शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

नागफनी सी मैं ......



                   " नागफनी सी कँटीली हो गई है ये तो , इसके बोल नागफनी के काँटे से ही चुभते हैं।" 
 हर कोई मुझे यही कहता है। क्या सभी को  मुझमे नागफनी के पौधे की भाँति ही सिर्फ और सिर्फ मेरी कठोरता और कँटीलापन ही नजर आता है ? क्या मेरे भीतर की कोमल भावनाएं किसी को बिलकुल ही नजर नहीं आती है ? " बस ,कह दिया नागफनी सी हो गई है " नागफनी के अस्तित्व को धारण करना आसान होता है क्या ? 

    " नागफनी " रेगिस्तान की तपती, रेतीली धरती पर उपजा एक कँटीला एवं सख्त पौधा जिसे शायद ही  कोई पसंद करता हो...प्यार करता हो....परवाह  करता हो, फिर भी वो अपना अस्तित्व कायम  रखने में सक्षम होता है। अंदर से कोमल और गुणकारी होने के वावजूद दुनिया के नजर में सिर्फ उसके काँटे ही दिखते हैं। वो काँटे जो चुभ भी जाए तो नुकसान नहीं पहुंचते ,वो काँटे  भी एंटीसेप्टिक होते हैं तभी तो पहले के ज़माने में उसी से कान छेदने का काम होता था।मगर फिर भी है तो काँटे ही न। नागफनी का समर्पण देखे एक बार, सिर्फ एक बार आप अपने घर में उसे जगह दे दे तो वो  हमेशा के लिए वही बस जाएगा  चाहे आप उसे प्यार की एक बून्द दे या ना दे , फिर भी  वो मुरझाकर अपनी नाराजगी तक  नहीं जताएगा , रेतीली मिट्टी में भी वो अपने आप को आपके लिए जिन्दा रखता है। तभी तो आप उसे अपने बाड़ें के किनारे- किनारे कोमल पौधो और फूलों के रखवाली के लिए लगाते हैं। इस काँटों से  भरे बदसूरत से पौधे के हजारों औषधीय गुण होते हैं लेकिन ये सब किसी को नजर नहीं आते ,नजर आते हैं तो सिर्फ और सिर्फ उसके काँटे । नागफनी में भी फूल खिलते हैं, वो जाताना चाहता  है कि मेरी बाहरी  कठोरता को देखने वालों देखों मुझमे कोमल और सुंदर फूल भी खिलाने की क्षमता है। लेकिन उन कोमल फूलों की किसी को परवाह नहीं जो  मरुस्थल में भी खिलकर अपनी खुश्बू ही बिखेरता रहता है। वो कभी किसी को नुक्सान पहुँचना नहीं चाहता है।
 फिर भी उसको नाम दे दिया गया "नाग का फन"।

" हाँ " हूँ मैं नागफनी " मानती हूं
, तुम सबने मेरा आंकलन बिलकुल सही किया है। मेरा अस्तित्व भी तो ऐसा ही है...अपने अंदर के कोमल भावनाओं को छुपाए....अपनी ख्वाहिशों.... अपनी
 तमन्नाओं का गला घोटे हर पल तुम लोगो की परवाह करती हूँ। तुमसे एक बून्द भी प्यार की आस नहीं है मुझे ,खुद को जिन्दा रखने के लिए मेरे अंदर का प्यार जो सिर्फ तुम्हारी परवाह करता है वो काफी है मेरे लिए। हाँ ,है मेरा व्यक्तित्व कठोर ,मेरी यही  कठोरता मेरे परिवार के लिए रक्षा कवच का काम करता है ,मेरे घर के कोमल फूलों को मेरे होते हुए कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता।मेरे बोल तुम्हें चुभते जरूर है लेकिन वो तुम्हें जख्मी करना बिलकुल नहीं चाहते। 

हाँ ,हर घर परिवार में होता ही है एक नागफनी सा व्यक्तित्व ,उसे बनना पड़ता है, जिसका बाहरी व्यक्तित्व कठोरता लिए होता है लेकिन वही होता है उस परिवार का पहरेदार,उसके पास हर एक के दुःख दर्द का इलाज होता है ,उसे प्यार मिले ना मिले पर वो मुरझाता नहीं ,नागफनी की तरह उसे भी मुरझाने का खौफ ही नहीं होता। वो सिर्फ प्यार देना जानता है भले ही उसका प्यार किसी को दिखाई दे ना दे ,इससे भी उसे फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि उसे दिखावा नहीं आता। अगर वो अपने कठोर बोल समान काँटे भी चुभता है तो वो भी सबकी भलाई के लिए ही होता है ना कि  किसी को जख्मी करने के लिए ,क्योंकि नागफनी के काँटे चुभने पर कभी जख्म नहीं होता है। एक ऐसा व्यक्तित्व जो नागफनी के फूलों की तरह मरुस्थल में भी खिलकर अपनी खुश्बू ही बिखेरना चाहता है ,वो अपनी मधुरता और सरसता का वाष्पीकरण  नहीं करना चाहता इसलिए कँटीला हो जाता है।  ये उसकी सकारात्मकता है ,जिनको चुभता है उनके लिए नकारात्मकता ही सही....... 


















गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

नारी और हिना



" मेहँदी " इस शब्द के स्मरण मात्र से ही  प्रत्येक नारी अपनी सांसों में इसकी खुशबु को महसूस करने लगती 
हैं ,मेहँदी के रंग की रंगत उनकी हथेलियों पर ही नहीं उनके गालों पर भी बिखरने लगती हैं। मेहँदी अपने रंगों से सिर्फ  नारी के हथेलियों को ही नहीं रंगती , ये तो बालयवस्था से ही नारी हृदय की भावनाओं को भी रंगना शुरू कर देती हैं           हल्की गुलाबी मेहँदी रची तो दूल्हा  मिलेगा  हसींन 
गहरी रची तो आएगा ऐसा होगा जो मन का रंगीला 
ये हैं निशानी सुहाग  की ,लाली इसमें अनुराग की। 

दादी -नानी और माँ के मुख से कही ये चंद पंक्तियाँ ,बालपन से ही हर लड़की के मन में अठखेलियाँ करने लगता हैं। जब भी वो पथ्थर पर घिस- घिसकर महीन की हुई मेहँदी को अपनी हथेलियों पर रजाती हैं तो उसके साथ साथ ही मन में कई सपने भी सजाने लगती  और उनकी आँखें अपनी हथेली के रंगों में छुपे अपनें सपनों के राजकुमार को देखने के लिए लालायित हो ,अपनी हथेलियों को उम्मीद  भरी नजरों से निहारती रहती हैं। जब अपनी हथेली पर से सुखी मेहँदी को वो खुरच- खुरच कर निकलती हैं तो उनका दिल जोर जोर से धड़क रहा होता है " ना जाने ये मेहँदी मेरे सपनों का कैसा रूप रंग दिखाएगी  "  फिर ...सपनों का मनचाहा रंग मिलते ही  हथेली के साथ साथ चेहरा  भी खिल जाता  हैं ... अगर मनचाहा रंग ना मिला तो सपना जैसे टूटता नजर आने लगता हैं। फिर मेहँदी के फीके रंगों के साथ साथ मन भी फीका हो जाता हैं। कुंवारेपन को सुंदर कल्पनालोक में विचरण कराती हैं ये मेहँदी.....
नारी के कुँवारेपन के सपनों को सजाने वाली मेहँदी ,दुल्हन बनते ही उस सुहागन के श्रृंगार में उसके सौभाग्य की प्रतीक बन हर पल उसके मन को हर्षित करती रहती हैं। दुल्हन बनती बेटी के हाथों पर मेहँदी रचाते हुई माँ बलिहारी जाती हैं और मेहँदी के साथ साथ बेटी की हथेलियों की रेखाओं में  ढेरों दुआएँ भी लिखती जाती हैं - 

मेहँदी रचे तेरी खुशियाँ बढे ,तुझे मेरी उम्र लग जाए 
हर पल बुरी नजरों से बचाए ,भाग्य -सुहाग बढ़ाए

माँ के दुआओं से सजी मेहँदी के रंग को देख प्रतीत होने लगता हैं कि मेहँदी  भी उस दुल्हन को  दुआएं दे रही है -
मेहँदी ये बोली आ मेरी बहना ,तेरी हथेली सजा दूँ 
आँखों में सपने भर दूँ मिलन के साजन की प्यारी बना दूँ


बालपन से ही हाथों में मेहँदी रचाये आँखों में ढेरों सपने सजोये एक लड़की बड़ी होती हैं ...फिर वो दिन भी आ जाता हैं जब  बाबुल के घर से विदा हो वो साजन के घर जाती हैं। उसे तो अंदेशा ही नहीं होता कि -उसका स्वयं का जीवन भी तो मेहँदी सरीखा ही हैं। अपने बाबुल के आँगन को छोड़ना ,किसी और के घर- आँगन को अपना बनाना , फिर उस घर -परिवार और जीवन की चक्की में बारीक पीसना ,अपने  सुख -दुःख  और अरमानों  को पीस -पीसकर सबके जीवन में खुशियों की ,मुस्कुराहटों की कशीदाकारी करना ,घर के हर एक सदस्य को स्नेह के रंग में रंग देना ही उसका कर्तव्य बन जाता हैं। फिर धीरे धीरे हथेली की हल्की पड़ती हिना के  रंग की भांति  ही अपने  खुशियों को  ,अपने अरमानों को  ही नहीं अपने जीवन तक को धीरे धीरे माध्यम पड़ते  देखते रहना ....अंततः अपने आस्तित्व तक को समाप्त कर देना ही उसकी  नियति बन जाना । खुद को हिना की भांति ही दूसरों को समर्पित कर देना और  किसी से एक शिकवा तक नहीं करना.. 

डाली से नाता तोड़ के ,
अपना रस रंग निचोड़ के 
सुनी हथेली पे सज जाएगी ,
मेहँदी तो मेहँदी हैं रंग लाएंगी। 

फिर एक दिन ,नारी सोचने पर मजबूर हो गई,खुद से सवाल कर बैठी  -" तुम क्युँ खुश होती हो मेहँदी के पत्तों को देखकर ,उनको पथ्थर पर पीसते देखकर ,जब वो अपने आस्तित्व को मिटाकर तुम्हारी हथेलियों को थोड़ी देर के लिए लाल सुर्ख रंगों से सजा देती हैं तो तुम्हे इतनी ख़ुशी क्युँ मिलती ? " तुमने तो अपने जीवन में हिना के रंग को ही नहीं उसके गुणों को भी धारण कर लिया ,मगर क्युँ ???? नारी के कोमल भावुक मन ने जबाब दिया.....

वो हो औरत के हिना ,फर्क किस्मत में नहीं 
रंग लाने के लिए दोनों पिसती ही रही 
मिटके खुश होने का दोनों का है एक ढंग हिना 
मैं हूँ खुशरंग हिना 

हर पल ,हर हाल में खुश रहना .......लेकिन कब तक........नारी मन व्यथित हो चीत्कार कर उठा - " अब बहुत हुआ... अब हमें  हिना बनना मंजूर नहीं। अब तो प्रकृति का दोहन करते करते हिना का भी रूप -रंग बिगड़ गया  हिना को भी  कित्रिम रूप दे दिया गया तो फिर हम ही क्युँ पीसते रहें ?? जैसे हिना के असली सौंदर्य को किसी ने नहीं समझा वैसे ही मेरे किसी भी रूप को भी किसी ने ना समझा ,बस कोरी सराहना ही करते रहे ....ना माँ के ममता को मान दिया ना बहन की राखी को ...ना पत्नी के त्याग को समझा ना प्रेमिका के समर्पण को ....ना बहु के सेवा का महत्व दिया ना बेटी स्नेह को। फिर क्या था ...हिना के साथ साथ नारियों के स्नेह के रंग में भी कित्रिमता आनी शुरू हो गई। आखिर कब तक ???  कब तक... किसी के सहन शक्ति की आजमाईस होती रहेगी ,बर्दास्त की भी हद होती हैं ,एक दिन तो वो थककर विद्रोह करेगी  ही न । आख़िरकार  माँ प्रकृति की सहनशक्ति भी तो समाप्त हो ही गई न.... अब तो वो भी क्रोधित हो चुकी हैं और अपना सौंदर्य....अपना रंग...अपनी प्राणवायु देना से इंकार करने लगी हैं । नारी तो एक मनुष्य हैं कब तक अपने स्नेह ,त्याग और तपस्या की अवहेलना होते देखती रहती ,उन्हें भी तो एक ना एक दिन उग्र रूप धारण करना ही था आखिरकार ....अब वो हिना बनने से पूरी तरह इंकार कर चुकी हैं। 
हिना और नारी  जिसका चयन ही प्रकृति ने सौंदर्य ,प्यार और खुशियाँ बाँटने के लिए किया था। हिना भी तो हर पल प्यार से यही कहती रही हैं न ..... 
मैं हूँ खुशरंग हिना ,प्यारी खुशरंग हिना 
जिंदगानी में कोई रंग नहीं मेरे बिना। 
लेकिन हम नहीं समझे ....हम तो इतने निष्ठुर.... कि हमनें  उसकी प्यारी कोमल भावनाओं को अनदेखा ही नहीं किया ,निरादर भी करते रहें। जैसे नारी का सम्पूर्ण श्रृंगार अधूरा हैं हिना के बिना वैसे ही प्रकृति अधूरी हैं नारी के अस्तित्व के  बिना। यदि नारी ने अपना अस्तित्व पूर्णतः बदल दिया तो .....ना ही प्रकृति रहेगी और ना ही उसकी सुंदरता। धरा से प्रेम ,ममत्व और समर्पण का रंग भी हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। 
अब भी वक़्त हैं सम्भल सकें तो सम्भल ले ....बचा सकें तो बचा ले ....प्रकृति ,हिना और नारी के सुंदर रंगों को ,उनकी खुशबु को ,उनके सौंदर्य को ,बरना .......

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

किस्मत कनेक्शन  (संस्मरण )

  


     कभी कभी जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ घटित हो जाती हैं कि -प्रेम,आस्था और विश्वास जैसी भावनाओं पर नतमस्तक होना ही पड़ता हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसी ही घटना घटित हुई थी और मेरे आत्मा से ये तीनो  भावनाएँ ऐसे जुडी कि -ना कभी उन्होंने मेरा साथ छोड़ा और ना मैंने उनका। 

    बात उन दिनों की है जब हम शादी के बाद हनीमून के लिए  काठमांडू ( नेपाल ) गए थे। दरअसल हनीमून तो बस एक बहाना था हमें तो अपनी नन्द की बेटी के जन्मदिन पर जाना था। मेरे पति की मुझबोली बहन वहाँ रहती थी और उन्होंने ही हमें अपनी बेटी के जन्मदिन पर बुलाया था। मेरी ननद की कहानी बड़ी ही मार्मिक थी, उनके तीन बच्चे हुए मगर कोई भी छह माह से ज्यादा जीवित नहीं रह पाया था। ये उनकी चौथी संतान थी जो एक साल पूरा कर रही थी। इसलिए मेरी ननद के लिए अपनी बेटी का पहला जन्मदिन मनाना सचमुच बड़े ही सौभाग्य का दिन था। इसलिए हमारा उनकी ख़ुशी में शरीक होना लाजमी था।

    मेरी ननद और नन्दोई का मेरे पति के साथ बड़ा ही प्यारा रिश्ता था और उन्होंने मुझे भी बड़ा मान दिया ,हमारी आवभगत में कोई कमी नहीं की। तीन बच्चों  के मरणोपरांत चौथी संतान का  एक साल पूरा होते देखना मेरी ननद और हम सब को बहुत ही ज्यादा ख़ुशी की अनुभूति करा रहा था। मेरी ननद के आँखों से ख़ुशी के  आँसू  रुक ही नहीं रहे थे। उन्होंने बेटी के जन्मदिन की सारी जिम्मेदारी मुझे दे दी, यानि बेटी को सजाना -सवारना ,पूजा में बैठना ,केक कटवाना सब कुछ उन्होंने मेरे ही हाथो करवाया। उनके शब्दों में -" भाभी आपके कदम मेरी बेटी के लिए शुभ हो और उसे स्वस्थ लम्बी उम्र का वरदान मिले। " मैं उनके इस स्नेह और विश्वास पर पूरी तरह नतमस्तक थी। दो चार दिनों में सोनाली  (बच्ची) भी मुझसे ऐसे घुल मिल गई कि मुझे भी मम्मा ही बुलाने लगी। 

      जन्मदिन के अगले दिन हमारा " स्वयंभू "दर्शन करने जाने का प्रोग्राम था। नन्द ने कहा  -भाभी आप सब हो आओ ,मैं तो कई बार गई हूँ और मैं थक भी बहुत गई हूँ। हमने कहा ठीक हैं। नन्दोई , उनकी छोटी बहन और हम दोनों पति -पत्नी जैसे ही चलने को हुए सोनाली रोने लगी और मुझे पकड़ लिया ,वो मेरे साथ ही जाने की जिद करने लगी।ननद बोली- " इसे भी साथ ले जाइयें ,अच्छा हैं मैं थोड़ा आराम भी कर लूँगी  " मैं खुश हो गई क्योकि सोनाली से मुझे भी  काफी लगाव हो गया था । 

" स्वयंभू "भगवान बुद्ध का मंदिर हैं और काठमांडू में सबसे ऊंचाई पर बसा हैं। घर से एक- डेढ़ घंटे का रास्ता था। वहाँ  हर वक़्त बे मौसम की बरसात होती ही रहती थी ,उस दिन भी  रात में  काफी बारिश हुई थी और लगातार हल्की फुल्की बारिश हो ही रही थी। काठमांडू के पहाड़ी रास्ते बड़े ही संकरे होते हैं। अभी हमें निकले आधा घंटे ही हुए थे कि एक जगह हमारी गाड़ी बड़ी तेजी से फिसली ,लेकिन ड्राइवर ने संभाल लिया। सोनाली उस वक़्त मेरी गोद में थी ,झटके लगने पर मैं खुद को संभाल नहीं पाई और सोनाली को हल्की चोट लग गई। मैंने उसे नन्दोई को दे दिया जो अगली सीट पर बैठे थे। पता नहीं क्यों ,उस झटके ने मेरी धड़कने बढ़ा दी ,मुझे किसी अनहोनी की आशंका सी होने लगी और मैं मन ही मन गुरुदेव को याद कर  गायत्री मंत्र का जाप करने लगी।
       लेकिन जैसे ही हम थोडा और आगे गए ,पीछे से एक गाड़ी  तेज रफ्तार में आई और हमें ओवरटेक करती हुई निकली ,हमारा ड्राइवर गाड़ी संभाल नहीं पाया और गाड़ी का पिछला पहिया सीलिप कर गया, हमारी गाड़ी पलटने लगी। चुकि ढलान ज्यादा खड़ी नहीं थी सो गाड़ी आहिस्ता आहिस्ता पलटी खाने लगी। जैसे ही गाड़ी ने पहली पलटी खाई ,उस वक़्त पतिदेव का हाथ मेरे हाथ में ही था मैंने उनका हाथ जोर से पकड़ लिया और मेरे मुख से एक ही आवाज़ आई -" हे गुरुदेव मेरी सोनाली की रक्षा करना "और गायत्री मंत्र स्वतः ही मेरे मुख से तेज़ स्वर में निकलने लगा। पता नहीं क्युँ उस वक़्त मुझे सोनाली के अलावा और किसी का ख्याल ही नहीं आया। अचानक लगा जैसे हमारी गाड़ी रूक गई। देखा तो ,ढेरों पहाड़ी लोग हमारी गाड़ी को एक तरफ से पकड़ रखे हैं ,उनमे से कुछ लोगों ने  हमारी गाड़ी के खिड़की का सीसा तोडा और हाथ बढ़ाकर एक एक करके धीरे धीरे हमें  निकालने लगे। हम बड़ी सावधानी से सरकते हुए बाहर निकल रहे थे। गाड़ी बुरी तरह हिल रही थी ,ऐसा लग रहा था कि अब पलटी की तब पलटी ,दिल धड़क रहा था कि कौन बचेगा कौन नहीं?
    
   दरअसल गाडी लुढ़कती हुई करीब 40-45 फीट नीचे जहाँ गिरी थी वहाँ गोभी के खेत थे और बारिस की वजह से खेत की मिट्टी काफी गीली थी जिसकी वजह से गाड़ी के एक साइड के दोनों पहिए मिट्टी में धंस गए थे। यदि उसके बाद गाड़ी एक बार भी पलटती तो सीधे हजारों फीट गहरी खाई में गिरती।ऐसी स्थिति में पहाड़ियों ने गाडी को पकड़ रखा था लेकिन अगर जरा सा भी उनका  संतुलन बिगड़ता तो गाड़ी और हमारे साथ साथ कई पहाड़ी भी नीचे  जा सकते थे जहाँ से अंतिम संस्कार के लिए हमारी हड्डियों का मिल पाना भी मुश्किल था। पहाड़ियों के साहस  और सहयोग से हम एक एक करके बाहर निकले। बाहर निकलते ही मेरी नजर सबसे पहले सोनाली को ढूँढने  लगी। मैं जोर से बोली -सोनाली कहाँ हैं ? एक प्यारी सी आवाज़ आई -" मम्मा ..."मैंने देखा दोनों बाहें फैलाये सोनाली मेरी तरफ देखती हुई मुझे आवाज़ दे रही थी। मैं दौड़कर नन्दोई के गोद से सोनाली को अपनी बाहों में भरकर गले से लगा ली ,मेरी आँखों से अश्रुधारा फुट पड़े। सोनाली भी मम्मा -मम्मा कहती हुई  मेरे चेहरे को चूमें जा रही थी।

   सोनाली को सुरक्षित देख मेरी जान में जान आई। सभी सुरक्षित बाहर निकल आये थे। आश्चर्य की बात किसी को एक खरोंच भी नहीं आई थी बस ड्राइवर को थोड़े से जख्म आये थे। अब 40 फीट ऊपर सड़क तक पहुंचना भी हमारे लिए बहुत कठिन था वो तो भला हो उन पहाड़ी देवताओं का उन्होंने हमारा हाथ पकड़ संभाल संभाल कर ऊपर सड़क तक ले आये ।ऊपर आने के बाद हम सबने उन पहाड़ी फ़रिस्तों को दिल से शुक्रिया कहा। उन्होंने बड़े भोलेपन से कहा "-परमात्मा को धन्यवाद कहो यहाँ से गिर कर कोई नहीं बचता हैं। " सचमुच जब ऊपर से अपनी गाड़ी को हमने देखा तो हमारे लिए भी यकीन करना मुश्किल था कि -" हम ज़िंदा हैं "

   मेरे पति ने मुझसे पूछा -"अब क्या करे घर चलें " मैंने कहा -"नहीं ,हम मंदिर जाएंगें "उन्होंने कहा -आगे का रास्ता भी ऐसा ही हैं। मैंने कहा -अब कुछ नहीं होगा ,अनहोनी टल गई। हमनें अपने कपड़ों पर लगे कीचड़ को साफ किया ,दूसरी गाड़ी बुक की और चल पड़े " स्वयंभू " दर्शन को। जब वापसी लौट रहे थे तो ड्राइवर उसी रास्ते की ओर मुड़ने लगा तो मेरे नन्दोई ने उससे नेपाली भाषा में कहा कि -" इस रास्ते नहीं चलों ,दो घंटे पहले इसी सड़क पर हमारा एक्सीडेंट हुआ हैं। " ड्राइवर हमें गौर से देखता हुआ बोला -" मजाक कर रहें हो सर ,इस रास्ते पर किसी का एक्सीडेंट हो और वो जिन्दा बच जाएं ,हो ही नहीं सकता और आप लोगो में से किसी को तो खरोंच तक नहीं आई हैं। " नन्दोई ने समझाया -यकीन करों भाई ,ऐसा ही हुआ हैं। अब तो ड्राइवर जिद पर अड़ गया बोला -मुझे तो देखना हैं ,कहाँ एक्सीडेंट हुआ था और मोड़ लिया गाड़ी उसी रास्ते पर। जब हम उस जगह पर पहुंचे तो वहाँ अब भी भीड़ इकठी थी ,ड्राइवर गाडी रोक कर उतरा और देखने लगा ,हम सभी भी उतरे। पहाड़ियों ने देखते ही हमें पहचान लिया और हमें घेर लिया ,सब सोनाली के माथें को सहलाते हुए  दुआएं देने लगे ,आपस में बातें करने लगे -" इनकी रक्षा तो परमात्मा ने की हैं।"  हमारा ड्राइवर भी देखकर दंग था बोला - " बड़ी लकी हो आप सब। " वहाँ गाड़ी का मालिक आ गया था ,गाडी को क्रेन के द्वारा निकला जा रहा था। घायल ड्राइवर को हॉस्पिटल भेज दिया गया था।

   जब हम घर पहुंचे तो मेरी नन्द सारी घटनाक्रम को सुनकर मुझे पकड़कर रोने लगी और बोली -" भाभी आप की वजह से सोनाली पर से एक खतरा टल गया और उसकी जान बच गई "  मैंने कहा - " आप गलत बोल रही हैं ,हमारी किस्मत अच्छी थी कि सोनाली हमारे साथ थी ,उसकी वजह से  हम सब की जान बची "  हम सभी ने ईश्वर का धन्यवाद किया। उस दिन यकीन हो चला था कि -" आस्था में बहुत शक्ति होती हैं " मेरी एक गुहार -" गुरुदेव ,मेरी सोनाली की रक्षा करना " इतना सुन गुरुदेव ने हम सभी को बचा लिया था। 

   शायद हमारे देश में आस्था को इसीलिए इतना महत्व दिया जाता हैं। एक आस्था पथ्थर को भी भगवान बना देती हैं, आस्था से ही विश्वास की उत्पति होती हैं और विश्वास  निस्वार्थ प्रेम को जन्म देता हैं। या यूँ भी कह सकते हैं कि -" प्रेम से आस्था उपजती हैं और आस्था से विश्वास " बात एक ही हैं। मुझे नहीं पता उस दिन उस बच्ची सोनाली के कारण हम बचें या हमारी वजह से सोनाली। सत्य तो यही था कि -" हम दोनों के निश्छल प्रेम ने हमारी रक्षा की थी। " (संस्मरण )






"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...