यारा सिली सिली विरह की आग में जलना।
ये भी कोई जीना हैं , ये भी कोई मरना।
यारा सिली सिली विरह की आग में जलना।
विरह एक ऐसी अग्नि हैं जो विरहन के शरीर को ही नहीं आत्मा तक को धीमी धीमी आँच पर सुलगता रहता हैं। "ना मैं जीवति ना मरियो मैं विरहा मारो रोग रे ,वावरी बोले लोग।" बस यही दशा होती हैं उसकी। जब भी कोई विरह गीत ,कवित ,दोहे या छंद लिखे जाते है तो उनकी मुख्य नायिका राधा ,मीरा ,सीता या यशोधरा आदि ही होती हैं।इन सब ने असीम विरह वेदना सही हैं। पर क्या इन सब की विरह-वेदना एक सी थी। शायद नहीं ,जैसे प्रेम के अलग-अलग रूप और एहसास होते हैं वैसे ही विरह के भी कई रूप होते हैं और उनकी वेदना भी अलग -अलग होती है। वैसे प्रेम और विरह की जो मुलभुत संवेदनाये होती हैं वो तो एक सी ही होता है।