मंगलवार, 13 सितंबर 2022

"सत्य ना असत्य"

  

आज मैं आप सभी को एक कहानी सुनाती हूँ। आप भी अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से इसका "अर्थ" निकाल सकते हैं। 

एक बाबा जी थे। लोगों का मानना था कि -बहुत पहुँचे हुए संत है जो कहते हैं सत्य हो जाता है,खासतौर पर संतानहीन माँ-बाप को बच्चों के बारे में जो बताते हैं वो तो बिल्कुल सत्य होता है। बाबा जी भक्तों को उत्तर एक पर्ची पर लिख कर देते थे। अब,जब भी कोई दम्पति आकर पूछता कि-"बाबा जी,मुझे बताये कि-लड़का होगा या लड़की" तो बाबा जी एक पर्ची पर लिख देते "बेटा ना बेटी" लोग अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से या यूँ कहे मनोकामना के हिसाब से अपना उत्तर स्वयं सोच लेते थे। अब,अक्सर तो लोग बेटे की ही कामना कर खुश होते हैं। तो जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती और वो बाबा जी को धन्यवाद देने आते तो बाबा जी भी बड़े शान से छाती चौड़ी करके बोलते -"मैंने कहा था न बेटा,ना बेटी"यानि तुम्हे तो बेटा ही होना था। लोग खुश हो जाते। अब जिन्हे बेटी हो गई  और बेटी तो शायद ही किसी को चाहिए होता है तो वो दुखी होकर बाबा जी के पास आता तो बाबा जी बड़े प्यार से कहते-कोई बात नहीं बच्चें मैंने तो पहले ही कह दिया था कि-"बेटा ना,बेटी" तुम समझे ही नहीं। अब जिन्हे काफी इंतजार के बाद भी कुछ नहीं होता वो बाबा जी के पास शिकयत लेकर आता अपना दुखड़ा रोने लगता कि- बाबा जी मुझे तो ना बेटा हुआ ना बेटी मेरी झोली तो खाली ही रह गई तो बाबा जी सांत्वना भरे शब्दों में रूखे गले से बोलते-"मेरा तो कलेजा फट रहा था तुम्हें ये कहते हुए इसीलिए सांकेतिक रूप से कह दिया था "बेटा ना बेटी" अर्थात अभी तुम्हारे नसीब में कुछ भी नहीं था मेरे बच्चें,तुम्हें अभी प्रतीक्षा करनी होगी। और इस तरह बाबा जी का धंधा बड़े मजे से चलता था नाम,यश और धन किसी चीज की कमी नहीं थी ना आगे भविष्य में ही होनी थी क्योंकि लोगों को क्या चाहिए एक "सांत्वना" और वो उन्हें मिलता रहा उनकी झोली भरे ना भरे बाबा जी की भरती रही। 

 बाबा जी के पर्ची पर लिखे सांकेतिक भाषा को लोगो ने कितना समझा मैं नहीं जानती लेकिन धीरे-धीर इसका चलन जरूर बढ़ता जा रहा है ।  हमारे राजनेता तो पहले से ही इसमें माहिर है। वैसे ये कहना भी अतिशयोक्ति होगी कि-ये सिर्फ राजनेताओं ने ही सीखा है अब तो हम सभी ने भी बड़ी आसानी से बाबा जी की भाषा के साथ तालमेल बिठा लिया है। अब हम भी "ना सत्य बोलते है ना असत्य" समय और जगह के मुताबिक "सत्य ना असत्य" में एक अल्पविराम चिन्ह देकर उसका माने-मतलब बदल देते हैं और अपनी बातों को सिद्ध कर देते हैं।

वैसे देखा जाए तो ये भी एक कला है। आप क्या कहते हैं ???

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

प्रेम और करुणा के पर्याय है "कृष्णा"

 



प्रेम और करुणा के पर्याय है "कृष्णा" जिन्होंने बताया "जिसके हृदय में प्रेम के साथ करुणा का भी वास है सही अर्थ में वही सच्चा धर्माचार्य है, वही सच्चा भक्त है, वही सच्चा प्रेमी है। 

सोलह कला सम्पन्न कृष्ण की यदि हम सिर्फ एक शब्द में व्याख्या करें तो वो है "प्रेम"। "प्रेम" जो उन्होंने अपनी प्रेमिका राधा और अपनी पत्नी रुक्मणि से किया,अपने संगी साथी ग्वाल-बाल और गोपियों से किया। "प्रेम" जो वो यशोदा माँ और नंद बाबा से करते थे,"प्रेम" जो वो अर्जुन,उद्धव और सुदामा से करते थे, "प्रेम" जो वो अपनी बहन सुभद्रा और अपने अग्रज दाऊ से किया करते थे। प्रेम जो वो अपने देश समाज और संस्कृति करते थे जिसके लिए उनका जीवन संघर्षरत रहा। कृष्ण ने हर एक रिश्ते को पूर्ण समर्पण से निभाया। कृष्णा ने संदेश दिया प्रेम हो या भक्ति एक ही बात है दोनों का मूल एक ही है "पूर्ण समर्पण"। इसमें पाने की लालसा नहीं होती देना और सिर्फ देना होता है।कृष्ण ने जिसे मन से अपना माना उसका साथ जीवन भर नहीं छोड़ा। जीवन की प्रत्येक लड़ाई वो रिश्तों के लिए ही लड़े और रिश्तों को साथ लेकर ही जीवन की लड़ाइयाँ भी जीती । उन्होंने समझाया- "रिश्ते हमारे जीवन के आधार है,हमारी सबसे बड़ी धरोहर है इसे सच्चे दिल से निभाओं" और जिस  हृदय में सच्चे प्रेम का वास हो वहाँ करुणा स्वतः ही आ जाती है।

कृष्ण को भगवान ना मानकर यदि सिर्फ एक इंसान मान उनके सम्पूर्ण जीवन पर गौर करें तो अपने जीवन के हर मोड़ पर उनके जीवन से शिक्षा ले सकते हैं। उनका पूरा जीवन ही एक शास्त्र हैं। 

चले बचपन से शुरू करते हैं-

कहते हैं कि -गोकुल वासियों का सारा दूध कंस मथुरा मंगवा लेता था और गोकुल के बच्चों को दूध-दही नसीब नहीं होता था। तो कृष्ण ने हँसी-ठिठोली में ग्वाल-बाल को माखन-मिश्री चुराकर खाना सिखाया,गायों को चराते-चराते उन्हें गायों के स्तन से दूध पीना सिखाया और ये समझाया कि -अपने विवेक-बुद्धि से बिना किसी को हानि पहुँचाये भी अपना भला कर सकते हैं। खेल-खेल में अलग-अलग मुद्राएं बनाकर योग से परिचय करवाना,ये संदेश था कि-अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए बेहतर खान-पान और नियमित योग कितना जरूरी है।जीवन में नृत्य-संगीत का कितना महत्व है ये कृष्ण-लीला के सिवा और कहाँ सिखने को मिल सकता है। 

किशोरावस्था में जब राधा रानी से प्रेम किया तो पूर्ण समर्पण से किया लेकिन सिर्फ अपने प्रेम को पाने की लालसा में कभी अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ा। जरुरत पड़ने पर अपने देश और समाज के लिए एक पल में अपने प्रेम का त्याग भी कर दिया। यहाँ उन्होंने ये सीखा दिया कि-अपने निजी सुख से ऊपर देश और समाज के लिए अपना कर्तव्य है। युवावस्था में अपने अथक प्रयास से ही अपने राज्य द्वारका की स्थापना की। राज-काज मिलने पर अपने सुख और एश्वर्य में डुब नहीं गए बल्कि निकल पड़े सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त अरजकता और अशांति को दूर कर शांति कायम करने।इस कार्य के दौरान मिलने वाले लांक्षन और पीड़ा से भी वो नहीं धबराऐ ।ये कार्य करते हुए उनका एक ही सन्देश था "निष्काम कर्म"।कभी भी उन्हें विश्व विजयी बनने की लालसा नहीं हुई जबकि वो चाहते तो उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं था। ना ही उन्हेने किसी भी अच्छे कर्मो का श्रेय खुद को दिया। किसी भी कार्य को करने से पहले उनका सिर्फ एक उदेश्य होता था मानवमात्र का कल्याण और उस कार्य के बीच अपने लिए मिलने वाले मान-अपमान की कभी परवाह नहीं किया। 

कृष्ण ने अपने जीवन में  "निष्काम कर्म" और "शांति" को सर्वोपरि माना। कृष्ण ने हमें ये समझाया कि-चाहे समाज हो या हमारा खुद का मन जब तक वहाँ शांति नहीं होगी कोई रचनात्मक कार्य हो ही नहीं सकता। शांति और निष्काम कर्म की भावना ही आपने व्यक्तित्व,समाज और देश को उन्नति की ओर ले जा सकता है। जीवन में हमेशा शांति का मार्ग अपनाये साधन का नहीं। कोई भी फैसला बिना सोचे समझे अधीर होकर ना ले क्योंकि आपके हर एक फैसले का असर आपकी भावी पीढ़ी भुगतती है अर्थात अपनी सोच को विस्तार दे। 

कृष्ण जिन्होंने सीखाया विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य को धारण रखें।जिसने भी ऐसा किया वो सबसे बुरी परिस्थिति में भी सबके लिए बेहतर सुअवसर निकल लाता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है -"युद्ध के विभीषिका के बीच गीता का ज्ञान" 

समाज में नारी का सम्मान करना कृष्ण से बेहतर कौन सीखा सकता है। एक नारी के सम्मान के लिए ही वो लड़ते रहें। कृष्ण ने जीवनपर्यन्त ना परिस्थितियों से भागना सीखा और ना ही परिस्थितियों का रोना रोया।उनका सम्पूर्ण जीवन ही सघर्षरत रहा परन्तु कभी भी ना वो रुके ना टूटें। कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन चरित्र सिर्फ इसी सिद्धांत पर चला कि-हम संसार को सिर्फ देने आये है- प्रेम,करुणा,सेवा सहयोग,आदर-सम्मान, आदर्श-संस्कार और ज्ञान। 

कृष्ण मात्र कथाओं में पढ़ा या सुना जाने वाला पात्र नहीं है, ना ही सिर्फ मूर्ति बनाकर पूजे जाने वाले ईश्वर है वो चरित्र और व्यवहार में उतारे जाने वाले देवता है।सिर्फ उनका जन्मोत्सव मनाकर ढोल-नगाड़े बजाकर हम जन्माष्टमी का व्रत नहीं मना सकते। "व्रत" का अर्थ होता है "वरतना" यानि जीवन में एक संकल्प को धारण करना। यदि हम कृष्ण के एक गुण को भी धारण ना कर सकें तो हम सच्चे व्रती नहीं है। 

आईये, इस जन्माष्टमी हम संकल्प लें कि-उनके एक गुण को भी धारण कर समाज के लिए नहीं तो कम से कम अपने परिवार के लिए आदर्श बन जाए। तभी हम सच्चे कृष्ण भक्त कहलायेगें। 

आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें 


गुरुवार, 7 जुलाई 2022

" तुम्हें गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो....."




 "छाई बरखा बहार पड़े अंगना फुहार....", 

"पड़ गए झूले सावन रुत आई रे...."

"पुरवा सुहानी आई रे ऋतुओं की रानी आई रे...." 


ऐसे कितने ही अनगिनत गीत है जो आज भी जब सुनाई पड़ते हैं तो मन खुद-ब-खुद झूमने लगता है। 

"पीली पीली सरसों फूली 

पीले उड़े पतंग 

अरे पीली पीली उडी चुनरिया 

ओ पीली पगड़ी के संग 

गले लगा के दुश्मन को भी 

यार बना लो कहे मलंग 

आई झूम के बसंत,झूमो संग संग में 

आज रंग लो दिलों को एक रंग में 

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उपकार फिल्म का ये गाना सुनते ही  प्रकृति का वो मनोरम दृश्य आपको खुली आँखों से दिखाई देने लगता है। उदास मन भी झूम उठता है गुनगुनाने लगता है सारे गीले-शिकवे भूल किसी को गले लगाने को मन मचल उठता है। दरअसल ये सिर्फ गीत के बोल नहीं है ये तो हमारे मन के भाव है जो प्रकृति की सुंदरता को देखते ही खुद-ब-खुद  उमड़ने लगते हैं। अक्सर हमने महसूस किया है कि -हम कितने भी उदास हो कितनी भी परेशानियों में घिरे हो परन्तु किसी पार्क में या फूलों के बगियाँ में चले जाये,किसी झरने, नदी, ताल-तलईया या समुन्द्र के पास चले जाये, तो मन अथाह सुख के सागर में गोते लगाने लगता है। थोड़ी देर के लिए ही सही हम सारे गम भूल जाते हैं। आप अपने ही छोटे से गमले में लगे छोटी-छोटी फूलों के पास बैठ जाए यकीनन आपको थोड़ी देर के लिए सुकून जरूर मिल जायेगा। 


आखिर ऐसा क्यों होता है ?क्या हमने कभी इस बात पर गौर किया है ?

क्यूँ आज भी जबकि पहले जैसी आबो-हवा नहीं रही फिर भी फूलों का खिलना, भवरों का गुनगुनाना,बादलों का उमड़ना,घटाओं का गरजना,बूंदों का बरसना,मदमस्त वयारों का तन को छूकर निकल जाना हमें रोमांचित कर देता है ?क्यूँ पहाड़ों को देख,नदी, झरने को देख हमारा मन कवि बन जाता है ? आज भी क्यूँ कवियों का प्रिय विषय "प्रकृति" ही है? शहर की भीड़-भाड़,गाड़ियों का शोर,शॉपिंग मॉल की चमक-धमक,से ऊब हम छुट्टियां मनाने पहाड़ों पर ही  क्यूँ जाते हैं ? 

   इन सारे "क्यूँ" का एक ही जबाब है कि-हमारा जीवन ही नहीं हमारी खुशियों की शुरुआत भी प्रकृति से ही होती है और अंतिम मोक्ष भी वही मिलता है। मानव और प्रकृति एक दूसरे के पूरक है,एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव ही नहीं। मानव जन्म से मरण तक इसी प्रकृति के गोद में रहता है। प्रकृति हमें माँ की तरह पालती है,बाप की तरह पोषित करती है,एक मित्र की तरह हमें अनंत खुशियाँ देती है और हमारा मनोरंजन भी करती है,मूक प्रकृति  मौन रहकर भी पग-पग पर एक गुरु की भाँति हमें ज्ञान भी देती है और अंत समय में अपने आँचल में समेट कर खुद में हमें विलीन भी कर लेती है। तो इससे हमारा अटूट लगाव होना स्वभाविक ही है। इस बात को जानते हुए भी आज हम नासमझ बन बैठे है और इसकी नाकदरी करते रहते हैं। एक बार खुद का मंथन करना बहुत जरूरी है कि-हमारी ख़ुशी क्या है और किससे है ?

 "प्रकृति"का मतलब ही होता है "सर्वश्रेष्ठ कृति" ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना। 

ईश्वर ने अपने  ही स्वरूप को  प्रकृति के रूप में सजाया और इसका आनंद उठाने के लिए,इसका उपभोग करने के लिए और इसको संरक्षित करने के लिए सौप  दिया अपनी दूसरी श्रेष्ठ कृति "अपने मानस पुत्रो" के हाथों में। हमारी ख़ुशी से लेकर गमी तक में प्रकृति हमारी साथी और साक्षी दोनों बनी रहती है। प्रकृति से ही संगीत उत्पन होता है और प्रकृति की गोद में ही नृत्य का जन्म होता है। प्रकृति हमारी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक,सांस्कृतिक और आध्यत्मिक विकास की कारक बनी है। गौरवशाली परम्परा और अनूठी संस्कृति के देश हमारे भारत में तो प्रचीन काल से ही इसके साक्ष्य मिलते रहें हैं कि-प्रकृति हमारे लिए कितनी पूजनीय है। ऋग्वेद के अनुसार जल,वायु,अग्नि,समुद्र,नदी, वृक्ष ये सभी देवता स्वरूप है और आराधना करने योग्य है। धरती को माँ का स्थान मिला। हमारे तीज-त्योहारों में,पारंपरिक गीतों में आज भी प्रकृति पूजन का महत्व है। पति की लम्बी उम्र के लिए बरगद की पूजा करना,शादी के रस्मों में आम-महुआ का व्याह,मिट्टी और कुआ पूजन की रस्में होती ही है। 

परन्तु अफ़सोस ये सब अब सिर्फ दिखावा भर होता है अब हम बस लकीर पीटते हैं। इसके महत्व को हम कब का अनदेखा कर चुके हैं। अब सावन में झूले नहीं पड़ते...अब बसंती वयार अपने अल्हड़पन में नहीं बहती....अब बरखा की रिमझिम बुँदे नहीं बरसती.....अब तो आसमान से आफत बरसती है या आग। अब सावन के महीने में बेटियां अपने बाबुल के घर नहीं जाती.....ना ही सखियों के साथ झूला झूलते हुए गीत गुनगुनाती है। अब सर्दियों की वो मीठी धुप नहीं मिलती.....गर्मियों में आम के बगीचे की ठंढी छाँव नहीं मिलती....कोयल के सुर के साथ बच्चे अपना सुर नहीं मिलाते....बादलों को उमड़ते देख मोरनी का नाच देखना सबको नसीब नहीं है। 

ये सारी खुशियाँ अब हम से दूर हो चली है या यूँ कहे कि-भौतिक सुखों की लालसा में हमने खुद ही इससे मुख फेर लिया और आज जीवन में तनाव और डिप्रेशन को जगह दे दिया। अगर सचमुच ये भौतिक सुख हमें ख़ुशी और सुकून देती तो हम इनसे ऊब कर पहाड़ों पर छुट्टियां बिताने नहीं जाते। जो पहाड़ों की गोद में खेले बढे है उन्हें महल कभी रास नहीं आता। वो अपना जन्नत छोड़कर आना कभी नहीं चाहेंगे। क्योंकि असली सुकून वही है। 

आज सच पूछे तो हमारे जीवन से "ख़ुशी" शब्द ही खो गया है। अब तो त्योहारों का रूप भी कृत्रिम हो चुका है। कोई भी त्यौहार अब जीवन में क्षणिक खुशियाँ भी लेकर नहीं आती क्योंकि परिवार जो खंडित हो चूका है। हम सिर्फ भौतिक सुखों के मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे हैं। प्रकृति से नाता क्या तोडा ख़ुशी और सच्चे प्यार से भी नाता टूट गया। अब कहाँ है वो प्रेमी मन, जो गुनगुनाता था.... 

"इन हवाओं में,इन फिज़ाओं में तुझको मेरा प्यार पुकारे"

अब कहाँ किसी प्रेमिका के आने पर प्रेमी फूलों से गुहार करता है कि-

"बहारों फूल बरसाओं मेरा महबूब आया है"

अब तो दिल बस एक ही गीत गुनगुनाता है-"जाने कहाँ गए वो दिन...."

   फिर से दिल चाहता है....उन दिनों को देखना जब,फुलवारियों में फूलों के साथ हम झूमा करते थे.....जब,बारिश के पानी में नगधड़ंग बच्चे दौड़ लगते थे....जब आम के बगीचे में बुजुर्गो की चौपाल लगती थी....जब बसंत की बहार में सरसों के पीली-पीली फूलों के बीच दो दिल मिलते थे....जब सावन में  झूले पर झूलती हुई सखियाँ एक दूसरे से ठिठोली करती थी....

 फिर से दिल चाहता है..... सावन की राह तकते हुए कोई सच्चा प्यार ये कहे -

" तुम्हें गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो....." 









"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...