गुरुवार, 11 जनवरी 2024

"गुलाब के साथ कांटे भी तो आते हैं "

 मां सुनो-  ये कहते हुए मिनी ने ईयर फोन का एक सिरा नीरा के कानों में लगा दिया।एक vioce massege था जिसमें साहिल की मां बोल रहीं थीं" मिनी को बोल दो चाय बनाना जरूर सीख ले पापा को खुश करने के लिए और कुछ खाना बनाना भी... अच्छा मिनी खाना बनाएगी नौकर चाकर नहीं-  साहिल पुछा। नहीं मेरे लल्ला के लिए खाना तो मैं या मिनी ही बनाएंगे -साहिल की मां बोल रही थी "

जैसे ही मैसेज खत्म हुआ मिनी बोली - "मम्मा ये क्या हैं मुझे तो इनकी बातों से डर लग रहा है ये कितने सपने देख रही है मुझे लेकर..."हां बेटा वो बहुत खुश है- नीरा ने कहा। लेकिन मम्मा मैं ये सब नहीं कर सकी तो....तुम्हें तो पता है मैं टिपिकल लाइफ नहीं जी सकती....एक सुघड़ बहु की तरह खाना बनाऊं अपनी दिनचर्या सिर्फ सबको खुश रखने में बिताऊं....तुम लोगों की तरह चाह कर भी हम नहीं कर पाएंगी ये सब...। मिनी की आवाज में फिक्र थी। वो साहिल से बहुत प्यार करती थी और उसकी मां से भी। लेकिन जब जब रिश्ता जुड़ने की बात होती साहिल की मां मिनी को लेकर बहुत उत्साहित हो ढेरो सपने देखने लगती । वो बाल गोपाल की पुजारन एक सीधी और सरल महिला थी जिसने जीवन में बहुत दुख झेले थे और मिनी मां बाप की एकलौती संतान बेहद नाजों में पली-बढ़ी। लेकिन नीरा ने उसको संस्कारी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मगर कभी भी उस  पर कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं पड़ी थी । इसलिए वो साहिल की मां की अपेक्षाओं से कभी कभी घबराने लगती कि कहीं मैं उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी तो उन्हें कितना दुःख होगा। वैसे भी अपनी कैरियर को लेकर उसके सपने बहुत बड़े थे। वो ना ही अपना सपना छोड़ सकती थी और ना ही वो कभी साहिल और उसकी मां का दिल दुखाना चाहती थी । ऐसे में एक अजीब दुविधा में पड़ जाती थी वो।

जब वो ज्यादा परेशान हो गई तो नीरा ने उसे समझाया - बेटा गुलाब के पौधे को देखा है तुमने कितना खूबसूरत होता है क्यूं है न लेकिन जब उसे तोड़कर घर लाना चाहो तो संग संग कुछ कांटे भी तो आते हैं तो क्या इस डर से हम गुलाब को लेने से डर जाते हैं?? नहीं न, तो जीवन में जब गुलाब के फूल की तरह खुबसूरत रिश्ते जुड़ते हैं या कोई खुशियां आती है तो संग संग कुछ कांटे समान परेशानियां भी साथ आती और यदि इसे हम बिना घबराए प्यार और समझदारी से एक एक करके निकलते जाएंगे तो जीवन मधुबन बन जाएगा। साहिल की मां ने बहुत दुख झेला है और अब जब घर में खुशी आती दिखाई दे रही है तो वो अति उत्साहित हो जा रही है और वैसे भी हमारी उम्र में ये सारी बातें स्वाभाविक है, हमारी बातें खानें से ही शुरू होती है और खाने पर ही खत्म... वो तुम से भी तो तुम्हारे खानें की पसंद ही पुछ रही थी ये कहते हुए कि तुम जब पहली बार उनके घर आओगी तो वो बनाएगी - कहते हुए नीरा मुस्कुराने लगी।

मिनी समझ रही थी कि ये साहिल की मां का प्यार है फिर भी उसकी एक ग़लती से उनका दिल ना दुखे इससे वो डर जाती थी। मां की बातें उसे समझ आई और वो उनसे लिपट कर बोली -" तुम नहीं होती तो मेरा क्या होता" मैं नहीं होती तो तुम इस दुनिया में आती ही नहीं - कहकर नीरा मुस्कुराने लगी और मिनी की ठहाके गूंज उठी। नीरा उसे गले से लगाए सोच रही थी " कुछ दिनों में मेरे घर की मुस्कान किसी और के घर खिलखिला रही होगी ' उसकी आंखें नम थी मगर मन में एक अजीब सुख की अनुभूति।

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

"नई विचारधारा के साथ नव वर्ष का आगाज़"

      


    समय के साथ हर चीज की परिभाषा बदलती रहती है। बदलाव प्रकृति का नियम है तो हमें इसे स्वीकार करना ही होता है। लेकिन हर बात को स्वीकारने या नाकारने से पहले उस पर चिन्तन करना क्या ज़रूरी नहीं होता ?

    शास्त्रों में लिखा है "माता-पिता और गुरु देवस्वरूप है " हमनें कहानियों में भी पढ़ा है कि -गणेश जी ने माता-पिता को ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मानकर उन्ही की परिक्रमा कर ली थी।श्रवणकुमार की कथा कौन नहीं जानता है।  ऐसे ही अनेकों किस्से-कहानियां है जो हमें ये सिखलाते हैं कि-माता-पिता देवतुल्य है,उनके चरणों में ही स्वर्ग सुख है आदि,और उस युग में ये सत प्रतिशत सत्य भी था। 

   ये सत्य है कि - जब किसी व्यक्ति विशेष में हम देवत्व के गुण देखते हैं तो हम उसे देवतुल्य या देव कहते हैं। परन्तु,चाहें वो माता-पिता हो या गुरु यदि उसमें देव का एक भी गुण नहीं हो तब भी क्या हमें उन्हें देवता कहना चाहिए ???

    पुराने जमाने यानि 100 -200 साल पहले के भी कितने ही किस्से-कहानियों में ये वर्णित है कि -माँ-बाप के जरूरत से ज्यादा तानाशाह और महत्वकांक्षा ने कितने ही बच्चों की ज़िंदगियाँ बर्बाद कर दी।70 के दशक तक भी माँ-बाप को देवता मानकर उनकी हर आज्ञा को शिरोधार्य किया जाता था। भले ही वो दिल से ना माना जाये मगर, उनके आज्ञा की अवहेलना करना पाप ही समझा जाता था। हमारी पीढ़ी ने भी माँ-बाप की ख़ुशी और मान-सम्मान के लिए ना जाने कितने समझौते किये। जबकि उस वक़्त में भी माँ-बाप के गलत निर्णय और जरुरत से ज्यादा सख्ती के कारण कितने ही बच्चों ने आत्महत्या तक कर ली और आज भी करते हैं । 

    ये भी सत्य है कि- जब हम किसी को भगवान का दर्जा देते है तो वो स्वयं को भाग्यविधाता ही मान बैठता है। और शायद यही गलती अब तक माता-पिता करते आये है और उनकी इसी गलती ने आज वो दिन दिखा दिया जब बच्चें माँ-बाप को देवता छोड़ें जन्मदाता तक मानकर भी सम्मान नहीं देते।  ये भी सही है कि 21 वी सदी के -"माँ-बाप तो जन्मदाता तक का फ़र्ज़ भी सही से नहीं निभा पा रहें हैं"   

    गुरुओं ने भी यही किया हम आँख बंद कर  गुरु भक्ति करते रहें और वो हमारी ही भावनाओं से खेलते रहें। यहां तक की शास्त्रों के ज्ञान को भी अपने हित के मुताबिक  तोड़-मड़ोड़कर हमारे समक्ष प्रस्तुत करते रहें और हम भ्रमित होते रहें फिर ऐसा वक्त आया कि हम प्रत्येक रीती-रिवाजों और शास्त्रों के बातों को आडंबर कहते हुए नाकरते रहें । गुरु का स्थान कितना ऊंचा था ,कहते थे कि -"गुरु गोविन्द दाऊ खड़े काके लागू पाय,बलिहारी गुरु आपने जो गोविन्द दियो बताये" मगर आज कितने ही गुरु घंटाल जेल की सलाखों के पीछे है और उनके दुष्कर्मो की गिनतियाँ  नहीं है। 

     हमारी पीढ़ी तक को ये सिखाया गया था की "पति परमेश्वर होता है" परमेश्वर से तो कोई गलती नहीं होती और कोई ऐसा पति नहीं जिससे गलती ना हुई हो.....तो फिर क्या पति को परमेश्वर मानना उचित था? 

   आज हम जरूर शिकवे-गीले कर रहे है कि -बच्चें माँ-बाप की बेकद्री कर रहे हैं,उनको घर से बेघर कर रहें  हैं.......समाज में अब  गुरुओं का सम्मान नहीं हो रहा....लड़कियां पति का सम्मान नहीं करती....रिश्तें  टूट रहे हैं।   क्या इन सब बातों के जिम्मेदार माँ-बाप, गुरु और पति स्वयं नहीं है ? ये सारी स्थितियाँ एक दिन में तो बदली नहीं है सदियों से होती हुई गलतियों का धीमा परिणाम ही तो है ये ।  

      अवल तो हमें जब तक किसी में देवत्व का अंश ना दिखे उसे देव की उपाधि देनी ही नहीं चाहिए यदि हम  भाव अभिभूत होकर देव की  उपाधि दे दे  तो उसे व्यक्ति विशेष को भी अपने देवत्व की गरिमा बनाये रखनी चाहिए और खुद को भाग्यविधाता नहीं मान बैठना चाहिए। 

     मेरा मन मुझसे ये सवाल करता है कि-"क्या हम रिश्तों को उसके ओहदे के मुताबिक स्थान देकर मान-सम्मान नहीं दे सकते ?? क्या आज के दौर में भी उन्हें देव की उपाधि देना जरुरी है ?"क्या देवता बनने के वजाय एक आदर्श व्यक्ति बनकर रहना ही उचित नहीं है ताकि रिश्तों में हम सम्मान तो पा सकें?

    सोशल मिडिया की वजह से नई पीढ़ी जागरूक हो रही है, प्रत्येक विषय पर खोजबीन कर रही है, तर्क-वितर्क  भी कर रही है।  उनमें अपनी धर्म,संस्कृति और इतिहास को जानने की भी उत्सुकता बढ़ रही है।विचारधारायें बदल रही है,हमें भी बदलना होगा और बहुत चीजों की परिभाषा भी बदलनी होगी। हमें नई पीढ़ी के आगे एक नया उदाहरण प्रस्तुत करना ही होगा।

    जैसा कि पिछले कुछ दिनों में नई पीढ़ी में ये जागरूकता आई है कि हमारा नव वर्ष 1 जनवरी को नहीं बल्कि चैत्र माह की प्रतिपदा तिथि को मनाया जाता था। लेकिन हमारी संस्कृति में यह भी सिखाया गया है कि -सभी धर्मो और उनके रीति-रिवाजों का सम्मान करना चाहिए,सभी की भावनाओं को मान देना चाहिए। तो अंग्रेजों के द्वारा थोपी गई इस परम्परा का भी हम ख़ुशी ख़ुशी निभाएंगे मगर अपना भूलेंगे भी नहीं। 

चलिए, नई विचारधारा के साथ नव वर्ष का आगाज़ करे। नव वर्ष हम सभी के लिए मंगलमय हो यही कामना है। 

 





  

गुरुवार, 14 दिसंबर 2023

कर्मानन्द और भाग्यनंद

"यूट्यूब" ज्ञान बाँटने की सबसे बड़ी पाठशाला। वही के ज्ञानी बाबा के मुख से मेरी बहन की लड़की ने एक कहानी सुन ली। (जो अभी 18 साल की है ) उसने वो कहानी मुझें सुनाई और मुझसे अपने कुछ सवालों के जबाब मांगने लगी। उस कहानी को सुन मैं थोड़ी confuse हो गई। आजकल के बच्चें हमारी तरह तो है नहीं। हमें तो बड़े जो समझा देते थे बिना तर्क-वितर्क के मान लेते थे। आज के पीढ़ी के पास तो ज्ञान बाँटने का महासागर पड़ा है अब वो ज्ञान कितना सही है या गलत उसे भी वो उसी जगह खोजते हैं। 

कहानी कुछ इस तरह है- एक कर्मानन्द थे एक भाग्यनंद,दोनों ही अपने आपको बड़ा मानते थे। जब वो खुद इस बात का फैसला नहीं कर सकें तो पहुचें ज्ञानिनंद के पास कि -"आप इसका फैसला कीजिये। ज्ञानिनंद ने कहा कि "मैं तुम दोनों को आज रात एक अँधेरे कोठरी में बंद रखूंगा और सुबह तुम दोनों का फैसला सुनाऊँगा। दोनों राजी हो गए और अँधेरी कोठरी में बंद हो गए। रात को उन्हें बहुत जोर की भूख लगी क्योंकि ज्ञानिनंद ने उन्हें कुछ खाने को दिया नहीं था। कर्मानन्द जी अपने कर्म में लग गए,अँधेरे में ही कोठरी में खाने की कुछ चीज तलाशने लगे। ढूंढते-ढूंढते उन्हें एक मटका मिला टटोला तो उन्हें समझ आया कि -इसमें कुछ भुने चने है, वो उसे मजे से खाने लगे। उधर भाग्यनंद भगवत भजन कर रहे थे और इस उम्मींद में थे कि-भगवान उनके लिए कुछ जरूर करेंगे। कर्मानन्द चने खा रहा था तो बीच-बीच में कुछ कंकड़ आ जाता वो उसे निकल कर भाग्यनंद की तरफ फेंक देता। भाग्यनंद पहले तो झल्लाया फिर उन कंकड़ों को ये कहते हुए इकठ्ठा करने लगा कि-शायद ईश्वर ने उसके भाग्य में आज यही दिया है। खैर, सुबह हुई ज्ञानिन्द आये तो कर्मानन्द ने खुश होते हुए रात का अपना करनामा कह सुनाया। ज्ञानिनंद ने भाग्यनंद से पूछा "तुमने क्या किया " तो वो बोला मैंने ये मान लिया कि-भगवान ने मेरे भाग्य में भूखा  रहना ही लिखा था और मैं कर्मानन्द के फेंके पथ्थरों को चुन-चुनकर अपने अगौछे में बांधता रहा। ये कहते हुए उसने अपने अंगोछे की गांठ खोली तो उसकी आँखे चौंधिया गई वो जिसे पथ्थर समझकर इकठ्ठा कर रहा था वो तो सारे हीरे निकलें। कहानी को ख़त्म करते हुए यूट्यूब के ज्ञानी बाबा ने कहा कि-अब आप खुद ही समझ ले "कर्म और भाग्य में अंतर " (मुझे यहाँ ये बताने की आवश्यकता नहीं कि-वो बाबा जी एक ज्योतिषाचार्य थे।)

अब मेरी बेटी का सवाल ये था कि -"जब भगवान ही हमे सब कुछ दे देंगे तो हम बे वजह इतनी मेहनत क्यों करते हैं।" मैंने कहा -बेटा हमने तो अपने गुरुजनों से यही सीखा और समझा है कि " आपका कर्म ही आपका भाग्य निर्धारित करता है,भगवन भी उसी को देते हैं जो कर्म करता है,बैठे-बिठाये सिर्फ भजन करने से तो कुछ नहीं मिलता "

उसने कहा- लेकिन आज के सन्दर्भ में तो बाबा जी की कही बात ही सही दिखाई दे रही है। क्योंकि आज बिना किसी काबिलियत के अकर्मक लोग गुलझरे उड़ा  रहे है और काबिल तथा कर्मठ लोगों की कोई कद्र ही नहीं है। अब इंस्ट्राग्राम और यूट्यूब पर ही देख लो क्या हालत है। 

मैंने कहा-लगता है ये कहावत सच हो रही है कि "रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा युग आएगा,हँस चुनेगा दाना-तिनका और कौआ मोती खायेगा "

ये कहते हुए मैंने अपनी बेटी से मुँह छुपा लिया और क्या कहती आज के हालत को देखते हुए। 

आप क्या कहते हैं ?????

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...