शुक्रवार, 26 जून 2020

पत्र-" दिल की जुबां "


" पत्र दिल की जुबां होती हैं। " पत्र लिखते वक़्त हम अपने दिल के काफी करीब होते हैं ठीक वैसे ही जैसे जब हम प्यार में होते है तो अपने दिल के इतने करीब होते है कि उसकी  धड़कनों को भी सुन सकते हैं और वो धक- धक किसी के पास होने का एहसास कराकर आँखों को स्वतः ही नम कर जाती हैं। अर्थात दिल के आस पास होने से दर्द में भी आनंद की अनुभूति होती है। स्मृतियाँ भी मधुर इसीलिए बन जाती है कि -दिल की सतह पर विचारों की तरंगे टकराकर सिहरन पैदा कर देती है। सचमुच ,दिल के दहलीज़ पर ही इंसान एहसास की जिंदगी जीता हैं और अपने से रूठे हुए या औरो से रूठे हुए दिलों को भी विचारों की थपकियों से मनाता हैं और पुनः उन तारों को दुरुस्त करता हैं जो झंकार के समय टूट गए थे या ढीले पड़ गए थे। 
   जब हम अपने प्रिय के साथ बिताये हुए उन मधुर पलों को याद  करते हैं तो हमारी सांसे कुछ पल के लिए थम सी जाती है और इसका प्रभाव दिल की धड़कनों पर भी सहज और स्वभाविक रूप से पड़ता हैं। फिर जब हम दिल को संतावना देते हैं तो सांसे स्वतः चलित हो जाती हैं।हमारी साँसे भी हमारी संवेदनाओं से झंकृत होती रहती हैं। 
   पत्र लिखते वक़्त भी कुछ ऐसी ही अनुभूति होती हैं वो अपना जिसे हम पत्र लिख रहें होते है वो सामने बैठा सा महसूस होता है। पत्र का विषय अगर खुशियों से भरा हो तो कलम उन शब्दों को पन्नो पर उकेरता है और मन उस पल को उस अपने के साथ जीने लगता हैं। उस वक़्त वो  कल्पनाओं की दुनिया इतनी हसीन हो जाती हैं कि -यथार्थ और कल्पना में फर्क ही नहीं रह जाता। वैसे ही उस अपने को अपनी विरह व्यथा लिखते वक़्त हम उसके कंधे को अपने करीब पाते हैं  जिस पर सर रख कर हम  रोना चाहते हैं,और कही अगर हमारे  दुःख से भरे  आँसू की एक बूँद भी कागज पर टपक पड़ी तो हम से हजारों मील दूर बैठे उस प्रिय का दामन हमारे  आँसुओं से भींग जाता हैं।अगर हमें  उस अपने को उलाहना देना हैं ,रंज जताना है ,नाराजगी या क्रोध जताना हैं तो एक एक शब्दों को लिखते वक़्त हमें ये एहसास और शुकुन भी हो जाता हैं कि -हमने अपना गुस्सा निकल लिया,हमने अपना दुःख जता दिया और हमारे प्रिय ने हमें समझ भी लिया। 
   पत्र लिखते वक़्त के एहसासों से इतर वो लम्हा होता है जब वो बंद लिफाफा किसी तक पहुँचता है।हृदय की बेचैनी के कारण  धड़कने उस पल भी बढ़ी होती हैं। हाथ में वो लिफाफ पकड़ते ही मन सेकड़ो ख्याल बुनने लगते हैं " क्या लिखा होगा,कैसे लिखा होगा ,मेरे  प्रिय ने अपने दिल के जज्बातों को ?पत्र पढ़ते वक़्त उन दो दिलों के एहसास एक अनदेखे तार से स्वतः ही जुड़ जाते हैं।  
   " चिठ्ठी " हमारे  एहसासों का पुलिंदा होता था जिसमें हम हमारे दिल के छोटे- छोटे,सुख -दुःख ,विरह -वेदना का भाव समेट लेते थे।हम उसे सालो सहेज कर भी रखते थे। वो एहसास आज के जमाने के "वीडियो- कॉलिंग" में भी नहीं। उस " चिठ्ठी "के दौर में दूर होकर भी पास होने का एहसास करती थी "चिठ्ठी" और आज पास होकर भी यानि आवाज सुनकर और सूरत देखकर भी दिल में दुरी बढ़ती जा रही हैं। 

शनिवार, 23 मई 2020

" अगर मैं कहूँ "


" तू कहे तो तेरे ही कदम के मैं निशानों पे चलूँ रुक इशारे पे "

   तुम्हारे क़दमों का अनुसरण करते हुए.....तुम्हारे पीछे- पीछे हमेशा से चलती रही हूँ....चलती  रहूंगी आखिरी साँस तक..... बिना कोई सवाल किये.....बिना किसी शिकायत के .....रास्ते चाहें पथरीले हो या तपती रेगिस्तान के...। तुम्हे तो मुझे आवाज़ देने की भी जरूरत नहीं पड़ती....ना ही पीछे मुड़कर देखने की .....क्योँकि तुम्हे इस बात का यकीन हैं कि -" मेरे पास कोई और दूसरी राह तो हैं नहीं.... जाऊँगी कहाँ.....तुम्हारे पीछे ही मुझे आना हैं....खुद को तुम्हे समर्पित जो कर चुकी हूँ.....मैं तो सदियों से यही करती आ रही हूँ....करती भी रहूंगी.....। "

     मगर,  आज ना जाने क्युँ तुमसे कुछ सवाल करने का दिल कर रहा हैं ...मुझे संदेह भी हैं कि-  क्या तुम मेरे सवालों का जबाब दे पाओगें ?  संदेह होने के वावजूद एक बार तुमसे पूछना तो जरुरी हैं न.....अगर मैं कहूँ कि
" क्या तुम भी कभी मेरे लिए ये कर सकोगे ....क्या हमेशा आगे चलने वाले "तुम" कभी मेरे  पीछे भी चल सकोगे....क्या तुम मेरे पदचिन्हो का अनुसरण कर सकोगे ....मैं हर पल तुम्हारी परछाई बन तुम्हारे पीछे रही हूँ.....क्या तुम कभी मेरी परछाई बन पाओगे ....? "  तुम्हारा  "अहम" तुम्हे करने देगा  मेरा अनुसरण....  हमेशा से तुम मुझे मंदबुद्धि समझते आये हो.....हमेशा तुम्हे ये लगा कि - मुझे ही तुम्हारे सहारे की जरूरत हैं....जबकि सहारा मैं तुम्हे देती हूँ...तुम्हारे पीछे- पीछे चल....मैं तुम्हे गिरने से बचाने की कोशिश करती रही हूँ .....
   तुम्हे लगता हैं कि -" तुम मेरा भरण पोषण करते हो जबकि इसमें आधी भागीदारी मेरी भी होती हैं...तुम्हे  लगता हैं तुम मुझे संभालते हो.....जबकि दुनिया भर की थकान को दूर करने के लिए तुम्हे मेरे आँचल के पनाह की जरूरत होती हैं.....मानती हूँ तुम अपने आँसू छुपा लेते हो.....मुझमे वो क्षमता नहीं....मेरे आँसू पलकों पर झलक आते हैं.....फिर भी बिना तुम्हारे कहे ही.....मैं तुम्हरे दर्द को अपने सीने में महसूस करती हूँ और तुम्हारे दर्द पर अपने स्नेह का मरहम लगाकर तुम्हारे होठो पर हँसी लाने की कोशिश करती हूँ...।
    बस पूछना चाहती हूँ - "क्या मैं कभी तुमसे आगे जाना चहुँ तो तुम मेरे पीछे-पीछे आ सकते हो...यकीन मानो आगे बढ़कर भी मैं तुम्हारी  राहो के कांटो को चुनकर, तुम्हारी राह को निष्कंटक ही करुँगी....बस,आगे बढ़ते हुए कभी जो "मैं "   डगमगाऊं तो क्या तुम मुझे संभाल लोगे....आगे-आगे चलने का ताना तो ना दोगें.....?

शुक्रवार, 22 मई 2020

" श्रमवीर "



 " अपनी मेहनत " या यूँ कहे कि -" अपनी मानवीय शक्ति " को बेचकर धन अर्जित करने वालो को " मजदुर या श्रमिक"  कहते हैं। धनवान धन लगता हैं ,बुद्धिमान बुद्धि,  मगर यदि श्रमिक अपना श्रम  प्रदान ना करे तो संसार में कोई भी सृजन असम्भव हैं।ये श्रमिक हमारे समाज के वो अभिन्न अंग हैं जिनके बिना ये बुद्धिजीवी और लक्ष्मीपुत्र  एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। फिर भी, इन श्रमिकों का  सबसे ज्यादा निरादर ये वर्ग ही करता  रहा हैं। निरादर ही नहीं शोषण करता रहा हैं।
   अब तक समाजशास्त्र में ये सब पढ़ा था, छोटी -मोटी  घटनाएं भी देखी  थी मगर इन दो महीनों में जो कुछ देखा- सुना वो कल्पना से परे हैं। जिनके बलबूते आपने इतनी बड़ी- बड़ी इमारते खड़ी कर ली ,कितने कल -कारखानों के निर्माण में इनके श्रम को आपने चूस लिया ,   बिषम परिस्थितियों के आने पर इन मेहनतकशों को  क्या  आप  दो जून की  रोटी भी नहीं खिला सकते थे ?  अगर ये उद्योगपति अपना- अपना फ़र्ज़ निभाते और इन मजदूरों को अपने कारोबार का अभिन्न हिस्सा समझते , वो इस बात का एक बार भी मनन करते कि -"कल को फिर से  इनकी जरूरत हमें पड़ेगी ही , इसलिए हमें इनके हितो की रक्षा करनी ही चाहिए " तो शायद ये श्रमिक सरकार के द्वारा व्यवस्थित सेवा के द्वारा,  अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए सुरक्षित अपने घर तक जा सकते थे और परिस्थिति बदलने पर ख़ुशी ख़ुशी अपने मालिक के पास वापस आ जाते।
 
    मगर जिनके सर पर  छत भी ना हो और पेट की अग्नि जिन्हे जला रही हो उन्हें  तपते रास्ते पर नगें पाँव चलना, रेल की पटरियों को अपना बिछावन बनाना, रास्ते पर दिए गए दान स्वरूप मिले चंद दानों से अपनी क्षुद्धा की अग्नि को शांत करना,  यकीनन  ज्यादा सहज लगा। हाँ,  ये अलग बात हैं कि -उनके इस हाल को देख मानवता कही मुँह दिखने लायक नहीं रही, अपने  सृजनकर्ताओ  के ऐसे अपमान पर प्रकृति और ज्यादा कुपित हुई पड़ी हैं ,तभी तो कही भूकंप ,कही शैलाव के रूप में अपना क्रोध बरपा रही हैं।

   वो तो  श्रमवीर हैं ,कर्मवीर हैं ,जिनकी हड्डियां धुप में तपी हैं, उन्हें कौन डरा सकता हैं ,जो झूठे आश्वासनों के  शब्दजालो के  बंधन को कई बार तोड़ चुके हैं, उन्हें कौन बाँध सकता हैं ,वो तो निकल पड़े हैं ,बे-खौफ अपनी मंज़िल की ओर ,रास्ते में किसी साथी की मौत की कीमत भी वो बड़ी हिम्मत से चुका देंगे और सीने में उसके बिछड़ने का ग़म  लिए बाकी बचे अपने प्यारों को ले, फिर आगे बढ़ जायेगे। क्योँकि प्रकृति ने उन्हें और कुछ दिया हो या ना दिया हो लेकिन सब्र करना ,मेहनत करने की क्षमता और हिम्मत बेहिसाब दे रखा हैं। अगर कही किसी रोज ऐसा हो गया कि -प्रकृति ने उन्हें ,ये दृढ़निश्चय  भी दे दिया कि - "भूख से मर जायेगे मगर अपनी जन्मभूमि का साथ ना छोड़ेगे और इन महानगरों की ओर जहां मानव भी  पथ्थर के होते हैं वहां पलायन नहीं करेंगे फिर क्या होगा ? " ये श्रमवीर  तो जैसे- तैसे अपना गुजरा कर लेंगे , जो कि उन्हें अच्छी तरह  आता है ,  मगर इन उद्योगपतियों का क्या होगा?
   इतना तो तय है  कि - ये भूख ,ये अपमान ,ये चोट ,ये दर्दनाक सफर हर एक मुसाफिर की  कई पुश्तें भुलाये नहीं भूल पायेगी। अगर किसी ईमानदार इतिहासकार की आत्मा जाग उठी और उसने इन " श्रमवीरों " के साथ हुए इस अमानवीयता को उनके इस दर्दनाक सफर की व्यथा -कथा को यथार्थ रूप में अंकित कर दिया तो इन   बुद्धिजीवियों  और लक्ष्मीपुत्रों  की  कई पुश्तों  के माथे पर कलंक का ऐसा कालिख लगेगा जो आसानी से नहीं धुलेगा।  हम  पूरी तरह से सरकार को दोषी करार नहीं दे सकते , जितना  सरकार दोषी हैं उनसे कही ज्यादा वो उद्योगपति  दोषी हैं जो अपने साथ काम कर रहे कामगारों पर थोड़ी सी दयाभाव भी नहीं दिखा सकें।  बड़े-   बड़े मालिकों की बात छोड़े , क्या मध्यमवर्गी और उच्च मध्यमवर्गी भी  अपने घरों  में काम करने वाली  बाई , चौकीदार ,सफाई कर्मचारी तक पर भी दयाभाव दिखा पा रहे हैं? अगर हाँ ,तो उनमे मानवीयता जिन्दा हैं और उन्हें शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं।
  आज  इन सब हालातों  को देखते हुए , मेरे भीतर भी बहुत ग्लानि होती हैं - " हम निम्न मध्यमवर्गी लोग आज के हालात में खुद को ही नहीं संभाल पा रहे हैं तो इनकी क्या मदद करेंगे और कैसे करेंगे ?बस उनके प्रति एक संवेदना भर दिखाकर चंद पंक्तियां  लिख देते हैं।  मजदुर तो हम निम्न मध्यमवर्गी भी हैं मगर फर्क ये हैं कि- हम कागज कलम लेकर बड़े हुए हैं और उसी से अपना गुजारा करते हैं। यदि हम एक मजदुर साथी को  एक वक़्त का भोजन भी करा सकें,  तो शायद हम खुद को क्षमा कर सकें।

   

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...