हमारी पीढ़ियां बदलाव की अप्रत्याशित दौर को देख रही हैं । कभी-कभी यकीन करना भी मुश्किल हो जाता है।गुजरा जमाना सपने सा लगता है और जो गुजर रहा है वो अपना नहीं लग रहा है और आने वाला कल डरा रहा है।
वो हम ही है जिन्होंने रक्षाबंधन पर्व से लेकर छठ पर्व तक अति उत्साह और उमंग से भरे बचपन को जिया है, वो हम ही हैं जो छठ पूजा पर समस्त खानदान को एकत्रित होते देखा है,पूजा की पवित्रता और उसके सभी रीत- प्रीत को पुरी श्रद्धा - भक्ति से निभाते अति हर्षित एक-एक चेहरे को देखा है, त्योहारों पर मिलकर एक दूसरे पर प्यार और आशीर्वाद लुटाते अपनों को देखा है और अब भी वो हम ही हैं जो टुटते घरों को देख रहे हैं, एक-एक कर के दूर होते हुए अपनों को देख रहे हैं,त्योहारों के अति विकृत होते स्वरूपों को भी देख रहे हैं।
याद है हमें वो दिन भी जब, छठ पूजा पर दादी के घर सारा खानदान यानी दादा का परिवार ही नहीं दादा के सारे भाइयों का परिवार भी एकत्रित होता था।फिर आया माँ का दौर तब भी दादा का पूरा परिवार जिसमे चचेरे हो या फुफेरे सभी अपने थे, जो एकजुट होकर त्योहार की खुशी मनाते थे।फिर आया हमारा दौर हम सिर्फ अपने भाई बहनों के साथ ही निभा रहे थे। लेकिन हम इसे भी ज्यादा दिनों तक संभाल नहीं पाए और सब से दूर हो कर कुछ दिखावे के दोस्तों तक सीमित रहने लगे।बीते कुछ सालों से खास तौर से करोना काल से ऐसे एकल हुए कि वो दोस्त भी कब छूट गए पता ही नहीं चला और अब ना जाने कौन सा युग शुरू हुआ जिसे समझना मेरे लिए तो बहुत मुश्किल हो रहा है।आज त्योहार सिर्फ सोशल मीडिया पर दिखावा भर बन कर रह गया है। सजना-संवरना सब कुछ हो रहा है है मगर, उत्साह- उमंग, श्रद्धा-भक्ति, प्यार और अपनापन ना जाने कहा खो गया। त्योहारों पर भी सिर्फ अपने परिवार के दो चार सदस्य वो भी त्योहारों से जुड़े रस्मों को बस दिखावे के तौर पर निभाकर गुम हो जाते हैं इस मोबाइल रूपी मृग मरीचिका में। और हमारी पीढ़ी गुज़रे ज़माने में खोई हुई जबरन अपने संस्कारों की अक्षतों को समेटने की कोशिश करती रहती है, आज और कल में सामंजस्य स्थापित करती ढूंढती फिरती है उस खुशी और उमंग को, कहना चाहती है सबसे कि " हमने देखी है रक्षाबंधन में भाई- बहनों के निश्छल प्रेम को, महसूस किया है नवरात्रि में भक्ति के शीतल व्यार को, भाई दूज में कच्चे सूत से बंधे पक्के रिश्तो को, छठ पूजा के चार दिनों के कठिन कर्मकांडो को भी उत्साह और उमंग से निभाते अपनों को, मगर......वो भी नहीं कह सकते क्योंकि सुनेगा कौन...??? फिर थक कर उदास हो बीती यादों को समेटे बैठ जाती है एक कोने में....सोना चाहती है अतीत के तकिये पर सर रखकर मगर.....सो नहीं पाती, उलझी जो है अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित करने में...... अगली सुबह सोच रही होती है
त्योहार कब आया और कब चल गया पता ही नहीं चला........
बदलाव ही नियम है। फिर पहले भागम भाग भी नहीं थी। आजकल लोग अर्थ के पीछे इतना भाग रहे हैं कि जीवन का अर्थ ही भूल जा रहे हैं और इस कारण कटाव होना लाजमी है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा आपने विकास जी,पता नहीं ये भागमभाग हमें कहां लेकर जाएगी, प्रतिक्रिया देने के लिए दिल से शुक्रिया 🙏
हटाएंसमय के साथ दौड़ने की होड़ में अपनों के हाथ छूट जाया करते हैं इस बात को समझने का समय ही कहाँ है आज । हृदयस्पर्शी पोस्ट कामिनी जी । सादर सस्नेह वन्दे ।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने मीना जी, प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद,🙏
हटाएंसमय के साथ बदलती मानसिकता और संकुचित होता लोक व्यवहार दीमक की तरह समाज की जड़ों से आत्मीयता को चाट रहा है।
जवाब देंहटाएंसूक्ष्म विश्लेषण कामिनी जी।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २४ नवम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आपने बिल्कुल सही कहा,मेरी पोस्ट को अपनी प्रस्तुति में स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद श्वेता जी🙏
हटाएंअपना अपना कीजिये का ज़माना आ गया है | सुन्दर|
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर,🙏
हटाएंआपकी चिंता वाजिब है पर समय की गति को कौन रोक सका है, नई पीढ़ी को वे संस्कार भी नहीं मिल रहे, फिर उन्हें दोष कैसे दें, जितना संभाल सकते हैं, संभालना होगा।
जवाब देंहटाएंशिव -शक्ति ने न जाने कितनी बार रची है यह सृष्टि, शेष उन्हीं पर छोड़ देना होगा
सही कहा आपने अनीता जी, इस बिषय पर आपनी प्रतिक्रिया देने के लिए, सादर नमस्कार 🙏
हटाएंअच्छी वैचारिक पोस्ट. समय परिवर्तन शील है. नमस्ते
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर 🙏
हटाएंसही कहा आपने कामिनी जी ! अब पहले की सी बात कहाँ..बस दिखावा मात्र रह गया है वह भी सोशल मीडिया पर । फिर भी हमें अपने हिसाब से कोशिश तो करनी चाहिए ।भावी पीढ़ी की इस नीरस जिंदगी में कुछ उत्साह और अपनापन भरने की एक कोशिश सिर्फ हम ही कर सकते हैं ...बाकी सब जैसी भगवान की इच्छा ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर भावपूर्ण एवं चिंतनपरक लेख
बहुत ही लाजवाब ।
"भावी पीढ़ी की इस नीरस जिंदगी में कुछ उत्साह और अपनापन भरने की एक कोशिश सिर्फ हम ही कर सकते हैं ..." बिल्कुल सही कहा आपने, यदि हम अपनी संस्कारों को निभाते रहेंगे तो कहीं न कहीं उनके मन पर इसका असर ज़रूर होगा, प्रतिक्रिया पाकर बेहद खुशी हुई 🙏
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जवाब देंहटाएंसच में! आजकल के समाज में जिस तरह बदलाव हो रहा है, उसमें कुछ दिनों बाद त्योहार का महत्व सोशल मीडिया ही समझाएगा हमारे संस्कार नहीं, क्योंकि पूजा पद्धति में भी बड़े स्तर पर मनमाफिक बदलाव हो रहे हैं, जिससे पर्व का सटीक विमर्श पीछे छूट रहा है।
जवाब देंहटाएंविचारणीय आलेख कामिनी जी।
मैं आपको कई दिनों से याद कर रही थी।
खुश रहें प्रसन्न रहें। शुभकामनाएं प्रिय दोस्त
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आपने तो दिल ही उड़ेल कर रख दिया कामिनी जी, शानदार प्रस्तुति...हमारी उम्र के अधिकांश लोग ऐसी ही त्रासदी से गुजर रहे हैं...विकट समय है..चुनौतियां अनेक कोणों से हमें झकझोर रही हैं...बस बचाए रखना...खुद को, मूल्यों को, रिश्तों को ...ताकि कमसे कम स्वयं से कोई शिकवा ना रहे .
जवाब देंहटाएं"बस बचाए रखना...खुद को, मूल्यों को, रिश्तों को ...ताकि कमसे कम स्वयं से कोई शिकवा ना रहे ."
जवाब देंहटाएंअलकनंदा जी,ये बात कहकर आपने मेरे विचारो को पुर्णता प्रदान कर दी। कुछ अधुरा था लेख, इतनी सुन्दर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए दिल से शुक्रिया 🙏