मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी के साथ पहाड़ी मिट्टी और चट्टानों के कण बहकर आ रहे हैं और जमा हो रहे हैं। ये तलछट पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण और समृद्धि के लिए उत्तरदायी है। लेकिन जब वही नदी मानसून में अत्यधिक बारिश के कारण उफान पर होती है तो वे हमें अपनी दुश्मन नजर आती है। जैसा कि कोसी नदी को बिहार का शोक और ब्रह्मपुत्र और घाघरा नदियों को संबंधित राज्यों का शोक कह कर उन्हें कोसा जाता है। नदियों से बहकर आने वाली पानी की भारी मात्रा को हम अपने अस्तित्व के लिए ख़तरा मानने लगते हैं जबकि, सच ये है कि नदियाँ जो पानी अपने साथ ले आती हैं, वो हमारे लिए असल में वरदान है। पर, बाढ़ को अब बढ़ती मानवीय समृद्धि की राह का रोड़ा मान लिया गया। आखिर क्यों ना माना जाए-हर साल जो बाढ़ के कारण तबाही का भयानक मंजर जो भुगतना पड़ता है।
मानसून आते ही बाढ़ का संकट मडराने लगता है। हो भी क्यों न ,हमारी दिखावटी व्यवस्था जो चरमरा जाती है।अब देखिये उत्तरी बिहार में मानसून की शरुआत होते ही किशनगंज में बाढ़ की स्थिति बननी शुरू हो गई। मानसून पहले भी आता था मगर तब इतना हाय-तौबा नहीं मचता था , पहले इतना जान-माल का नुकसान भी नहीं होता था क्यूँ ? क्योंकि पहले हमारा जो स्वदेशी ज्ञान था, जिसकी मदद से हम समुदायों को बाढ़ के खतरों से बचा भी लिया करते थे और नदियों के उस उपयोगी जल से इंसान के जीवन को और समृद्ध भी किया करते थे। हमारा वो देशी ज्ञान औद्योगीकरण की अंधी दौड़ और ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के लालच में गुम हो गया।
उत्तरी बिहार में आने वाली वार्षिक बाढ़ को लेकर अपने शानदार रिसर्च में डॉक्टर दिनेश मिश्रा ने इस बात की विस्तार से व्याख्या की है कि-कैसे पहले गांवों के लोग नालियों के मुंह खोल देते थे, जिससे नदियों के बाढ़ का पानी तालाबों में भर जाता था और बाढ़ का दौर खत्म होने के बाद भी तालाब में पानी भरा रहता था और बाद में इसी जल का उपयोग कृषि कार्य में होता था। इसी तरह बंगाल प्रेसीडेंसी का बर्दवान ज़िला पूरब का अनाज का टोकरा बना, जिसके पीछे धान की खेती करने वालों की विशुद्ध चतुराई थी। क्योंकि स्थानीय लोगों ने धान की फसल की बुवाई को मानसून की बारिश के साथ सामंजस्य कर लिया था। खेतों में ऐसी व्यवस्था की जाती थी कि बारिश का पानी दूर दूर तक फैल जाए और खेतों में नदी की तलछट जमा हो जाए जिससे खेतों को पोषक तत्व मिल जाता था और मछलियां व अंडे भी मिल जाते थे। जिस साल बहुत ज्यादा बारिश होती थी, तो गांव के लोग ऊंचे इलाकों की ओर चले जाते थे और बाढ़ के पानी में खेतों को डूब जाने देते थे। इससे पानी एक बड़े इलाके में फैल जाता था और जन-धन की कम हानि होती थी।
लेकिन, भारत में बाढ़ से निपटने की इन पारंपरिक व्यवस्थाओं भुला दिया गया। इतना ही नहीं बढ़ती जनसंख्या के कारण पानी से डूब जाने वाले क्षेत्रों में भी शहरी बस्तियां बसने की रफ़्तार तेज़ हो गई इस कारण से भी बाढ़ से होने वाली क्षति का दायरा बढ़ता जा रहा है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में बस्तियां बसने के कारण बाढ़ के पानी के निकलने का रास्ता रुक जाता है इससे बाढ़ का पानी निकल नहीं पाता। हमने बस्तियां बसाने पर तो ज्यादा ध्यान दिया लेकिन पानी की निकासी को अनदेखा कर दिया। बड़े शहरों में आने वाला बाढ़ तो निसंदेह पानी की निकासी की उचित तकनिक ना होने और स्थानीय लोगो की लापरवाही का नतीजा है। एक तो निकासी नहीं और जो है भी उसे कचरे से भर देना। ऐसा नहीं है कि बारिश ज्यादा हो रही है बल्कि जो बरसात का पानी है उसे निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा है। आप अपने आस-पास नजर घुमा लीजिये देखेंगे कि- शहरों में पानी के जमाव का कारण हम स्वयं है।पिछले दो सालों से दिल्ली में आई बाढ़ भी इसी का परिणाम है । उसकी वजह अत्यधिक बारिश नहीं है वरन बारिश के पानी को निकलने की कही जगह नहीं है ।
इस वर्ष भी पहाड़ों ने जो अपना रौद्र रूप दिखाया है वो बड़ा ही डरावना है।इतनी तबाही के वावजूद हम सबक नहीं सीख रहें हैं। पहाड़ों की खुबसूरती को हम कचरे से भर रहें हैं।
शहरा में पानी के जमाव का कारण हम स्वयं है मगर , जिन क्षेत्रों में हर साल अत्यधिक बारिश के कारण नदियाँ उफन जाती है वहाँ पर इस समस्या के आने से पहले पूर्व तैयारी नहीं करना बाढ़ को विभीषिका का रूप दे देता है। जिस कारण वहाँ हर साल जान-माल की अति क्षति होती है। वैसे भी जरूरी नहीं है कि भारी बारिश के कारण ही नदियां उफनती है वरन नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को अवरुद्ध करने वाली बाधा भी नदियों का रौद्ररूप बना देती है। इतना ही नहीं नदी के प्रवाह को कम करने में जो पेड़-पौधे कारगर होते हैं हमने उनका भी सफाया कर दिया है। पेड़-पोधो की कमी के कारण मिट्टी की कटाई और भूसंख्लन होना भी बाढ़ को भयावता को बढ़ाने में सहायक होते हैं ।
अतीत की घटनाओं से हम कभी नहीं सीखते यदि हम पहले से ही सुरक्षा के समुचित कदम उठा ले तो स्थिति बदल सकती है।बाढ़ की त्रासदी को रोकने लिए चंद कारगर कदम उठाना बेहद जरूरी है- पहाड़ों पर अत्यधिक निर्माण कार्य को रोकना, नदी के तेज बहाव का प्रबंधन वैज्ञानिक तरीके से करना,ज्यादा से ज्यादा वनों का विस्तार करना,पानी की निकासी की उचित व्यवस्था करना, निजी क्षेत्रों में आपसी सहयोग से लोगों की मानसिकता में सकारात्मक बदलाव लाना, तथा शहरी लोगों को भी रहन-सहन की आदतों व जीवनशैली में सुधार लाना होगा, तभी बाढ़ से होने वाले नुक़सान को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
बाढ़ को "मौसमी हत्यारा" कहा जाता है। क्योंकि इससे हजारों लोगो को जिंदगियां प्रभावित होती है। कुछ तो बाढ़ की बिभीषिका के बलि चढ़ जाते हैं और कुछ बाढ़ के गुजरने के बाद जिन्दा होते हुए भी मरे से भी बतर जीवन गुजारने को मजबूर होते हैं। क्योंकि बाढ़ के बाद की तबाही का मंजर बहुत भयानक होता है जिसका असर महीनो चलता है।
अत्यधिक वर्षा के कारण नदियों का आकस्मिक उफन जाना, बादल फटना, अत्यधिक गर्मी के कारण ग्लेशियर का पिघलना,इन सभी कारणों से बाढ़ एक प्रकृतिक आपदा तो है मगर इसका भयावह रूप मानव समाज की खुद की गलतियों का परिणाम है। पर्यावरण से की जा रही छेड़छाड़ और उसका अत्यधिक दोहन इसके लिए तो हम ही जिम्मेदार है और इसका समाधान भी हमें ही ढूँढना होगा।