गुरुवार, 10 जून 2021

"मर्जी हमारी..आखिर तन है हमारा...."




      सर्वविदित है,आजकल "आर्युवेद" और "एलोपैथ" में घमासान छिड़ा हुआ है। आज से पहले शायद, ऐसी बहस कभी देखने को नहीं मिली थी। क्योंकि आर्यवेद ने कभी सर उठाया ही नही ,कैसे उठता बेचारा वो अपनों से ही उपेक्षित जो था। उसे तो अछूत समझ सब अलग हो ही गए थे। अब निमित कोई भी बना हो मगर सत्य यही है कि -"आर्युवेद"सर उठा रहा है। अब स्वाभाविक है जो इतने दिनों से मुँह छुपाये फिर रहा था...काबिलियत होते हुए भी नाकाबिल करार दे दिया गया था....वो भी अपनों के द्वारा....वो यदि धीरे-धीरे अँधेरे से निकल घर के बाहर उजाले में आने लगा तो....अचरज तो होगा ही और जिस पडोसी ने घर के अपने ही संतान को घर से बाहर निकाल दिया था और समस्त परिवार पर अखलराज कर रहा था...वो तो तिलमिलायेगा ही। अब बेचारा "आर्युवेद" शिकायत भी किससे करता ?

   लेकिन आज के इस दौर के "कोरोना काल " में आर्युवेद और योग ने अपना महत्व समझा ही दिया है,इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।  "गिलोय" जिसे आर्युवेद की अमृता कहते हैं आज से दस साल पहले एका-दुक्का ही इसका नाम जानते थे आज बच्चा-बच्चा जानता है। यकीनन पचास प्रतिशत घरों में इसका पौधा भी मिल जायेगा। वैसे ही एलोविरा अर्थात "घृत कुमारी" जिसका नाम कभी-कभी दादी के मुख से सुना था मगर देखा नहीं था आज घर-घर में मिल जाएगा। ऐसे कितने ही औषधियों का नाम हम जान चुके हैं। योग से तो युग-युग की दुरी हो गई थी,प्राणायाम किस चिड़िया का नाम है जानते भी नहीं थे, आज अपना रहे हैं । 

    बड़ा दुखद है अपनों को भुलाकर हमने गैरों को अपना लिया। गैरों को अपनाने में कोई बुराई नही ये तो हमारी सहृदयता है, सबको मान-सम्मान देने की हमारी भावनाओं ने ही तो हमें अपनी अलग पहचान दी है। मगर, इसके लिए क्या अपनों को उपेक्षित करना जरूरी था ?बिलकुल नहीं।  200 सालों की गुलामी ने हमसे हमारा बहुत कुछ छीन लिया। ये बात सत्य है कि -अंग्रेज तो चले गए लेकिन उनकी गुलामी से हम कभी आजाद नहीं हुए। उन्होंने हमारी रग-रग में अपनी अपनी संस्कृति और सभ्यता भर दी और उसी में ये एक "एलोपैथ" भी है। 

    मेरा मानना है कि ना कोई सभ्यता-संस्कृति बुरी होती है ना कोई "पैथ" यानि ईलाज का तरीका। बुरे होते हैं  इसका गलत प्रसारण करने वाले या गलत शिक्षा देने वाले या स्वार्थ से बशीभूत हो इसका दुरोपयोग करने वाले और इनसे भी पहले हम खुद...खासतौर पर वे जो पढ़े-लिखे है, अनुभवी है या यूँ कहे  जो खुद को ज्ञानी मानते हैं। जिनके पास बुद्धि-विवेक तो है पर  परखने की शक्ति नहीं....सर्वसामर्थ होते हुए भी जो सही गलत को चुन नहीं पाते। 

    हाँ,बुरा ईलाज का तरीका नहीं है बुरे हो गए है ईलाज करने वाले। बुरे हो गए है हम जिन्हे सब कुछ "इंस्टेंट "चाहिए। ना हममें धीरज बचा है ना सहनशक्ति। जिसका नाजायज फायदा "एलोपैथ" उठता है। क्यों ना उठाये---उसने देखा कि ये लोग तो खुद ही अपनी पद्धति को ठुकरा चुके हैं सिर्फ उनके धीमें  रफ्तार के कारण तो यदि, मैंने भी वही तरीका अपनाया तो मेरी  दुकानदारी भी बंद हो जायेगी...जैसे भी हो तत्काल रोग को ठीक करो और तत्काल ठीक होने का कुछ तो बिपरीत प्रभाव जरूर होगा। साधारण सी सर्दी-जुकाम जिसकी उम्र सिर्फ ढाई दिन की होती है उसके बाद वो खुद ब खुद बिना दवा के ठीक हो जाता है आज वो लाईलाज "कोरोना " का रूप ले लिया है क्यों ? छोटे-छोटे रोगों में भी  एंटीबायोटिक खा-खाकर अनगिनत रोगों को न्यौता दे दिया हमने। 

   आज ये झगड़ा या बहस सिर्फ एलोपैथ या आर्युवेद का नहीं है। ये बहस हमें खुद से करनी होगी हमें क्या चाहिए "इंस्टेंट आराम या सम्पूर्ण रोग विराम " ये हमें तय करना है। 

    "पैथ "कोई भी हो सबकी अपनी एक खास महत्ता है सब अपने आप में परिपूर्ण है। मुश्किल से मुश्किल रोगों को भी नेचुरलपैथ, आर्युवेद और होमियोपैथ से भी ठीक होते देखा गया है। इन पैथो से मुख मोड़ने और एलोपैथ की तरफ आकर्षित होने की खास वजह थी "डॉक्टरों का रवईया " एलोपैथ के डॉक्टर जब तेज़ी से रोगो को दूर करने लगे तो सबका आकर्षित होना लाजमी था। उस वक़्त धीरे-धीरे होमियोपैथ और आर्युवेद के डॉक्टरों के पास मरीजों की संख्या घटने लगी। उस वक़्त ये डॉक्टर भी मरीजों को फंसाये रखने के लिए या यूँ कहे अपनी दुकानदारी चलाने के लिए ईलाज का तरीका कॉम्प्लिकेटेड करते गए। अब यहां इन डॉक्टरों की इस  मानसिकता के पीछे एक और वजह थी "हमारी गलत सोच" -जब हम एलोपैथ से ईलाज करवाते हैं तो डॉक्टर दवा देने के बाद कहता है -"फिर तीसरे दिन आकर दिखवा लेना" रोग ठीक हो या ना हो हम तीसरे दिन उस डॉक्टर के पास दुबारा जरूर जाते हैं  लेकिन जब दूसरे पैथ में ईलाज करवा रहे होते हैं  तो तीन दिन में रोग ना ठीक हो तो डॉक्टर को दोषी करार दे डॉक्टर बदल लेते हैं और यदि ठीक हो जाए तो दुबारा जाकर सलाह लेने की जहमत नहीं उठाते। क्योंकि हमारी नज़र में इन पैथो की महत्ता इतनी ही है। भले ही एलोपैथ ने "इंस्टेंट" एक रोग ठीक कर हमें दूसरे रोग का शिकार बना लिया हो फिर भी हम उस डॉक्टर की तारीफ करते हुए दुबारा उसके पास जायेगे मगर दूसरे पैथ उसी रोग को तीन दिन के वजाय छह दिन में पूर्ण  ठीक कर दे वो भी बिना किसी साईड इफेक्ट के तो भी हम उस डॉक्टर को नाकारा घोषित कर देंते हैं । 

    हमारी इसी मानसिकता ने सभी पैथों के डॉक्टरों को हमें लूटने की खुली छूट दे दी। अब हम जब खुद लूटने को तैयार है तो कोई लूटेगा क्यों नहीं ? हमारी ये भी मानसिकता हो गयी है कि -"अच्छा डॉक्टर वही है जिसकी मोटी फ़ीस है जिसके पास ताम-झाम ज्यादा है।" होमियोपैथ में भी जितने भी डॉक्टरों की मोटी फीस है उनके यहाँ मरीजों की लम्बी लाइन लगी होती है मगर  एक छोटा सा क्लिनिक खोलकर बैठा डॉक्टर कितना भी काबिल  हो उसकी कदर नहीं होती भले ही वो महंगे डॉक्टर से कम पैसों में आपका बेहतर ईलाज कर दे। यहाँ  हम ये बात सिद्ध कर देते हैं कि -"जो दिखता है वही बिकता है"इसिलए आजकल  दिखावे पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। 

  मेरा मानना ये है कि -हम खुद ही समस्याओं को जटिल करते हैं और जब वे हमें जकड़ लेती है तो दोषारोपण भी खुद ही करते हैं और यही करके हमने खुद डॉक्टरों को हमारे साथ गलत करने को मजबूर किया है। "एलोपैथ पद्धति" में शुरू से ये बात स्पष्ट था कि -इसके साइड इफेक्ट होते हैं, सिर्फ एक यही कारण था कि -डॉक्टर हैनीमेन जो खुद एक प्रख्यात एलोपैथ डॉक्टर थे इस पद्धति से संतुष्ट नहीं थे और उनकी इसी असंतुष्टि ने होमियोपैथ को  जन्म दिया था। ये बात जगजाहिर था कि इन दवाओं का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए।

   आज कोई भी पैथ  के डॉक्टर हो सभी रोगी का ईलाज नहीं बिजनेस कर रहे हैं। मुझे "आनंद फिल्म"के दो डॉक्टर्स याद आ रहे हैं एक डॉ.भास्कर बनर्जी जो लोगो के दुःख दर्द से दुखी होते हैं  उसे पूरी तरह ठीक करने का रास्ता ढूढ़ते रहते हैं, जिन्हे रोग नहीं है उन्हें बेवजह दवाईयां नहीं देते, डांटकर भगा देते है, उनके इस व्यवहार के कारण एक काबिल डॉ.होने के बावजूद वो सफल डॉ. नहीं होते  और एक डॉ.प्रकाश जो काबिल भी है और सफल भी क्योंकि उन्होंने रोगियों की मानसिकता पकड़ ली है। उस फिल्म में अच्छी कहानी के साथ-साथ मेडिकल से जुड़ा सत्य भी उजागर हुआ था कि -डॉक्टरी भावुक  होकर नहीं की जा सकती रोगी की मानसिकता भी पहचाननी जरूरी है साथ-ही-साथ डॉक्टरों को मरीजों के जान के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी समझनी जरुरी है,डॉक्टरी सिर्फ पैसे कमाने के लिए भी नहीं है । आज डॉक्टर प्रकाश जैसे डॉक्टरों की ही आवश्यकता है। 

   चाहे ईलाज की पद्धति कोई भी हो डॉक्टरों का सहृदय होना बेहद जरूरी है वो अपना धर्म अगर भली-भाँति निभाए तो हर पैथ में सफल ईलाज संभव है। रोगो के जटिल होने पर एलोपैथ ने अनगिनत बार लोगों की जान बचाई है वही धीमे रफ्तार की कही जाने वाली होमियोपैथ  की दवाओं के इंस्टेंट चमत्कार  को भी मैंने खुद अनुभव किया है। जहाँ तक आर्युवेद की बात है वो तो भारत  की सबसे पुरानी पद्धति है,जिसकी औषधी हमारे घरों में किसी ना किसी रूप में हर वक़्त उपलब्ध रहता है और वो भी इंस्टेंट असर करता है। बस आवश्यकता है हमें अपनी मानसिकता बदलने की। "मर्जी हमारी है ,आखिर तन  हमारा है"

मेरा मानना है-निष्पक्ष होकर रोगों के जटिलता के अनुसार ही हमें किसी भी पैथ का अनुसरण करना चाहिए। 

बुधवार, 2 जून 2021

"जीवन साथी साथ निभाना "



जीवन साथी साथ निभाना 

बीच राह में छोड़ ना जाना 

थामा है जब हाथ हमारा 

अंतिम सफर तक संग में आना 


दुल्हन बनी जिस दिन से  तेरी 

तुम्ही बसे हो नयनन में मेरी 

सुख मिला या दुःख जीवन में 

थामे रही तुम्हें बाँहों में 


रहना था संग हर पल तेरे 

पर कासे  कहूँ ये, किस्मत के फेरे 

समय के इस कठिन डगर पे,

चलना है, दोनों को अभी अकेले 


माना,वक़्त ने दूर किया है  

मिलने से भी  मजबूर किया  है

तन की दुरी सह जाऊँगी  

मन जो टुटा मर जाऊँगी 


दिन वो सुहाना फिर आएगा 

प्यारा हमारा रंग लाएगा 

मन को ना तुम करों मलिन

मिलन गीत गाएंगे फिर मन मीत 


प्यार की बदली फिर छायेगी 

घडी मिलन की फिर आयेगी 

आखियाँ बहुत है, बरसी अब तक 

अब सावन की बुँदे बरसेंगी  


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मंगलवार, 18 मई 2021

"हम सुधरेंगे युग सुधरेगा"



2012-13 में एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमे दिखाया गया था कि-परिवार का हर एक सदस्य अपनी  पीठ पर एक ऑक्सीजन सिलेंडर बांधे हुए है। डाईनिंग टेबल पर खाना खाते हुए  पत्नी पति से कहती है -"आज शाम तक टोनी (उसका बेटा ) का ऑक्सीजन खत्म हो जायेगा ऑर्डर कर देना "पति हाँ में सिर हिलता है और सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं। शाम को घर आते ही बच्चा माँ से सिलेंडर मांगता है। माँ पापा से कहती है -तुमने सिलेंडर आर्डर नहीं किया था क्या,अभी तक नहीं आया ?पति कहता है -ऑफिस के कामों में मैं भूल गया तुम भी तो कर सकती थी। माँ कहती है मेरे पास पैसा नहीं था। फिर दोनों में बेलम-गेम शुरू हो जाता है, बच्चा कहता है अब तो आर्डर कर दो मेरा ऑक्सीजन बस एक घंटे का है। फिर माँ आर्डर करती है, मगर एक घंटे में सिलेंडर नहीं आ पता। ऑक्सीजन खत्म होने के बाद बच्चें की हालत खराब होती जाती है। वो एक-एक साँस मुश्किल से ले पा रहा,जैसे-जैसे वक़्त गुजरता है बच्चें की हालत नाजुक होती जा रही है ,माँ-बाप बच्चें को गोद में लिए खुद भी तड़प रहे,अपनी बेबसी और भूल पर रो रहे हैं ,छोटी बहन बार-बार दौड़ कर  दरवाजे पर जाती है, पिता डिलीवरी वाले को बार-बार फोन कर रहा है। तभी दरवाजे पर घंटी बजती है माँ दौड़ती हुई जाकर दरवाजा खोलती है सिलेंडर वाले से लगभग झपटते हुए सिलेंडर लेती है और उसे बच्चें को लगाती है। लगभग दो मिनट बाद बच्चा थोड़ा नॉर्मल होता है सबकी जान में जान आती है।उस वीडियो के मुताबिक 2025-30 तक पुरे विश्व की हालत यही होगी यदि हम सचेत नहीं हुए तो। 

इस वीडियो को देखने के बाद मैं बहुत सहम गई, कई दिनों तक नींद गायब हो गई। हर वक़्त मन में एक ही सवाल -क्या हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए ये दिन छोड़कर जायेगे ? वैज्ञानिक अपनी तरफ से जरूर हर संभव प्रयासरत होंगे लेकिन क्या हमारी खुद की कोई जिम्मेदारी नही है ? आखिर सब कुछ बिगाड़ने में हमारा भी तो हाथ है। मैंने अपनी तरफ से जो बन पाया करना शुरु कर दिया जैसे, टैरिस गार्डन लगाना,कूड़ा खुद भी नहीं जलाती और पड़ोसियों को भी रोकती,सेहत ठीक करने के बहाने पतिदेव को गाड़ी कम इस्तेमाल करने को कहती,  आदि। कभी-कभी मन में ख्याल भी आता कि -एक मेरे करने से क्या होगा,मगर दूसरे ही पल खुद को समझाती "अपने हिस्से की जिम्मेदारी तो निभाओ " खैर 2014-15 से धीरे-धीरे दिल्ली में प्रदूषण का स्तर किस कदर बढ़ा ये तो जग जाहिर है। गाड़ियों के धुएं, घुल की आँधी,कारखानों की जहरीली गैस ने तो नाक में दम कर ही रखा था ऊपर से खेतो में पराली का जलना तो  एक-एक सांस लेना दुर्लभ कर दिया। 

इतने प्रदूषण के वावजूद जब त्यौहार आते तो दशहरा में रावण जलाने से लेकर दिवाली के पटाखों के बाद घर-घर में दमा के मरीज भर जाते। बुजुर्गों की हालत इतनी दयनीय होती कि -आज के कोरोना-काल की तरह उन्हें घर में कैद हो जाना पड़ता, तब भी मौत की संख्या बढ़ ही जाती। उन्ही बदनसीबों में से एक मेरा भी परिवार था। 2016 के 23 नवम्बर को  प्रदूषण के कारण ही मेरे पापा को साँस लेने में थोड़ी दिक्क्त शुरू हुई। इलाज शुरू हुआ, डॉक्टरों के सारे ड्रामे चलते रहे , 31 जनवरी को कहा गया कि -फेफड़े में एक छोटा धब्बा नज़र आ रहा है शायद कैंसर हो , 28 फरवरी को कैंसर चौथे स्टेज पर पहुंच गया और पापा लाईलाज हो गए और 4 मार्च को हमें छोड़ इस प्रदूषण के दुनिया से बहुत दूर चले गए । 

इस घटना के बाद मेरा परिवार टूट सा गया क्योंकि नवम्बर तक मेरे पापा हट्टे-कट्टे थे,74 साल के उम्र में भी हर रोग से दूर,उनका अचानक जाना हमारा परिवार सह नहीं पा रहा था और बच्चों के लिए तो यकीन करना मुश्किल ही था। उस वक़्त मेरा 5 साल का भतीजा मुझसे सवाल किया "बुआ आप दादा जी को क्यों नहीं बचा पाई आप तो डॉक्टर है न "(मैं होमियोपैथ की डॉक्टर हूँ,बच्चें को मुझ पर बहुत यकीन था) मैंने कहा-नहीं बचा पाई क्योंकि दादाजी को किसी बीमारी ने नहीं मारा बल्कि प्रदूषण ने मारा है। बच्चें ने प्रदूषण पर ढेरों सवाल खड़े कर दिए,मैंने यथासम्भव और उसके समझ के हिसाब से समझाने की कोशिश की। उस उम्र के बच्चें का सबसे गंभीर प्रश्न- क्या हम प्रदूषण को रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकते ? मैंने समझाया क्यों नहीं कर सकते, जरूर कर सकते हैं  सबसे पहले तो दिल्ली के प्रदूषण को रोकने के लिए हम पटाखें जलाना छोड़ सकते हैं, कूड़ा और गंदगी को जलाना छोड़कर हवा प्रदूषित होने से रोक सकते हैं और अपने छत पर छोटा सा गार्डन लगा सकते हैं। 

उस छोटे से बच्चें ने उसी वक़्त संकल्प लिया हम भाई-बहन (कुल मिलाकर सात बच्चें है घर में )आज से पटाखें नहीं जलायेगे और अपने दोस्तों को भी समझायेंगे कि -"पटाखें नहीं जलाओ"साथ ही साथ हम जितना होगा पौधे लगयाएगे। हमारे घर के बच्चों ने झूठी कसम नहीं खाई थी वो दिन है और आज का दिन हमारे घर में पटाखें नहीं जलाये गए। 

ये सारा वृतांत सुनाकर मैं सिर्फ ये कहना चाहती हूँ कि -बड़ी-बड़ी योजनाएं तो अपनी जगह है हम सभी अपने हिस्से की छोटी-छोटी जिम्मेदारी भी निभा ले तो ये बड़ी समस्या भी छोटी हो सकती है। आज अनेको उदाहरण भरे पड़े है जहाँ अपने बलबूते पर ही प्रकृति और पर्यावरण के लिए कई लोग बहुत कुछ कर रहें है। लेकिन हम उनसे प्रेरित ना होकर उन्हें देखते है जो लोग इसके विपरीत काम करते हैं अर्थात पर्यावरण को दूषित करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। उन्हें देख हम कहते हैं कि -सब तो कर रहे हैं एक मेरे ना करने से क्या होगा ?

2020 में जब लॉक डाउन हुआ था तो हम सबने प्रत्यक्ष देखा था कि -प्रकृति ने अपना शुद्धिकरण कैसे किया था। उस परिणाम स्वरूप चंद साँसे हमारी बढ़ गई थी लेकिन हमने इतने बड़े घटनाक्रम से भी कुछ नहीं सीखा और जैसे ही दुःख के दिन बीते हम फिर वही लापरवाही करने लगे। प्रकृति फिर कुपित हुई और इस बार उसने पर्यावरण में नहीं हमारे फेफड़ों में ही साँसे कम कर दी। ये कथन कि -"एक के किये से कुछ नहीं होता " इसे भी गलत साबित कर प्रकृति हमें समझा रही है कि -तुम्हारे घर का एक बंदा ही मौत को लेकर घर में प्रवेश कर रहा है और पूरा का पूरा परिवार "काल के गाल" में चला जा रहा है। 

रामायण में वर्णित एक गिलहरी की कहानी सब जानते हैं कि -रामसेतु पुल बनाने में कैसे उसने अपना छोटा सा ही सही योगदान दिया था। यदि हम वो गिलहरी भी बन जाए और अपने हिस्से का फर्ज निभा ले तो स्थिति बहुत हदतक सुधर सकती है।जैसे कि -घर में पांच व्यक्तियों के लिए पांच गाड़ी रखने को हम अपना स्टेटस सिंबल ना समझ, ये समझे कि -हम जिम्मेदार है हवाओं में जहर घोलने के लिए।गाड़ियों को प्रदूषण रहित रखने की जिम्मेदारी ना निभाना और घुस देकर प्रदूषण फ्री का सर्टिफिकेट ले लेने को अपनी समझदारी ना समझे। हम ये मान ले कि -अपना घर साफकर कूड़ा सड़क के किनारे फेकना सफाई नहीं है। उस कूड़े को सही तरिके से विघटित ना कर कही भी इक्ठाकर जला देना हमारी बेवकूफी है। जहर घुल चुकी हवाओं में त्यौहार के नाम पर या शादी-उत्सव के नाम पर पटाखें जलाकर और जहरीला बनाने को ही खुशियां मनाने की संज्ञा ना दे,बल्कि ये  समझे हम ख़ुशी नहीं अपनी मुसीबत आप बुला रहे हैं। 

ये बातें बहुत छोटी है परन्तु बहुत महत्व रखती है। पहले खुद सुधर जायेगे तभी तो सिस्टम और सरकार पर उँगली उठाने के काबिल रह पाएंगे।दूसरों पर ऊगली उड़ाने से पहले एक ऊँगली अपनी तरफ भी होनी चाहिए। सिर्फ धरना-प्रदर्शन कर, बड़ी-बड़ी बहस में शामिल होकर हम किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। एक आपबीती और याद आ रही है -एक शिक्षिका थी जो समाज सेविका भी थी वो  खुद की बहु को दहेज के लिए प्रताड़ित कर स्कुल के मंच पर ही नहीं बड़ी-बड़ी सभाओं में भी जाकर दहेज प्रथा के खिलाफ भाषणबाजी और नारेबाजी करती थी। हमें ये दोहरा व्यक्तित्व छोड़ना पड़ेगा। वरना कोरोना तो कुछ भी नहीं आगे इससे भी बड़ी विपदा हमारे आगे खड़ी है। ऑक्सीजन लेबल घटाया हमने है बढ़ाना भी हमारा काम है। 

हर समस्या के समाधान का बहुत ही साधारण मंत्र है -"हम सुधरेंगे युग सुधरेगा

                                                                                        हम बदलेंगे युग बदलेगा " 

 



"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...