"छाई बरखा बहार पड़े अंगना फुहार....",
"पड़ गए झूले सावन रुत आई रे...."
"पुरवा सुहानी आई रे ऋतुओं की रानी आई रे...."
ऐसे कितने ही अनगिनत गीत है जो आज भी जब सुनाई पड़ते हैं तो मन खुद-ब-खुद झूमने लगता है।
"पीली पीली सरसों फूली
पीले उड़े पतंग
अरे पीली पीली उडी चुनरिया
ओ पीली पगड़ी के संग
गले लगा के दुश्मन को भी
यार बना लो कहे मलंग
आई झूम के बसंत,झूमो संग संग में
आज रंग लो दिलों को एक रंग में
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उपकार फिल्म का ये गाना सुनते ही प्रकृति का वो मनोरम दृश्य आपको खुली आँखों से दिखाई देने लगता है। उदास मन भी झूम उठता है गुनगुनाने लगता है सारे गीले-शिकवे भूल किसी को गले लगाने को मन मचल उठता है। दरअसल ये सिर्फ गीत के बोल नहीं है ये तो हमारे मन के भाव है जो प्रकृति की सुंदरता को देखते ही खुद-ब-खुद उमड़ने लगते हैं। अक्सर हमने महसूस किया है कि -हम कितने भी उदास हो कितनी भी परेशानियों में घिरे हो परन्तु किसी पार्क में या फूलों के बगियाँ में चले जाये,किसी झरने, नदी, ताल-तलईया या समुन्द्र के पास चले जाये, तो मन अथाह सुख के सागर में गोते लगाने लगता है। थोड़ी देर के लिए ही सही हम सारे गम भूल जाते हैं। आप अपने ही छोटे से गमले में लगे छोटी-छोटी फूलों के पास बैठ जाए यकीनन आपको थोड़ी देर के लिए सुकून जरूर मिल जायेगा।
आखिर ऐसा क्यों होता है ?क्या हमने कभी इस बात पर गौर किया है ?
क्यूँ आज भी जबकि पहले जैसी आबो-हवा नहीं रही फिर भी फूलों का खिलना, भवरों का गुनगुनाना,बादलों का उमड़ना,घटाओं का गरजना,बूंदों का बरसना,मदमस्त वयारों का तन को छूकर निकल जाना हमें रोमांचित कर देता है ?क्यूँ पहाड़ों को देख,नदी, झरने को देख हमारा मन कवि बन जाता है ? आज भी क्यूँ कवियों का प्रिय विषय "प्रकृति" ही है? शहर की भीड़-भाड़,गाड़ियों का शोर,शॉपिंग मॉल की चमक-धमक,से ऊब हम छुट्टियां मनाने पहाड़ों पर ही क्यूँ जाते हैं ?
इन सारे "क्यूँ" का एक ही जबाब है कि-हमारा जीवन ही नहीं हमारी खुशियों की शुरुआत भी प्रकृति से ही होती है और अंतिम मोक्ष भी वही मिलता है। मानव और प्रकृति एक दूसरे के पूरक है,एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव ही नहीं। मानव जन्म से मरण तक इसी प्रकृति के गोद में रहता है। प्रकृति हमें माँ की तरह पालती है,बाप की तरह पोषित करती है,एक मित्र की तरह हमें अनंत खुशियाँ देती है और हमारा मनोरंजन भी करती है,मूक प्रकृति मौन रहकर भी पग-पग पर एक गुरु की भाँति हमें ज्ञान भी देती है और अंत समय में अपने आँचल में समेट कर खुद में हमें विलीन भी कर लेती है। तो इससे हमारा अटूट लगाव होना स्वभाविक ही है। इस बात को जानते हुए भी आज हम नासमझ बन बैठे है और इसकी नाकदरी करते रहते हैं। एक बार खुद का मंथन करना बहुत जरूरी है कि-हमारी ख़ुशी क्या है और किससे है ?
"प्रकृति"का मतलब ही होता है "सर्वश्रेष्ठ कृति" ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना।
ईश्वर ने अपने ही स्वरूप को प्रकृति के रूप में सजाया और इसका आनंद उठाने के लिए,इसका उपभोग करने के लिए और इसको संरक्षित करने के लिए सौप दिया अपनी दूसरी श्रेष्ठ कृति "अपने मानस पुत्रो" के हाथों में। हमारी ख़ुशी से लेकर गमी तक में प्रकृति हमारी साथी और साक्षी दोनों बनी रहती है। प्रकृति से ही संगीत उत्पन होता है और प्रकृति की गोद में ही नृत्य का जन्म होता है। प्रकृति हमारी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक,सांस्कृतिक और आध्यत्मिक विकास की कारक बनी है। गौरवशाली परम्परा और अनूठी संस्कृति के देश हमारे भारत में तो प्रचीन काल से ही इसके साक्ष्य मिलते रहें हैं कि-प्रकृति हमारे लिए कितनी पूजनीय है। ऋग्वेद के अनुसार जल,वायु,अग्नि,समुद्र,नदी, वृक्ष ये सभी देवता स्वरूप है और आराधना करने योग्य है। धरती को माँ का स्थान मिला। हमारे तीज-त्योहारों में,पारंपरिक गीतों में आज भी प्रकृति पूजन का महत्व है। पति की लम्बी उम्र के लिए बरगद की पूजा करना,शादी के रस्मों में आम-महुआ का व्याह,मिट्टी और कुआ पूजन की रस्में होती ही है।
परन्तु अफ़सोस ये सब अब सिर्फ दिखावा भर होता है अब हम बस लकीर पीटते हैं। इसके महत्व को हम कब का अनदेखा कर चुके हैं। अब सावन में झूले नहीं पड़ते...अब बसंती वयार अपने अल्हड़पन में नहीं बहती....अब बरखा की रिमझिम बुँदे नहीं बरसती.....अब तो आसमान से आफत बरसती है या आग। अब सावन के महीने में बेटियां अपने बाबुल के घर नहीं जाती.....ना ही सखियों के साथ झूला झूलते हुए गीत गुनगुनाती है। अब सर्दियों की वो मीठी धुप नहीं मिलती.....गर्मियों में आम के बगीचे की ठंढी छाँव नहीं मिलती....कोयल के सुर के साथ बच्चे अपना सुर नहीं मिलाते....बादलों को उमड़ते देख मोरनी का नाच देखना सबको नसीब नहीं है।
ये सारी खुशियाँ अब हम से दूर हो चली है या यूँ कहे कि-भौतिक सुखों की लालसा में हमने खुद ही इससे मुख फेर लिया और आज जीवन में तनाव और डिप्रेशन को जगह दे दिया। अगर सचमुच ये भौतिक सुख हमें ख़ुशी और सुकून देती तो हम इनसे ऊब कर पहाड़ों पर छुट्टियां बिताने नहीं जाते। जो पहाड़ों की गोद में खेले बढे है उन्हें महल कभी रास नहीं आता। वो अपना जन्नत छोड़कर आना कभी नहीं चाहेंगे। क्योंकि असली सुकून वही है।
आज सच पूछे तो हमारे जीवन से "ख़ुशी" शब्द ही खो गया है। अब तो त्योहारों का रूप भी कृत्रिम हो चुका है। कोई भी त्यौहार अब जीवन में क्षणिक खुशियाँ भी लेकर नहीं आती क्योंकि परिवार जो खंडित हो चूका है। हम सिर्फ भौतिक सुखों के मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे हैं। प्रकृति से नाता क्या तोडा ख़ुशी और सच्चे प्यार से भी नाता टूट गया। अब कहाँ है वो प्रेमी मन, जो गुनगुनाता था....
"इन हवाओं में,इन फिज़ाओं में तुझको मेरा प्यार पुकारे"
अब कहाँ किसी प्रेमिका के आने पर प्रेमी फूलों से गुहार करता है कि-
"बहारों फूल बरसाओं मेरा महबूब आया है"
अब तो दिल बस एक ही गीत गुनगुनाता है-"जाने कहाँ गए वो दिन...."
फिर से दिल चाहता है....उन दिनों को देखना जब,फुलवारियों में फूलों के साथ हम झूमा करते थे.....जब,बारिश के पानी में नगधड़ंग बच्चे दौड़ लगते थे....जब आम के बगीचे में बुजुर्गो की चौपाल लगती थी....जब बसंत की बहार में सरसों के पीली-पीली फूलों के बीच दो दिल मिलते थे....जब सावन में झूले पर झूलती हुई सखियाँ एक दूसरे से ठिठोली करती थी....
फिर से दिल चाहता है..... सावन की राह तकते हुए कोई सच्चा प्यार ये कहे -
" तुम्हें गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो....."