मंगलवार, 29 मार्च 2022

"माँ या बेटी..."




 

"अरे 11 बज गए" माँ को फोन करना था इंतज़ार कर रही होगी" नीरा अपने आप में ही बड़बड़ाई। किसको कॉल करना है...कितनी बार याद दिलाऊँ माँ, नानी चली गई....इतनी दूर जहाँ से कोई कॉन्टेक्ट नहीं हो सकता....मनु ने नीरा को पीछे से पकड़ते हुए कहा। अरे हाँ,मैं तो भूल ही जा रही हूँ -कहते हुए नीरा ने मुँह फेर लिया शायद, मनु से अपनी आँसुओं को छुपाना चाहती थी। माँ के जाने के बाद नीरा जब तक मायके में थी तब तक तो रश्मो-रिवाज में बिजी थी मगर जब से घर वापस आई थी रोज का यही हाल था। अक्सर दिन के 11 बजे और शाम को 7-8 बजे माँ को फोन करना उसकी दिनचर्या में शामिल था और उस टाइम पर वो अनायास फोन उठा ही लेती। मगर जैसे ही याद आती कि "माँ अब नहीं रही" उसके अंदर कुछ टूटता सा महसूस होने लगता। 

पिछले चार-पाँच महीना का दिनचर्या भी उस पर इस कदर हावी था कि-दिन हो या रात जब भी उसकी आँख लगती "आई माँ "कहते हुए वो उठ बैठती। पति और बेटी ने उसे बहुत हद तक संभाल लिया था...उन दिनों से उसे बाहर निकलने की भी पूरी कोशिश कर रहे थे  मगर, नीरा कैसे भुला पाती उन चार-पाँच महीनों को....जिसका एक-एक पल माँ के इर्द-गिर्द उनकी  सेवा में ही गुजरा था। चार-पाँच महीना क्या वो तो बीते चालीस साल से माँ की सेवा कर रही थी और अचानक एक दिन उसे छुट्टी मिल गई उसे लग रहा था जैसे उसके जीवन में कुछ करने को बचा ही नहीं.... 

मम्मा, अब बाहर आ जाओं  इन सब से चलो, मैं आपका सर सहला देती हूँ सो जाओं थोड़ी देर- मनु ने नीरा को बड़े प्यार से समझाया तो नीरा की ऑंखें फिर भर आई बोली- चालीस साल बेटा, भूलने में वक़्त तो लगेगा न...बेटा मैं  लगभग दस साल की थी.....उन दिनों माँ बहुत बीमार हो गई.....डॉक्टरों ने उन्हें तीन महीने का बेड रेस्ट बता दिया और मैंने  पूरा घर संभाल लिया....ना कभी माँ पुरी तरह ठीक हुईं और ना ही मेरे जीवन से वो तीन महीने कभी ख़त्म हुए....

 नीरा फिर अतीत की गहराईयों में खो गई....शादी के बाद भी वो मायके की जिम्मेदारियों से कहाँ मुक्त हो पाई थी....क्योंकि ससुराल में तो उसे परिवार मिला ही नहीं....इसलिए माँ-पापा ने उसे हमेशा खुद से ही बाँधे रखा और खुद नीरा भी माँ-पापा भाई बहनों की जिम्मेदारियाँ संभालते-सँभालते उनसे ऐसी जुड गई थी कि उससे भी वो बंधन तोडा ना गया। भाई जब तक कुंवारे थे अपने थे...शादी होते ही वो गैर के हो गए। बड़ा भाई तो बिलकुल बीवी के पल्लू से बंध गया...हाँ,छोटा अपनी बीवी से लड़-झगड़कर जुड़े रहने की कोशिश करता रहा और आखिरी वक़्त में भी माँ छोटे वाले भाई के घर ही रही थी। तन-मन दोनों से थक गई थी वो जिम्मेदारियाँ उठाते-उठाते ऊपर से भाभियों के लालझन ने उसे और तोड़ दिया था और फिर.....माँ के जाते ही अचानक से उसे सारी जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल गई, कभी उसको खुद का वज़ूद हल्का लगने लगता और कभी इस खालीपन से वो बेचैन होने लगती।ऐसा नहीं था कि उसके ऊपर अपने घर-परिवार की जिम्मेदारी नहीं थी लेकिन फिर भी उसे लगता जैसे सारा काम खत्म हो गया है....जबकि उसे भी पता था...काम ख़त्म नहीं हुआ है बस....जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ है... 

माँ की जीवन के आखिरी चार-पाँच महीने तो नीरा के लिए बेहद सुखद भी थे और कष्टदायक भी। सुखद इसलिए कि-आखिरी दिनों में उसे माँ की भरपूर सेवा करने का अवसर मिला और कष्टदायक इसलिए कि  माँ की पीड़ा उससे देखी नहीं जाती। जब माँ कुछ खाने की जिद्द करती और वो नहीं दे पाती,जब माँ अपनी शारीरिक पीड़ा से कराह उठती,बिस्तर से उठ कर घूमने की जिद्द करती, नहाने की जिद्द करती तो उसकी और अपनी बेवसी पर नीरा तड़प उठती थी। नीरा के लिए माँ एक-दो साल की छोटी बच्ची बन गई थी...छोटे बच्चें की तरह उसकी मालिस करना,स्पंजिंग करना,डाईपर बदलना,उसे सजाना-संवारना,अपने हाथो से खाना खिलाना, उसका दिल बहलाने के लिए घंटो उससे बातें करना, उसे भजन और गीता का पाठ सुनाना और उसके सारे नखरे उठाना बस...यही उसकी और उसके छोटे भाई की दिनचर्या बन गई थी। हाँ,उसका छोटा भाई भी अपनी बीवी की नाराजगी सहते हुए भी माँ के सेवा में एक बेटी की तरह से लगा था। 

  फिर कहाँ खो गई माँ....मैं जानती हूँ नानी माँ तुम्हारी माँ कम बेटी ज्यादा थी मगर....तुम्हारी एक बेटी मैं भी हूँ...अब मुझ पर ध्यान दो -मनु ने हँसते हुए कहा। नीरा ने मनु को गले लगा लिया वो उससे कहना चाहती थी..."अब तुम्ही तुम हो" मगर...होठ खामोश रहे उसके। उसकी चुप्पी देख मनु ही बोली- अच्छा ये राज तो बताओं नानी तुम्हारी माँ से बेटी कैसे बन गई....वो तो तुम्हारे साथ मुझसे भी ज्यादा नख़रे दिखाती थी....उतना तो मैंने भी तुम्हें तंग नहीं किया जितना उन्होंने किया। नीरा हँस पड़ी उसे माँ की आखिरी दिनों की बातें याद आ गई बोली- पता है बेटा, आखिरी दो महीने तो नानी बिलकुल छोटी बच्ची बन गई थी....हर वक़्त वो मेरा दुपट्टा पकडे रहती थी...अगर थोड़ी देर के लिए भी मैं उससे दूर हो जाती तो "माँ-माँ" चिल्लाने लगती और सबको परेशान कर देती....जब पास आऊँ तो मुझसे नाराज होकर बात नही करती...फिर मुझे उसको घंटों मनाना पड़ता और फिर ना छोड़कर जाने का वादा करना पड़ता...रात को जब सोती तब भी मुझे कसकर पकड़े रहती और पूछती...."सो जाऊँगी तो छोड़ कर जाओंगी तो नहीं" फिर....खुद ही हँसकर कहती -"माँ के साथ भी ऐसा ही किया करती थी" एक पल में मेरी बेटी बन जाती तो दूसरे पल में मेरी माँ....और कभी मुझे पहचानती ही नहीं, मुझसे पूछती- "तुम कौन हो" सबको पहचानती बस मुझे ही भूल जाती.....कभी-कभी तो मुझसे ही पूछती " नीरा कहाँ है मेरी नीरा को बुला दो"  जब मैं कहती- "मैं नीरा हूँ माँ तुम्हारी नीरा"  तो बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में कहती- "पता नहीं  मुझे क्या हुआ है,  तुम तो मेरी कस्तूरी बन गई हो...हर पल मेरे पास होती हो फिर भी मैं तुम्हें ही ढूँढती रहती हूँ"  

    मगर, ऐसा क्यों था माँ....तुम्हारा और उनका रिश्ता मुझे कभी समझ ही नहीं आया- ये कहते हुए मनु के चेहरे पर कुछ अलग ही भाव थे। नीरा ने गहरी साँस लेते हुए कहा- मैं भी कभी नहीं समझ पाई बेटा- सच, मेरा उनका रिश्ता कुछ अजीब ही था.....वो तो मुझे ही अपनी माँ मानती थी....पता नहीं क्यूँ उसको यकीन था कि- मैं उसकी  पिछले जन्म की माँ हूँ....अब पूर्वजन्म में विश्वास वजह था या मेरा उसका जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना वो तो परमात्मा ही जाने...वो अक्सर बीमार रहा करती थी और दस साल की उम्र से ही मैं उसकी सेवा करती रही....सेवा करते-करते कब वो मेरी माँ से मेरी बेटी बनी....हम दोनों नहीं जा पाए...तुमने तो देखा नहीं था न....आखिरी पल में भी उसकी आँखे मुझ पर ही टिकी थी मैं उसके चेहरे को साफकर क्रीम लगा रही थी....तुम्हे तो पता ही है न, नानी को क्रीम से कितना लगाव था...मैं उनसे बोल भी रही थी....चिंता ना करों जाते-जाते भी क्रीम लगाकर ही भेजूँगी और...पता है उसकी आँखे अचानक बड़ी हो गई और घुट्टी-घुट्टी सी आवाज आई "माँ"  मैं बोल भी रही हूँ हाँ,बोलो न और....मैं वहाँ से हाथ धोने चली गई...मामा देख रहा था बोला-माँ चली गई दीदी....और मैं सुन सी खड़ी देखती रह गई...उसने मेरे हाथों में ही प्राण तज दिया था....आखिरी शब्द "माँ" कहते हुए और मैं समझ ही नहीं पाई बेटा कि- मेरी माँ जा रही है- कहते-कहते नीरा फफक पड़ी।  मत रो माँ....नानी कितनी तकलीफ में थी...हम सब उनकी तकलीफ देखकर भगवान से उन्हें ले जाने की ही तो प्रार्थना कर रहें थे...उनका जाना जरूरी हो गया था....मनु नीरा के आँसुओं को पोछते हुए उसके सर को अपनी गोद में रख सहला रही थी....और छोटे बच्चे की तरह समझा भी रही थी...नीरा को लगा जैसे अब वो छोटी बच्ची है और मनु उसकी माँ बन गई है...... 





[चित्र-गूगल से साभार]  



शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

आईं झुम के बसंत....

 

    


   बसंत अर्थात "फुलों का गुच्छा", बसंत, अर्थात  "शिव के पांचवें मुख से निकला एक राग" बसंत जिसके "अधिष्ठाता देवता ही कामदेव" हो, ऐसे ऋतु के क्या कहने।"बसंत" इस शब्द के स्मरण मात्र से ही दिलों में  फुल खिलने लगते हैं...तन-मन प्रफुल्लित हो जाता है....हवाओं में मादकता भर जाती है... यूँ ही नहीं इसे "ऋतुओं का राजा" कहते हैं...

शास्त्रों के अनुसार  इसी ऋतु के पंचमी तिथि को संगीत की देवी सरस्वती का अवतरण हुआ था। अवतरित होते ही देवी ने जैसे ही वीणा के तारों को झंकृत किया संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन  गतिमान होने लगी। वीणा की झंकार से संगीत का जन्म हुआ।

 "सरस्वती" हमारी परम चेतना है। ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका है। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही है। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। वास्तव में सरस्वती का विस्तार ही वसंत है, उन्ही का स्वरूप है– वसंत।  

 ऐसे "ऋतुराज बसंत" का आगमन होने वाला है.... अब प्रकृति अपना  श्रृंगार करेगी.....खेतों में पीली-पीली सरसों अपनी स्वर्णिम छटा बिखेरते हुए लहलहाने लगेगी....बाग-बगीचे रंग-बिरंगी फुलों से भर जाएंगे.... और तितलियाँ उन फुलों से रंगों को चुराने लगेगी....गेहूं की बालियां खिलने लगेगी....पेड़ों पर नई कोंपले आने लगेगी....आम की डालियों पर  आईं मंजीरियों (बौर) से वातावरण मादक होने लगेगा....कोयलिया गाने लगेगी....पपीहा पी-पी कर अपने प्रियतम को पुकारने लगेगी.....बसंती वयार अपनी पूरी मादकता लिए झुमने लगेगी और सर्दी को अलविदा कहेंगी।

क्या सचमुच ऐसा होगा?

आज से बीस साल पहले तक यही नजारा दृश्यमान होता था अब भी होगा तो जरूर...भले ही आधे अधूरे स्वरुप में हो ।प्रकृति अपना कर्म नहीं छोड़ेंगी,भले ही अब हम इसका आनंद उठाए या ना उठाए। उठाएंगे भी कैसे? हमने तो प्रकृति का रूप ही नहीं अपने जीने के ढंग को भी बिगाड़ने में कोई कसर जो नहीं छोड़ी है। प्रकृति तो एक माँ की भाँति हमारे सभी गुनाहों को माफ़ कर पुरी कोशिश कर रही है कि अब भी वो हमें ऐसा वातावरण दे सकें जिसमें हम खुशहाल जीवन जी सकें।

 लेकिन अब वो मनोरम दृश्य कहाँ ?

अब तो बस कवियों की कविताओं में ही बसंत आता है और कब चुपके से चला जाता है पता ही नहीं चलता....

मुझे आज भी बचपन के वो दिन याद आ ही जाती है।जब बसंत पंचमी के दिन हर घर और स्कूल में सरस्वती पूजा का आयोजन होता था।( ये त्यौहार विषेशकर बिहार और बंगाल में ज्यादा मनाया जाता है) हम पीले रंग के फ्रॉक में इतराते धूमते-फिरते थे। मेरी मां भी पीली साड़ी पहनती थी।हम ही क्या सारे लड़के-लड़कियाँ और औरतें सभी पीले वस्त्र ही पहनते थे। ऐसा लगता था जैसे सरसों के फूलों ने हमें सँवार दिया हो। उस दिन हमारी खुशी और उत्साह का ठिकाना नहीं होता... होता भी क्यों नहीं... गर्म कपड़ों से मुक्ति जो मिली होती थी। ये अलग बात है कि रात होते ही फिर गर्म कपड़े पहनने ही होते थे। लेकिन ये उम्मीद पकी होती थी कि अब सर्दी जाने वाली है....

कहने का मतलब मौसम में निश्चितता होती थी। आज तो एक दिन में ही मौसम कई बार रंग बदलते हैं। कहना पड़ता है कि-"मौसम आदमी की तरह रंग बदल रहा है" क्योंकि आदमियों ने इसे अपने रंग में जो रंग लिया है...हमें  अपने आप पर शर्म आनी चाहिए, अब भी वक्त है.. 

आईए हम सब मिलकर फिर से प्रकृति का संरक्षण करें और फिर से बसंत के वो दिन वापस लाए। हमारे छोटे-छोटे प्रयासों से ये संभव है। माँ सरस्वती कुपित हो रही है हम पर... आईए हम अपनी माँ के आँचल को फिर से रंग-बिरंगे रंगों से सराबोर कर दे और खुद भी उल्लासित होकर कहें-

आईं झुम के बसंत….

झुमो संग-संग में

आज रंग लो दिलों को

इक रंग में 

आप सभी को बसंत पंचमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं



रविवार, 30 जनवरी 2022

"गीता ज्ञान"-सत्य और असत्य

दो-चार दिन पहले सम्पूर्ण गीता को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वैसे तो कौन नहीं जानता कि गीता का मुख्य सार है- आत्मा अजर-अमर, अविनाशी है तो मृत्यु का शोक कैसा, मृत्यु आत्मा के नये वस्त्र बदलने की प्रक्रिया मात्र है और दूसरा निष्काम कर्मयोगी बनो अर्थात कर्म करो फल की चिंता नहीं करो।

प्रत्येक व्यक्ति अर्थात आत्मा बचपन से ही ये ज्ञान सुन रहा है या यूं कहें कि कई जन्मों से सुन रहा है फिर भी इसे आत्मसात नहीं कर पाता। फिर  क्या मरणासन्न स्थिति में गीता का ज्ञान सुन कर किसी को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अर्थात किसी को जीवन का ज्ञान मिल सकता है ?

पहले कर्म की बातें करते हैं- कर्म कर फल की इच्छा ना करना ये कैसे स्वीकार कर लें कोई? छोटी से छोटी बात में भी प्रतिफल की इच्छा तो होती ही है न? यदि हम किसी से मुस्कुरा कर बात भी करते हैं तो हमारी यही कामना होती है कि सामने वाला भी हम से उतना ही प्यार से बातें करें। बाकी कर्मों का तो हिसाब ही छोड़ दें। अपने दैनिक जीवन पर नजर डालें तो पाएंगे कि- कर्मफल पाने की चाह तो हमें बचपन से ही सिखाया जाता है।

अब आत्मा की बात करें तो,जो शरीर सारा दुःख सुख,हर्ष और पीड़ा झेलता है सारे रिश्ते नाते निभाता है उसे एक अदृश्य आत्मा कैसे मान लें? जबकि सारा जीवन हमें शरीर को ही स्वस्थ और सुंदर बनाने शिक्षा दी जाती है, आत्मा को कैसे स्वस्थ और सुंदर बनाए ये तो कभी सिखाया ही नहीं गया। रिश्ते नाते को तोड़ मोह भंग कैसे कर पाएंगे जबकि सारा जीवन इन्हीं बंधनों में बांधे रखा गया हो।

 मरणासन्न अवस्था में आकर भी जब  किसी व्यक्ति के प्राण नहीं निकलते अर्थात उसको देह त्याग करने में पीड़ा होती है तो पंडित जन कहते हैं कि- गीता का पाठ करवा दो मुक्ति मिल जाएगी। 

कैसे? इस बात पर वो ये र्तक देते हैं कि-ज्ञान सुनने से मोह का त्याग होगा और मोह त्यागने से मुक्ति।

समस्त जीवन जिस पाठ का "क ख ग" भी नहीं जाना क्या, आखरी पलों में इस मुल ज्ञान को हम समझ भी पायेंगे, आत्मसात करने की बात तो दूर है ?

सारी उम्र जिस शरीर के सुन्दरता और इससे जुड़े रिश्ते नातों में उलझे रहे क्या एक पल में उसे अदृश्य आत्मा मान मोह भंग कर पाना सम्भव है? 

 जीवन पर्यन्त जिन कर्मों का वहिखाता खोलें रखा एक पल में उसे बंद कर पाना आसान है क्या?

मेरी समझ से तो बिल्कुल नहीं। ये एक असत्य सत्य है जो ना जाने कितने युगों से हमारी मन मस्तिष्क पर हावी है।

तो फिर, गीता का हमारे जीवन में महत्व क्या है?

क्यों इसे एक महान ग्रंथ का दर्जा मिला है?

हमने अपने बुजुर्गो को हमेशा ये कहते सुना होगा कि- गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। तो फिर क्यों, उन्होंने इस जीवन जीने की कला को ना ही खुद अपनाया ना हमें ही सिखाया ? क्यों जीवन के आखिरी क्षणों में ही इस ज्ञान को सुनने का कर्मकांड बनाया गया। क्यों इतने महान ग्रंथ को सिर्फ अदालत में शपथ लेने के लिए ही उपयोग में लाया गया

  क्या इसके सुत्र (इक्वेशन) इतना मुश्किल था जिसे आम जीवन में अपनाना सम्भव नहीं था ?

 सम्पूर्ण गीता को सुनने के बाद मेरी बुद्धि विवेक तो यही कहती है कि- इस ज्ञान को आत्मसात करने से सरल कुछ है ही नहीं बशर्ते इसकी शिक्षा हमें बचपन से दी गई होती।

एक बार गीता के प्रमुख सुत्रो पर विचार करते हैं- 

१.मै एक आत्मा हूं जो अमर है, शरीर हमारा वस्त्र है जिसका एक निश्चित समय पर नष्ट हो जाना तय है।

"आत्मा का मतलब क्या है- आत्मा यानि वह शक्ति जो सोचती है निर्णय लेती है,कर्म करती है।ये शरीर इन कर्मों को करने का माध्यम है।"

इस एक बात को मानने से हमें गुरेज क्यों होता है। जबकि हमारे सामने अनेकों उदाहरण आ जाते हैं जहां ये सिद्ध होता रहता है कि एक ही आत्मा कई रूपों में आती है। हममें से हर एक ने ये अनुभव भी किया होगा कि घर का सदस्य मरणोपरांत किसी ना किसी रूप में उसी घर में जन्म लेकर आता है। ये सारी बातें सब मानते हैं अनुभव भी करते हैं मगर ना जाने क्यों आत्मसात करने से कतराते हैं? अब यदि इसे आत्मसात कर लिया तो जन्म मरण के भय से मुक्ति मिल जाएगी। अब तो विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि- आत्मा जैसी कोई शक्ति है।

२.सुत्र- कर्म करो फल की चिंता नहीं करो।

कितना सरल है इसे समझना,यदि हम अच्छे कर्म करते हैं तो उसके फल के बारे में क्या सोचना क्योंकि अच्छे कर्म वही करता है जिसे प्रतिफल की आशा ही नहीं होती। अच्छाई सिर्फ़ देना जानती उसे पाने की आस ही नहीं होती।

चिन्ता सिर्फ़ बुरे कर्मों की करनी चाहिए। अच्छाई को चिंता करने की जरूरत ही नहीं।

 ३.प्रमुख सुत्र- जो हुआ वो सही हुआ जो होगा सही होगा।

आप जैसा करोगे वैसा ही तो पाओगे। फिर इसमें क्या सोचना? ये तो प्रकृति का नियम है कर्मों के हिसाब से ही परिणाम होता है तो जो हुआ सही हुआ।

४.सुत्र- मनुष्य का प्रथम धर्म है स्वयं को जानना।

मगर, हमें बाहरी दुनिया में ही खोये रहना पसंद है खुद को जानने का कभी प्रयास ही नहीं करते। यदि स्वयं को जान लिया तो कुछ जानने के लिए बचा ही नहीं।

ऐसे ही गीता में अनेक ऐसे सुत्र है जहां काम,क्रोध,लोभ, मोह जैसी प्रवृतियों पर कैसे अंकुश लगाएं ये समझाया गया है। गीता के सभी सुत्र आपको अज्ञानता के अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाएगा। इसके एक एक सुत्र अर्थात इक्वेशन को जीवन में अपनाने की कला यदि बचपन से ही हमें सिखाई जाती तो जीवन इतना दुष्कर ना होता।एक सफल जीवन के निर्माण करने में गीता का ज्ञान अहम भूमिका निभाता है इसमें तो कोई संशय था ही नहीं फिर क्यों इसे सिर्फ एक धर्म ग्रंथ बना कर रखा गया?

"मेरी समझ से गीता का मूल सार बस यही है कि- आप की सोच आप के व्यक्तित्व का निर्माण करती है और आप का व्यक्तित्व आपको कर्म करने की प्ररेणा देता है और आप का कर्म आपके भाग्य का निर्माण करता है।"

गीता को विश्व की सबसे महान ग्रंथ का दर्जा मिला है। इसके जैसी पुस्तक ना पहले लिखा गया ना ही आगे लिखें जाने की संभावना ही है।इस पुस्तक में दिए गए सुत्र (इक्वेशन) किसी खास जाति,देश या प्रदेश पर लागू नहीं होता विश्व के समस्त मानव जाति पर लागू होता है।

मुझे बहुत दुःख होता है कि जीवन जीने की कला सीखाने वाली इस ग्रंथ को एक खास तबके ने अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु जनमानस से दूर रखा और भ्रमित भी किया कि मरणासन्न पर सुन लो मोक्ष की प्राप्ति होगी। गीता के ज्ञान को तो हर घर में बचपन से ही सिखाने समझाने और आत्मसात कराने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ जैसे रटे रटाए प्रार्थना के साथ हमें ईश्वर पुजन की विधि सिखाईं गई और सही मायने में ईश्वर क्या है, कौन है उनसे कैसे जुड़े, उनसे अपना सम्बन्ध कैसे बनाएं जो हर पल वो हमारे सुख दुःख में काम आ सकें।ये नहीं बताया गया वैसे ही गीता को भी सिर्फ एक धार्मिक और पुजनीय पुस्तक बताया गया ये कहा गया - "बहुत गूढ़ विषय है इसे आम जीवन में अपनाना  मुश्किल है।"  जबकि इसके एक एक सुत्र व्यक्त्तिव निर्माण की प्रक्रिया सिखाती है जीवन जीने की कला सिखाती है । इसके सुत्रो को जीवन में अपना कर जीवन सुखमय भी बनाया जा सकता है इस सत्य से हमेशा दूर रखा गया।

पांच हजार साल से भी ज्यादा वक्त बीत गया हैं लेकिन गीता के उपदेश आज भी हमारे जीवन में उतने ही प्रासंगिक है।

मेरे मन में ये प्रश्न उठ रहा है-

पहला प्रश्न- तो फिर इसे जीवन में अपनाने की कला क्यों नहीं सिखाई गई?

दुसरा प्रश्न-  आज भी हम खुद भी इसके ज्ञान को जीवन में धारण कर और अपने बच्चों को भी इसकी शिक्षा क्या नहीं दे सकते ?






"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...