शनिवार, 15 जून 2019

क्या हम अपने नौनिहालों को इंसानियत का पाठ पढ़ा पाएंगे ??

     


     कहते हैं कि-" हमारे देश में तैतीस करोड़ देवी देवता निवास करते हैं " क्या ये सच हो सकता हैं ? हम तो तैतीस का नाम भी ठीक से नहीं जानते। फिर हमे क्यों बताया गया कि तैतीस करोड़ देवी -देवता हैं? ये बाते सतयुग के लिए कहते हैं और सतयुग में हर एक नर में नारायण का वास  माना जाता  था। "देवता "यानी देने वाला ,उस समय के हर एक मनुष्य  में सिर्फ देने का गुण विद्यमान होता था कोई किसी से मांगता नहीं था। तो कही ऐसा तो नहीं कि-उस समय की जनसंख्या ही तैतीस करोड़ थी और सारे सदविचारों से परिपूर्ण ,खुद से पहले दूसरे के भले के बारे में सोचने वाले , नेक नियत वाले ,एक दूसरे पर विश्वास करने वाले थे ,सब केवल दुसरो को देना जानते थे ,मांगना या छीनना उन्हें नहीं आता था शायद इसीलिए  उन्हें देवता की उपाधि दी गई थी और जो इन गुणों के विपरीत गुण वाले थे उन्हें दानव कहा गया। परमात्मा तो सिर्फ एक ही हैं तो बाकि इंसानो को दो श्रेणी में रखा गया हो  " देवता और दानव "

       " इंसानियत " यानि इंसान की नियत ,तो शायद  इंसान के नियत के आधार पर ही उन्हें देवता या दानव कहा गया होगा। लेकिन जैसे जैसे हम सतयुग से द्वापर और त्रेतायुग की ओर चले देवताओ की संख्या तो वही रही पर दानवी गुणों में बढ़ोतरी होती चली गई,शायद सकारात्मक ऊर्जा से ज्यादा आकर्षक नकारात्मक ऊर्जा होती हैं। तभी तो द्वापर में एक व्यक्ति के सत्ता पाने की चाह में एक भरापूरा  परिवार बिखर गया ,एक बेटे को वन वन भटकना पड़ा,अपहरण जैसे घटनाक्रम का जन्म हुआ ,एक स्त्री के चरित्र पर लांझन लगाने का दुःसाहस शुरू हुआ ,नारी को अपने सतीत्व को प्रमाणित करने को वाध्य किया गया। त्रेतायुग आते आते तो सतयुग के सारे सद्गुण धीरे धीरे विलुप्त होते जा रहे थे। त्रेतायुग में तो  एक नारी को भरी सभा में नग्न करने का प्रयास किया गया और उस नारी के सभी शुभचिंतक मूक दर्शक बने देखते रहे। नारी के मान सम्मान और पवित्रता के साथ खिलवाड़ तो त्रेतायुग से ही शुरू हो गया था। सत्ता के लिए भाई भाई के बीच युद्ध और बटवारे की परपम्परा शुरू हो गई। त्रेतायुग में हुए महाभारत के युद्ध ने मानवता का बहुत हनन किया और मनुष्यों में "देने के गुण " में कमी आती चली गई, मनुष्य देवता ना रहकर सिर्फ इंसान रह गया। 

      कलयुग में मनुष्य  देवता तो नहीं रहा मगर अपने इंसानी गुणों को बाखूबी संभाले रखा ,इंसान के नियत में सफाई और सचाई का समावेश था ,एक दूसरे के प्रति मान -सम्मान ,प्रेम- भाव ,दया- माया- परोपकार जैसे गुण विद्यमान  थे। धर्म के नाम पर ही सही दान देने की भावना थी ,धर्म के डर से ही सही नारी का सम्मान था , पाप -पुण्य के डर से ही सही बदनियती नहीं थी। लेकिन अब घोर कलयुग हैं और आज लालच, ईर्ष्या, द्वेष,घृणा ,क्रोध, स्वार्थपरता, बदले की  भावना  जैसे नकारात्मक ऊर्जा वातावरण में चारो तरफ अपने असीम रूप में व्याप्त हो चुकी हैं। इन दुर्गुणों के कारण सोचने समझने की शक्ति क्षीण होती जा रही हैं। पहले से ज्यादा सुख सुविधा होने के वाबजूद और सुख की चाह ने इंसानो को  मशीन बना दिया हैं। विज्ञान हमारे जीवन में वरदान स्वरूप आया था हमने उसे अभिशाप बना डाला 

     तैतीस करोड़ देवी देवताओं के इस भारत देश में आज देवता या उस समय के दानव तो छोड़े इंसान की इंसानियत भी दम तोड़ने के कगार पर हैं। हां ,मैं तो सबसे पहले अपने देश की ही बात करुँगी ,जो देश देवताओ का देश कहलाता था आज उसी देश में मानवता तक नहीं बची ,सदियों तक गुलामी का दंश सहने वाले हमारे पूर्वजो को आज़ादी तो मिली लेकिन जितने आततायियों के कदम इस देश की धरती पर पड़ते गए वो अपने दुर्गुणों का छाप छोड़ते गए और इस देश की पवन भूमि तथा हमारे मन और बुद्धि को भी कलुषित करते चले गए। सबसे पहले हमने अपनी सोच का दायरा समेटना सीखा।" बहुजन हिताय बहुजन सुखाय "के सिद्धांत वाले  हमारे  देश के लोग अपने परिवार के सदस्यों तक को नहीं संभाल पाये ,हम से सीख कर पश्चिम वाले हमसे कही ज्यादा इंसानियत का मान रखने लगे हैं। सब से ज्यादा अमानवीय घटना जिसमे सबसे प्रथम स्थान पर बलात्कार  की घटनाये आती हैं वो हमारे ही देश में ज्यादा होती हैं। जहाँ नारी को देवी रूप में पूजा जाता हैं ,कन्यापूजन की जाती हैं वहाँ इतने बेरहमी से एक मासूम को कुचला जाता हैं। बहुत लोगो का मानना है कि अश्लील कपडे इन घटनाओ को जन्म देती है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि ये वजह भी हैं लेकिन दो तीन साल की मासूम किस तरह किसी को उत्तेजित कर सकती हैं। 

      आज इन अमानवीय घटनाओ के प्रति दुखी तो हैं पर हम कायर बन चुके हैं जिसे अनुचित ,अवांछनीय समझते है उसे बदलने ,सुधारने  का साहस भी नहीं कर पाते ,ना तो सत्य को अपनाते हैं और ना असत्य को त्यागते हैं बस कुड़कुड़ाते हैं। विचारो में तो हम सभी आदर्शवादी होते हैं ,योग्य अयोग्य का ज्ञान या पाप पुण्य की अनुभूति तो मुर्ख और पापी को भी होती हैं,चर्चा परिचर्चा भी खूब होती हैं  लेकिन व्यवहारिक जीवन में हम उसे भूल जाते हैं। इंसान में मानवीय गुणों का आगाज़ माँ के गर्भ से ही शुरू होता हैं और परिवार के बीच इन गुणो को निखारा जाता  हैं। आस पास के वातावरण और समाज में समंजस्य  स्थापित कर  इन गुणों को परखा जाता हैं। हमने तो कोई भी प्रक्रिया बेहतर तरीके से नहीं की और आज बैठकर  रोना रो रहे हैं। नहीं बनना हमे देवी देवता तो ना सही,देवता बनना आसान भी नहीं परन्तु  इंसान तो बने रह सकते थे वो तो हमारे अपने हाथो में था, पर हमने वो भी नहीं किया। 

      अब भी हम सँभल सकते हैं,उमींद की किरण अब भी हैं ,अभी भी इंसानियत पूरी तरह से नहीं मरी हैं वो अब भी जिन्दा हैं और वो अब भी कुछ चंद लोगो से उमींदें लगाए बैठी हैं ,वो देख रही हैं कि आज भी कुछ बुद्धिजन लोग उस पर चर्चा परिचर्चा कर रहे हैं ,उसको पल- पल मरता देख तड़प रहे हैं ,कुछ इंसान के रूप में संतजन भी हैं जो हर पल इंसानियत को जिन्दा रखने की जद्दोजहद में अपना जीवन अर्पण किये हुए हैं। हर अति का अंत होता हैं और अब अति हो चूका हैं ,घोर रात्रि के बाद सवेरा होना निश्चित हैं ,अब ये रात्रि का आखिरी पहर हैं सुबह होने ही वाली हैं। अब हमे ये तय करना हैं कि इस भोर की वेला को और सुंदर बनने में ,देवता से हैवान बन चुके हमारी मानसिकता को इंसान योग्य बनाने में हमारा कितना योग्यदान होगा ? क्या हम अपने नौनिहालों को इंसानियत का पाठ पढ़ाकर एक बेहतर समाज की स्थापना कर पाएंगे ? क्या हम अपने देश को देवताओं का ना सही इंसानो का देश बना पाएंगे ?


[मेरा लेख इन मतभेदो का विषय नहीं हैं कि तैतीस करोड़ देवी देवता थे या तैतीस प्रकार के,यह लेख  सिर्फ मेरी  व्यक्तिगत सोच  हैं,आप की असहमति भी हो सकती हैं।  तो कृपया इसे अन्यथा ना ले ]

18 टिप्‍पणियां:

  1. बात देवताओं की तो है ही नहीं ... उनका होना तभी तक है जब तक उन्हें माना जाये ... हर तो अपने बच्चों को गलत काम करने पर भी गलत नहीं मानते ... सिधार घर से आना चाहिए ये नहीं कबूल करते, समाज को गाली निकालते हैं जो हमसे ही बना है ...हैवान हम खुद पैदा कर रहे हैं ... क्योंकि आज हम भी इंसान नहीं रह गए हैं ...

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    1. आपने बिलकुल सही कहा ,मेरे लेख पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आभार ,सादर नमस्कार

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  2. मुझे आप के हर लेख में आपका दृष्टिकोण तथ्यपरक लगता है..इस लेख में भी आपका नजरिया चिन्तनपूर्ण है । बहुत सुन्दर सृजन ।

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    1. सहृदय धन्यवाद मीना जी ,यकीनन आप मेरा नजरिया बखूबी समझ चुकी हैं ,आप के स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आभार एवं सादर नमस्कार

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    1. सहृदय धन्यवाद अनीता जी ,सादर नमस्कार

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    १७ जून २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. सहृदय धन्यवाद, श्वेता जी ,मेरे लेख को स्थान देने के लिए दिल से आभार ,सादर नमस्कार

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  5. बहुत ही सार्थक सृजन प्रिय कामिनी जी ।हमें संभलना होगा आशा की किरन को किरनों में बदलाना होगा । शुरुआत घर से ही करनी होगी ,नौनिहालों को इंसानियत का पाठ पढाना होगा .

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    1. सहृदय धन्यवाद, शुभा जी ,आपके सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार ,सादर नमस्कार

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  6. सार्थक चिंतन देती रचना कि क्या हम अपने नौनिहालों तक इंसानियत धरोहर के रूप में पहुंचा पायेंगे क्या हम अपने ही नौनिहालों को इंसान रूप संस्कार दे पायेंगे।
    कामिनी जी बहुत सार्थक और समय की मांग है आपका ये लेख ।
    साधुवाद सदा नव चेतना देते सार्थक सृजन करती रहे आपकी कलम।।

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    1. सहृदय धन्यवाद कुसुम जी ,लिखते वक़्त मैं अक्सर यही सोचती हूँ कि पता नहीं मेरे विचारो से कोई सहमत होगा भी या ही,पर में लेखन कार्य वाहवाही के लिए नहीं करती ,बस अपने दिल में उमड़ते विचारो को साझा करती हूँ और आपकी प्रतिक्रिया हमेशा मेरा मनोबल बढाती हैं सादर नमस्कार

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  7. कामिनी जी, बहुत सुन्दर लेख है आपका. एक समय में जगदगुरु और सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत का पतन हम सबके लिए चिंता का विषय है. लेकिन प्राचीन भारत के गौरव को याद करने से हमको कुछ भी हासिल नहीं होगा.
    इतिहास का विद्यार्थी हूँ, मेरी दृष्टि में भारत की अथाह सम्पदा ने ही भारतीयों को अकर्मण्य बनाया है. 'भरे पेट वाले भला संघर्ष क्यों करें?' इस मानसिकता ने हमको कूप-मंडूक बना दिया, असहिष्णु बना दिया, कायर बना दिया, अज्ञानी बना दिया और अंततः सैकड़ों सालों तक विदेशियों का गुलाम बना दिया. और अब आज़ाद होने के बाद भी हमारी गुलामी की प्रवृत्ति और हमारा निकम्मापन आज भी पूर्व-वत विद्यमान है.हमको अभी और ठोकरें खाने की ज़रुरत है, तभी हम संभल पाएंगे.

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    1. सर्वप्रथम सादर नमस्कार सर ,आपको अपने ब्लॉग पर पाकर बेहद ख़ुशी हुई ,आपकी प्रतिक्रिया अनमोल हैं ,आपके विचारो से मैं पूरी तरह सहमत हूँ अकर्मण्यता ही हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य हैं।

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  8. कामिनी दी,मानती हूँ कि आज के हालात बदतर हो गए हैं लेकिन उम्मीद की किरण अभी भी बाकि हैं। हम अपने नौनिहालों की यकीनन अच्छे संस्कार दे पाएंगे। बस शुरवात हम सबको मिल कर अपने अपने घर से करनी होगी। चिंतन परक सुंदर लेख।

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    1. सहृदय धन्यवाद ज्योति जी ,सही कहा आपने ,मेरी भी सोच कुछ ऐसी ही हैं ,घर ही पहला पाठशाला होता हैं और हमे अपनी गलतियों को सुधरते हुए शुरुआत वही से करनी होगी। सादर स्नेह

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  9. बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति अभी नहीं सुधरे तो कभी नहीं सुधरेंगे बच्चों को संस्कार देने से पहले बड़ों को अपना आचरण सुधारना होगा तभी अपने नौनिहालों को सुंदर और स्वस्थ सोच दे पाएंगे संस्कार का बीज उन्हें ही बोना है

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    1. सहृदय धन्यवाद सखी ,आप के विचारो से मैं पूरी तरह सहमत हूँ।

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