शनिवार, 21 मार्च 2020

" मिलावट अच्छी हैं "

Image result for images of milawat

    समाज के चंद लोगो ने अपने स्वार्थ में लिप्त होकर हम्रारे जीवन के उन सभी मुलभुत  जरुरत की चीजों में  अपनी लालच की मिलावट करते गए और पूरा समाज आँखें मूंदे इन मिलावट को बर्दास्त करता रहा।अनाज में रसायन ,फल और दूध  में रसायन ,सब्जियों में रसायन मिलते रहे और हम देखते ही नहीं रहे बल्कि उसका सेवन भी बिना हिचके करते रहें। कर भी क्या सकते थे ?खाना पीना बंद तो नहीं कर सकते थे। भोजन ही नहीं बाजार में नकली दवाओं का भी सम्राज्य फैल गया मगर हम चुप रहें ,हमें क्या ? यहाँ तक कि -जीवित रहने के लिए सबसे जरुरी हवा और पानी जिसे प्रकृति ने हमें  बिना मोल दिया था उसमे भी हमने जहर मिला दिया और आज मिलावट का रोना भी हम ही रो रहे हैं।आज .. हद तो तब हो गई, जब एक देश की बेवकूफी और लापरवाही ने सम्पूर्ण विश्व के वातावरण में चिंता ,डर ,खौफ और मौत की मिलावट कर दी हैं।क्या  अब भी हम नहीं जागेंगे ?  विज्ञान और वैज्ञानिकों ने खुद को भगवान ही समझ रखा हैं मगर -" प्रकृति कभी भी किसी को भी नहीं बख्शती.....हाँ ,जैसे जौ के साथ घुन भी पीसते हैं वैसे ही हम भी उनके गुनाहों में पीस रहें हैं ...

    आज "  मिलावट " का सम्राज्य अपनी सारी  हदों को पार कर चुका  हैं और अब तो हम इस मिलावट के आदि भी  हो गए हैं।  मिलावट करने की प्रवृति हम में इस कदर समाहित हो गई हैं कि हमें  खुद ही आभास तक नहीं होता कि -हम कब - कब, कहाँ -कहाँ, कैसी- कैसी मिलावट कर जाते हैं। हमने अपने धर्म ग्रंथो  में मिलावट की ,अपने संस्कारों में मिलावट की ,अपनी स्नेह और सहयोग में मिलावट की, यहां तक कि - आज ममता भी मिलावटी हो गई हैं। कितना गिरेंगे, कहाँ तक गिरेंगे ,कही रुकेंगे भी या नहीं ? 
    हमारी हर गलती हमे सबक भी सिखाती हैं मगर सबक सीखना कौन चाहता हैं ?  जब पहली बार प्रगति के नाम पर हमारे खाध समाग्रियों में मिलावट शुरू की गई होगी, उस वक़्त सभी आँखें मूंदे ना बैठे होते तो आज भोजन -हवा -पानी शुद्ध होता। मगर किसी ने उन्हें रोकना टोकना तो छोड़े लालच में आकर खुद भी उसी मिलावट का हिस्सा बनते चले गए।हमें ये समझ ही नहीं आया कि -इसी भोजन -पानी का सेवन तो हम और हमारा परिवार भी तो करेंगा ।  काश ,जब अधोगिकरण के नाम पर शुरू हुई इस"  मिलावट " के खिलाफ उसी वक़्त किसी ने भी आवाज़ उठाई होती तो आज हालात ऐसे नहीं होते।  आज इन मिलावटी खाद्य समाग्रियों का सेवन करते करते जब हम आपने आप को रुग्ण कर बैठे हैं तो ऑर्गेनिक फ़ूड की तलाश में निकल रहें हैं। 

     जब पहली बार आधुनिकता के नाम पर हमारे संस्कारों का हनन होना शुरू हुआ ,काश किसी ने उसका विरोध कर उन्हें वही रोक दिया होता। आज जब पूरा विश्व इस कोरोना नामक महामारी के चपेट में आ चूका हैं तब हम सबको अपने उन्ही  संस्कारों का महत्व  समझ आने लगा हैं जिन्हे हम दकियानूसी बताते थे। आज हमें  हमारी हर एक खूबी दिखाई दे रही हैं ,मगर कब तक ,ये जागरण भी तो क्षणिक ही हैं जैसे ही इस  महामारी की हवा गुजर जाएगी हम फिर  से सब भूल जाएंगे।ऐसे जागरण को हम "श्मसान जागरण  " का नाम दे सकते हैं। श्मसान में जाने पर थोड़ी देर के लिए  सभी  को ये एहसास  हो ही जाता हैं कि -ये जीवन नश्वर हैं ,इससे मोह नहीं होना चाहिए " मगर श्मसान से बाहर आते ही फिर वही मोह -माया और वही जीवनशैली बन जाती हैं। 

     हम इंसान हैं तो हम से गलती होती है और होती रहेगी ,हमारा स्वार्थी मन हमसे बार बार गलतियाँ करवाता ही रहेगा मगर समझदार वही हैं जो गलतियों से सबक सीखें और फिर उसे ना दोहराए। वो कहते हैं न -" जब जागों तभी सवेरा " जब तक नींद में थे कोई बात नहीं जब जाग गए तब तो विस्तर पर पड़े रहने की गलती ना करे। वैसे तो कोरोना नामक बिपदा प्रकृति जन्य नहीं इसे हम मानव ने ही बुलाया हैं मगर फिर भी प्रकृति माँ अपना फर्ज पूरा कर रही हैं वो इस बिपदा में भी हमें जगाना चाहती हैं, हमें सचेत करना चाहती हैं ,हमें रोकना चाहती हैं ,हम से मिन्नते कर रही हैं -" अब तो मेरे महत्व को समझो ,मेरा रूप और ना बिगड़ों, अपनी मुलभुत चीजों में जहर घोलना बंद करो। "  अब तो हम अपने देश ,अपनी संस्कृति अपने संस्कारों को पहचाने  उसे  अहमियत देकर उसका मान करना  सीखें। क्या हम अब भी नहीं जागेंगे ? अब भी देर नहीं हई हैं अपने भोजन -पानी - हवा में ,अपने विचार- व्यवहार- संस्कार में पश्चिमी सभय्ता की मिलावट करना बंद  करें।

    अगर मिलावट करनी ही  हैं तो ऐसी मिलावट करे - " जैसे पानी में शक़्कर ,दूध में दही " ताकि उसका स्वरूप भी बदले तो भी वो फायदेमंद ही रहे। अब वक़्त आ गया हैं -"  अब हमें मिलावट करनी ही होगी -प्रकृति में ऑक्सीजन की ,खाद्य समग्रियों में प्रकृतिक खाद की ,परिवार में संस्कार की ,समाज में सदभावना की ,देश में भाईचारे की और सबसे जरुरी प्रेम में परवाह की ,ताकि हम गर्व  से कहें -" मिलावट अच्छी हैं "




शुक्रवार, 20 मार्च 2020

" आखिरी साँस "

Image result for images of death and life
        
      " मैं तुम्हारे साथ जीवन जी नहीं पाऊँगी तो क्या हुआ... मेरा वादा हैं तुमसे मरूँगी तुम्हारी ही बाँहों में .....आखिरी वक़्त में ... जब मैं तुम्हे आवाज़ दूँगी तो तुम आओगे न ......."  .कहते हुए मेरे होठ थरथरा रहे थे.....   आवाज़ लड़खड़ा रही थी .... " हाँ " में सर हिलाते हुए उसने कहा था.... तुम्हारी  उस आखिरी आवाज़ का मैं  आखिरी साँस तक इंतज़ार करूँगा..... फिर हम दोनों हमेशा हमेशा के लिए जुदा होकर अपने अपने कर्मपथ पर निकल पड़ें थे और फिर......

    इस कठिन कर्मपथ पर चलते हुए 35 साल गुजर गए ..... और आज मैं जीवन के आखिरी लम्हों से चंद कदमो के दुरी पर खड़ी हूँ।  मेरा तन और मन दोनों जीवन के इस लम्बे सफर को तय करते करते थक चूका हैं .....
रोगग्रस्त हो चूका हैं....... मैं विस्तर पड़ पड़ी हूँ .... अपने ही कहे उन शब्दों को , उससे किये अपने वादें को याद कर तड़प रही हूँ...... हर एक साँस में कश्मकश हो रही हैं...  अपने मर्यादाओं के दायरे को लांघकर.....कैसे आवाज़ दूँ उसे ..... अगर हिम्मत जुटाकर मैं आवाज़ दे भी दूँ तो..... ..क्या वो आ पाएगा .....अपनी घर -गृहस्थी 
और समाज के बंदिशों को तोड़कर .......?

      मेरी अंतरात्मा की तड़प बढ़ती जा रही हैं..... मेरा शरीर धीरे -धीरे मेरा साथ छोड़ता जा रहा हैं.... एक एक साँस को सहेजते हुए मैं उसके आने की राह देख रही हूँ ...उसे आवाज़ तो नहीं दे पाई हूँ फिर भी ...आस लगाए बैठी हूँ.... वो आएगा ,जरूर आएगा ......बस ,मुझे उसके  इंतज़ार में अपने साँसों  को थामे रखना हैं ....बस, ये काली स्याह रात गुजर जाए .......अगर सुबह तक वो नहीं आया तो ....एक बार उसे पुकारूँगी जरूर..... मर्यादाएं टूटती हैं तो टूट जाए ...
    
    भोर की पहली किरण के साथ मेरी नजर चौखट पर जा टँगी ....तभी दरवाज़े पर एक साया सा दिखा...... लगा अब तो ये मेरा आखिरी पल ही हैं ....शायद यमराज आ ही गए ....वो कहते हैं न कि-- आखिरी पल, एक साया के रूप में आता हैं .....धीरे धीरे वो साया मेरे करीब आता जा रहा था  ...... मगर ये क्या उसे देख मुझे भय नहीं लग रहा...... मुझे तो सुकुन मिल रहा हैं ......मेरी तरफ बढ़ते उसके हर एक  कदम के साथ मेरे जिस्मो -जान में ख़ुशी की तरंगे उठ रही हैं .....अब वो साया मेरे बिलकुल करीब खड़ा था.... मेरी आँखों में जैसे नूर आ गया .... तुम आ गए ....  उसकी तरफ अपनी बाँहे फैलते हुए .मैंने कहा .....
      उसने फिर से उसी  चिरपरिचित अंदाज़ में " हाँ " में सर हिलाया और  मेरे सरहाने आकर बैठ  गया ....मेरे सिर को उसने अपने गोद में ले लिया..... उसके आँखों से टप- टप मोती टपके और वो मेरे होठो से लगते हुए मुख में जा गिरे.....मेरे मुख में  अब पवित्र गंगाजल की बुँदे आ गिरी  हैं ..... मेरे मोक्ष का पल अब मेरे करीब हैं। मेरी नजर उसके चेहरे पर टिकी हैं ....आँखों से बहते आँसूं उसके स्नेह से अभिभूत हो ,उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहें हैं .....आँखे उसे जी भर के देखना चाहती हैं .....उसके चेहरे को ,उसके रोम रोम को समेट कर अपनी अंतरात्मा में  समा लेना चाहती हैं मगर ......ये क्या मेरी दृष्टि तो धुंधली हुई जा रही हैं .....यकीनन अब मेरी साँसे भी मेरा साथ छोड़ना चाह रही हैं पर....... अब गम नहीं हैं... मैंने वो पल पा लिया हैं .... जिसके लिए इतनी लम्बी तपस्या की थी ......मैंने उसे नमन करते हुए सुकुन भरी अपनी आखिरी साँस ले ली...
वो मौत थी या मेरी जिन्दगी........ ?
नहीं पता .....








शनिवार, 14 मार्च 2020

" भाईचारा "



" भाईचारा " अर्थात जहां... भाइयों के जैसे आचार -विचार और व्यवहार हो। या ये भी कह सकते हैं कि -" अपने सुख दुःख को साझा करने वालों का समूह  " वैसे भाईचारे की व्याख्या तो पारिवारिक संबंधों के दायरे में ही की जाती हैं लेकिन हमारे देश में इसकी झलक  रक्त संबंधों से परे  जाति  और धर्म से भी ऊपर देखने को मिलती थी । तभी तो भारत देश की प्राचीन  अवधारणा ही हैं " वसुधैव कुटुंबकम "अर्थात सारा विश्व ही एक परिवार हैं। मगर इस देश का दुर्भाग्य कि -आज विश्व भाईचारा तो दूर की बात हैं परिवार से  भी भाईचारा  शब्द लुप्त होता जा रहा हैं।
   मैं  तो सौभाग्यशैली रही हूँ  कि -मैंने  अपने परिवार का वो दौर भी देखा हैं..... जहां पर तीन दादा और उनके तेरह बच्चे [यानि हमारे चाचा और बुआ ] सब प्रेम और भाईचारे के ऐसे डोर से बंधे थे कि -मुझे दसवीं में जाने के बाद भी ये ज्ञात नहीं हुआ था कि - कौन मेरे सगे  दादा -दादी ,बुआ -चाचा हैं और कौन चचेरे । हम सिर्फ उन्हें बड़े दादा ,छोटे दादा ,मंझिले दादा के नाम से ही जानते थे, इतना प्यार और अपनत्व था और आज.... सब कुछ बिखर चूका हैं। हमारे परिवार का सौभाग्य हैं या पुराने संस्कार जो आज कम से कम हमारे सगे भाई तो एक साथ हैं......और घरों में तो ये भी देखने को नहीं मिलता।
     आँखें बंद करके एक पल को सोचती हूँ तो लगता हैं ये तो कल ही की बात हैं.... जहां परिवार तो छोड़े... आस -पड़ोस में भी जाति और धर्म से ऊपर का  भाईचारा था। हमारे कलोनी में हिन्दू -मुस्लिम और ईसाई तीनो धर्म के लोग रहते थे और..... वहाँ भी हमें सबका घर अपना ही घर सा लगता था। हर त्यौहार मिल जुल कर मनाना ,कोई भी दुःख या बिपदा आए सब का एक जुट हो जाना..... ये सब अब एक सपना सा लगता हैं।
     आपको अपनी एक आपबीती सुनती हूँ -हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम इंजीनियर का  परिवार रहता था ,उन को एक बेटा और एक बेटी थी और हम दो भाई और दो बहन..... हमारे दोनों परिवार में बहुत ही ज्यादा स्नेह था ,हम छ हर वक़्त एक साथ रहते थे ......हमें कभी एहसास ही नहीं होता था  कि -हम दो धर्म के लोग हैं। कुछ दिनों बाद उनका ट्रांस्फर दूसरे शहर में हो गया। लेकिन हमारी दोस्ती टूटी नहीं....हमारा मिलना जुलना होता रहा। [ये दोस्ती आज तक कायम हैं ,उनकी बेटी मेरी सबसे प्रिय सहेली आज भी हैं ]
    92  की बात हैं जब बाबरी मस्जिद कांड हुआ था देश में चारो तरह दंगे हो रहे थे। मेरी सहेली का भाई [ जो मेरा भी प्रिय भाई हैं मैं उसे राखी भी बांधती हूँ ]  जो उस वक़्त 17 -18 साल का था ,उसे किसी जरुरी काम से मेरे शहर आना पड़ा। दिन में वो अपने सारे काम निपटा कर दोस्तों से मिलजुल कर जब वो मेरे घर आने को हुआ तो.... उसका एक खास दोस्त जो मुस्लिम था ....और उसे बहुत मानता था उसने कहा -" शहीद तुम रात बिताने वहाँ  जाओगे ...वो लोग तो हिन्दू हैं ...तुम्हे डर नहीं लग रहा हैं ...मेरी मानो तो तुम मेरे पास ही रूक जाओं " .शहीद ने जबाब दिया -" वो हिन्दू या मुस्लिम नहीं हैं वो मेरे चाचा -चाची का घर हैं जहां मेरे भाई -बहन मेरा इंतज़ार कर रहे हैं ....उनसे सुरक्षित जगह मेरे लिए कोई हो ही नहीं सकता " ये कह कर वो मेरे घर रुकने आ गया। घर आने पर वो मेरी माँ से लिपटकर बोला -"देखो ना चाची, सब कैसी बातें कर रहे थे... मुझे आपके पास आने से रोक रहे थे.... दंगे हुए हैं रश्ते तो नहीं बदले "
    ये था उस दौर का भाईचारा और आज भाई ही भाई का दुश्मन बना हुआ हैं। ऐसा ना हो कि -प्यार ,बंधुत्व ,भाईचारा  जैसे शब्द ही डिक्शनरी से लुप्त हो जाए। इस शब्द और इसके आस्तित्व को संभालना सहेजना और आने वाली अगली पीढ़ी तक इसे पहुंचना..... अब ये हमारी  पीढ़ी का ही  दायित्व हैं। हमारी लापरवाहियों के वजह से ये लुप्त हुआ हैं तो खामियाजा भी हम ही भुगत रहे हैं और इसका भुगतान भी हम ही करेंगे।

  वैसे इस बार के दिल्ली के दंगे - फसादों ने ये तो साबित कर दिया कि -हमारे नववुवको में विवेक जागृत हो चूका हैं और वो अब धर्म और जाति के नाम पर अपना आपा नहीं खोने वाले।  " वसुधैव कुटुंबकम "वाले संस्कार के बीज अब  भी हमारे भीतर कही न कही बचा हैं.... जरुरत हैं तो  सिर्फ अनुकूल आबो -हवा देकर उन्हें सींचने की....



"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...