फुर्सत के चंद लम्हे जो मैं खुद के साथ बिता रही हूँ। घर से दूर,काम -धंधे,दोस्त - रिस्तेदारों से दूर,अकेली सिर्फ और सिर्फ मैं। हाँ,आस-पास बाहरी दुनिया है कुछ लड़के - लड़कियां जो मस्ती में डूबे हैं ,कुछ बुजुर्ग जो अपने पोते - पोतियों के साथ खेल रहे हैं ,कुछ और लोग है जो शायद मेरी तरह बेकार है या किसी का इंतज़ार कर रहे हैं । पास से ही एक सड़क गुजर रही है जिस पर गाड़ियों का आना-जाना जारी है। इन सारे शोर-शराबो के वावजूद मुझे बहुत सुकुन महसूस हो रहा है.ना कोई चिंता - फ़िक्र है ना कोई विचार, सिर्फ ख़ामोशी है। ऐसा शायद इसलिए है कि हर वक़्त लोगो में घिरी रहने और काम धंधो में उलझी रहने वाली "मैं" जिसे अकेले वक़्त गुजरने का पहला मौका मिला है। दरअसल,मेरी बेटी ने एक institute ज्वाइन किया है और आज उसके क्लास का पहला दिन है।
अनजान शहर ,अनजान रास्ते हैं तो मुझे उसके साथ आना पड़ा। तीन घंटे की उसकी क्लास है तो मेरी भी तीन घंटे की क्लास लग गई और वक़्त गुजरने के लिए मैं पास के ही एक पार्क में आ बैठी। मैं काफी बातूनी हूँ चुप बैठ ही नहीं सकती तो सोचा क्यूँ न आज खुद से ही बातें कर लूँ। "खुद से बातें "लोग पागल नहीं समझेंगे। तो सोचा कागज कलम का सहारा ले लेती हूँ। मैंने पास बैठे एक लड़के से एक पेपर माँगा पेन तो हर वक़्त मेरे साथ होता ही है और बैठ गई खुद से बात करने।और पढ़े
इस तरह के लम्हें मेरी लाइफ में पहली बार है जब मैं बिलकुल तन्हा हूँ। ये सच है की इंसान तन्हा नहीं जी सकता उसे हर कदम पर किसी साथी ,किसी अपने की जरुरत महसूस होती है। जरुरत नहीं बल्कि यूँ कह सकते हैं कि उसकी ख्वाहिश ही होती है कि हर पल कोई अपना उसके साथ हो। लेकिन आज इस पल मुझे पहली बार महसूस हो रहा है कि कभी-कभी सबसे दूर अकेले,सिर्फ और सिर्फ खुद के साथ भी हमें वक़्त बिताना चाहिए। हम हमेशा ही दुसरों को देखते हैं और दुसरों के नज़र से ही खुद को देखते हैं । कभी-कभी हमें "खुद को" खुद के नज़र से भी देखना चाहिए।" खुद "को महसूस करना चाहिए। सिर्फ अपनी खांमियो या गुणों को नहीं, बल्कि खुद के अंदर झांक कर ये महसूस करना चाहिए कि "मैं कौन हूँ , मैं क्या हूँ ".
मैं यहाँ आध्यात्म की बातें नहीं कर रही। क्योंकि आध्यात्म के रूप में तो "मैं "शब्द बड़ा ही व्यापक और विस्तृत है। इसको जानना, समझना,इसका अवलोकन या व्याख्या करना हम जैसे आम लोगो के लिए कहाँ संभव है। मैं यहाँ उस मैं के बारे में भी नहीं कह रही जहाँ इंसान जब खुद से बातें करता है तो सोचता है कि -"मैंने इसके लिए ये किया...वो किया...मैंने अपनों के लिए कितना दुःख सहा...मैंने सबके लिए कितना त्याग किया..कितने समझौते किये...दुसरों ने मुझे कितना दर्द दिया...मेरा कितना अपमान किया....कितने इल्ज़ाम लगाये। नहीं ,ये कहना भी नहीं चाहती। क्युँकि हमने जो किया वो हमारा फ़र्ज़ था बस। अगर इन बातों का हम अकेले में बैठ कर अवलोकन करेंगे यानि अपने भीतर खुद से इसकी चर्चा-परिचर्चा करेंगे तो उससे खुद के अंदर दर्द पैदा होगा जो तकलीफ देगा या खुद के अंदर गुरुर पैदा होगा जो हमें घमंडी बनाएगा और फिर अगर यही बातें करेंगे तो हम तन्हा कहाँ होंगे ,खुद के साथ कहाँ होंगे। जिन लोगों के बारे में हम सोचेंगे वो हमारे पास ना होते हुए भी हमारे पास होंगे। हमारे भीतर तो उन्ही के गुण-दोष या अपने गुण -दोष वाली बातों की उठा पटक चलती रहेगी। फिर हम अपने साथ कहाँ होंगे। हमें तो ये एकांत के पल बड़े सौभाग्य से मिलते हैं तो क्यों न हम खुद के बारे में सोचे,खुद को जाने ,"मगर कैसे ".
कैसे हम खुद के बारे में जाने।क्युँकि आज तक हम खुद के बारे में भी दुसरों से सुनते आ रहे हैं कोई कहता है- बहुत बुरी है...कोई कहता है चिड़चिड़ी है...गुस्सा करती रहती है....नसीहत करती रहती है....अपने आप को हिटलर समझती है तो...कोई कहता है-बहुत अच्छी है...सुलझी है....निस्वार्थ सबकी मदद करती है...कोई कहता है- तुमसे बात करना बहुत अच्छा लगता है...तुम बहुत अच्छा सलाह देती हो...कोई इन सारी अच्छाइयों का दिखावा करना भी कहता है....कोई कहता है-मीठा बोलती हो तो...कोई कहता है जुबान बड़ी कड़वी है। इन बातों को सोचते हुए विचार आता है कि आखिर "मैं हूँ कैसी "लेकिन आज इन सारी बातों का अवलोकन करने का भी दिल नहीं कर रहा है। क्योंकि एक इंसान हर किसी के लिए अच्छा नहीं हो सकता।हर कोई उसे अपने-अपने नज़रिये से देखता है या यूँ कह सकते हैं कि- जो जैसा होता है दूसरे को उसी नज़र से देखता है या यूँ भी कह सकते हैं कि- हर कोई अपने- अपने फायदे या नुकसान के हिसाब से दूसरें को देखता है। इसलिए आज ये सब सोचना भी अच्छा नहीं लग रहा है।
आज एक बार ये सोचने को दिल कर रहा है कि- सारी उम्र दुसरों के लिए जीने और दुसरों के ख़ुशी को पूरा करने वाली " मैं " क्या कभी एक पल के लिए भी खुद के लिए भी जी हूँ ? क्या कभी मैंने अपनी ख़ुशी के बारे में सोचा हैं ?क्या इस जीवन में मैं अपने मन ,अपनी आत्मा की ख़ुशी का ख्याल रख पाई हूँ ? ये सच है कि दुसरों के लिए जीना ....उनके दुःख को अपना दुःख समझना....उनकी ख़ुशी को अपनी ख़ुशी समझना...उनके सुख पर अपना सुख न्योछावर करना अच्छी बात है। ऐसे इंसान को ही सच्चा और अच्छा इंसान कहते हैं। लेकिन क्या अपने मन को दुखी करना....अपना ही निरादर करना...अपने मन और आत्मा की ख़ुशी को पूरा करना तो दूर उसे जानना तक नहीं....क्या ये भी सही हैं ? इंसान कभी भी दुसरों की ख़ुशी पर अपनी ख़ुशी....दुसरों के हँसी पर अपनी हँसी...न्यौछावर करता है तो कही ना कही वो अपनी खुद की ख़ुशी और हँसी का गला घोट रहा होता है। ये भी सच है कि दुसरों के मुख पर आप जब मुस्कान लाते हो तो उससे भी आप को ख़ुशी मिलती है। एक पल के लिए आप के होठो पे भी हँसी आती है। लेकिन उस एक छोटी हँसी के पीछे आप के कितने दर्द छिपे होते हैं वो दूसरा नहीं देख पाता। तो क्या हम जो अपने मन को दर्द देते हैं वो सही है ? हाँ, हम अपने मन को एक संतावना पुरस्कार जरूर देते हैं कि "तुम्हारे कारण एक चेहरे पर हँसी आई...ये क्या कम है...तुम्हे भी इसी में अपनी ख़ुशी समझनी चाहिए ". लेकिन सच्चाई क्या यही होती है ? क्या हम अपने मन को मार कर उसके साथ नाइंसाफी नहीं कर रहे होते हैं ?आज दिल कहता है कि -"एक बार मैं अपनी मन की ख़ुशी को जानने की कोशिश करूँ....किसी को बिना कोई तकलीफ पहुचायें....छोटी-छोटी बातों से अपने दिल को ख़ुशी और सुकुन देना कोई गलत बात नहीं....कोई गुनाह नहीं। हमे अपने दिल की छोटी-छोटी खुशियों,तमन्नाओ ,भावनाओ का ख्याल खुद रखना चाहिए किसी और से इसकी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। लेकिन हमारी पीढ़ी को ये बात नहीं सिखाया गया ना ही हमने कभी सिखने की कोशिश ही की।
आज की नई पीढ़ियों ने भले ही हमसे त्याग की भावना नहीं सीखी हो लेकिन हमें इनसे ये एक बात जरूर सीखनी चाहिए कि "सबको प्यार करों लेकिन पहले खुद से करों "आज की पीढ़ियों में ये गुण है वो दुसरों के साथ साथ खुद के लिए जीते है। उनका मानना है कि "जब हम खुद खुश नहीं रहेंगे तो दुसरों को खुश कैसे रखेंगे" सही भी है। हवाई जहाज़ में बैठते वक़्त भी यही समझाते हैं कि "पहले ऑक्सीजन मास्क खुद पहने फिर औरो की सहायता करें ". आज की पीढ़ी इसी rule को follow करती है और खुश है।
ऐसा लगता है कि-आज मैं खुद से पहली बार मिली हूँ....आज मेरे अंदर भी ये ख्वाहिश जग रही है कि मुझे खुद के लिए भी जीना चाहिए। जीवन परमात्मा एक बार देता है और कहता है कि "तुम्हारा पहला कर्त्वय खुद के प्रति है " परन्तु हमारी पीढ़ी ने ये कभी किया ही नहीं। वो कहते हैं न कि "जब जागो तभी सवेरा" तो आज मुझे भी इस एकांत पल में अपनी सुबह मिल गई है।"
बहुत सुन्दर लेख लिखा है सखी आप ने... .जब इंसान खुद से बातें करने लगता तब तन्हा कहा रहता है
जवाब देंहटाएंऔर हम तो कला प्रेमी है प्रकृति से ख़ूब स्नेह रखते है,
सादर आभार !!
आभार सखी अनीता ,आप सब के सानिध्य में अभी बहुत कुछ सीखना है ,स्नेह
हटाएंप्रिय कामिनी -- आपने बहुत ही सूक्ष्म आत्मावलोकन कर एक महत्वपूर्ण निचोड़ निकाल कर बहुत ही अद्भुत दर्शन से अपनाया है | सचमुच हम में से ज्यादातर लोग या कहूँ हमारी पीढ़ी के लोग हर समय दूसरों के लिए जीने के लिए प्रयासरत रहते हैं |अपने लिए जीने का हुनर भूल जाते हैं और अंततः मायूसियों में खो जाते है | यूँ तो आज की पीढ़ी का अपने लिए जीना बहुत से संस्कारों को खंडित किये जा रहा है पर व्यक्तिगत रूप में वे अपने लिए सम्पूर्णता से जीने को महत्व देते हैं |हम अपनी रचनात्मकता से जुड़ कर स्वयं से ही साक्षात्कार करते हैं और अपने लिए जीने की प्रेरणा पाते हैं | सस्नेह बधाई इस सुंदर सारगर्भित लेख के लिए |
जवाब देंहटाएंप्रिये रेणु ,सच कहुँ,सखी तो ये मेरा पहला लेख है ,जो मेरे जीवन की सचाई भी है ,उस दिन एकांत में बैठे बैठे जो ख्यालात दिल में उमड़े मैंने उन्हें शब्दबंध कर लिया और उसी दिन से मेरी लेखनी चल पड़ी .लेकिन उस दिन ये लेख लिखते समय मैंने सपने में भी नहीं सोचा था की ये मुझे यहां तक लाएगा और आप सब जैसे उदार और प्रभावशाली व्यक्तिवो से जुड़ने का सौभाग्य दिलाएगा .स्नहे सखी
हटाएंप्रिय कामिनी कभी कभी एक छोटा सा कदम हमें एक नई मंजिल तक ले जाने का इशारा होता है यही हुआ आपके साथ | मैंने भी शब्द नगरी में अकाउंट टिप्पणी लिखने के लिए बनाया था और लेखन के लिए चल निकला | वे दैवीय पल थे-- शायद माँ सरस्वती की प्रेरणा से ही आपको कुछ लिखने की सूझी होगी | और मेरी वजह से नहीं आपकी अपनी प्रतिभा है -- आपके लेखन में दम ना होता तो मेरी मदद कोई काम ना आती | खुश रहो और निष्काम भाव से अपनी रचनात्मकता को नये आयाम दो | मेरी यही दुआ है ये लेखन यात्रा यूँ ही चलती जाए | सस्नेह |
जवाब देंहटाएंआभार-----------------
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा विचारणीय भाव और बेहतरीन लेख
जवाब देंहटाएंशुक्रिया......... संजय जी, सादर नमन
हटाएंसच कहा कामिनी दी कि हमारी उम्र के लोग अपनी जिंदगी जीना ही भूल जाते हैं। लेकिन यदि हम खुद खुश रहेंगे तभी तो खुशियोबको बांट पाएंगे। बहुत सुंदर रचना दी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद ज्योति जी ,इस भेद को समझते हुए थोड़ी देर तो हो गई पर जब जागे तभी सवेरा
हटाएंसत्य कहा कामिनी बहन,हम जिन संस्कारों में
जवाब देंहटाएंपले-बढ़े हैं, उनमें सिर्फ दूसरों को खुश रखने की ही शिक्षा दी जाती है।एक उम्र
गुजर जाने के बाद जो खालीपन अंदर महसूस होता है,वह यही कि हमने अपने
लिए क्या किया।अपने अस्तित्व की तलाश
हमें बैचेन करती है,आज की पीढ़ी पहले
अपना अस्तित्व और बाद में शेष कर्त्तव्य
निभा रही है।सच भी है अपने अस्तित्व को
जाने बिना हम कैसे जी सकते हैं,यह हम
दूसरों की आंखों में तलाशते हैं जो हमें
कभी प्राप्त नहीं होता।सादर
आपने बिलकुल सही कहा ,"अंदर का खालीपन हमे कभी कभी बेचैन कर देता हैं "शायद इसी खालीपन ने हमे खुद को समझने का अवसर दिया और हमारे भीतर साहित्य को समझने का ज्ञान भी।
हटाएंवाह!!कामिनी जी ,बहुत ही खूबसूरत भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने ,हमें हमेशा यही सीख मिली कि अपने लिए जिए तो क्या जिए । इस विषय से संबंधित कई लेख पढे ,और नतीजन कुछ पल मैं भी अपने लिए निकाल ही लेती हूँ ।
बहुत बहुत धन्यवाद शुभा जी ," जब जागे तभी सवेरा "शायद हमारी पीढ़ी की नींद थोड़ी जल्दी खुल गई ,आभार
हटाएंवाह कामिनी बहन! आपके मन के ये सुंदर भावों कि हमें अपनी चिंता खुद करनी चाहिए सारगर्भित है ।बात बिलकुल सही है..जब हम आत्म-तुष्ट नहीं हो सकते दूसरे को कैसे संतुष्ट कर सकते ।बुजुर्गो के दिए संस्कार के अनुसार सभी की भलाई करना ,सभी की जरूरतों का ख्यालों करना हम अपना फर्ज समझते हैं ।पर सामान्यतः लोग इसे हमारे कमजोरी समझते हैं। ज्यादा करने वालों की ज्यादा शिकायतें होती है। जो सबका ख्याल करता है उसपर कोई ख्याल नहीं करता।इसलिए अपना ख्याल खुद रखना सही है।धन्बाद
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम आप का स्वागत हैं,मेरे लेख अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए दिल से शुक्रिया आपका ,सादर
हटाएंतहे दिल से शुक्रिया सर मेरी पुरानी रचना को स्थान देने हेतु,सादर नमन आपको
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