितना परेशान हो रहे थे ,उनके कुछ कीमती सामानों का नुकसान भी हो गया हैं। वो तो बस अपनी मनमर्जी किये जा रहा था। मगर अब उसका गुस्सा शांत हो गया हैं और वो मुस्कुरा रहा हैं। इतना परेशान करने के बाद भी जब वो बच्चा शांत हो मुस्कुराता हैं तो हम सब भूल जाते हैं ,घर में बिखरी हुई चीजों को समेटते हुए उसकी मीठी मंद -मंद मुस्कान का आनंद उठाने लगते हैं। 
   वैसे ही ये उग्र बयार सारी तबाही मचाकर जब शांत हो जाती हैं तो एक मासूम बच्चे की मीठी मुस्कान की तरह वातावरण में अपनी शांति और शीतलता बिखेरने लगती हैं। इसके शांत स्वरूप को देख हम गुजरा वक़्त भूलने लगते हैं और एक एक बिखरी चीजों को समेटने लगते हैं। उस मासूम बच्चे की तरह उस हवा से भी हम नारज तो हो ही नहीं सकते हैं न। क्योंकि वही हमारे जीने का सहारा जो होता हैं। हाँ ,थोड़ा दुखी और परेशान जरूर हो रहे होते हैं, झल्लाते हुए घर की सफाई कर रहे होते हैं। तभी ऐसा लगता हैं जैसे वो शांत बयार  हमारी मनोदशा समझ गई हो और हौले से पास आकर हमारे कानों में फुसफुसा रही हैं -" उठो ,उदासी छोड़ों ,मुस्कराओं ,ये अंत नहीं हैं "
   कभी कभी सोचती हूँ , हमारे रिश्ते भी तो इन हवाओं के जैसे ही होते हैं न ,कभी सर्द ,कभी गर्म ,कभी गुदगुदाती ,कभी झुलसती ,कभी ऐसा जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया और कभी जैसे वो ख़त्म ही नहीं हो सकता साँसोँ के साथ अंत तक चलेगा। हवाएं चाहे अपना जो भी रूप दिखाए हम उससे अपना नाता तो नहीं तोड़तें न। फिर रिश्तों में जरा सी गर्मी- सर्दी बढ़ते ही हम उस से झट से दूर क्यों हो जाते हैं? यकीनन हम जानते हैं कि हवा के बिना हमारा एक पल भी जीवित रहना मुश्किल हैं इसीलिए उसकी सारी अच्छाई बुराई हमें दिल से कबूल होती हैं ,कोई विकल्प जो नहीं हैं रिश्तों का क्या हैं उससे दूर होकर हम मर थोड़े ही जाएंगे।

   क्या सचमुच रिश्तों के होने ना होने से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता ? क्या सचमुच हम उनके बिना जीवित रह लेते हैं? मुझे तो लगता हैं रिश्तों के बिना हमारी साँसे तो चल रही होती हैं मगर हम जिंदा लाश से ज्यादा कुछ नहीं होते। हमारी भावनाएं ,हमारी संवेदनाएं सब कुछ मर चुकी होती हैं। काश ,हम अपने जीवन में रिश्तों को भी ऐसे ही अपने अंदर समाहित कर लेते जैसे हवाओं को कर लेते हैं। उनकी ठिठुरन ,उनकी तपिस ,उनकी क्रोधाग्नि ,उनकी मधुमास सी मिठास को वैसे ही सहजता से स्वीकार लेते जैसे हवाओं को करते हैं।काश, जैसे ही हमारे रिश्ते में असहजता आए खुद को सहज कर लेते और खुद से ही प्यार से बोलते  -नारजगी छोड़ों यार ," ये हमारा अंत तो नहीं हो सकता  "

  





"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...