भारतीय संस्कृति में प्रकृति और नारी को बहुत सम्मान दिया गया है। इसलिए धरती और नदियों को भी माँ कहकर ही बुलाते हैं। समय-समय पर पेड़ों की भी पूजा की जाती है पेड़ों में प्रमुख है:- पीपल,बरगद,आम,महुआ,बाँस, आवला,विल्व,केला नीम,अशोक,पलास,शमी, तुलसी आदि। इन पेड़ों का वैज्ञानिक महत्व क्या है इसे बताने की जरूरत तो है नहीं। (गूगल इस ज्ञान से भरा है)जानते सब है,मानते सब है बस, व्यवहारिकता में इसे अपनाते नहीं है।
ऐसा कहा गया है कि इन सभी पेड़ों में देवताओं का वास है। हम आदि-काल से पेड़ों के रूप में प्रकृति को पूजते हैं,नारी के रूप में देवियों को और धरती तो हमारी जननी है ही। सोचने वाली बात है कि -इन्हे पूजने की परम्परा क्यों बनाई गई ? क्यों धरती,नदियाँ,वायु और पेड़ अर्थात प्रकृति को पूजनीय माना गया ?
जिन्होंने ने भी वेद-पुराणों में इन्हे पूजनीय माना वो ना समझ तो थे नहीं। यूँ ही ये सारी मनगढ़ंत बातें तो है नहीं। लेकिन हमने इन्हे या तो नाकार दिया या मजाक बना दिया या सिर्फ कहने-सुनने के लिए प्रयोग कर लिया और आज इसी गलती की सजा भुगत रहे हैं। ऋषि-मुनियों ने हमें इनकी महत्ता समझाने की कोशिश की थी उन्होंने ये संदेश दिया था कि -हे मानव ! ये सब है तभी जीवन है। उन्होंने तो यही सोचा होगा कि -इन्हे देवी-देवता और माँ का रूप कहा जायेगा तो मनुष्य इनका सम्मान करेंगे और इनके साथ दुर्व्यवहार करने से भी डरेगे।
लेकिन हम मनुष्य इतने स्वार्थी,लालची और ना नासुकरे निकले कि-जीवन देने वाले को ही प्रदूषित करना और उनका आस्तित्व मिटाना ही शुरू कर दिए और आज हालात ऐसे हो गए कि -हम अपने दुश्मन आप बन गए। जीने के लिए जो प्रकृति ने हमें दिया था उसको नाकार सुख-सुविधा बढ़ाने में इतने तल्लीन हो गए कि -समझ ही नहीं पाए कब हम अपने जीवन में जहर घोलते चले गए। दर्भाग्य तो ये है कि -अब समझ चुके हैं फिर भी इन सुख-सुविधाओं के इतने आदि हो गए है कि -मौत का तांडव भी हमें सबक नहीं सीखा पा रहा है।
प्रकृतिक संसाधनों का अनियमित उपभोग और स्वहित में पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के कारण आज जलवायु का पूर्ण चक्र प्रभावित हो चूका है। बढ़े हुए प्रदूषण के कारण कई नई जानलेवा बिमारियों का जन्म हो चूका है जिसका ईलाज दुनिया के किसी डॉक्टर के पास नहीं है। नदियाँ बेकाबू हुई पड़ी है, पहाड़ दरक रहे हैं, ग्लेशियर पिघल रहे हैं और हम अपने सुख-साधनों में लिप्त सो रहे हैं।
आज जलवायु परिवर्तन एक विश्व स्तरीय समस्या बन चुकी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि स्थिति चिंताजनक अवश्य है, लेकिन विकल्पहीन नहीं। उनका मानना है कि -सबसे पहले हमें खाद्य पदार्थों के उत्पादन और खाने-पीने के सारे तौर-तरीकों की गंभीरता से समीक्षा कर उसमे क्रांतिकारी बदलाव लाने की ज़रूरत है। बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियान चलाने होंगे। ऊपर जितने भी पेड़ों का जिक्र किया गया है...सभी जानते है कि -पर्यावरण के लिए वो कितने महत्वपूर्ण है।ये पेड़-पौधे ही हवा से कार्बन-डाईऑक्साइड सोख कर उसे अपने भीतर बांधते हैं। हवा में कार्बन-डाईऑक्साइड जितनी घटेगी, भूतल पर का तापमान बढ़ने की गति में उतनी ही कमी आयेगी। बाँस दुनिया भर में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है,यह एक दिन में एक मीटर तक बढ़ सकता है और बाकी पेड़ों की तुलना में उच्च मात्रा में जीवनदायी ऑक्सीजन गैस का उत्सर्जन करता है और कार्बन डाइऑक्साइड को सोखता है यह कीटरोधी है, मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में भी सहायक साबित होता है तथा यह मिट्टी के कटाव को रोकने में भी अहम भूमिका निभाता है। भारतीय संस्कृति में तो इसकी इतनी महत्ता कि -इसे "हरा सोना" कहा जाता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि -काले कार्बन और मीथेन गैस ये दोनों प्रदूषक तत्व ही जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को तेज करते हैं। इनका मानव और पेड़-पौधों के स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है।इनके उत्सर्जन को कम करने के लिए वैज्ञानिकों ने जिन 14 उपायों पर विचार किया है, उनमें कोयले की खदानों, तेल और प्राकृतिक गैस संयंत्रों से निकलने वाली गैस को काबू में करना, लंबी दूरी वाली पाइपलाइनों से लीकेज कम करना, शहरों के लैंडफिल्स से उत्सर्जन रोकना, गंदे पानी के परिशोधन संयंत्रों को अपडेट करना, खेतों में खाद से उत्सर्जन कम करना और धान को हवा लगाना शामिल है। काले कार्बन के लिए जिन तकनीकों का विश्लेषण किया गया है, उनमें डीजल वाहनों के लिए फिल्टर लगाना, अधिक उत्सर्जन वाले वाहनों पर रोक, रसोई के चूल्हों को अपडेट करना, ईट बनाने के लिए पारंपरिक भट्ठों की जगह अधिक प्रभावी भट्ठों का प्रयोग और कृषि कचरे को जलाने पर रोक शामिल है।
वैज्ञानिकों ने अनाजों, फल-फूल और सब्जियों का उपयोग बढ़ाने का सुझाव देते हुए ज़ोर दिया है कि जलवायु परिवर्तन पर यदि लगाम लगानी है, तो मांसाहार से भी दूरी बनानी पड़ेगी. मांसाहार घटने से उन गैसों का बनना भी घटेगा, जो पशुपालन से पैदा होती है। तेल और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों पर हमारी निर्भरता को कम करना, इन ईंधनों का इस्तेमाल बिजली बनाने के अलावा लगभग सभी तरह के उत्पादन और परिवहन में होता है। सारांश यह है कि मानव निर्मित हर वस्तु का प्रभाव पर्यावरण पर होता है।
वैज्ञानिकों ने जिन उपायों को सुझाया है वो इतने मुश्किल भी नहीं जिनका व्यक्तिगत रूप से हम पालन ना कर सकें। हम सभी जानते है कि हमारी गर्मी को दूर भगाने वाली A.C वातावरण को कितना गर्म करती है,हमारे भोजन को ठंढी रखने वाली रेफ्रीजरेटर कितना हानिकारक गैस उत्सर्जन करता है,हमारी यात्रा को सुविधाजनक बनाने वाली गाड़ियां वातावरण को कितना प्रदूषित करती है। एक तरह से जीवन की जिन सुविधाओं का उपयोग कर हम इतरा रहें है वही हमारे दुश्मन बन गए है।
तो अब सवाल ये है कि -क्या हम फिर से आदि-मानव वाली जीवन जिए,छोड़ दे सारी सुख-सुविधाएं ?
इसकी जरूरत नहीं है,जरूरत सिर्फ इतनी है कि -गांधी और बुद्ध की तरह बीच का रास्ता अपनाये ,खुद के और प्रकृति के बीच सामंजस्य बना कर चले।अपनी जीवन शैली में बदलाव लाकर भी हम वातावरण को स्वच्छ बनाने में अपनी भागीदारी निभा सकते हैं।पहले भी हम इन सुविधाओं के बगैर जीते थे और यकीनन आज से बेहतर हालत में थे।
लम्बी-चौड़ी योजनाएं तो विश्व स्तर पर बनेगी परन्तु क्या हमारा योग्यदान इनमे "राम की गिलहरी "जितना भी नहीं हो सकता। कम से कम गाड़ियों का नकली प्रदूषण-रहित सर्टिफिकेट तो ना निकलवायें,आकरण बिजली और पानी की बर्बादी तो ना करें ,धरती का आँचल कचरों से तो ना भरे,अपनी सुविधाओं को कम से कम कर लें,आस-पास जितनी भी जगह हो वृक्षारोपण अवश्य कर लें। संक्षेप में कहूँ तो हम अपनी भारतीय पारम्परिक जीवन शैली और संस्कृति को अपना लें तो आधी समस्याओं का समाधान तो यूँ ही हो जायेगा। गलती हमनें की है तो सुधार भी हमें ही करना होगा। समझना होगा कि -"विकास और पर्यावरण एक दुसरे के पूरक हैं, इनके साथ सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ना ही प्रगति है वरना विनाश-ही-विनाश है।"