" मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "
जीवन का सारा खेल एक नज़र और नज़रिये का ही तो होता है ,किसी को पथ्थर में भगवान नजर आते है किसी को भगवान भी पत्थर के नज़र आते है----
मंगलवार, 30 अप्रैल 2019
" भाग्य विधाता "- कौन ??
" मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "
शनिवार, 13 अप्रैल 2019
धर्म क्या हैं ??
धर्म क्या हैं ? धर्म क्यों हैं ?धर्म कैसा होना चाहिए ? क्या सचमुच हमारे जीवन में धर्म की आवश्यकता हैं ?धर्म का हमारे जीवन में क्या महत्व होना चाहिए ?मानव का सबसे बड़ा या पहला धर्म क्या होना चाहिए ? धर्म के बारे में ना जाने इस तरह के कितने सवाल हमारे मन मस्तिष्क में उठते रहते है।हर युग में,हर समाज में ,हर सम्प्रदाय में यहां तक की हर व्यक्ति अपने अपने तरीके से इन सवाल के खोज में लगा रहता हैं। धर्म के संबंध में बड़ी विभिन्ताएं देखने को मिलती हैं। एक देश और एक ही जाति के लोगो के धार्मिक आचरण में भी बड़ी अंतर् दिखाई देता हैं। सामान्य जन दान -पुण्य ,पूजा -पाठ और बाहरी कर्मकांडों को ही धर्म का नाम देते हैं। यही धार्मिक कर्मकांड धीरे -धीरे सामाजिक रीति -रिवाज का रूप धारण कर लेता हैं। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी बुद्धि से तर्क पूर्वक सोच समझ कर धर्म का आचरण करते हैं या यूँ भी कह सकते हैं कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझते हैं।
सभी धर्मो की यही मान्यता हैं कि उनका धर्म अनादि हैं। लेकिन एक बात सभी धर्मो में समान रूप से दिखाई देती हैं,सभी धर्म एक ही सत्य पर आधारित हैं कि कोई ऐसी शक्ति हैं जो हम पर नियंत्रण रखती हैं और जिसने कुछ नियम कानून बनाये हैं और उसका पालन करना ही हमारा परम् धर्म हैं। इन नियम कानून में भी समय समय पर पैगंबरो और अवतारो ने आकर उनका पुनरुथान भी करते रहे हैं। सारे धर्मो के अपने अपने धर्मग्रंथ हैं लेकिन सभी धार्मिक गुरुओ ने अपने कथन के अपूर्णता को भी स्वीकारा हैं। शायद यही कारण है कि अनादि काल से अब तक हर धर्म के स्वरूप में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। सभी धर्मो में नए सुधारक आते गए और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बता कर समय ,स्थान और परिस्थितियों के अनुसार उनमे परिवर्तन करते गये। अवतारी महापुरुषों ने अपने समय के परिस्थिति और स्थान को बहुत महत्व दिया था।
जब वैदिक युग में ब्रह्मोपासना आवश्यकता से अधिक बढ़ गई और लोग अपने कर्तव्य का पालन छोड़ पूजा पाठ में ही लगे रहते थे तब भौतिकवादी वाममार्ग की शुरुआत हुई ,जब भौतिकवादिता के कारण वाममार्गियों की हिंसा हद से ज्यादा बढ़ गयी तो महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया ,जब अहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शकराचार्य ने उसका खंडन कर वेदांत का निर्माण किया। इस तरह धर्म में समय समय पर बदलाव होते रहे हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार धर्मो में परिवर्तन हर धर्म के धार्मिक ग्रंथो में देखने को मिलेगी।
मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है। अनादि काल से ही मनुष्यो को जिस काम में अपना हित नजर आया उसने वही काम आरम्भ कर दिया और उसे ही धर्म का नाम दे दिया गया। गौ पालन ,तुलसी स्थापना ,गंगा स्नान ,तीर्थ यात्रा ,एकादशी व्रत ,ब्रह्मचर्य आदि कार्य मनुष्य के लिए लाभदायक हैं ,इसकी परीक्षा करने के बाद इन कार्यो को धर्म माना गया हैं। गाय पालन से हमे दूध ,गोबर और बछड़े मिलते हैं ,तुलसी अनेक रोगो को दूर करने वाली एक अमोध औषधि हैं ,तीर्थाटन से वायु परिवर्तन और सत्पुरषो के सतसंग का लाभ मिलता हैं ,एकादशी व्रत से हमे अनेक रोगो से लड़ने की क्षमता मिलती हैं ,ब्रह्मचर्य से शरीर बलवान रहता हैं। इस तरह हम देखेंगे की हर धार्मिक परम्परा हमे एक नियम कानून से बांध कर हमारे तन, मन और धन को लाभ पहुंचने के लिए ही बने हैं।
धर्म को पाप -पुण्य से जोड़ा गया ताकि लोग इससे डर कर इसके नियम को कठोरता से पालन करे। परन्तु जहाँ श्रेष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे और जो धर्म स्वेच्छा से अपनाई जाती थी उस पर डर का व्यवसाय चलाने लगे। कुछ ओछी मनोवृति के धर्मगुरुओ ने वक्तिगत लाभ के लिए नकली बातो को भी धर्म से जोड़ दिया। समय के साथ वो असली -नकली बाते एक दूसरे से जुड़ ऐसी शक्ल में आ गई कि आज ये पहचानने में भी कठिनाई होती हैं कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हैं उसमे कितनी सचाई हैं।
लेकिन अगर हम अपनी बुद्धि और विवेक से चिंतन करेंगे तो देखेंगे कि हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं। विद्या,स्वास्थ ,धन ,प्रतिष्ठा ,पवित्रता ,संगठन ,सच्चरित्रता ये सात महाबल माने गये हैं। अगर ये सातो बल आपके पास हैं और आप इन सातो गुणों के सहायता से समाज की उन्नति कर रहे हैं तो आप धार्मिक हैं। सारे धार्मिक ग्रंथो का एक ही सार है और वो यही कहते हैं कि - अपना कर्तव्य पालन ,दुसरो की सेवा ,परोपकार और संयम। अर्थात जिसके हृदय करुणा हैं सच्चा धर्मचारी वही हैं।
संक्षेप में कह हैं कि -अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी। जो तत्कालीन समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं। लेकिन धर्म का इतना हनन होने के वावजूद अभी भी धरती कायम हैं तो ये भी स्पष्ट हैं कि अभी भी पृथ्वी पर धर्माचारियों की कमी नहीं।
मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है। अनादि काल से ही मनुष्यो को जिस काम में अपना हित नजर आया उसने वही काम आरम्भ कर दिया और उसे ही धर्म का नाम दे दिया गया। गौ पालन ,तुलसी स्थापना ,गंगा स्नान ,तीर्थ यात्रा ,एकादशी व्रत ,ब्रह्मचर्य आदि कार्य मनुष्य के लिए लाभदायक हैं ,इसकी परीक्षा करने के बाद इन कार्यो को धर्म माना गया हैं। गाय पालन से हमे दूध ,गोबर और बछड़े मिलते हैं ,तुलसी अनेक रोगो को दूर करने वाली एक अमोध औषधि हैं ,तीर्थाटन से वायु परिवर्तन और सत्पुरषो के सतसंग का लाभ मिलता हैं ,एकादशी व्रत से हमे अनेक रोगो से लड़ने की क्षमता मिलती हैं ,ब्रह्मचर्य से शरीर बलवान रहता हैं। इस तरह हम देखेंगे की हर धार्मिक परम्परा हमे एक नियम कानून से बांध कर हमारे तन, मन और धन को लाभ पहुंचने के लिए ही बने हैं।
धर्म को पाप -पुण्य से जोड़ा गया ताकि लोग इससे डर कर इसके नियम को कठोरता से पालन करे। परन्तु जहाँ श्रेष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे और जो धर्म स्वेच्छा से अपनाई जाती थी उस पर डर का व्यवसाय चलाने लगे। कुछ ओछी मनोवृति के धर्मगुरुओ ने वक्तिगत लाभ के लिए नकली बातो को भी धर्म से जोड़ दिया। समय के साथ वो असली -नकली बाते एक दूसरे से जुड़ ऐसी शक्ल में आ गई कि आज ये पहचानने में भी कठिनाई होती हैं कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हैं उसमे कितनी सचाई हैं।
लेकिन अगर हम अपनी बुद्धि और विवेक से चिंतन करेंगे तो देखेंगे कि हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं। विद्या,स्वास्थ ,धन ,प्रतिष्ठा ,पवित्रता ,संगठन ,सच्चरित्रता ये सात महाबल माने गये हैं। अगर ये सातो बल आपके पास हैं और आप इन सातो गुणों के सहायता से समाज की उन्नति कर रहे हैं तो आप धार्मिक हैं। सारे धार्मिक ग्रंथो का एक ही सार है और वो यही कहते हैं कि - अपना कर्तव्य पालन ,दुसरो की सेवा ,परोपकार और संयम। अर्थात जिसके हृदय करुणा हैं सच्चा धर्मचारी वही हैं।
संक्षेप में कह हैं कि -अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी। जो तत्कालीन समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं। लेकिन धर्म का इतना हनन होने के वावजूद अभी भी धरती कायम हैं तो ये भी स्पष्ट हैं कि अभी भी पृथ्वी पर धर्माचारियों की कमी नहीं।
बुधवार, 27 मार्च 2019
हमारी प्यारी बेटियाँ

कहते हैं "बेटियाँ" लक्ष्मी का रूप होती है, घर की रौनक होती है। ये बात शत प्रतिशत सही है। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि बेटियाँ ही इस संसार का मूल स्तंभ है। वो एक सृजनकर्ता और पालनकर्ता है। प्यार और अपनत्व की गंगा बेटियों से ही शुरू होती है और बेटियों पर ही ख़त्म हो जाती है। लेकिन आज हमारा विषय हमारी प्यारी बेटियों पर नहीं है बल्कि बेटियों के " बेटी से बहू "बनने के सफर पर है।
नब्बें के दशक तक जब एक माँ अपनी बेटी को गोद में लेती तो उससे मन ही मन ये वादा करती थी कि- "मेरी लाड़ली मुझ पर जो गुजरी वो मैं तुम्हारे साथ कतई नहीं होने दूँगी...खुद से बेहतर परवरिश और भविष्य तुम्हें जरूर दूँगी...जो मैंने नहीं पाया वो पाने का अवसर तुम्हें जरूर दूँगी....मेरे सपने तो पूरे नहीं हुए पर मैं तुम्हारा सपना टूटने नहीं दूँगी वादा है मेरा तुमसे" यकीनन ये हर युग में हुआ होगा तभी तो दिन प्रति दिन औरतो के हालात में परिवर्तन होता चला गया। अपने ही घर का इतिहास उठाकर जब हम देखते हैं तो "अपनी नानी से लेकर अपनी बेटी तक में जो परिवर्तन हुआ है वो यकीनन हर माँ के अपनी बेटी से किये हुए वादे का ही असर है जो हम औरतो को यहाँ तक लेके आया है।" हमारी सोच और प्रयास का ही परिणाम है कि आज लड़कियाँ पूर्णतः आज़ाद हो चुकी है। यकीनन कुछ ज्यादा ही आज़ाद हो चुकी है इतनी स्वछंदता की डर लगता है, ये अब कहाँ तक जायेगी ? मैं अक्सर सोचती हूँ - "आज की लड़कियाँ अपनी बेटियों से क्या वादा करेगी..उनके भविष्य के लिए क्या सपने देखेंगी ?"
क्या आज हमारी बेटियाँ सचमुच उसी मुकाम पर खड़ी है जहाँ हम उन्हें देखना चाहते थे? क्या हमारे सपने यही थे कि हमारी बेटियाँ इतनी आज़ाद हो जाये, इतनी स्वछंद हो जाये, इतनी आत्मनिर्भर हो जाये कि वो अपनी मूलस्वरूप को ही खो दे ? क्या आपको नहीं लगता कि आज की पीढ़ी की हमारी बेटियांँ घर-परिवार, समाज यहांँ तक कि अपने आस्तित्व तक से इतनी ऊपर उठ चुकी है कि वो पतन की कगार पर खड़ी है ? हमनें अपनी बेटियोंं को आत्मनिर्भर बनाने की, उन्हें हर रूढ़िवादिता से आजाद करने की जो सपने देखे थे वो तो पूर्ण हुआ पर क्या आज हमारी बेटियाँ एक अच्छी पत्नी,एक अच्छी बहू या अच्छी माँ बन पा रही है?
चलिये, मैं आपको आँखो देखी घटना बता कर इस विषय को समझने और समझाने का प्रयास कर रही हूँ। मेरे एक परिचित है उनको एक बेटा और एक बेटी है। बड़ा ही खुशहाल परिवार, माँ-बाप बेटी के पूरे नाज़-नखरे उठाकर बड़े लाढ़-प्यार से पाले थे। किसी भी चीज़ में बेटे से कुछ कम नहीं किया। दोनों भाई-बहन की शादी भी एक साल के अंतर पर कर दिया था। बेटी की शादी में तो उन्होंने अच्छा खासा खर्च भी किया था यहांँ तक की क़र्ज़ में भी डूब गए थे। एक दिन मैं उनके घर गई तो देखा उनकी बेटी आई हुई है। औपचारिकता के बाद मैंने उससे पूछा -"तो बेटा कितने दिनों के लिए आई हो?" उसने जबाब दिया - हमेशा के लिए आंटी। मैं थोड़ी सकपका के बोली - ये क्या कह रही हो ? उसने बड़ी ही वेतक्लुफी से कहा - सच कह रही हूँ आंटी, मैंने अपने पति को तलाक दे दिया...मेरा उससे नहीं निभा । जबाब सुन कर मैं सन्न रह गई,क्या बोलती। माहौल थोड़ा भरी सा लगने लगा तो बात बदलने के लिए मैंने पूछा - बहनजी आप की बहू कहाँ है..नज़र नहीं आ रही है। उन्होंने कहा - वो भी अपने मयके चली गई...हमेशा के लिए...उसने भी तलाक का नोटिस भेज दिया है। मैं आवक रह गई और तुरंत वहाँ से उठ कर चली आई।
इस घटना के कुछ ही दिनों पहले एक और घटना हुई थी। मैं अपनी दोस्त के साथ उसके बेटे की शादी तय करने गई थी। लड़का और लड़की वालो की एक मीटिंग थी। मेरी दोस्त को सिर्फ एक बेटा है उसके पति गुजर चुके हैं तो वो मुझे अपने साथ ले गई थी। सब कुछ तय था बस एक औचारिकता भर थी वो मीटिंग। जब हम सब बैठे बातें कर रहें थे, सगाई और शादी की तारीख तय की जा रही थी तभी अचानक से लड़की लड़के से बोल पड़ी - "शादी के बाद हम separate कब होंगे ". लड़के ने आश्चर्य से पूछा - what do you mean ? लड़की ने बड़ी वेतक्लुफी से कहा - "इसमें ना समझने वाली कौन सी बात की है मैंने....शादी के बाद हमारा अपना अलग घर तो होगा ही।" लड़के ने कहा - "अरे यार हमारे साथ माँ के अलावा और कौन है।" लड़की ने कहा - " माँ तो है न...हमारी प्राइवेसी कहाँ रहेगी" ये सारी बातें सभी लोगों के सामने हो रही थी। लड़के की माँ बात को सँभालते हुए बोली - अरे बेटा,आपको प्राइवेसी चाहिए तो मिलेगी न...हमारा दो फ्लोर का मकान है..एक में मैं रह लुँगी एक में आप दोनों रह लेना। लड़की ने तपाक से जबाब दिया - अरे नहीं मम्मी जी इसमें प्राइवेसी कहाँ रही....आप की नज़र तो हर पल हम पे रहेगी न। बेचारी माँ के पास कोई जबाब नहीं था। लड़की के फैमिली वाले सब सुन रहे थे लेकिन चुप थे। लड़के ने माँ का हाथ पकड़ा और कहा -चलो, माँ मैं यह शादी नहीं करुगाँ...जो लड़की चंद साल जिन्दा रहने वाली मेरी माँ की देखभाल नहीं कर सकती वो सारी उम्र मेरी और मेरे बच्चों की देखभाल क्या करेगी ? मैंने अपनी दोस्त को सहारा देकर उठाया, बेटे की पीठ थपथपाई और उठ कर चलने का इशारा किया।
इस घटना के चंद दिनों बाद एक दिन लड़की की माँ से मेरी मुलाकात हो गई। मैंने कहा -आपने अपनी लड़की को समझाया नहीं ? तो लड़की की माँ बड़ी बेरुखी से बोली - समझाना क्या था जी,क्या मेरी बेटी सारी उम्र उस बुढ़ियाँ की सेवा करती रहेगीं...उसकी अपनी ख़ुशी नहीं है क्या? मैं दंग रह गई मैंने सोचा जब गोदाम ही ऐसा है तो माल कैसा होगा। मैंने पूछा - आप का भी तो एक बेटा है न उसकी शादी कब कर रही है? वो चहकती हुई बोली - हांँ जी ,मैं तो उसके लिए बड़ी सुघड़ बहू लाऊँगी जो हमारी देखभाल करें और परिवार संभाले। मैंने कहा - वो तो संभव नहीं है जी। उसने पूछा - "क्यों नहीं है जी" मैंने कहा - अजी उस लड़की की माँ भी तो यही कहेंगी कि -मेरी बेटी सारी उम्र उस बुढ़ियाँ की सेवा क्यों करेंगी...इसी दिन के लिए तो मैंने अपनी बेटी को इतने नाज़ो से नहीं पाला..आखिर वो भी तो अपने माँ-बाप की लाड़ली होगी न ? वो औरत मेरा मुँह देखती रह गई और मैं वहाँ से निकल ली।इस दोहरी मानसिकता से मुझे घिन आ रही थी।
ये दोनों घटनाये ऐसी थी जिसने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया। मैं ये सोचने पर मज़बूर हो गई कि -आखिर ऐसा क्यूँ हो रहा है ? मेरे खुद के मुहल्ले में अगर दस लड़कियांँ ब्याही गई है तो उनमे से आठ मायके वापस आ गई है और जो दो ससुराल में है उन्होंने ससुराल वालों और पति तक का जीना हराम कर रखा है।
मैं जानती हूँ मेरा ये विषय थोड़ा उलझा हुआ (complicated )है। जो शायद बहुतो को पसंद ना आये और वो मुझसे सहमत भी ना हो।लड़कियों को तो शायद मेरी ये बात बिलकुल ही पसंद न आये। क्योंकि आज कल नारी जागरण की बहुत बड़ी-बड़ी बातें हो रही है। लेकिन मैं चिंतित हूँ। मैं खुद एक औरत हूँ और सिर्फ एक बेटी की माँ भी हूँ। (मेरी दूसरी कोई संतान नहीं है )फिर भी मैं ये मानती हूँ कि लड़कियांँ जो कर रही है गलत कर रही है। मैं ये निष्पक्ष भाव से कह रही हूँ। सोचने वाली बात है कि इस समस्या की शुरुआत कैसे हुई। बेटियाँ जो प्यार और ममता की मूर्ति होती थी,बेटियांँ जो सम्बन्धो को जोड़ने और संभालने वाली डोर होती थी वो खुद आज एक कटी पतंग कैसे बन गई ? जो आज बेपरवाही से हवा में उडी जा रही है..उन्हें नहीं पता और ना ही फ़िक्र है कि वो अपने डोर से टूटी है तो कहाँ गिरेंगी कीचड़ में, खाई में या बाग-बगीचे में। मुझे लगता है कि बेटियों के इस बदले हुए स्वरूप के जिम्मेदार हम है। कही न कही हमसे ही चूक हुई है। इसमें बेटियों का कोई कसूर नहीं है।
इंसानी प्रकृति है, हम जो करते हैं अति करते हैं। गौतम बुद्ध ने कहा है कि -"अति किसी भी चीज़ की बुरी है और निम्नता भी इसीलिए हमें हमेशा माध्यम मार्ग अपनाना चाहिए तभी हमारा कल्याण हो सकता है। "जैसे वीणा के तार को यदि अधिक तनाव से बंधा जाये तो वीणा बजाते वक़्त तार टूट जाती है और अगर तार थोड़ी ढीली हुई तो सुर बिगड़ जाता है। इसलिए कुशल सगीतकार वीणा के तार को माध्यम तनाव में बांधता है और उससे मनमोहक संगीत उत्पन्न करता है। अब अगर शुरू से देखें तो औरतो पर अत्याचार हुआ वो अति हुआ,उन पर संस्कार के नाम पर पावंदियां लगाई गई वो भी अति लगी। समाज और दहेजप्रथा के डर से कन्या भ्रूण हत्या और दुल्हनों की हत्या शुरू हुई तो वो भी एक चलन बन, अति हुआ। समाज और औरतो में जागरूकता आई और औरतो को सम्मान और आज़ादी मिलने लगी तो वो भी भारतीय संस्कृति की सारी सीमाओं को पार कर रहा है। हमारी पीढ़ी ने बेटियों का महत्व समझा और उन्हें बेटो से अधिक लाढ-प्यार दे कर पाला, उनकी हर ख़ुशी,हर फ़रमाइस पूरी की तो उसमे भी हमने अति कर दी।
उन्हें हर ख़ुशी देते वक़्त हम उन्हें ये समझाना भूल गए कि -बेटा जी ,जो ख़ुशी हम आप को दे रहे हैं वो आगे आपको बाँटना भी होगा। बेटियों से हमारा घर रोशन रहा लेकिन हमने उन्हें ये नहीं समझाया कि -बेटा, ये रोशनी तुम्हें अपने जीवन में हमेशा कायम रखनी है और वो तभी होगा जब तुम अपने दूसरे घर को भी अपनी रोशनी से रोशन करोंगी। हमने उन्हें ये नहीं सिखाया कि - बेटा हम आप की हर फ़रमाइस को पूरी कर रहे हैं, तुम्हें हर ख़ुशी दे रहें हैं तो, अपने माँ के घर से जो तुम ले रही हो उसे आगे बांटना...तुम्हारी ख़ुशी बढ़ेगी..कभी कम नहीं होगी। लेकिन ऐसा हमने नहीं किया और हमारी बेटियों ने सिर्फ लेना सीखा देना नहीं, उन्हें सिर्फ अपनी ख़ुशी समझ आई दुसरों की तकलीफ नहीं। हमने अपनी बेटियों को पूर्णता दी साझेदारी नहीं सिखाई,अपनी खुशियांँ पूरी करने की आज़ादी दी लेकिन दुसरों की खुशियों का ख्याल भी रखना है ये नहीं बताया। उनके मुँह से कोई बात निकली नहीं कि हमने पूरी की और उन्हें सब्र करना भी नहीं सिखाया।
ये सारी की सारी गलती हमारी है। यही कारण है कि आज जब बेटियाँ बहू बनके दूसरे घर जा रही है तो न वो एक अच्छी बहू बन पा रही है,ना पत्नी और यहाँ तक कि एक अच्छी माँ भी नहीं बन पाती। क्योंकि वो हर जगह अपनी ख़ुशी अपना स्वार्थ ही देखती है। पति से उन्हें ढेरों उम्मींदे रहती है लेकिन पति के ख़ुशी के लिए उन्हें क्या करना है इसका ज्ञान नहीं। हमने उन्हें हर जिम्मेदारी से दूर रखा इसलिए वो अपने बच्चे की जिम्मेदारी उठाने में भी परेशान हो जाती है। बहूओं पर सास के अत्याचार हुए तो वो भी अति हुए थे और आज सास-स्वसुर द्वारा बहू को ढेर सारा प्यार देने के वावजूद बहूऐं उन्हें माँ-बाप का दर्जा देना तो दूर उन्हें सबसे पहले घर से अलग करना चाहती है। यही कारण है कि बृद्धाआश्रम की सख्यायें बढ़ती जा रही है। जो बेटियाँ हमारे घर की सूरजमुखी रहती है वो बहू बनकर जब दूसरे घर जाती है तो ज्वालामुखी क्युँ बन जाती है और अपने ही हाथों अपने घर-संसार को आग लगा लेती है? इसके पीछे सिर्फ यही कारण है कि-हमने उन्हें सहूलियत दिया मगर संस्कार छीन लिए। आज के दौड़ में यदि आप ध्यान से अपने चारो तरफ के माहौल को देखेंगे तो पाएंगे कि दस में से नौ घर सुलग रहें हैं। पश्चिमी सभ्यता की तरह आये दिन तलाक की घटनायें बढ़ती जा रही है। क्योंकि जो लड़की घर की आधार,उसकी रोशनी होती है वही घर जला रही है। जो सृजनकर्ता है वही विनाश पर उतारूँ हो जाये तो धरती ज्वालामुखी बनेगी ही न। ऐसा नहीं है कि इसमें लड़को की गलती नहीं है लेकिन घर बनाना और उसे बसाना लड़कियांँ ही सम्भव करती आई है,लड़के घर नहीं बसाते।
हो सकता है कि मैं आप सब के नज़र में गलत हूँ लेकिन आज कल के माहौल को देख मैं चिंतित हूँ मेरी भी एक बेटी है जिसे मैंने अच्छे संस्कार दिए है लेकिन नहीं जानती कि समाज में चलने वाली इस तेज़ आँधियो में मेरी बेटी भी अपना घर बसा पायेगी या देखा-देखीं के चलन में वो भी अपने घर को आग लगा लेगी। मैं चिंतित हूँ.................
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