बुधवार, 22 मार्च 2023

"सूखने लगे है प्राकृतिक जलस्रोत"

"विश्व जल दिवस" 22 मार्च पर कुछ विशेष....

     हमारा देश "भारत" अनेकों नदियों एवं पर्वतों की भूमि है।कहते हैं ये सात महानदियों से घिरा था इसीलिए इसे सप्तसिंधु भी कहते थे। कुछ नदियाँ तो आज भी विश्व की महान नदियों के रूप में प्रसिद्ध है। भारत के लोगों के  धार्मिक,सांस्कृतिक और आध्यत्मिक जीवन में इन नदियों के विशिष्ट महत्व को आज भी किसी न किसी परम्पराओं के रूप में देखा जा सकता है। ये कहना गलत नहीं होगा कि-नदियाँ हमारे भारत की हृदय  ही नहीं बल्कि आत्मा है।

    नदी ही नहीं यहाँ तो अनगिनत प्राकृतिक झरनों, झीलों और तालाबो की भी भरमार थी। कई राजाओं, महराजाओं और परोपकारी प्रवृत्ति के धन्ना सेठों ने अनगिनत कूपों और बावड़ियों  का निर्माण भी करवाया था। जिससे बारहों मास ठंडा और मीठा पानी ग्रामीणों को आसानी से उपलब्ध होता रहता था। लेकिन वक्त के साथ हमारी लापरवाहियों ने हमारे देश की उन सभी प्राकृतिक धरोहरों का सत्यानाश कर दिया है। अपने ही हाथों अपने नदियों- तालाबों को हमने प्रदुषित कर दिया है, अपने कूपों और  बावड़ियों को कचरों से भर दिया है और अब एक-एक बूंद पानी को तरस रहे हैं।

     "जल है तो जीवन है" ये सिर्फ एक सद-वाक्य बनकर रह गया है।  दुर्भाग्य यह है कि जल संरक्षण के नारे तो लगाए जाते हैं और इससे जुड़े दिवस विशेष पर भी बड़ी-बड़ी बातें कही सुनी जाती है पर असल में इस पर व्यवहारिक रूप से कोई सही कदम उठाने वालों की संख्या अभी भी नगण्य है। इन जलस्त्रोतों  के संरक्षण को लेकर सरकारी कार्यवाही क्या हो रही है ये तो बाद की बात है, यहाँ तो अधिकांश स्थानीय लोग ही उसकी दुर्दशा करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।

     सर्वे बताती है कि-रुद्रप्रयाग नगर के गुलाबराय क्षेत्र में कई सौ वर्ष पुराना जलस्त्रोत पूरी तरह सूख गया है। इससे स्थानीय लोगों मायूस है। इसका मीठा जल पूरे क्षेत्र के लोग दूर-दूर से आकर ले जाते थे। पेयजल किल्लत होने पर भी गुलाबराय एवं  भाणाधार वार्ड के लोगों को इस जलस्त्रोत से पानी की आपूर्ति हो जाती थी। लेकिन अब  ये पूरी तरह सूख गया है। ग्रामीणों का आरोप है कि रैंतोली-बाईपास के पास निर्माणाधीन सुरंग के चलते गुलाबराय का यह पुराना और महत्वपूर्ण जल धारा सूख गया है।नगर के अधिकांश लोग इसको पुनर्जीवित करने की मांग कर रहे हैं।  

    अब तो उत्तराखंड के पहाड़ों पर भी इसका असर दिखना शुरू हो चुका है। गर्मी आते ही पौड़ी में भी पानी की किल्लत होने लगी है इसके चलते अब वहाँ के ग्रामीण प्राकृतिक जल स्रोत को संरक्षित करने में जुट गए हैं। ऐसे में प्राकृतिक जलस्रोत स्थानीय लोगों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं होते हैं। हालांकि ग्रामीणों को भी प्राकृतिक जलस्रोत की याद गर्मियों में ही आती है, जब उन्हें पानी की दिक्कत का सामना करना पड़ता है। पौड़ी के कल्जीखाल ब्लॉक के डांगी गांव के लोगों ने खुद ही सामूहिक प्रयासों से जलस्रोतों की साफ-सफाई का जिम्मा उठाया है। डांगी गांव के लोगों ने करीब 100 साल पुराने प्राकृतिक जलस्रोत की साफ-सफाई की, इसके साथ ही पानी के रिसाव को रोकने के लिए चिकनी मिट्टी का लेप लगाकर स्रोत को संरक्षित भी किया।जोकि एक सराहनीय प्रयास है,और क्षेत्र के लोगों को भी इससे सीख लेनी चाहिए।  

    बीते एक दशक में पौड़ी गढ़वाल के प्राकृतिक जल स्रोतों के सूखने के चलते पेयजल संकट की जो तस्वीर उभर कर सामने आई है, वो चिंतनीय है। हर साल इन स्रोतों का पानी कम ही होता जा रहा है। इसके साथ ही पहाड़ों से और भी कई पानी की धाराएं निकला करती थी, जो आज विलुप्त हो चुकी हैं। 

    इधर राजस्थान जहाँ पानी की कीमत क्या है ये बताने की आवश्यकता नहीं। वहाँ यदि जलस्रोतों के साथ खिलवाड़ हो या उसके प्रति वहाँ के लोग लापरवाह और असंवेदनशील हो तो क्या कह सकते हैं ? सर्वे बताती है कि-कोटा रोड पर 100 वर्ष से अधिक पुराना मोती कुआं है, जिसके चारों और गंदगी के अंबार लगा हुआ है। लोगों ने बताया कि प्रशासन की अनदेखी से यहाँ गंदगी जमा रहती है।क्या इसके लिए सिर्फ प्रशासन ही जिम्मेदार है ?

     इसी तरह,बताते है कि वही पर बस स्टैंड के पास भी एक प्राचीन कुआं है, इसकी सफाई हुए वर्षों बीत गए। कस्बे के बुजुर्ग लोग बताते हैं कि "सन 1956 के अकाल में जहाँ चारों और पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई थी,तब भी इन कुओं में भरपूर पानी था।" प्रशासन इन कुओं की सफाई करवा दे तो इनका पानी पीने के काम आ सकता है। प्राचीन जलस्स्रोतों की बिगड़ी दुर्दशा पर लोगों में रोष तो है मगर उसकी दुर्दशा सुधारने के लिए कोई प्रयत्नशील नहीं है। वैसे ही मध्य्प्रदेश के इटावा क्षेत्र में करीब 800 कुएं, बावड़ियां हैं। मालियों की बाड़ी में 500 वर्ष पुराना प्राचीन कुआं है, जो अब जर्जर होता जा रहा है।

     सम्पूर्ण भारत में ऐसे अगिनत प्राचीन जलस्स्रोतों है जो आज लुप्त होने के कगार पर है। यदि आज भी इनकी सार संभाल की जाए तो पेयजल की समस्या का समाधान हो सकता है।प्रशासन की अनदेखी तो है ही मगर स्थानीय लोगों की लापरवाही ज्यादा है। नदी,तालाब और कुओं में ही हम कचरा डालने लगेंगे तो पीने के पानी की किल्ल्त तो होगी ही। आवश्यकता है जागरूक होकर अपनी इन अनमोल धरोहरों को सहेजने की। वरना,सामने कुआ होगा और हम प्यासे ही मर जायेगें।  



 

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

"तू मेरी माँ थी या मैं तेरी माँ"


हम सभी से विदा लेने से पांच महीने पहले ऐसी थी मेरी  माँ...... बहुत बीमार थी फिर भी चेहरे पर वही तेज था।


 मेरी माँ से मेरा रिश्ता कुछ अजीब था.....वो तो मुझे ही अपनी माँ मानती थी....पता नहीं, पूर्वजन्म में विश्वास वजह था या मेरा उसका जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना। अक्सर बीमार रहा करती थी वो और दस साल की उम्र से ही मैं उसकी सेवा करती रही। सेवा करते-करते कब वो मेरी माँ से मेरी बेटी बनी हम दोनों नहीं जान पाए। मैं अक्सर उससे ये सवाल किया करती थी....आज, वो मुझे छोड़कर बहुत दूर जा चुकी है कभी ना लौटने के लिए। 

अब किससे पूँछु तो सहेज लिया...शब्दों। 

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तू मेरी माँ थी या मैं तेरी माँ 

था रहस्य ये क्या 

अब तो, बतला दें माँ 

 

तुमने जन्म दिया था मुझको 

फिर क्यूँ ,कहती थी तू मुझको माँ 

पालन किया था तुमने  मेरा 

या मैंने संभाला था, तुझको माँ 

था रहस्य क्या,अब तो बतला 


हाँ, मैं तो बेटी थी तेरी

 पर,हठ करती तू बन बेटी मेरी 

 छूटा तो तेरा आँचल मुझसे 

फिर क्यूँ, सुनी हो गई मेरी गोद 

है रहस्य ये कैसा, अब तो बोल  


तुममें मैं थी या मुझमें तू 

तुमसे मैं थी या मुझसे तू 

जाना तेरा क्यूँ लगता है,

कर गई मुझको खाली तू 

बन्धन था ये कर्मो का 

या, बंधे थे दिल से माँ 

ये रहस्य अब तो बतला


जब होती नाराज़ मै तुमसे 

इतरा के कहती तुम 

 छोड़ मुझे कहाँ जाओगी

 मेरी एक आवाज को सुनकर,

दौड़ी-दौड़ी आ जाओगी

क्यूँ था, मुझ पर इतना एतबार 

ये रहस्य  बतला दो माँ 



अब, दे रही मैं तुझको आवाज

क्यूँ,  बन बैठी हो अनजान

नाता मुझसे तोड़ चुकी हो 

या मुझसे तुम हो नाराज़

जा बसी हो कौन नगर तुम 

ढूँढू तुमको कौन से द्वार

 इतना तो बतला दो माँ 


बहुत हठ किया था तुमने मुझसे

अब है मेरी बारी माँ 

आ जाओ तुम पास मेरे
  
या अपनी याद बिसरा दो माँ 

जीवन मेरा उलझा है 

अब तो,ये रहस्य सुलझा दो माँ 

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कुछ प्रश्नों के उत्तर कभी नहीं मिलते....इसके भी नहीं मिलेंगे 
क्योंकि, अब तुम लौट के कहाँ आने वाली हो.....


माँ की पहली पुण्यतिथि पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि 
वो जहाँ कही भी हो परमात्मा उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

प्रकृति संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकती हैं फ़िल्में

 "प्रकृति दर्शन" पत्रिका दिसंबर अंक में प्रकाशित मेरा लेख 

विषय था- फिल्मों में प्रकृति,प्रकृति पर फ़िल्में



शीर्षक -"प्रकृति संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकती हैं फ़िल्में" 

   " प्रकृति" अर्थात वो सृजन जो मानव निर्मित नही है। प्रकृति एक शब्द जिसमे समाहित है सारी भावनाएं....प्रेम-वियोग,राग-अनुराग,रंग-रंगरेज, नृत्य-संगीत,कवि-कल्पना,भोग-योग,बंधन-मोक्ष। प्रकृति जननी है, पोषक है, गुरु है और संहारक भी है। प्रकृति के पाँच तत्व से ही जीव का आस्तित्व होता है और उसी में उसे खो जाना भी होता है। मनुष्य ने जो कुछ भी सीखा वो प्रकृति से ही तो सीखा है। चंचल शीतल हवाओं ने हमें मस्ती सिखाई,कलकल  बहती  नदियों और झरनों की धुन ने हमें  गुनगुनाना सिखाया तो, बादलों की गरज से हमें संगीत मिला। खिलते फूलों से हमने मुस्कुराना सीखा तो पतझड़ से रोना, पेड़ों की छाँव ने हमें शीतल रहना सिखाया तो पर्वतो ने अड़िग रहना।सुबह उगते सूरज में परमात्मा का दर्शन किया तो फूलों में उसी परमात्मा को हँसते हुए देखा।  

  भरत व्यास जी ने एक गीत में कितनी खूबसूरती से इस प्रकृति का बखान किया है कि-

       ये कौन  चित्रकार है  जिसने हरी-हरी वसुंधरा पर नीला-नीला आसमान सजा दिया,चारों दिशाएँ रंग भरी है और फूल-फूल पर श्रृंगार है। सच,जब कभी मैं भी सोचती हूँ तो लगता है कि ये नदी-नाले, पर्वत, निर्झर, वन-उपवन, चंद्रमा-सूर्य, प्रात:-सायं, हवा-पानी, प्रकाश-अंधकार, ऋतुएं ये सभी किस  चित्रकार की कल्पना होगी। इसका सानिध्य पाकर तो प्रत्येक मन कवि और चित्रकार बन जाता। जितने  भी साहित्य, काव्य, नाट्य, वेद-पुराण, उपनिषद् या महाकाव्य रचे गए वह केवल और केवल प्रकृति के सान्निध्य में ही तो रचे गए है।  फिल्म जगत का उदय भी तो किसी कवि और चित्रकार की कल्पना से ही हुआ है तो भला वो प्रकृति से अछूता कैसे रहता। भारतीय फिल्मों का अधिकांश अंश तो प्रकृति के सानिध्य में ही फिल्माये जाते हैं। 

      पुरानी फिल्मों का तो पूरा फिल्मांकन ही प्रकृति की गोद में होता था। कहानी की पृष्ठभूमि तथा उनका नाम भी ज्यादातर  गाँव, खेत खलिहान,और प्रकृति से ही संबंधित होते थे जैसे "दो बीघा जमीन,आया सावन झूम के,बरसात,सावन-भादों,आदि। बाद के फिल्मों में भी और कुछ नहीं  तो कम-से-कम एक गाना तो वादियों में फिल्माया ही जाता था। गीतों में  चाँद-सितारें,फूल-पंक्षी,बाग़-बगीचे,बरखा-बादल, ठंडी हवाओं का जिक्र तो होता ही था। रिमझिम बरसात पर तो अनगिनत गाने फिल्माये गए होंगे। अपने मन और भावनाओं को इन्ही से तो जोड़ प्यार जताया गया है जैसे -ये वादियाँ ये फिजायें बुला रही है तुम्हें, खोया-खोया चाँद नीला आसमां, इन हवाओं में इन फिजाओं में तुमको मेरा प्यार पुकारे, जब चली ठंडी हवा जब उठी काली घटा मुझको ऐ जाने वफ़ा तुम याद आये। प्यार के साथ-साथ उलाहना भी दी गयी - इधर रो रही मेरी आँखें उधर आसमां रो रहा है मुझे करके बरबाद जालिम पशेमान अब हो रहा है,कारे-कारे बादरा जा रे-जा रे बादरा मेरी अटरिया ना शोर मचा आदि। 

      फिल्मों में प्रकृति के गोद में दृश्य तो बहुत फिल्माए गए,उन पर एक से बढ़कर एक अनगिनत खूबसूरत गीत भी लिखे गए मगर, प्राकृतिक संरक्षण पर गिने चुने ही फिल्म बनाये गए है। उनकी भी पटकथा ज्यादातर बस जंगल के बचाव पर ही आधारित है। हाँ, 2018 में एक फिल्म आई थी  "रोबोट 2. 0" उसमे मोबाईल के अत्यधिक यूज से पक्षियों पर मड़राते खतरे की ओर ध्यान  दिलाया  गया है। प्राकृतिक आपदाओं  पर आधारित  फिल्में तो बनती है जिसमे खासतौर पर सूखे और बाढ़ से जूझते किसनों और आमजनों की व्यथा दिखाई गई है जैसे- मदर इंडिया जिसमे सूखा और बाढ़ दोनों का भयावह रूप दिखाया गया है। 2005 की फिल्म "तुम मिले" में भी मुंबई की बारिस का भयानक रूप दिखाया गया है। अभी हाल फिलाहल की फिल्म "कड़वी हवाएँ" जिसकी कहानी दो ज्वलंत मुद्दों पर प्रकाश डालती है-जलवायु परिवर्तन से कही बढ़ता जलस्तर और कही सूखा। फिल्म में एक तरफ सूखाग्रस्त बुंदलखंड की आपदा है तो दूसरी और ओडिशा के तटीय क्षेत्र। लेकिन इस फिल्म के  स्टारकास्ट नामी-गरामी नहीं थे तो वो कम ही दर्शको तक पहुँच सकी। एक फिल्म और आई थी "केदारनाथ" जिसमे सदी के सबसे बड़े प्राकृतिक त्रासदी को फिल्माया गया है। लेकिन इसे भी महज एक प्रेम कहानी के रूप में दिखाया गया है। 

     फ़िल्में समाज का आईना होता है। हाँ,कल और आज में एक बहुत बड़ा अंतर आ गया है पहले के ज़माने की फिल्मों की कहानियों में समाज में जो घटित हो रहा था वो दिखाया जा रहा था मगर अब,जो फिल्मों में दिखाया जा रहा है समाज वैसा ही बनता जा रहा है। मैं फिल्मों की दीवानी हूँ मगर, बेहद अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि - आज समाज में जो भी आराजकता,बेशर्मी,बेहयाई और अपराध बढ़े है उसके लिए फ़िल्मी पटकथा बहुत हद तक जिम्मेदार है। फ़िल्में समाज को बहुत प्रभावित करती रही है और कर भी रही है। इस लिए हर एक विषय पर फ़िल्मी दुनिया की जिम्मेदारी बहुत बड़ी होनी चाहिए। प्रकृति का अपने गीतों में गुणगान करना या प्राकृतिक त्रासदियों को दिखा देने भर से उनकी जिम्मेदारी खत्म नहीं होती।उन्हें  "प्रकृति संरक्षण" को मुख्य विषय बनाना होगा। इस विषय पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में  तो बहुत बनती है मगर कमर्शियल  फ़िल्में नहीं। जैसा कि फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार का भी कहना है -"डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में समाज की सोच में वो बदलाव नहीं ला सकता जितनी सकारात्मक बदलाव व्यावसायिक फ़िल्में ला सकता है।" क्योंकि दर्शको को प्रसिद्धि प्राप्त नायक-नायिकाओं को  देखना और उन्हें सुनना ज्यादा पसंद है। 

    फ़िल्मी दुनिया ने प्रकृति का नजारा दिखा कर उससे लाभ तो बहुत उठाया है मगर मुझे नहीं लगता कि - "प्राकृतिक संरक्षण" के प्रति उसने अपनी जिम्मेदारी जरा सी भी निभाई हो। अक्षय कुमार की फिल्म "टॉयलेट : एक प्रेम कथा" भी एक सच्ची कहानी पर आधारित थी फिर भी, समाज के एक बड़े तबके तक इस घटना को पहुँचाना और स्वच्छता  के प्रति लोगो को जागरूक करने में उसने अहम भूमिका निभाई। व्यवसायिक सिनेमा ऐसा प्रभाव जमा सकता है क्योंकि दर्शक कलाकारों से जुड़ जाते हैं।आज वक़्त की मांग है कि-फ़िल्मी दुनिया अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए "प्राकृतिक संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने के विषय से संबंधित फिल्मों का निर्माण करें।"  जो काम हम लेखक और प्राकृतिक संरक्षण के प्रति समर्पित सेवाभावी लोग सालों की मेहनत के बाद कर पायेगे वो काम ये फ़िल्मी दुनिया वाले कम समय में आसानी से कर सकेंगे। बस उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास भर होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश  ये लोग समाज और पर्यावरण को गंदा करने का ही काम कर रहें है जो बेहद अफसोसजनक है। 

    अथर्ववेद के अनुसार मनुष्य ने प्रकृति से ये शपथ लिया था कि-"तुमसे उतना ही लूंगा जितना तू पुनः हमें दे सके,मैं तेरी जीवनी शक्ति पर कभी प्रहार नहीं करूँगा"हमने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और प्रकृति कुपित हो गई है। फ़िल्मी दुनिया वाले भी बहुत ले चुके हैं अब देने की बारी है।

"दो बीघा जमीन" फिल्म में सलिल चौधरी का लिखा एक गीत -

धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के

मौसम बीता जाए, मौसम बीता जाए

मैं कहूँगी -अब वक़्त बीत रहा है और पर्यावरण के साथ मौसम बदल रहा है संभल सकें तो संभल लें। 



"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...