" वेलेंटाइनस डे"एक ऐसा शब्द...एक ऐसा दिवस...जो पश्चिमी सभ्यता से आया और पुरे विश्व के दिलों पर राज करने लगा। कुछ लोग कहते हैं कि-हर दिन प्यार का होता है तो फिर कोई खास दिन ही क्यों ?बात तो सही है लेकिन याद कीजिये आपने अपने किसी भी प्यार के रिश्ते में आखिरी बार कब आपने प्यार का इजहार किया था। शायद याद भी नहीं हो।वैसे भी आज कल हर रिश्ते में प्यार का बेहद आकाल पड़ा है वैसे मे कोई एक खास दिन तो होना ही चाहिए जब आप उस रिश्ते पर अपना प्यार जाहिर कर सकें,उनके लिए अपना एक दिन समर्पित कर सकें ,तभी तो मदर डे ,फादर डे ,फ्रेंडशिप डे ,वगैरह वगैरह बने हैं। सही भी है आज के समय में इसकी आवश्यकता भी बहुत है। पश्चिम से आयी हर हवा खराब नहीं होती....कुछ अच्छी भी होती है..परन्तु हम उन्हें अच्छी तरह समझे बिना आधा-अधूरा अपनाते हैं....वो खराब है। उन्ही में से एक ये "प्यार का दिन "है। ये पावन दिन सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका के लिए नहीं बना था बल्कि उस हर रिश्ते के लिए बना था जिनसे आप दिल से जुड़े होते हैं।परन्तु आज ये पवन दिन उन्माद में डूबे ,फूहड़ तरिके से मनमानी करते युवक-युवतियों का दिन बन गया है.शायद इसी वजह से कुछ राजनितिक दल और समाजिक संस्था इस दिन का विरोध भी करते हैं।
जीवन का सारा खेल एक नज़र और नज़रिये का ही तो होता है ,किसी को पथ्थर में भगवान नजर आते है किसी को भगवान भी पत्थर के नज़र आते है----
बुधवार, 13 फ़रवरी 2019
वेलेंटाइनस डे -"प्यार का दिन "
" वेलेंटाइनस डे"एक ऐसा शब्द...एक ऐसा दिवस...जो पश्चिमी सभ्यता से आया और पुरे विश्व के दिलों पर राज करने लगा। कुछ लोग कहते हैं कि-हर दिन प्यार का होता है तो फिर कोई खास दिन ही क्यों ?बात तो सही है लेकिन याद कीजिये आपने अपने किसी भी प्यार के रिश्ते में आखिरी बार कब आपने प्यार का इजहार किया था। शायद याद भी नहीं हो।वैसे भी आज कल हर रिश्ते में प्यार का बेहद आकाल पड़ा है वैसे मे कोई एक खास दिन तो होना ही चाहिए जब आप उस रिश्ते पर अपना प्यार जाहिर कर सकें,उनके लिए अपना एक दिन समर्पित कर सकें ,तभी तो मदर डे ,फादर डे ,फ्रेंडशिप डे ,वगैरह वगैरह बने हैं। सही भी है आज के समय में इसकी आवश्यकता भी बहुत है। पश्चिम से आयी हर हवा खराब नहीं होती....कुछ अच्छी भी होती है..परन्तु हम उन्हें अच्छी तरह समझे बिना आधा-अधूरा अपनाते हैं....वो खराब है। उन्ही में से एक ये "प्यार का दिन "है। ये पावन दिन सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका के लिए नहीं बना था बल्कि उस हर रिश्ते के लिए बना था जिनसे आप दिल से जुड़े होते हैं।परन्तु आज ये पवन दिन उन्माद में डूबे ,फूहड़ तरिके से मनमानी करते युवक-युवतियों का दिन बन गया है.शायद इसी वजह से कुछ राजनितिक दल और समाजिक संस्था इस दिन का विरोध भी करते हैं।
शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019
" दिल की नजर "
" नज़रे मिलती हैं और नज़ारे बदल जाते है
दिल धड़कता हैं और फ़साने बन जाते है "
हैं न, इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा हो जिसे पहली नज़र का प्यार ना हुआ हो,प्यार दिल करता है पर कहते है-" सारा कुसूर नज़रो का हैं. "सही भी है ,इस जीवन का सारा खेल नज़र और नज़रिये का ही तो होता हैं किसी को पथ्थर में भगवान नज़र आते हैं किसी को भगवान भी पथ्थर के नज़र आते हैं।
कबीरदास जी ने कहा -
" पाथर पूजें हरि मिलें, तो मैं पूजूं पहाड़,
तासे यह चाकी भली पीस खाए संसार."
उनकी नज़र में भगवान पथ्थर की मूर्ति में नहीं बल्कि हमारे भीतर हैं मंदिर और मूरत में नहीं खुद के भीतर उन्हें ढूंढो।तभी तो वो ये भी कहते हैं- "कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे बन माहिं.. ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं." उनकी नज़र में भगवान हमारे अंदर समाहित है और बाहर सृस्टि के कण कण में भगवान के दर्शन होते है। लेकिन मीरा बाई तो कृष्ण मुरारी के सुंदर मूर्ति पर ही रीझ गई ,उस मूर्ति में ही अपने प्रियतम का दर्शन कर उन्हें ही पति मान, अपना तन मन समर्पित कर दिया और अंततः उसी मूर्ति में ही समाहित हो गई।
कहते है कि -सिद्धार्थ के पिता को पहले से ही ये ज्ञात हो चूका था कि संसार में व्याप्त दुःख -तकलीफ ,रोग -शोक ,भूख दरिद्रता को देख सिद्धार्थ वैराग धारण कर लगे। इस लिए उन्होंने सिद्धार्थ के लिए ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि वो इन सब दृश्यों को देखे ही नहीं। उन्होंने कभी सिद्धार्थ को महल के प्रांगण से बाहर जाने ही नहीं दिया ,उनके इर्द -गिर्द हमेशा दुःख रहित खुशियों भरा माहौल रखा गया। सिद्धार्थ की नज़रो ने सिर्फ सुख-वैभव और ख़ुशीयां ही देखी इसलिए उन्हें पता ही नहीं था कि -जीवन में दुःख -संताप ,रोग ,भूख जैसी कोई चीज़ भी होती हैं। लेकिन होनी को कौन टालता आख़िरकार एक दिन वो महल से बाहर का दृश्य देख ही लिये। उन्होंने भूख से बिलखते बच्चो को देखा ,रोग से ग्रसित काया देखी ,चेहरे पर अनगिनत झुरियां लिये बुढ़ापा देखा और नश्वर शरीर को नाश होकर अंतिम यात्रा पर जाते शवयात्रा देखी। जैसे ही ये सारे दृश्य उनकी नज़रो के सामने से गुजरा ,सारा नजारा ही बदल गया और वो सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गये।
नजरों पर जिस रंग का चश्मा चढ़ा होता है ,नजारा वैसा ही दिखता हैं, जैसा हम नजारा देखते है हमारा नज़रियाँ वैसा ही हो जाता हैंऔर जैसा नज़रियाँ होगा हमारे जीवन की परस्थितियां भी वैसे ही बनती बिगड़ती रहेगीं। क्या सिद्धार्थ से पहले किसी ने भूख ,दुःख ,शोक -संताप और मृत्यु का नजारा नहीं देखा था ?देखा था ,सबने देखा था और आज भी देख रहे है लेकिन सभी लोग इन सारी बातो को जीवन क्रम से जुडी एक घटना के रूप में ही देखते आये थे। बचपन से ही हमारे सामने ये सारी घटनाये घटित होती आ रही है , ये सबके लिए एक आम सी बात थी। इसलिए किसी ने इतनी गहराई से सोचा ही नहीं होगा जैसा सिद्धार्थ ने सोचा। क्यूकि उनकी नजरो ने उस वक़्त तक वैसा कुछ घटित होते नहीं देखा था। इसलिए जब उन्होंने पहली बार ये सारे दृश्य देखे तो उनकी आत्मा चीत्कार कर उठी। तो सारा खेल नजरो का ही तो था।
हम सिर्फ आँखों से ही नहीं देखते ,भगवान ने हमे देखने के लिए एक और नजर भी दे रखी है ,वो हैं -"दिल की नजर "दिल की नजर हमे वो दर्शन करती है जो खुली आँखें नहीं करा सकती। दिल की नजर हमे श्रद्धा -भक्ति ,प्यार -मुहब्बत ,दया -माया ,उपकार -परोपकार ,सदाचार - सहनभूति और विरक्ति -वैराग्य जैसी भावनाओं की अनुभूति करती हैं। ये अनुभूति ही हमे मानवता प्रदान करती हैं। यकीनन ,कबीर ,मीरा और बुद्ध ने दिल की नजर से इन्ही अनुभूतियो के दर्शन किये होंगे।सच्चा प्यार पाने में भी दिल की ही भूमिका होती है आँखों की नहीं। तो ,हमेशा अपने दिल की नजर खुली रखे ,क्या पता इस स्वार्थ से भरी दुनियां में हमे भी कोई सच्चा साथी मिल जाये ,क्या पता हमे भी किसी पथ्थर की मूर्त में कृष्ण नजर आ जाये ,क्या पता हमे भी कण कण में सर्वशक्तिमान प्रभु के दर्शन होने लगे ,क्या पता हमे भी बुद्ध की भांति ज्ञान और वैराग्य प्राप्त हो जाये ,क्या पता ?
ये दुनियां और ये जीवन दोनों ही बहुत खूबसूरत है और इनसे भी खूबसूरत वो सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं ,जिन्होंने हमारे लिये प्रकृति को अनगिनत खूबसूरत रंगो से सजाया- सवारा हैं, हमे अलग अलग भावनाओं और अनुभूतियों से भरा जीवन प्रदान किया है। वो हमसे ये अपेक्षा भी रखते है कि -उन्होंने हमे जैसा जो जो दिया हैं ,हम उसका भोग कर , उन्हें वैसा ही वापस करे। उन्हें दुषित और विखंडित ना करे। लेकिन हम तो उनके दिये हुए अनमोल जीवन और प्रकृति दोनों का नाश करते जा रहे है। अब भी वक़्त हैं यदि अब भी हमने अपनी नजर और नजरिये को बदल लिया तो यकीनन धरती फिर स्वर्ग सी नजर आयेगीं।
गुरुवार, 31 जनवरी 2019
यादें
"बहुत खूबसूरत होती है ये यादों की दुनिया ,
हमारे बीते हुए कल के छोटे-छोटे टुकड़े
हमारी यादों में हमेशा महफूज रहते हैं,
यादें मिठाई के डिब्बे की तरह होती है
एक बार खुला तो, सिर्फ एक टुकड़ा नहीं खा पाओगे "
वैसे तो ये एक फिल्म का संवाद है परन्तु है सत-प्रतिशत सही.....यादें सचमुच ऐसी ही तो होती है और अगर वो यादें बचपन की हो तो " क्या कहने " फिर तो आप उनमे डूबते ही चले जाते हो....परत- दर -परत खुलती ही जाती हैं....खुलती ही जाती...कोई बस नहीं होता उन पर। उन यादों में भी सबसे प्यारी यादें स्कूल के दिनों की होती है। वो शरारते....वो मस्तियाँ....वो दोस्तों का साथ....खेल कूद और वार्षिक उत्सव के दिन....शिक्षकों के साथ थोड़ी-थोड़ी चिढ़न और ढेर सारा सम्मान के साथ प्यार....हाफ टाइम के बाद क्लास बंक करना और फिर अभिभावकों के पास शिकायत आना....फिर उनसे डांट सुन दुबारा ना करने का वादा करना और फिर वही करना...सब कुछ बड़ी सिद्दत से याद आने लगती है। सच बड़ा मज़ा आता था...क्या दौर था वो. ........
ऐसी ही मेरे बचपन की एक कभी ना भूलने वाली यादें है....उस जमाने में तो हम सरकारी स्कूल में पढ़ते थे लड़को और लड़कियों का स्कूल ज्यादातर अलग अलग होता था। मैं तेज़,मेघावी मगर थोड़ी शरारती बच्चों की क्षेणी में आती थी। हमारी एक टीचर थी " उर्मिला दी "( हमारे स्कूल में टीचर को "दीदी " कह कर सम्बोधित करते थे ) वैसे तो वो किरानी के पद पर कार्यरत थी पर जब भी किसी शिक्षिका की अनुपस्थिति होती तो उन्हें हिंदी पढ़ाने को भेज दिया जाता था। मेरी शरारतो की वजह से उनकी नजर हर वक़्त मुझपे ही रहती थी और उनके जरूरत से ज्यादा रोक-टोक करने के कारण में उनसे थोड़ी चिढ़ी हुई। हम दोनों के बीच हमेशा एक शीतयुद्ध जैसे हालात बना रहता था...जब भी वो क्लास में प्रवेश करती दुर्भाग्य से मैं कोई न कोई गलती करते पकड़ी ही जाती थी और वो सजा सुना ही देती थी। कभी-कभी तो मेरे कारण पुरे क्लास को सजा भुगतनी पड़ती क्योंकि लगभग पूरी क्लास से मेरी दोस्ती थी अगर उन सब ने मेरे पक्ष में बोल दिया तो मेरे साथ-साथ वो सब भी सजा की पात्र बन जाती थी। सजा भी क्या..सब को धुप में खड़ा कर देना। उनके इस सजा से हम सब परेशान हो गए थे।
ऐसी ही मेरे बचपन की एक कभी ना भूलने वाली यादें है....उस जमाने में तो हम सरकारी स्कूल में पढ़ते थे लड़को और लड़कियों का स्कूल ज्यादातर अलग अलग होता था। मैं तेज़,मेघावी मगर थोड़ी शरारती बच्चों की क्षेणी में आती थी। हमारी एक टीचर थी " उर्मिला दी "( हमारे स्कूल में टीचर को "दीदी " कह कर सम्बोधित करते थे ) वैसे तो वो किरानी के पद पर कार्यरत थी पर जब भी किसी शिक्षिका की अनुपस्थिति होती तो उन्हें हिंदी पढ़ाने को भेज दिया जाता था। मेरी शरारतो की वजह से उनकी नजर हर वक़्त मुझपे ही रहती थी और उनके जरूरत से ज्यादा रोक-टोक करने के कारण में उनसे थोड़ी चिढ़ी हुई। हम दोनों के बीच हमेशा एक शीतयुद्ध जैसे हालात बना रहता था...जब भी वो क्लास में प्रवेश करती दुर्भाग्य से मैं कोई न कोई गलती करते पकड़ी ही जाती थी और वो सजा सुना ही देती थी। कभी-कभी तो मेरे कारण पुरे क्लास को सजा भुगतनी पड़ती क्योंकि लगभग पूरी क्लास से मेरी दोस्ती थी अगर उन सब ने मेरे पक्ष में बोल दिया तो मेरे साथ-साथ वो सब भी सजा की पात्र बन जाती थी। सजा भी क्या..सब को धुप में खड़ा कर देना। उनके इस सजा से हम सब परेशान हो गए थे।
एक दिन दोस्तों ने कहा -कामिनी कुछ तो कर यार...हम सब धुप में खड़ा हो हो कर परेशान हो गए है। एक दिन जब उन्होंने हमें धुप में खड़ा किया तो 10 -15 मिनट बाद ही मैं गश खा के गिर पड़ी....मेरे अचानक गिरने से लड़कियां चिल्लाने लगी...उनका शोर सुन सारी टीचरे और प्रिंसिपल तक आ गई। मुझे उठाकर क्लास रूम में लाया गया...मुँह पर पानी के छींटे मरे गए...पंखा किया गया तब मैंने आँखे खोली। प्रिंसिपल ने पूछा -किसने तुम सब को इतनी कड़ी धुप में खड़ा किया था। सबने एक स्वर में बोला- -उर्मिला दी ने...वो हमेशा हमें यही सजा दे देती है। प्रिंसिपल ने उन्हें ऑफिस में मिलने को कहा और चली गई। उर्मिला दी के तो होश उड़ गए ,उन्हें सदमा सा लग गया वो मेरे पास आकर मेरे सर पर हाथ फेरती हुई पूछी -"तुम ठीक तो हो न " मैंने "हां "में सर हिला दिया फिर वो चली गयी। सब के जाते ही मैं ढहाके लगाती हुई खड़ी हो गई। सारी लड़कियों ने चौकते हुए पूछा - "तू ये सब नाटक कर रही थी क्या ?" मैं इतराते हुए बोली -जी हां ,अब देखना वो हमें कभी धुप में खड़ा नहीं करेगी। सब ढहाके लगाने लगे और उधर उर्मिला दी को प्रिंसिपल ने खूब डाटा कि अगर उस लड़की को कुछ हो जाता तो।
लेकिन पता नहीं उन्हें मुझसे क्या बैर था वो हाथ धो के मेरे पीछे पड़ी रहती और उनका साथ देती क्लास की मोनिटर उषा जो मुझसे थोड़ी चिढ़ी रहती थी। मैं उनकी सजाओ से बचने का कोई न कोई रास्ता निकल ही लेती थी। आख़िरकार एकदिन हम दोनों के बीच खुल कर असली युद्ध हो ही गया। वाक्या प्रीबोर्ड परीक्षा के समय का है। परीक्षा के दौरान उषा नकल कर रही थी उसी दौरान क्लास में उर्मिला दी प्रवेश की उनको देखते ही उसने वो नकल का पर्चा मेरी डेस्क पर फेक दिया...मैंने झट वो पर्ची उठा कर छुपाना चाहा कि कही उर्मिला दी देख ना ले। लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि उन्होंने उषा को पर्ची फेकते तो नहीं देखा किन्तु मुझे पर्ची उठाकर छुपाते देख लिया। उन्हें तो जैसे सुनहरा अवसर मिल गया हो...वो तेज़ी से भागती हुई मेरे पास आई और चिल्लाने लगी -कामिनी सीधे-सीधे पर्चा निकल दो....मैंने सब देख लिया है। मैं समझ गई कि आज अगर ये पर्चा उनके हाथ लग गया तो मेरा भविष्य चौपट हो ही जायेगा...ये सारा खुंदक निकाल लेगी और मुझे बोर्ड परीक्षा से निष्कासित करवा कर ही मानेगी। मैंने सोचा लगता है आज युद्ध का आखिरी दिन हैं तो क्यों न आज आर-पार का युद्ध हो ही जाये...पर्चा तो मैं किसी हाल में इन्हे नहीं दूंगी।
मैंने थोड़ी बुद्धि से काम लिया और अपने आप को संयमित रखते हुए कहा -"दी आप को गलतफहमी हुई है पर्चा मेरे पास नहीं है।"वो गुस्से से बोली - "झूठ मत बोलो...मैंने अपनी आँखों से देखा है...चलो, बाहर निकलो..मैं चेकिंग करुँगी।" उनकी बेटी स्वर्णा जो मेरी दोस्त थी वो सब कुछ देख चुकी थी लेकिन उसने मेरा साथ देते हुए कहा- "उसके पास नहीं है माँ " लेकिन उर्मिला दी कहाँ मानने वाली थी...मानती भी कैसे उन्होंने तो सब कुछ देखा था। चुकि लड़कियों का स्कूल था तो उन्हें ये अधिकार था कि वो मेरे कपडे उतरवा सकती थी। मैं सब जानती थी फिर भी शांत स्वर में बोली -" बेशक आप मेरे कपडे उतरवा ले और तसल्ली कर ले लेकिन ये काम प्रिंसिपल के सामने होगा। वो और गुस्सा हो गई लेकिन मैं भी उनको हाथ नहीं लगाने दी ,आख़िरकार दूसरी टीचर जाकर प्रिंसिपल को बुला लाई। मैंने प्रिंसिपल से कहा -आप मेरे कपडे उतरकर चेकिंग कर सकती है...लेकिन यदि मेरे पास से पर्ची नहीं निकला तो आप इन्हे क्या कहेगी ये भी बताये....क्योकि आप जानती है इनकी तो आदत हो गई है मुझे पर आरोप लगाने की...लेकिन आज तो ये मेरे भी भविष्य एवं सम्मान का प्रश्न है। मैंने अपनी बुद्धि लगायी और उनके हर वक़्त की मुझसे नाराजगी को ही अपना हथियार बना लिया। क्लास की आधी से ज्यादा लड़कियां तो मेरे साथ थी ही उन्होंने भी मेरा भरपूर समर्थन किया। प्रिंसिपल ने खुद ही मेरी तलाशी ली...मेरा सौभाग्य जो उन्हें कुछ नहीं मिला। उन्होंने कहा -" सारे अपने-अपने स्थान पर जाओ और पेपर करो ,उर्मिला मैम आप मेरे साथ ऑफिस में आये। " मेरे तो जान में जान आई और उर्मिला दी बड़बड़ाये जा रही थी -"ऐसा कैसे हो सकता है मैंने अपनी आँखों से देखा था मेरा यकीन करें। "
प्रिंसिपल बाहर जाते ही उन्हें डांटने लगी -" क्या बैर है आप को उससे...हर वक़्त उस पर दोषारोपण ही करती रहती हैं और आज तो आपने हद ही कर दी। " भगवान के दया से उस दिन मैं बच गई लेकिन गुस्सा बहुत आ रहा था। मैंने उनकी बेटी से पूछ ही लिया - "क्या दुश्मनी है तुम्हारी माँ को मुझसे क्युँ हर वक़्त वो मेरे पीछे पड़ी रहती है ?" मेरी बात सुनते ही स्वर्णा रो पड़ी फिर जब उसने अपनी और अपनी माँ की सारी आपबीती बताई तो हम सब स्तब्ध रह गये। चार सालो से मैं उसके साथ थी मगर इस हकीकत से अनजान थी। उसने बताया कि - " मेरी माँ को मेरे पापा सालो पहले छोड़ कर कही चले गए है...नहीं पता कहाँ है जिन्दा है या मर गये है...माँ बड़ी मुश्किल से हम पांच भाई बहनो की परवरिश कर रही है...नौकरी भी तो स्थाई नहीं हुई है अभी...ये सारी परिस्थितियां झेलते-झेलते वो चिड़चिड़ी हो गयी हैं और अक्सर एक ही बात और एक ही व्यक्यि के पीछे पड़ जाती है...जब भी कोई थोड़ा सा गलती करते दीखता है या कोई उन्हें गलत ढहरता है तो वो उस व्यक्ति के पीछे ही पड़ जाती है और अपने आप को सही साबित करने में लग जाती है...तुम उन्ही व्यक्तियों में से एक हो बस, कामिनी तुम ऐसा समझो मेरी माँ मानसिक रूप से बीमार है- कहते कहते वो रोने लगी।
स्वर्णा की सारी बाते सुन मुझे उर्मिला दी से सहानभूति हो गई ,उनके लिए दिल में इज्जत बढ़ गई और अपने किये पर पछतवा भी होने लगा। हमारे समय में प्रीबोर्ड के बाद स्कूल से छुट्टी मिल जाती थी सो हमारा स्कूल आना जाना बंद हो गया और उर्मिला दी से मुलाकात भी नहीं हुई। लेकिन खबर मिली कि - उनके पति की मौत की सुचना आई है। बोर्ड का परीक्षाफल आने पर मैं उर्मिला दी के घर जब मिठाई का डब्बा लेकर गई तो देखा -उर्मिला दी सफेद साडी में बड़े ही शांत मुद्रा में बैठी थी ,मैंने उनके पैर छुये और डब्बा उनकी तरफ बढ़ा दिया ,उन्हेने मेरे सर पर अपना हाथ रखा और एक टुकड़ा मिठाई लेकर खा ली। मैंने कान पकड़ कर कहा -" सॉरी दी ,मैंने स्कूल में आप को बहुत परेशान किया है न...मैं उन सारी गलतियों के लिए आप से क्षमा चाहती हूँ...मुझे माफ़ कर दे। उन्होंने बड़े शांत भाव से मुझे गले लगते हुए बोली -कोई बात नहीं बच्चे...वो तो आप का बचपना है। फिर मैं एक-एक करके अपनी सारी शरारते बताती गई और उसे सुन उर्मिला दी हंसती रही। मैंने इससे पहले कभी उन्हें इस तरह खुलके हँसते नहीं देखा था। मैंने स्वर्णा से पूछा - " ये तबदीली कैसे हुई?" उसने कहा -"जब से पापा की मौत की खबर आई है न माँ बदल सी गई है...बिलकुल शांत हो गई है..चिड़चिड़ाना और गुस्सा करना तो भूल ही गई है...नौकरी भी स्थाई हो गई है न...अब सब ठीक है कामिनी। "
उस वक़्त मेरा बालमन उन सभी बातों की गहराइयों को अच्छे से नहीं समझ पाया था ,खासतौर पर ये बात कि " पति के मरने के बाद वो शांत कैसे हो गई " जब बड़ी हुई तो समझ पाई कि जीते जी पति से दुरी और उसमे भी ये पता नहीं हो कि वो कहाँ है जिन्दा हैं या मर गया ऐसी अवस्था तो जीते जी वो अग्निचिता है जो औरत को मरता नहीं है बल्कि धीरे-धीरे सुलगाता है लेकिन जब पति चिता के हवाले हो जाता है तो सब्र आ जाता है। यकीनन उर्मिला दी का यही दुःख था।
मेरी हर गलती की स्वीकारोक्ति [ Confession ] के बाद उर्मिला दी मुझसे इतनी प्रभावित हो गई कि मुझे हद से ज्यादा प्यार करने लगी , उनसे एक घरेलू संबंध सा हो गया ,यहां तक कि जब मैं बड़ी हो गई तो मेरे लिए अपने बेटे का रिश्ता लेके आ गई। हमारे में जन्मपत्री मिलान को बहुत महत्व देते है और उनके बेटे से मेरी जन्मपत्री नही मिली। सो रिश्ता तो नहीं हुआ पर उनका प्यार मेरे लिए कभी कम नहीं हुआ। वो मेरी शादी में भी आई ,जब वो मेरे पति से मिली तो उनके यही शब्द थे -"ये मेरी सबसे प्रिये छात्रा है...वैसे तो इसने मुझे बहुत तंग किया है लेकिन इसमें एक सबसे बड़ी खूबी हैं- ये दिल की बहुत अच्छी और सच्ची है...आप इसके जुबान पर मत जाइएगा। " मेरे पति आज भी उनकी बातों को याद करते हैं। मेरे घर के हर उत्सव में वी शामिल रही। हमेशा उनके दिल से मेरे लिए दुआ ही निकली।
आज वो इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी बेटी आज भी मेरी दोस्त है। उर्मिला दी की यादें अब भी मेरे साथ हैं ,उनका प्यार ,उनका आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ बना रहा। उन्होंने मुझे जीवन की सबसे बड़ी सीख दी कि -" इंसान को उसके ऊपरी व्यवहार से मत जाँचो, क्युँकि इंसान का ऊपरी व्यवहार तो परिस्थितियों का गुलाम होता है ,उसकी अंदरूनी खूबसूरती को जानने ,पहचानने और समझने की कोशिश करो। " सच ,गुरु हर रूप में ज्ञान ही दे जाते हैं ,तभी तो कहते हैं -
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु , गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्मा ,तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
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