शनिवार, 5 अक्टूबर 2019

पर्दा नहीं जब कोई खुदा से ....



    
    " पर्दा "  यानि किसी भी खूबसूरत  या बदसूरत व्यक्ति ,वस्तु या बातो के ऊपर एक आवरण रख देना या यूँ भी कह सकते हैं कि उसकी हक़ीक़त को छुपा देना। जीवन में हमे अक्सर जरूरत पड़ ही जाती हैं एक ऐसे आवरण की जो हमारे जिस्म को, हमारी सोच को, हमारे बोल को, यहां तक की हमारे कर्मो को भी ढके रखे। जिस्म को तो एक पर्दें से ढकना जरुरी हैं ये तो सभ्यता हैं। हम आदि मानव तो रहे नहीं जिसको जिस्म  पर भी पर्दें डालने की जरुरत नहीं थी। जिस्म को तो कभी कभी  लोगो की बुरी नजर से बचाने के लिए जरुरत से  ज्यादा भी छुपाना पड़ता हैं। लेकिन  सोच ,बोल और कर्म को पर्दे की क्या जरूरत ? पर इन्हे भी छुपाना पड़ता हैं ???? 

     अब सवाल ये उठता हैं कि हमे किससे छुपाना पड़ता हैं  खुद से ,खुदा से या दुनिया वालो से। हम दुनिया वालो से भले ही सब कुछ छुपा ले पर खुद से और खुदा से कुछ छुपाना  मुमकिन हैं क्या ? खुदा की बात छोड़े क्या हम अपने सोच ,बोल और कर्म पर अच्छाई या बुराई रुपी पर्दा  डाल कर खुद के मन से वो सब छुपाने में सफल हो पाते  हैं क्या ? कभी ना कभी तो हमारा मन उस पर्दे से बाहर निकलने के लिए मचलेगा न ????

    कभी  कभी आप अपने अच्छे कर्मो को तो छुपा सकते हैं, छुपाना भी चाहिए क्योकि " अपना आप बड़ाई " शोभा नहीं देता। वैसे भी अच्छे कर्मो पर तो आप ज्यादा दिन तक पर्दा डाल भी नहीं सकते। क्योकि अच्छे कर्मो की खुश्बू बंद दरवाजे से भी   खुद ब  खुद बाहर निकल समूचे वातावरण को सुगंधित कर देती हैं। हाँ  ,बुरे कर्मो को आप जरूर पर्दा-दर - पर्दा ढ़क सकते हैं। अपनी गन्दी अंतरात्मा पर अच्छाई का आवरण डाले बहुत ही सम्भ्रांत व्यक्तित्व आप को आपने आस पास हमेशा देखने को मिल ही जाते होंगे या यूँ भी कह सकते हैं कि ऐसे ही लोगो की तदाद ज्यादा हैं, हम चारो तरफ से उनसे ही घिरे हैं। 

     मैं अक्सर सोचती हूँ ऐसे व्यक्ति जो अच्छाई का आवरण ओढ़े घूमते हैं उनका मन कभी तो उन्हें धिधकारता होगा। हाँ ,जरूर धिधकारता होगा ,आप लाख अपने अंतर्मन को दबाना चाहे वो चीत्कार जरूर करेगा ,आप उसकी आवाज़ को भले ही अनसुना करे पर वो चीख चीख कर अपनी आवाज़ खुदा तक जरूर पंहुचा देगा। फिर कुछ छुपा नहीं रहेगा ,सारे पर्दे हट जायेगे ,सारे राज खुल जाएंगे। फिर कहाँ जाकर और किस चीज से आप अपना मुख छुपायेंगे। सोचे जरा ........ 

     मुझे बचपन में सुनी  एक कहानी याद आ रही है -एक व्यक्ति था सात्विक  जीवनशैली ,सात्विक विचार और सात्विक भोजन अर्थात उसका  व्यक्तित्व दुनिया के सामने संतरूपी था। परन्तु  वो जैसा दिखता था वैसा था नहीं तो जाहिर हैं वो सारे गलत काम पर्दे में करता था। वो जब भी नदी में नहाने जाता और जब वो पानी में डुबकी लगता तो पानी के अंदर ही बड़ी  चालाकी से एक मछली गटक जाता और मन ही मन खुश होकर कहता -" ऐसा चोरी किया जो खुदा ने भी नहीं देखा " एक दिन एक मछली उसके गले में अटक गई और खुदा ने उसे समझा दिया कि मुझसे कुछ नहीं छिपा। उसे अपने किये की सजा मिल गई। 

      ये कहानी  पापा अक्सर हमे सुनाया करते थे जब भी हम कुछ गलत करते थे और वो हमे पकड़ लेते तो यही जुमला कहते - आप लोग  क्या सोच रहे थे कि " ऐसा चोरी किये जो खुदा ने भी नहीं देखा " और ये कह वो ठहाके लगाकर हंसने लगते।  हम सब झेप जाते थे और अपनी गलती मान पापा के आगे कान पकड़ लेते थे। बचपन में तो इस कहानी के असली भाव को हम समझ नहीं पाते थे लेकिन अब समझ आता हैं कि -हम लाख कोशिश करे अपने व्यक्तित्व को, अपने सोच -विचार को ,अपने बोल को और अपने कर्मो को कभी भी किसी भी तरह के पर्दे से नहीं ढक़ सकते या यूँ भी कह सकते हैं कि ऐसा कोई पर्दा ईश्वर ने बनाया ही नहीं जिससे ये ढका जा सके। हाँ , अपने मद में मदहोश हम ये झूठा प्रयास अवश्य करते रहते हैं। 

     आज ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं कि कल  जिन्होंने भी संत का नकाब ओढ़ रखा था ,आज वो दुनिया के सामने बेनकाब हैं। लाख पर्दे में अपने गुनाहो को छुपा लो वो एक न एक दिन सबको नजर आ ही जायेगा। क्यों छुपाये हम अपनी खूबसूरती या बदसूरती को किसी से ? क्यों किसी भी वस्तु की हकीकत को छुपाने के लिए उस पर आवरण रख दे ? क्यों मुख से ऐसा कुछ निकले जिसके प्रभाव को कम करने के लिए हमे उसके ऊपर कोई दूसरी बात कह कर पहली  बात पर आवरण डालना पड़े ? क्यों हम ऐसा कोई भी काम करे जिस के लिए  हमे खुद से , खुदा से या जग से मुँह छुपाना पड़े ? 
   क्युँ न हम अपनी सोच को ,अपने लफ्जो को ,अपने कर्मो को इतना प्रभावशाली और पारदर्शी बनाएं कि हमे किसी भी आवरण की जरूरत ही ना पड़े। अपनी नजरों को इतना पाक बनाएं कि किसी को भी अपनी खूबसूरती या बदसूरती को छुपाना ही ना पड़े। क्युँ न हम ऐसे काम करे कि निःसकोच हो, बिना डरे, हम शान से सर उठाकर ये कह सके -
                               
                             " पर्दा नहीं जब कोई खुदा से बंदो से पर्दा करना क्या "







गुरुवार, 26 सितंबर 2019

तेरे सुर और मेरे गीत .....

                           
                                                     " तेरे  सुर और मेरे  गीत 
                                             दोनों मिलकर बनेगे प्रीत " 


      इस गीत के सिर्फ एक पंक्ति से  ही गीतकार भरत व्यास ने जीवन में सच्चे प्रेम और ख़ुशी को पाने का हर रहस्य खोल दिए हैं। यदि  सुर और गीत की तरह एक हो गए तो जीवन में शास्वत प्रेम की धारा स्वतः ही बहने लगेगी। फिर ना कोई बिक्षोह का डर होगा ना कोई मिलने की तड़प। फिर इस  नश्वर जगत में  भी जीवन  इतना सुरमयी हो जायेगा कि जीते जी स्वर्ग सुख की अनुभूति हो जाएगी। 


     इस गीत के एक पंक्ति ने ही जीवन के बड़े गूढ़ रहस्यो को अपने भीतर समाहित कर रखा हैं कि सच्ची प्रीत वही हैं ,सच्चा रिश्ता वही हैं जो सुर और गीत की तरह एकाकार हो। उस वक़्त के तत्कालीन परिवेश में ( जब ये गीत रचा गया था ) ये भावनाएं विशुद्ध रूप से देखने को मिलती थी। परन्तु आज के समाज में हर एक रिश्ते में  " अपनी ढ़पली अपना राग  " जैसे हालात हैं। कोई अपना  सुर दे रहा हैं तो कोई अपना ही गीत गए जा रहा हैं। उन्हें नहीं मतलब हमारे सुर और गीत एक दूसरे से मिल भी रहे हैं या नहीं ,हर एक को अपना ही  किया हुआ अच्छा लग रहा हैं। बस एक दूसरे को दोष देने में लगे हैं कि - " मेरे तो सुर बड़े मधुर हैं तुम्हारे ही गीत के बोल अधूरे हैं " तो कोई कहता हैं - " नहीं जी ,मैंने तो गीत के बोल बहुत सुंदर लिखे हैं तुमने ही सही सुर नहीं दिए।" 
    
    कोई नहीं कहता -"  मैं अपने  गीतों के बोल को तुम्हारे  सुरो के अनुरूप बदल लेती हूँ। "  या " मैं तुम्हारे हर गीत के बोल को अपने सुरों में बड़े प्यार से  पिरो लुगा। "  माना किसी और के गीत के साथ सुर और ताल मिलना कभी कभी मुश्किल हो जाता है.गीत को सुर ना दे पाए तो क्या हुआ सुर को ताल तो दे ही सकते हैं वो भी नहीं कर पाए तो भी कोई बात नहीं सुर के साथ सुर तो मिला ही सकते हैं। दूरदर्शन पर बहुत पहले एक गीत आता था " मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा " अगर हम  सुर से सुर ही  मिला ले तो भी हमारा जीवन सुरमयी हो जायेगा। 


      जब तक एक गीत को सुंदर सुरो से लयबद्ध नहीं किया जायेगा तब तक  मनभावन संगीत सुनने को नहीं मिलेगा। परन्तु आज के परिवेश में व्यक्ति के जीवन में ना सुर हैं ना ताल ,गीत के बोल भी भावहीन हो चुके हैं ,ऐसे में  मधुर संगीत कहाँ से सुनाई देगा। हर तरफ बस हाहाकार मचा हैं ,हर रिश्ते में दरार पड़ी हैं ,चाहे वो पति पत्नी हो ,माँ -बेटी हो ,पिता- पुत्र हो ,दोस्त- रिश्तेदार हो या प्रेमी- प्रेमिका हो। क्योकि जीवन से सच्चा संगीत चला गया हैं ,संगीत बेसुरा हुआ पड़ा हैं और भावनाएं खंडित। हर एक  मनुष्य की आत्मा तड़प रही हैं एक मधुर बोल सुनने को, जिसे सुन उसका  अंतःकरण भी  सुरमयी बन सके। लेकिन समस्या ये हैं कि सब सुनना ही चाहते  हैं कोई बोलने का प्रयास नहीं कर रहा। पहले आप खुद अपने अंतःकरण से एक सच्चा और मधुर सुर तो निकलो ,उस सुर पर कोई ना कोई एक मधुर गीत की रचना जरूर कर देगा। 


      सिर्फ संगीत में ही नहीं ,जीवन में भी सुर और ताल का मिलना बहुत ही जरुरी हैं।जीवन का सुर और ताल हैं -सच्ची "श्रद्धा और विश्वास " ये दोनों जिस किसी भी रिश्ते में समाहित होगा उस रिश्ते में संगीत की तरह मधुरता तो होगी ही, साथ ही साथ इस तरह के प्यारे रिश्ते से जन्मे जीवन संगीत की मधुरता  से उस व्यक्ति का जीवन ही नहीं वरन उसका घर- परिवार और  समाज भी सुरमयी  हो जायेगा।  गीतकार रविन्द्र जैन ने आज  के दौड में सच्चे प्यार के लिए तरसते  हर एक दिल की ख्वाहिश को कुछ इस तरह से वया किया हैं -


                                           तु जो मेरे सुर में सुर मिला ले ,संग गा ले।  
                                          तो जिंदगी हो जाये  सफल।। 
                                  तु जो मेरे मन को घर बना ले ,मन लगा ले। 
                                            तो बंदगी हो जाए सफल।। 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

जाने चले जाते हैं कहाँ .....

                       

                                 जाने चले जाते हैं कहाँ ,दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहाँ 
                                                  कैसे ढूढ़े कोई उनको ,नहीं क़दमों के निशां 

     अक्सर, मैं भी यही सोचती हूँ आखिर दुनिया से जाने वाले कहाँ चले जाते हैं ? कहते हैं  इस जहाँ  से परे भी कोई जहाँ है, हमें छोड़ शायद वो उसी अलौकिक जहाँ में चले जाते हैं। क्या सचमुच ऐसी कोई दुनिया है ? क्या सचमुच आत्मा अमर है ? क्या वो हमसे बिछड़कर भी हमें देख सुन सकती है? क्या वो आत्माएं भी खुद को हमारी भावनाओं से जोड़ पाती है ? क्या वो दूसरे जहाँ में जाने के बाद भी हमें  हँसते देखकर खुश होते हैं और हमें  उदास देख वो भी उदास हो जाते हैं ? श्राद्ध के दिन चल रहे हैं सारे लोग पितरो के आत्मा की तृप्ति के लिए पूजा-पाठ ,दान-पुण्य कर रहे हैं, क्या हमारे द्वारा  किये हुए दान और तर्पण हमसे बिछड़े हमारे प्रियजनों की आत्मा तक पहुंचते हैं और उन्हें तृप्त करते हैं ? ऐसे अनगिनत सवाल मन में उमड़ते रहते हैं ,ये सारी बाते सत्य है या मिथ्य ?

      युगों से श्राद्ध के विधि-विधान चले आ रहे हैं, हम सब अपने पितरो एवं प्रियजनों के आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ, दान-पुण्य और जल तर्पण करते आ रहे हैं। आत्मा जैसी कोई चीज़ का इस ब्रह्माण्ड में आस्तित्व तो है इसकी पुष्टि तो विज्ञान भी कर चूका है। पर क्या इन बाहरी क्रियाकलापों से आत्मा को तृप्ति मिलती होगी ? मुझे नहीं पता आत्मा तिल और जल के तर्पण से तृप्त होती है या ब्राह्मणों को भोजन कराने से ,गाय और कौओ को रोटी खिलाने से या गरीबों में वस्त्र और भोजन बांटने से, मंदिरो में दान करने से या पूजा-पाठ-हवन आदि करने से। 

     मुझे तो बस इतना महसूस होता है कि हमसे बिछड़ें  हमारे प्रियजनों की आत्मा  एक अदृश्य तरगों के रूप में हमारे  इर्द-गिर्द तो जरूर रहती है और हमें  दुखी  देख तड़पती है और हमें  खुश देखकर संतुष्ट होती है, उनके द्वारा  दिए गए अच्छे संस्कारों का जब हम पालन करते हैं तो उन्हें शांति मिलती है,  अपने प्रियजनों को सुखी और संतुष्ट देख उन्हें तृप्ति मिलती है  और हमारे सतकर्मो  से उन्हें मोक्ष मिलती है। 


     मुझे तो यही महसूस होता है, जिन्हे हम प्यार करते हैं वो आत्माएं शायद हमारे आस-पास ही होती है वो भी  अनदेखी  हवाओं की तरह बस हमें  छूकर गुजर जाती है।उन्हें याद करके एक पल के लिए आँखें मूंदते ही हमें  उनका स्पर्श महसूस होने लगता है। हम ही उन्हें महसूस नहीं करते शायद वो भी हमारे सुख-दुःख, आँसू और हँसी को महसूस करते  होंगे तभी तो यदा-कदा हमारे  सपनो में आकर  हमें  दिलासा भी दे जाते हैं और कभी-कभी तो अपने होने का एहसास भी करा जाते  हैं । 


     शायद, मृतक आत्माओं के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि ही श्राद्ध है। सिर्फ विधि-विधान का अनुसरण नहीं बल्कि हर वो कार्य जिसमे परहित छुपा हो और पूरी श्रद्धा के साथ की गयी हो, अपने पितरो के प्रति आदर ,सम्मान और प्यार के भावना के साथ की गई हो, अपने पितरो के सिर्फ सतकर्मो को याद करके की गई हो वही सच्ची श्रद्धांजलि है। 

       शायद, ये श्राद्धपक्ष सिर्फ हमें  हमारे पितरो और प्रियेजनों की याद दिलाने ही नहीं आता बल्कि हमें  ये याद दिलाने के लिए भी आता है कि -एक दिन हमें  भी इस जहाँ को छोड़ उस अलौकिक जहाँ में जाना है जहाँ  साथ कोई नहीं होगा  सिर्फ अपने कर्म ही साथ जायेगे और पीछे छोड़ जायेगे अपनी अच्छे कर्मो की दांस्ता और प्यारी सी यादें  जो हमारे प्रियजनो के दिलो में हमारे लिए हमेशा जिन्दा रहेगी और वो अच्छी यादें हमारे वर्तमान व्यक्तित्व पर ही निर्भर करेगी। 

     गलत कहते हैं लोग -"खाली हाथ आये थे हम ,खाली हाथ जायेगे" ना हम खाली हाथ आये है ना खाली जायेगे। हम जब जायेगे तो साथ अपने कर्मो का पिटारा लेकर जायेगे और जब भी फिर इस जहाँ में वापस आना होगा तो उन्ही कर्मो के हिसाब से अपने हाथों  में अपने भाग्य की लकीरें ले कर आयेगे। हाँ,भौतिक सुख-सुविधा के सामान और अपने प्रिये यही पीछे छूट जायेगे। 

     यकीनन,ये श्राद्ध हमें  याद दिलाने आता है कि -इस दुनिया में तुम्हारा आना-जाना लगा रहेंगा और तुम्हारे कर्म ही तुम्हारे सच्चे साथी है। इस श्राद्धपक्ष मैं अपने  प्रिय पापा और भाई तुल्य बहनोई जो मुझे भी अपनी बड़ी बहन समान सम्मान और स्नेह देते थे उनके प्रति अपनी सच्चीश्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ और उन्हें ये वचन भी देती हूँ कि-मैं उनके अधूरे कामो को, अधूरे सपनो को पूरा करने की पूरी ईमानदारी से कोशिश करुँगी। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे।    

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...