गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

सिर्फ एहसास हैं ये.....

   



   "पता नहीं कहाँ रख दिया मैंने सारे पुराने कागजात यही तो संभाल कर रखता हूँ ,आज जरूरत हैं तो मिल नहीं रहा " पुराने कागजातों को समेटते समेटते झल्लाहट सी हो रही थी तभी अचानक से एक डायरी नीचे आ गिरी , उस डायरी पर  नजर पड़ते ही अतीत के पदचाप सुनाई पड़ने लगे  ,अभी मैं सम्भलता  तब तक तो वो दिल का दरवाजा खटखटाने लगा। दिमाग  ने कहा -"अनसुना कर दो इस दस्तक को " पर दिल के कदम पता नहीं कब आगे बढ़ गए और उसने कुण्डी खोल दी। डायरी रुपी दरवाजे की कुण्डी खोलते ही चंद गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखर कर मेरे कदमों पर आ गिरें ।तन मन सिहर उठा -उफ़ ,ये क्या हो गया ,ये पवित्र फूल मेरे पाँव को छू गया ,ये कैसा गुनाह हो गया।  मैंने झट से उन पंखुड़ियों को समेट माथे से लगाया ,और फिर उसे डायरी के पन्नो में समेट कर बंद कर देना चाहा। पर एक बार जब अतीत का  दरवाजा  खुल जाता हैं फिर उसे बंद करना ............नहीं हो पाया मुझसे भी।

   डायरी खोलते ही अतीत ऐसे  रूबरू हो आया जैसे अभी भी वो मेरा हाथ पकड़कर बैठी हैं ,उसकी आँखें डबडबाई  हुई हैं ,उसके मुख से निकले एक एक शब्द अंतर्मन में उतर रहें हैं -" नहीं जी पाउँगी  तुम्हारे वगेर ,जीवन का ये लम्बा सफर अकेले कैसे तय कर पाउँगी  ,थक  जाऊँगी ,गिर कर टूट जाऊँगी , शायद मर भी जाऊँ " मैंने झट उसके लबों पर अपनी हथेली रख दी -" अब एक लफ्ज भी आगे नहीं बोलोगी  ,मरना  तो दूर मैं तुम्हे थकने भी नहीं दूँगा  ,जहाँ लडखड़ाओगी  थाम लूँगा ,ना कभी गिरने दूँगा ना बिखरने ,मेरी बाहें हर पल तुम्हें समेटने के लिए खुली होगी। "  वो तड़प उठी  -" मगर कब तक... "  जब तक मैं जिन्दा हूँ ,नहीं मरने के बाद भी -  उसकी हथेलियों को चूमते हुए मैंने कहा । उसके होठों पर एक मीठी दर्द भरी मुस्कान आ गई -" दिलासा दे रहें हो ?" मैंने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा  - नहीं ,ये कोरी दिलासा नहीं हैं ,जीवन के सफर में तुम जब भी पीछे मुड़कर देखोगी ,अपने पद चिन्हों पर एक और पद चिन्ह पाओगी। ,मैं तुम्हारे हर पदचाप को सुनते हुए  तुम्हारे पीछे पीछे चलता  रहूँगा  ,जीवन के किसी भी मोड़ पर तुम खुद को अकेला नहीं पाओगी  ,मेरा जिस्म तुमसे जुदा हो रहा हैं रूह नहीं। "
    अरे पापा  मिला क्या ,अंकल आपको बुला रहे हैं। आवाज़ कानों में पड़ते ही मैं वर्तमान के आँगन में आ खड़ा हुआ ,डायरी को बंद कर आलमारी में डाला और कागजात ढूँढने लगा । लेकिन ये कहाँ संम्भव हैं.....अतीत का दरवाज़ा जब एक बार खुल जाता हैं तो उसके बाद आप उसे बंद करने की लाख कोशिश करो ,नहीं होता वो अंदर आने को कोई ना कोई झरोखा ढूँढ ही लेता हैं । पुरे दिन वर्तमान और अतीत के बीच खींचा -तानी होती रही। रात का सन्नाटा फैलते ही  अतीत शक्तिशाली हो उठा ,दिन भर जिन दरवाज़ों और खिड़कियों को मैं जबरन बंद करता  रहा था रात होते ही उसने वो सारे दरवाज़े खिड़कियां  तोड़ डालें। अब वो मेरे भीतर स्वछंद विचरण कर रहा था। 
   मैं उसका सामना करने से कतरा रहा था,आत्मग्लानि सी हो रही थी मेरे भीतर, मगर तभी वो मेरे सामने आ गई। मैं नजरें चुरा रहा था मगर वो मेरे सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी। मैं उसके आगे हाथ जोड़ें खड़ा हो गया  - " माफ़ कर दो मुझे ,मैं अपना वादा नहीं निभा पाया , मैंने बहुत कोशिश की, मैं तुम्हारे कदमों की आहट सुनते हुए ,तुम्हारे पद -चिन्हों पर चलते हुए दूर तलक तुम्हारे पीछे पीछे भी चला  ,मगर वक़्त के साथ मेरे क़दमों से बहुत सारी जिम्मेदरियाँ लिपटती गई ,मेरे कर्तव्यों ने मेरे पैरों के रफ्तार को कम कर दिया मैं तुमसे पीछे होते चला गया,मेरे कानों में अधिकारों की भिन्न भिन्न आवाजे आने लगी और मैं तुम्हारे पैरों की आहट सुनने में असमर्थ होता चला गया,  माफ़ी दे दो मुझे ,मेरे आखों से अश्रुधारा फुट पड़े। 
 " तुमने हमेशा मेरे पीछे चलने का वादा किया था मगर क्या कभी पीछे मुड़कर देखा भी था  " मेरे आँसुओं को पोछते हुए उसने कहा। " नहीं तो "- मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा । बड़े प्यार से मेरे चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए उसने कहा - तुम मेरे पीछे ना आ पाए  तो क्या हुआ ,मैं तुम्हारे पीछे पीछे आ गई । जब तुम्हारे पदचाप मुझे सुनाई पड़ने बंद हो गए तो मैं समझ गई  कि -तुम थक रहें हो ,अब तुम्हे मेरी जरुरत हैं और मैं तुम्हारे पीछे -पीछे आ गई । तुम्हारे कदमों की आहट को सुनते हुए ,तुम्हारे हर पद चिन्ह पर अपने पाँव रखते हुए तुम्हारे पीछे पीछे आती रही  हूँ। याद करों ,जब भी तुम लड़खड़ाई हो कोई साया तुम्हारा हाथ थमा हैं या नहीं ,जब भी तुम्हारे पलकों से आँसूं के बूँद टपके हैं  मेरी लबों ने उन्हें चूमा हैं या नहीं। मैं औरत हूँ ,एक साथ कई रिश्ते निभाना जानती हूँ ,मेरे आँचल में इतनी जगह होती हैं कि हर एक को समेट लेती हूँ, लाख जिम्मेदारियों में उलझकर भी ,कई कर्तव्यों का बोझ उठाकर भी किसी को अनदेखा नहीं कर पाती। मैं औरत हूँ पहला प्यार ,पहला एहसास और पहली छुवन हमारी रूह बन जाती हैं,तुम तो मेरी रूह हो मैं तुम्हारा साथ कैसे छोड़ सकती हूँ ,रूह से जिस्म अलग हुई तो उसका आस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा न। 
    
   वो बोलती जा रही थी और मैं उसकी ओर अपलक देखे जा रहा था । हाँ सच हैं ये ,यकीनन कोई तो शक्ति हैं  जो हर पल मेरे साथ होने का एहसास दिलाती रहती हैं  ,तभी मैं अपने सारे कर्तव्य निभाता चला आया हूँ,भीड़ में होकर भी तन्हा हो जाता  हूँ और तन्हाई में भी मुझे किसी के होने का अहसास होता हैं। मेरी रूह खिल उठी -सच तुम तो हर पल मेरे साथ ही थी लेकिन तुमने मुझे आवाज़ क्युँ नहीं दी ? उसने मेरी पलकों को अपनी हथेली से सहलाते हुए बंद कर दिया और धीरे से मेरी कानों के पास आकर बोली  -" अब सो जाओ ,एक एहसास हूँ मैं रूह से महसूस करों "  ना कभी हम जुदा थे ना हैं ना होंगे।
    मेरी आँखें बंद हो गई ,खुद को उसकी बाहों में समेट सुकून की नींद सो गया।  सुबह उठते ही डायरी में रखें उन सूखी गुलाब की पंखुड़ियों को अपनी अंजुली में लेकर उसकी खुशबू को जी भर कर अपनी सांसों में भर लिया और फिर से उसे उस डायरी के हवाले कर दिया। ऐ मेरी प्यारी डायरी ,हमेशा सहेजकर रखना इन पंखुड़ियों को।  
माना कि -  " अब ये पहले की तरह सुंदर फूल के रूप में नहीं हैं ,माना कि एक एक पखुड़ी मुरझा गई हैं मगर आज भी इनमे उसी प्यार की  खुसबू हैं.जो मेरे जिस्मो -जान में आज भी ताजगी भर देती हैं ,तभी किसी की  पदचाप सुनाई दी पीछे मुड़ा तो कोई ना था ,लेकिन एहसास हो रहा था वो पीछे से मुझे अपने बाँहों में भरते हुए गुनगुना रही हैं  -
                      
                    " सिर्फ एहसास हैं ये रूह से महसूस करों प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो "

शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

ये हवाएं


  


   वायु ,बयार ,पवन , समीर ,हवा के कितने ही नाम हैं और यकीनन रूप भी।" कभी सर्दियों की कंपकपाती सर्द बयार जैसे  कोई बोल तो कड़वे बोल रहा हो पर मन को मीठे लग रहे हैं। जैसे कोई  सता रहा हो पर उसका सताना भी एक सुखद एहसास करा रहा हो। कभी तो प्यार से उसे झड़क देने का भी दिल करता हैं -" हटों ना क्युँ सता रहें हो,दूर चलें जाऒ " फिर लगता हैं क्या झिड़कना ये दो महीने का मेहमान ही तो हैं। शिकायत भी होती हैं इस सर्द बयार से और याराना भी। 
   यही सर्द बयार बसंत ऋतु आते आते शीतल मंद बयार का रूप ले लेती हैं। जो निष्तेज़ से पड़ें शरीर में प्राण फुक देती हैं और अंतःकरण को एक सुखद एहसास से भर देती हैं। ये बासंती बयार ऐसे छू जाती हैं जैसे किसी ने कानों में प्यार से कुछ कहा हो और तन -मन रोमांचित हो उठा। बासंती बयार का जिक्र होते ही मुझे बचपन की एक कविता याद आ जाती हैं -                                   
हवा हूँ हवा मैं 
 बसंती हवा हूँ 
                                          
                   बड़ी बावली हूँ 
                    बड़ी मस्तमौला। 
                     नहीं कुछ फिकर हैं ,
                      बड़ी ही निडर हूँ। 
                      जिधर चाहती हूँ ,
                     उधर घूमती हूँ। 

श्री केदारनाथ अग्रवाल जी द्वारा रचित ये कविता मुझे मुँह जबानी याद होती थी,बासंती बयार चलते ही हम बच्चे झूम झूमकर ये कविता गाते रहते थे। ज्यादा कुछ समझ तो आता नहीं था बस रटे -रटाये बोल ही याद होते थे।  बस इतना समझ आता था कि ये बासंती बयार बड़ी चंचल होती हैं। भावार्थ तो अब समझ आता हैं कि ये बासंती बयार सिर्फ चंचल ही नहीं होती बल्कि अल्हड़ ,सोख और मदमस्त भी होती हैं। जिसे भी  ये छु ले थोड़ी देर के लिए ही सही उन्हें भी बाबली बना ही जाती हैं। कविता की आखिरी कुछ पंक्तियाँ -

                                हँसी जोर से मैं ,
                                हँसी सब दिशाएँ ,
                                हँसे लहलहाते 
                                हरे खेत सारे ,
                                            हँसी चमचमाती 
                                            भरी धुप प्यारी ,
                                            बसंती हवा में 
                                            हँसी सृष्टि सारी।  

   ये पंक्तियाँ मुझे बेहद पसंद हैं। हवा का ये बासंती रूप सृष्टि की सबसे सुंदर सौगात हैं और कवियों की पहली पसंद। 
    ग्रीष्म ऋतू आते आते यही बयार लू का रूप धारण कर लेती हैं। ऐसा लगता हैं जैसे वो हम से बहुत ज्यादा क्रोधित हो गई हो और अपने क्रोधाग्नि में हमें झुलसा देना चाहती हो। हम उसकी क्रोधाग्नि से बचने की हर सम्भव प्रयास करते हैं  मगर वो हमें अपनी चपेट में ले ही लेती हैं। फिर हम भी उससे नाराज हो जाते हैं और सोचते हैं कब ये जाएँगी ,इसका आना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा। लेकिन वो हमारी मर्जी कहाँ सुनती हैं ,उसे तो अपनी ही मनमानी करनी होती हैं। 
   कभी कभार जब यही हवा उग्र होकर आंधी का रूप धारण कर लेती हैं तो ऐसा लगता हैं जैसे अपना कोई प्रिये जो हमारी हर साँस के लिए जरुरी हैं लेकिन आज वो हमसे रुष्ट हो गया हो और हमें हमारी किसी अनजान गुनाह की सजा देने पर उतारू हो गया हो। उस वक़्त ये अंधी बयार, प्यार -दुलार ,अपना पराया सब भूल हर घर ,हर आँगन को उजाड़ने को आतुर हो जाती हैं। सब कुछ तहस -नहस कर आखिर में छोड़ जाती हैं तबाही का मंजर , सन्नाटा सा पसर  जाता हैं चहुँ ओर। 
  सारी तबाही फैलाकर फिर ऐसे शांत पड़ जाती हैं जैसे एक मासूम बच्चा हो ,जो किसी कारण जिद पर आ गया था चीख -चीखकर ,रो -रोकर सब को हलकान कर रहा था ,गुस्से में घर के सामानों को बिखेर था ,उसे पता ही नहीं कि उसकी इस हरकत से उसके घरवालें ,उसके प्रियजन कितना परेशान हो रहे थे ,उनके कुछ कीमती सामानों का नुकसान भी हो गया हैं। वो तो बस अपनी मनमर्जी किये जा रहा था। मगर अब उसका गुस्सा शांत हो गया हैं और वो मुस्कुरा रहा हैं। इतना परेशान करने के बाद भी जब वो बच्चा शांत हो मुस्कुराता हैं तो हम सब भूल जाते हैं ,घर में बिखरी हुई चीजों को समेटते हुए उसकी मीठी मंद -मंद मुस्कान का आनंद उठाने लगते हैं। 
   वैसे ही ये उग्र बयार सारी तबाही मचाकर जब शांत हो जाती हैं तो एक मासूम बच्चे की मीठी मुस्कान की तरह वातावरण में अपनी शांति और शीतलता बिखेरने लगती हैं। इसके शांत स्वरूप को देख हम गुजरा वक़्त भूलने लगते हैं और एक एक बिखरी चीजों को समेटने लगते हैं। उस मासूम बच्चे की तरह उस हवा से भी हम नारज तो हो ही नहीं सकते हैं न। क्योंकि वही हमारे जीने का सहारा जो होता हैं। हाँ ,थोड़ा दुखी और परेशान जरूर हो रहे होते हैं, झल्लाते हुए घर की सफाई कर रहे होते हैं। तभी ऐसा लगता हैं जैसे वो शांत बयार  हमारी मनोदशा समझ गई हो और हौले से पास आकर हमारे कानों में फुसफुसा रही हैं -" उठो ,उदासी छोड़ों ,मुस्कराओं ,ये अंत नहीं हैं "
   कभी कभी सोचती हूँ , हमारे रिश्ते भी तो इन हवाओं के जैसे ही होते हैं न ,कभी सर्द ,कभी गर्म ,कभी गुदगुदाती ,कभी झुलसती ,कभी ऐसा जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया और कभी जैसे वो ख़त्म ही नहीं हो सकता साँसोँ के साथ अंत तक चलेगा। हवाएं चाहे अपना जो भी रूप दिखाए हम उससे अपना नाता तो नहीं तोड़तें न। फिर रिश्तों में जरा सी गर्मी- सर्दी बढ़ते ही हम उस से झट से दूर क्यों हो जाते हैं? यकीनन हम जानते हैं कि हवा के बिना हमारा एक पल भी जीवित रहना मुश्किल हैं इसीलिए उसकी सारी अच्छाई बुराई हमें दिल से कबूल होती हैं ,कोई विकल्प जो नहीं हैं रिश्तों का क्या हैं उससे दूर होकर हम मर थोड़े ही जाएंगे।

   क्या सचमुच रिश्तों के होने ना होने से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता ? क्या सचमुच हम उनके बिना जीवित रह लेते हैं? मुझे तो लगता हैं रिश्तों के बिना हमारी साँसे तो चल रही होती हैं मगर हम जिंदा लाश से ज्यादा कुछ नहीं होते। हमारी भावनाएं ,हमारी संवेदनाएं सब कुछ मर चुकी होती हैं। काश ,हम अपने जीवन में रिश्तों को भी ऐसे ही अपने अंदर समाहित कर लेते जैसे हवाओं को कर लेते हैं। उनकी ठिठुरन ,उनकी तपिस ,उनकी क्रोधाग्नि ,उनकी मधुमास सी मिठास को वैसे ही सहजता से स्वीकार लेते जैसे हवाओं को करते हैं।काश, जैसे ही हमारे रिश्ते में असहजता आए खुद को सहज कर लेते और खुद से ही प्यार से बोलते  -नारजगी छोड़ों यार ," ये हमारा अंत तो नहीं हो सकता  "

  





गुरुवार, 23 जनवरी 2020

अनकहे अल्फाज़





" अनकहे " यानि जो कहा ना गया हो "अल्फ़ाज़ "जो ख़ामोशी को एक आवाज़ दे सकें। वैसे तो ख़ामोशी के अपने ही अल्फ़ाज़ होते हैं ,एक आवाज़  होती हैं मगर वो अल्फ़ाज़ समझना सब के बस की बात नहीं हैं। ख़ामोशी के  अल्फ़ाज़ को समझना एक  गहरी साधना हैं एक "योगाभ्यास "हैं। जब आप इस साधना में रत रहते हो तो खामोशियाँ भी मुस्कुराने लगती हैं ,गुनगुनाने लगती हैं, आपके अंतर्मन को गुदगुदाने लगती हैं और आपके तन मन को वो सुकून  दे जाती हैं जिसे परमानंद  कहते हैं। जीवन का सच्चा सुख वही हैं  जिसमे आत्मा को परमानंद  की अनुभूति  हो ,यह सत्य हैं ,शाश्वत हैं।परमानंद  की अवस्था में आत्मा राग -द्वेष रहित होकर निर्लिप्त भाव में रहती हैं। अरे ये क्या .............मैं तो आध्यात्म की ओर जाने लगी। ये तो बड़ा  गूढ़ विषय हैं जिसे समझना थोड़ा मुश्किल हैं और उसमे उलझना या उसे अपनाना तो और मुश्किल।

  मैं तो यहाँ "अनकहे अल्फाज" की बात कर रही थी। वैसे भी ख़ामोशी का मतलब तो ये हो गया कि हम खुद को पूर्णतः शब्दहीन रखना चाहते हैं या रखते हैं। हम अपने जुबा को ही नहीं अपने मन को भी शब्दों से दूर रखना चाहते हैं।" अनकहे अल्फ़ाज़ " यानि आप कहना तो बहुत कुछ चाहते हैं, वो बातें  जो आपके होठो पर हैं मगर आप उसे शब्द नहीं दे पा रहे हैं। कभी दे नहीं पा रहे हैं ,कभी देना नहीं चाहते और कभी ये ख्वाहिश कि शब्दों  में बिना पिरोए ही उसे कोई समझ ले।वो अल्फ़ाज़ जो जेहन से निकाले नहीं निकलता , हृदय में धारा प्रवाह बहता रहता हैं ,गले में फँस बन अटका रहता हैं पर जुबां पर नहीं आता। 

सोचती हूँ.......ये" अनकहे अल्फ़ाज़ आखिर  "जाते कहाँ हैं जिनको आवाज़ नहीं मिल पाती ?क्या वो छिप जाते हैं बंद आँखों के पलकों के नीचे या लबो पे लगे सख्त तालो के पीछे या कही ये चुपके से आकर तकिये के नीचे  सिराहने तले सो तो नहीं जाते ? क्या ये सिराहने तले चैन से सो जाते होंगे या जुबा के ताले तोड़ बाहर आने को मचलते होंगे ? वो कभी आँखों पर लगे पलकों के दरवाज़ों को खोल बाहर झाँकने की कोशिश तो करते ही होंगे न। या शायद  डरते होंगे वो बाहर आने से ,पर चैन से सो भी तो नहीं पाते होंगे न। फिर सोचती हूँ..... आखिर ये डरते किससे हैं ? शायद वो सोचते होंगे कि इन शब्दों के मर्म को कही कोई नहीं समझा सका तो.......?

लेकिन कब तक ??? मेरा दिल कहता हैं कि -एक ना एक दिन ये छुपे अल्फ़ाज़ सराहने को छोड़ सपनो के रास्ते आँखों के दरवाज़े से बाहर आ ही जाएंगे  ,लफ्जो का सहारा ले होठों के दरवाजे की बेड़ियाँ तोड़ ही देंगे। यदि वो ना कर पाए तो  .......... क्योंकि  इन अल्फाज़ो की गहरी नींद अक्सर बुरे सपनों  के सफर दिखती रहती हैं और मन की बेचैनी को बढाती रहती हैं। फिर अचानक एक दिन ऐसा होता हैं जैसे , मन की बेचैनियों  को  कानों ने सुन ली हो और उस बुरे सपने को खुली आँखों से बाहर फेक दिया हो। फिर क्या वो  अल्फ़ाज़  सुकून की कलम बन जाते हैं  और ख़ामोशी उसकी स्याही। फिर वो अनकहे अल्फ़ाज़ जो तकिये के सिराहने में छुपाकर रखा था ,पलकों के नीचे बसा कर रखा था ,बंद लबो में दबा कर रखा था ,गीत ,गजल ,कविता ,कहानी बन कागज पर उतरने लगते हैं और अनगिनत जुबां के अल्फ़ाज़ बन गुनगुनाने लगते हैं।
अब जब अनकहे अल्फाजों  ने सारे ताले तोड़ ही दिए ,सारे पहरे हटा ही  दिए तो फिर अब रोके ना उसे ,टोके ना उसे ,बहने दे उसे कागज के दिलों पर बेपरवाही से।  सुकून के कलम से निकला  हर लफ्ज इबादत बन जाएगा । किसी शायर ने बहुत खूब कहा हैं -
                                                    तेरे अल्फ़ाज़ तेरे लफ्ज बयाँ करते हैं। 
                                                    कुछ हकीकत तो कुछ ख्यालात बयाँ करते हैं।।                                   





                                                                                            






"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...