"विश्व जल दिवस" 22 मार्च पर कुछ विशेष....
हमारा देश "भारत" अनेकों नदियों एवं पर्वतों की भूमि है।कहते हैं ये सात महानदियों से घिरा था इसीलिए इसे सप्तसिंधु भी कहते थे। कुछ नदियाँ तो आज भी विश्व की महान नदियों के रूप में प्रसिद्ध है। भारत के लोगों के धार्मिक,सांस्कृतिक और आध्यत्मिक जीवन में इन नदियों के विशिष्ट महत्व को आज भी किसी न किसी परम्पराओं के रूप में देखा जा सकता है। ये कहना गलत नहीं होगा कि-नदियाँ हमारे भारत की हृदय ही नहीं बल्कि आत्मा है।
नदी ही नहीं यहाँ तो अनगिनत प्राकृतिक झरनों, झीलों और तालाबो की भी भरमार थी। कई राजाओं, महराजाओं और परोपकारी प्रवृत्ति के धन्ना सेठों ने अनगिनत कूपों और बावड़ियों का निर्माण भी करवाया था। जिससे बारहों मास ठंडा और मीठा पानी ग्रामीणों को आसानी से उपलब्ध होता रहता था। लेकिन वक्त के साथ हमारी लापरवाहियों ने हमारे देश की उन सभी प्राकृतिक धरोहरों का सत्यानाश कर दिया है। अपने ही हाथों अपने नदियों- तालाबों को हमने प्रदुषित कर दिया है, अपने कूपों और बावड़ियों को कचरों से भर दिया है और अब एक-एक बूंद पानी को तरस रहे हैं।
"जल है तो जीवन है" ये सिर्फ एक सद-वाक्य बनकर रह गया है। दुर्भाग्य यह है कि जल संरक्षण के नारे तो लगाए जाते हैं और इससे जुड़े दिवस विशेष पर भी बड़ी-बड़ी बातें कही सुनी जाती है पर असल में इस पर व्यवहारिक रूप से कोई सही कदम उठाने वालों की संख्या अभी भी नगण्य है। इन जलस्त्रोतों के संरक्षण को लेकर सरकारी कार्यवाही क्या हो रही है ये तो बाद की बात है, यहाँ तो अधिकांश स्थानीय लोग ही उसकी दुर्दशा करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
सर्वे बताती है कि-रुद्रप्रयाग नगर के गुलाबराय क्षेत्र में कई सौ वर्ष पुराना जलस्त्रोत पूरी तरह सूख गया है। इससे स्थानीय लोगों मायूस है। इसका मीठा जल पूरे क्षेत्र के लोग दूर-दूर से आकर ले जाते थे। पेयजल किल्लत होने पर भी गुलाबराय एवं भाणाधार वार्ड के लोगों को इस जलस्त्रोत से पानी की आपूर्ति हो जाती थी। लेकिन अब ये पूरी तरह सूख गया है। ग्रामीणों का आरोप है कि रैंतोली-बाईपास के पास निर्माणाधीन सुरंग के चलते गुलाबराय का यह पुराना और महत्वपूर्ण जल धारा सूख गया है।नगर के अधिकांश लोग इसको पुनर्जीवित करने की मांग कर रहे हैं।
अब तो उत्तराखंड के पहाड़ों पर भी इसका असर दिखना शुरू हो चुका है। गर्मी आते ही पौड़ी में भी पानी की किल्लत होने लगी है इसके चलते अब वहाँ के ग्रामीण प्राकृतिक जल स्रोत को संरक्षित करने में जुट गए हैं। ऐसे में प्राकृतिक जलस्रोत स्थानीय लोगों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं होते हैं। हालांकि ग्रामीणों को भी प्राकृतिक जलस्रोत की याद गर्मियों में ही आती है, जब उन्हें पानी की दिक्कत का सामना करना पड़ता है। पौड़ी के कल्जीखाल ब्लॉक के डांगी गांव के लोगों ने खुद ही सामूहिक प्रयासों से जलस्रोतों की साफ-सफाई का जिम्मा उठाया है। डांगी गांव के लोगों ने करीब 100 साल पुराने प्राकृतिक जलस्रोत की साफ-सफाई की, इसके साथ ही पानी के रिसाव को रोकने के लिए चिकनी मिट्टी का लेप लगाकर स्रोत को संरक्षित भी किया।जोकि एक सराहनीय प्रयास है,और क्षेत्र के लोगों को भी इससे सीख लेनी चाहिए।
बीते एक दशक में पौड़ी गढ़वाल के प्राकृतिक जल स्रोतों के सूखने के चलते पेयजल संकट की जो तस्वीर उभर कर सामने आई है, वो चिंतनीय है। हर साल इन स्रोतों का पानी कम ही होता जा रहा है। इसके साथ ही पहाड़ों से और भी कई पानी की धाराएं निकला करती थी, जो आज विलुप्त हो चुकी हैं।
इधर राजस्थान जहाँ पानी की कीमत क्या है ये बताने की आवश्यकता नहीं। वहाँ यदि जलस्रोतों के साथ खिलवाड़ हो या उसके प्रति वहाँ के लोग लापरवाह और असंवेदनशील हो तो क्या कह सकते हैं ? सर्वे बताती है कि-कोटा रोड पर 100 वर्ष से अधिक पुराना मोती कुआं है, जिसके चारों और गंदगी के अंबार लगा हुआ है। लोगों ने बताया कि प्रशासन की अनदेखी से यहाँ गंदगी जमा रहती है।क्या इसके लिए सिर्फ प्रशासन ही जिम्मेदार है ?
इसी तरह,बताते है कि वही पर बस स्टैंड के पास भी एक प्राचीन कुआं है, इसकी सफाई हुए वर्षों बीत गए। कस्बे के बुजुर्ग लोग बताते हैं कि "सन 1956 के अकाल में जहाँ चारों और पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई थी,तब भी इन कुओं में भरपूर पानी था।" प्रशासन इन कुओं की सफाई करवा दे तो इनका पानी पीने के काम आ सकता है। प्राचीन जलस्स्रोतों की बिगड़ी दुर्दशा पर लोगों में रोष तो है मगर उसकी दुर्दशा सुधारने के लिए कोई प्रयत्नशील नहीं है। वैसे ही मध्य्प्रदेश के इटावा क्षेत्र में करीब 800 कुएं, बावड़ियां हैं। मालियों की बाड़ी में 500 वर्ष पुराना प्राचीन कुआं है, जो अब जर्जर होता जा रहा है।
सम्पूर्ण भारत में ऐसे अगिनत प्राचीन जलस्स्रोतों है जो आज लुप्त होने के कगार पर है। यदि आज भी इनकी सार संभाल की जाए तो पेयजल की समस्या का समाधान हो सकता है।प्रशासन की अनदेखी तो है ही मगर स्थानीय लोगों की लापरवाही ज्यादा है। नदी,तालाब और कुओं में ही हम कचरा डालने लगेंगे तो पीने के पानी की किल्ल्त तो होगी ही। आवश्यकता है जागरूक होकर अपनी इन अनमोल धरोहरों को सहेजने की। वरना,सामने कुआ होगा और हम प्यासे ही मर जायेगें।