बुधवार, 20 मई 2020

" अपना अपना स्वर्ग -नरक "


   भारतीय मान्यता हैं कि -" हर मनुष्य को उसके कर्मो के हिसाब से मरने के बाद स्वर्ग या नरक की प्राप्ति होती हैं। मेरी समझ से तो ये स्वर्ग और नरक इसी धरती पर हैं। आखिर ये " स्वर्ग और नरक " हैं क्या ? शायद , सुखी -संपन्न जीवन या ये भी कह सकते हैं कि अपनी मर्जी ,अपने पसंद का जीवन स्वर्ग हैं और दुःख दरिद्रता भरा या अपनी पसंद से बिपरीत जीवन नरक हैं। या शायद,  जहाँ प्रेम ,परवाह ,अपनत्व और शांति हो वो जगह स्वर्ग हैं और जहाँ कलह, कलेश, लालच और घृणा का वास हो , वो जगह नरक हैं। ये तो लोग अपनी अपनी मानसिकता से तय कर लेते हैं। 
 
       मुझे नहीं पता मरने के बाद क्या होता हैं ? पर अपने जीवन के अनुभव से इतना तो जरूर समझ चुकी हूँ कि -"  कर्मो " का यानि अपने किये का फल आपको भुगतना ही पड़ता हैं ,ये सृष्टि का नियम हैं। इसे हम अपनी अना या विवकहीनता के कारण बेतुकी बात भले ही कह देते हैं मगर हमारी अंतरात्मा इस सत्य को जरूर काबुल करती हैं। हाँ ,कभी कभी भले लोगो को आकरण दुःख पाते देख मन इस बारे में चिंतन करने लगता हैं कि -कही सचमुच पिछले जन्म की मान्यता सही तो नहीं , कही ये पिछला कर्मा तो नहीं ? लेकिन अक्सर ये भी देखने में आता हैं कि -एक ना एक दिन उस भले आदमी की अच्छाइयों की कद्र होती हैं और उसके अच्छे कर्मो का फल भी उसे जीते -जी मिलता ही हैं। हाँ ,कभी कभी देर भले हो जाए। वैसे भी हमारे कर्मो का फल मिलने में थोड़ी देर तो होती ही हैं जैसे ,आज हम अपने शरीर के साथ लापरवाही कर रहें हैं तो उसकी सजा हमें हमारा शरीर एक -दो साल बाद ही देगा न। 
    खैर ,जो भी हो मगर आज के परिवेश में,  इस बिषम परिस्थिति में जब कि -सबको अपने मर्जी के बिपरीत ही चलना पड़ रहा हैं, ये कर्मफल विशेष रूप से उजागर होते दिखाई दे रहे हैं। ऐसा लग रहा हैं जैसे प्रकृति हमसे अत्यंत रुष्ट होकर ,कोई प्रपंच रच रही हैं और हमें जीते- जी ही, अपने -अपने कर्मफलों को भोगने का अनुभव कराना चाहती हैं।  इसी धरा पर  हमने जो  खुद से ही अपना -अपना  स्वर्ग नरक निर्मित  कर रखा हैं, उसे भोगने को सृष्टि  हमें मजबूर कर रही हैं। 
    आज ये महामारी और इससे जूझते सम्पूर्ण विश्व के लोगो को देखकर एक बात तो हर एक ने स्वीकार कर ली हैं कि -ये  सारी मुसीबतें मानव ने खुद ही निर्मित की हैं और खुद के किए को उन्हें भुगतना ही पड़ेगा। प्रकृति के आगे हमारा वज़ूद  नगण्य हैं और उससे छेड़छाड़ के हमारे दुःसाहस का परिणाम ही प्रकृति हमें दे रही हैं। खुद को महाशक्ति समझने का गुरुर रखने वाले देशों को भी अपनी औकात पता चल गई हैं। आज वो भी लाचार और बेबस होकर मौत का तांडव देख रहे हैं। 
    खैर ,ये तो बहुत बड़ी बड़ी बाते हैं इसका विश्लेषण करने का दुःसाहस " मैं " मंदबुद्धि नहीं करुँगी। मगर छोटी छोटी घटनाक्रमो  को देखकर भी  मैं हतप्रस्थ हूँ। जिस प्रकृति को हमने दूषित कर रखा था, वो प्रकृति खुद का शुद्धिकरण कर चुकी हैं, मगर हमें कैद में रहने की सजा सुना चुकी ताकि हम उसका आनंद ना उठा सकें ,यकीनन ये हमारी सजा ही तो हैं। " लॉकडाऊन " हर व्यक्ति के लिए ,हर परिवार के लिए ,हर समाज के लिए,  हर देश के लिए एक नया अनुभव ,एक नई सीख ,एक नई समझ ,एक नई चेतावनी लेकर आया हैं। जिसने भी जिस वस्तु विशेष या उस व्यक्ति विशेष की, जो हर पल उसे प्राप्त था मगर उसने कभी उसकी कदर नहीं की थी, उसे उसी चीज़ के लिए तरसा रहा हैं, उसकी अहमियत भी समझा रहा हैं।  यही नहीं जिन्हे जो  चीज़ ,रिश्ते या व्यक्ति नापसंद थे, उन्हें उन्ही  के साथ रहने को मजबूर कर रहा हैं। जिस भारतीय संस्कृति की ,औषधी की, योग की हमने अवहेलना की थी, आज उसी को अपना जीवन रक्षक मान उसके प्रयोग करने को हम मजबूर हैं  और उसे बढ़ावा भी दे रहे हैं। 
   जहाँ तक बात करे भारतीय रिश्तों की तो , उसकी भी हमने बड़ी नाकदरी की हैं और आज वही परिवार, वही घर ही हमारा  सब से सुरक्षित बसेरा बना हुआ हैं। परन्तु हमारे  पिछले कर्मो के हिसाब से यानि हमने पहले से ही जो अपने घर का वातावरण बना रखा था , उसी के बुनियाद पर आज हमारा खुद का घर ही हमारे लिए स्वयं निर्मित स्वर्ग और नरक का रूप ले चूका हैं और हम उसे भोगने को विवश हैं। जिस परिवार में सारी व्यस्तता के वावजूद पहले से ही प्रेम ,परवाह और एक दूसरे की कदर करने की मानसिकता थी आज वो नमक रोटी खाकर ,सारे अभावो को झेलने के वावजूद भी  खुश हैं क्योंकि उन्हें एक दूसरे के साथ समय बिताने का अवसर मिला हैं। मगर जिस परिवार में हमेशा पारिवारिक सुख के वजाय आर्थिक सुख को अहमियत दी गई थी जहाँ एक दूसरे के साथ एक पल भी गुजरना वक़्त की बर्बादी समझा जाता था ,आज वो घर पूरी तरह नरक का रूप ले चूका हैं।

   चेतावनी स्वरूप आई ये बिषम परस्थितियाँ आज हमें एक और अवसर प्रदान कर रही हैं ,हमसे कह रही हैं -" सम्भल जाओ ,सुधर जाओ ,अभी भी वक़्त हैं कदर करो अपनी प्रकृति की ,अपनी संस्कृति की ,अपने संस्कारो की ,अपने रिश्तों की ,अपने स्वर्गरूपी घर की.... 

शनिवार, 16 मई 2020

" क्षितिज के उस पार "



    चलो, यहाँ से कही दूर चले चलते हैं....। कहाँ..?  यहाँ से बहुत दूर कही....जहाँ कोई पावंदियाँ नहीं..बंदिशें नहीं....।नहीं जा सकते...। क्युँ..?  वहाँ तक जाने के लिए भी हमें उन्ही बंदिशों को तोडना होगा... उनसे बगावत करनी होगी....जिसकी हिम्मत हम में नहीं हैं ....एक प्यार को पाने के लिए कई प्यार के बंधनों को  हमें तोड़ने होंगे ...कर पाओगे क्या तुम..?  नहीं मुझमे भी हिम्मत नहीं...कई आँखों को अश्कों से भिगोने की...।

    फिर ...?  फिर क्या...  तय करते हैं अपना अपना सफर...निभाते हैं जन्मो से बंधे सारे प्रेम के  बंधनो को...कही न कही,  किसी सीमा पर....पुरे होंगे सारे कर्म ... टूटेगी सारी पावंदियाँ ...मुक्त होंगे हर बंधन से फिर मिलते हैं...।  तब तक...?
    मैं धरती ... तुम मेरे आकाश बन जाओ... एक दुरी पर ही सही.... रहेंगे हर पल आमने सामने ...एक दूसरे के नजरों के सामने ....दुनिया से नजरे बचाकर मिलते रहेंगे क्षितिज पर...।  वो मिलन तो आभासी होगा न... नहीं जी सकता तुमसे दूर होकर ....तुम मेरे नजरों के सामने होगी पर मैं तुम्हे छू नहीं सकता.... मुझे तुम पर गुस्सा आ रहा हैं....। तो करों ना गुस्सा ....जब गुस्साना तो सूरज से  ताप लेकर मुझे जलाना .....मैं जलूँगी  तुम्हारी तपिस में ......यही तो सजा होगी  मेरी....। तुम्हारी बहुत याद आएगी....। जब कभी मेरी याद आये, बादल बन बरस जाना मुझ पर .....मैं समेट लुंगी अपने दामन में तुम्हारे अश्कों के एक एक बून्द को ....भिगों लूँगी तुम्हारे आँसुओं में खुद को ....मेरी तपन भी कुछ कम हो जाएगी.....।जब कभी तुम्हे स्पर्श करने का दिल चाहा तो...। तब , चंदा से चाँदनी लेकर मेरी रूह को छू लेना तुम ....रोशन कर देना मेरी रोम रोम को  ....तुम्हारी शीतल स्पर्श पाकर धन्य हो जाऊँगी मैं .....भूल जाऊँगी मैं भी अपने सारे गम ....तुम्हारा प्यार चाँदनी बन कर मेरी रूह को छूती रहेगी और मैं खुद को उसमे सराबोर करती रहूँगी.....। बीच में आमावस भी तो आता हैं फिर.....। फिर क्या ,हमें एक दूसरे को  देखने के लिए  किसी रौशनी की जरूरत तो नहीं.....हाँ , स्पर्श ना करने के वो दिन इंतज़ार में गुजारेगें ....।
      दुनिया को दिखाने के लिए हम दूर दूर हैं..... पर देखो न , हमारा मिलन तो होता रहा हैं और होता रहेगा..... हमारे मिलन स्थल को ही तो दुनिया " क्षितिज " कहकर बुलाती हैं...... नादान हैं दुनिया,   वो क्या जाने प्यार करने वाले ना कभी बिछड़े हैं ना बिछड़ेंगे .....वो हमारे मिलन स्थल " क्षितिज " को भी ढूढ़ने की कोशिश करते रहते हैं पर आसान हैं क्या " प्रेमनगर " को ढूँढना....  वहाँ तो सिर्फ सच्चे प्यार करने वाले ही पहुँच सकते हैं...। हाँ, सही कहा तुमने  " क्षितिज  के उस पार " ही तो प्यार करने वालों का बसेरा हैं .....तो चलों ,वादा रहा जीवन के सारे कर्तव्य पुरे कर मिलते हैं...    " क्षितिज के उस पार "  अपने प्रेमनगर में....।  हाँ, वादा रहा  ..

शनिवार, 2 मई 2020

एक चेहरे पे कई चेहरे ...

   
 


  अरुण अपनी  शादी की 12वी  सालगिरह मना रहा था, छोटी सी पार्टी थी, उसके कुछ खास दोस्त अपनी पत्नियों के साथ आये थे। हँसी -ढहाको का दौर चल रहा था , अरुण अपने दोस्तों के साथ मस्त था और उसकी पत्नी सुहानी सबकी आवो-भगत में लगी थी। अरे, भाभी आप भी आओ न... कहाँ बीजी हो आप -अरुण के दोस्त सुरेश ने सुहानी को आवाज़ दी। हाँ -हाँ सुहानी आ जाओ तुम भी- अरुण का ध्यान सुहानी के तरफ गया और उसने भी उसे आवाज़ दी।अभी आई -सुहानी ने हँसते हुए कहा और  जूठे बर्तनो को समेटते हुए  किचन में चली गई। तभी अरुण ने आवाज़ लगाई-  अरे, सुहानी आना तो सबके लिए कॉफी बनाकर भी लेते आना ....डिनर के बाद कॉफी पीने का मज़ा ही अलग होता है.... क्युँ हैं न यार , वो सुरेश की तरफ मुखातिब होकर बोला। अरे ,छोडो ना यार भाभी को कितना परेशान करेगा -सुरेश ने टोका। कॉफी ही तो बनानी है कौन सा मुश्किल काम है -अरुण लापरवाही से बोला। सुहानी कॉफी लेकर आई सबको पकड़ते हुए अपनी कॉफी का कप हाथ में लिए उन सब के बीच आकर बैठ गई। कोई लफ़ीते सुना रहा था तो कोई अपनी  पत्नी के शान में कशीदें पढ़ रहा था और पत्नियाँ अपने पति की कमियाँ गिना रही थी और सब ठहाके लगा रहें थे। सुहानी भी उनकी हँसी में अपनी हँसीं मिलाने की कोशिश कर रही थी। हँसते-हँसते उसकी नजर आईने में दिखती अपनी परछाई पर गई... उसे अपना ही चेहरा अजनबी सा लगने लगा। क्या  "ये मैं ही हूँ" क्या मैं जो दिखती हूँ वैसी ही हूँ....कितने मुखोटे लगा रखे हैं मैंने अपने चेहरे पर...ख़ुशी के,संतुष्टि के ...मैं तो अपना ही चेहरा नहीं पहचान पा रही हूँ- कई सवाल खुद-ब-खुद उसके होठों पर आ गए। वो अपने ही अक्स में खुद को तलाशने लगी। 
   तभी अरुण उसके करीब आकर बैठते हुए बोला-देख रही हो न..धीरज अपनी  बीवी के शान में कितने कशीदें पढ़ रहा है, कमीना कही का ...अगर इतनी ही प्यारी है तो बाहर क्यों गुलछर्रे उडाता है... वो रोहन को देखो बहादुरी के कितने डींगे मार रहा है घर जाए बीवी भींगी बिल्ली बना देगीं....और देखो सबसे कमाल के तो सुरेश जी है...दुसरो की बीवियों की परवाह करना कोई इनसे सीखे....अपनी बीवी के मरने जीने की खबर ही नहीं रहती इन्हें।  सुहानी बोली-  उन्हें छोड़िए ,अस्थाना जी को देखिये ...कितना मुस्कुरा रहें हैं....जबकि उन्हें अच्छे से पता है वो अब चंद दिनों के मेहमान है....मौत उनका बुलावा लेकर कभी भी आ सकती है। हाँ यार,यहाँ हर एक के चेहरे पर एक मुखौटा लगा है....बदचलनी पर शराफत का ....बेईमानी पर ईमानदारी का....तो किसी के दर्द भरे चेहरे पर ख़ुशी  का-अरुण ने कहा। 
     सुहानी पतिदेव के चेहरे को गौर से देखती हुई बोली-  हाँ ,सच कह रहे हैं आप, ऐसा लगा जैसे वो भी अरुण को  पहचानने की कोशिश करती हुई....खुद से ही सवाल कर  रही हो -शादी के 12  साल के लम्बे सफर के बाद भी क्या मैं आपको और आप मुझे जान पाए है....हमने भी तो अपने चेहरे पर कई मुखौटे लगा रखें हैं....और सबसे बड़ा मुखौटा हैं "समझौते" का। सुहानी की चेहरे पर शायद सारे सवाल उभर आये थे...अपनी तरफ उठी हुई उसकी  आँखो को देख अरुण थोड़ा सहमा...और वो भी सुहानी के चेहरे को निहारने लगा....शायद, वो सुहानी के चेहरे पर आए सवालो को पढ़ने की कोशिश कर रहा था  ... आज सुहानी उसे थोड़ी अजनबी सी लगी ...

   सुहानी गहरी साँस लेते हुए बोली- हाँ , हम सब ने  "दिखावट का मुखौटा" लगा रखा हैं। "मुखौटा" यानी एक चेहरे पर लगा दूसरा चेहरा ....कभी-कभी तो एक ही चेहरे पर कई-कई मुखौटे लगे होते हैं....कही, पाप के मुख पर पुण्य का मुखौटा....कही, दुःख दर्द पर हँसी का मुखौटा.....कही, बेबसी-लाचारी पर आत्मनिर्भरता का  मुखौटा....कही, कई-कई बंधनो में हाथ-पाँव ही नहीं आत्मा तक बंधी होने के वावजूद खुद को बंधन मुक्त दिखाने का मुखौटा.... ये जीवन ही तो असली रंगमंच है जहाँ जरूरत और सहूलियत के मुताबिक मुखौटे बदलते रहते हैं.... हमने खुद पर इतने मुखोटे लगा रखे हैं कि - खुद ही खुद का असली चेहरा भूल गए है- कहते हुए सुहानी ने जूठे कप समेटे और चल पड़ी किचन की ओर...

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...