"क्या ,आज भी तुम बाहर जा रहे हो ??तंग आ गई हूँ मैं तुम्हारे इस रोज रोज के टूर और मिटिंग से ,कभी हमारे लिए भी वक़्त निकल लिया करो। " जैसे ही उस आलिशान बँगले के दरवाज़े पर हम पहुंचे और नौकर ने दरवाज़ा खोला ,अंदर से एक तेज़ आवाज़ कानो में पड़ी ,हमारे कदम वही ठिठक गये। लेकिन तभी बड़ी शालीनता के साथ नौकर ने हमे अंदर आने का आग्रह किया। अंदर एक बड़ा सा गेस्ट रूम था जो सारे आधुनिक प्रसाधनो से सुसज्जित था। नौकर हमे बैठने का इशारा कर ये कह कर चला गया कि -मैडम को आप के आने की सुचना देता हूँ। अंदर जाते ही वो आवाज़ जो अब तक चीखने सा हो चूका था और तेज़ आने लगी।स्पष्ट हो चूका था कि पति पत्नी एक दूसरे पर चीख चिल्ला रहे हैं। मैंने अपनी दोस्त स्वाति की तरफ प्रश्नसूचक निगाह से देखा ,उसने धीरे से कहा -कोई बात नहीं न बैठो ,बड़े घरो में तो ये सब होता ही रहता है। मैंने कहा - क्या ,ये चीखना -चिलाना ? वो बोली - हां ,इग्नोर करो।
" तुम्हारे पास पैसे के अलावा हमे देने के लिए और क्या हैं ? क्या तुम्हारे पास हमे देने के लिए थोड़ा भी समय हैं जिससे कि हम मिलकर थोड़ी देर सुकून से बाते कर सके ,पैसे में खुशियाँ तलाशना बंद करो और अपने परिवार को भी थोड़ा वक़्त दो ," संजना नाराज़ होती हुई बोली। उसकी आवाज़ धीरे धीरे और तेज़ ही होती जा रही थी। अनिल भी कहा चुप था वो भी ऊंची आवाज़ में चीखता हुआ बोल रहा था -"तुम्हारे मुँह से ये उपदेश बिलकुल अच्छी नहीं लग रही है ,अपनी सोचो तुम्हारे पास इस घर और बच्चो के लिए कितना समय हैं ?अधिकतर समय तो तुम्हारा किट्टी पार्टियों में गुजरता हैं ,ज्यादातर राते भी तुम्हारा क्लबों में ही गुजरती हैं ,अपने बच्चो के परिवरिश तक का भी ख्याल नहीं तुम्हे ,पैसे मैं कमाता हूँ लुटाती तो तुम ही हो और उपदेश मुझे दे रही हो। "
दोनों पति -पत्नी एक दूसरे पर दोषारोपण करते जोर जोर से चिल्ला रहे थे। उनके झगडे देख संजना के सास स्वसुर हमे अनदेखा कर अपने कमरे में चले गये। वहाँ उपस्थित नौकर चुपचाप अपने कामों में लगे थे। आख़िरकार मुझसे रहा न गया। मैंने एक नौकर से पानी माँगा, जब वो पानी लेके आया तो मैने उससे पूछ ही लिया - "कोई इनके झगडे को सुलझाता क्यों नहीं ?" नौकर ने दबी हुई आवाज़ में कहा -मैम ,ये तो आये दिन होता रहता हैं ,मैम साहब और साहब एक तो कई -कई दिनों पर मिलते हैं पर जब भी मिलते हैं तो यूँ ही एक दूसरे पर दोषारोपण ही करते हुये लड़ते रहते हैं। मैंने पूछा बच्चे कहाँ हैं ? " वो बेचारे अपने कमरे में हैं ,उन की सुध लेने की फुरसत दोनों में से किसी के पास नहीं ,वो भी अपने आप में ही रत रहते हैं ,कहाँ तक शोग मनाएंगे इनका "-नौकर धीरे से फुसफुसाया। स्वाति ने मुझे चुप रहने का ईशारा किया और नौकर को इन्विटेशन कार्ड पकड़ते हुए कहा -अच्छा हम चलते हैं ,मैम साहब को ये कार्ड देदेना और कहना स्वाति आई थी और मेरी तरफ देखते हुये बोली -चलो ,चलते हैं।
दरअसल ,मेरी दोस्त स्वाति मुझे अपने साथ ले अपनी चचेरी बहन संजना के घर अपने बेटे के जन्मदिन का न्योता लेकर आई थी।शायद वो मुझे ये दिखने लाई थी कि उसके रिश्तेदार कितने समृद्ध हैं। वाकई बांग्ले के गेट में प्रवेश करते ही मैं काफी प्रभावित हो गई। प्राकृतिक छटा से सुशोभित वो बांग्ला बाहर से बहुत ही खुबसूरत लग रहा था। मैं अपनी कल्पनाशक्ति लगाते हुए ये सोच रही थी कि -"वाकई बड़े समृद्ध लोग हैं ,बांग्ला बाहर से इतना खूबसूरत हैं तो अंदर की साजोसज्जा तो और बेहतरीन होगी और उसमे रहने वाले काफी सुसभ्य होंगे। इतने बड़े लोगो के घर जाते हुये मुझे थोड़ी झिझक भी महसूस होने लगी। बरबस मेरी नज़र अपने पहनावे और चालढाल पर चली गई कि - " मैं इस घर में प्रवेश करने लायक तो हूँ न "परन्तु दरवाज़े पर ही जिस तरह की आवाज़ ने हमारा स्वागत किया ,मुझे समझते देर ना लगी कि ये बाहरी सुंदरता महज़ दिखावा हैं अंदर से तो रिश्ते बास मार रहे हैं।
सजना बड़े ही समृद्ध घर में व्याही गई थी। उसका पति अनिल बड़े बिजनेसमैन थे वो अपने पिता के बिजनेस को ही विस्तार दे रहे थे, यानि खानदानी राईस थे। उसके सास स्वसुर तो बड़े ही शालीन थे। संजना वैसे तो कुछ नहीं करती थी लेकिन उसका दिन किट्टी पार्टियों में और ज्यादातर राते कल्बो में ही गुजरती थी। दो बच्चे 10 साल की बेटी और 12 साल का बेटा था। बच्चे सास स्वसुर के संरक्षण में नोकरो के हाथो पलते थे। ये सारी बाते स्वाति मुझे पहले से ही बता चुकी थी। लेकिन ये नहीं बताया था कि इनके घर में ये चीखने चिल्लाने वाला महायुद्ध भी होता हैं। शायद स्वाति के लिए ये बड़ी बात नहीं होगी उसने उनका ये रूप पहले भी देख रखा होगा। लेकिन मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी क्योकि ना तो हम पति पत्नी कभी इस तरह चीखे चिल्लाये थे और ना ही अपने परिवार में इस तरह का वातावरण देखे थे। मेरी 8 -9 साल की बेटी के लिए तो ये अजूबा ही था।
बाहर आते ही मेरी बेटी ने मुझसे सवाल किया -" मम्मी वो दोनों तो एक ही कमरे में एक दूसरे के बिलकुल पास थे फिर वो इतनी जोर जोर से बाते क्यों कर रहे थे ? क्या वो दोनों उच्चा सुनते हैं ?"उसकी बाते सुन मैं हॅंस पड़ी ,मैंने कहा -" नहीं बेटा वो उच्चा नहीं सुनते ,बस उनकी बात एक दूसरे तक नहीं पहुंच पा रही हैं ,वो पास होते हुए भी बहुत दूर है ,आप अभी ये बाते नहीं समझ पाओगी ,आप बड़ी हो जाओगी न तब आप को समझाऊँगी। " उसने जिद की -" नहीं मम्मी मैं बड़ी हो गई हूँ समझाओ मुझे ,आप पापा और मैं तो कभी इतनी जोरजोर से नहीं बोलते" मैंने कहा - " बेटा ,अगर हम आप की बात को एक बार में ध्यान से नहीं सुनेगे और आप को वही बात बार बार हम से बोलना पड़े तो आप अपनी बात हम तक पहुंचने के लिए जोर से बोलोगे न ,ताकि तुम्हारी बात हम तक पहुंच सके और हम तुम्हारी बातो को ध्यान से तब नहीं सुनेगे जब हम आप को कम प्यार करेंगे है न ,लेकिन हम सब तो एक दूसरे को बहुत प्यार करते हैं और इसलिए हम एकदूसरे की सारी बाते ध्यान से सुनते हैं और हमे चिल्लाना नहीं पड़ता ,समझे। "उसने भी बड़े प्यार से " हाँ "में सर हिला दिया।
कैसे समझाऊँ उस छोटी बच्ची को कि जब भावनाओ के तल पर दूरियां बढ़ जाती है तो पास होकर भी भावनाये जुड़ती -मिलती नहीं और दूरियों का एहसास स्वतः ही होने लगता हैं। ऐसा लगता हैं मानो वो एक साथ होकर भी नहीं हैं। धीरे धीरे इस दुरी का एहसास इतना गहरा हो जाता है कि पास होकर भी दूर-दूर होने जैसा लगता हैं। भावनात्मक अलगाव एक साथ रहने वालो के बीच भारी अंतर् एवं दूरी बना देता हैं ,सबके बीच एक दीवार खड़ी कर देता हैं।तब एक दूसरे की बाते समझना तो दूर सुनाई भी नहीं पड़ती। जब प्रेम हो तो दूरी का एहसास ही ख़त्म हो जाता हैं। एक दूसरे से भावनात्मक जुड़ाव हो ,उनकी भावनाओ की समझ और कद्र हो तो भाव इतने गहरे हो जाते हैं कि तब फुसफुसाहट भी अच्छे से समझ आ जाती हैं।यहां तक कि मीलो दूर होने पर भी हमारे भावनायें एक दूसरे तक पहुंच जाती हैं। जिसे आधुनिक युग में टेलीपैथी कहते हैं।
अपनापन होने का मतलब हैं भावनाओ के तल पर जीना और उसे अनुभव करना। इसमें गहरी तृप्ति और शांति मिलती हैं। जब तक परस्पर प्रेमपूर्ण भावनायें नहीं होगी ऐसा ही सब ओर दिखाई देगा। संबंधो में प्रेम भाव होने के साथ साथ अपने अधिकार और कर्तव्य का बोध हो तो अमीर हो या गरीब कभी भी उनमे भावनात्मक दूरियां नहीं आयेगी। परन्तु आज चहुँ ओर भावनाये दम तोड़ रही हैं ,प्रेम आखिरी सांसे ले रहा हैं ,अपने अधिकार सभी को याद हैं परन्तु अपने कर्तव्यों का भान किसी में नहीं। सम्बन्ध टूट रहे है, घर बिखर रहा हैं ,बच्चे माँ -बाप के होते हुये भी अनाथ हो रहे हैं और बच्चो के होते हुए भी वृद्ध माँ -बाप वृद्धाआश्रम की शरण में जीने को मजबूर हो रहे है ,संजना और अनिल जैसे पति पत्नी की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं।
वर्तमान समय में घर और बाहरी वातावरण ,यह तक कि व्यक्ति विशेष की ऊपरी सजोसज्जा तो मनमोहक और शालीन नजर आते हैं पर अंदुरनी स्तर पर वो व्यक्ति ,उसका वक्तित्व और उसके रिश्ते सड़े गले पड़े हैं जो दूर ही से बास मार रही है।खुशियों के आपार साधन हो गये हैं सोशल मिडिया ,थियेटर ,टेलीविजन ,नाइट क्लब और ना जाने क्या क्या ,फिर भी कोई खुश नहीं हैं ,हर एक यहाँ तन्हा हैं। क्योकि खुशियाँ हम बाहर तलाश रहे हैं,जिनसे हमे खुशियाँ मिलनी हैं उनसे मुँह मोड़े जा रहे हैं। अपने रिश्तो को अपने प्रियजनों को देने के लिए तो हमारे पास वक़्त ही नहीं हैं। भावनायें दम तोड़ रही हैं ,डर लगता हैं ये सोचकर कि आने वाला वक़्त और कितना डरावना होगा ? या अब ये अति हैं बहुत जल्द इसका अंत होगा। क्या हमारे भीतर भावनायें फिर से जागृत होगी ?क्या हम फिर से एक हॅसते खेलते घर आँगन और उनमे गूंजती ठहाको को ,किलकारियों को फिर से सुन पायेगे या हर घर में संजना और अनिल ही मिलेंगे ?
दरअसल ,मेरी दोस्त स्वाति मुझे अपने साथ ले अपनी चचेरी बहन संजना के घर अपने बेटे के जन्मदिन का न्योता लेकर आई थी।शायद वो मुझे ये दिखने लाई थी कि उसके रिश्तेदार कितने समृद्ध हैं। वाकई बांग्ले के गेट में प्रवेश करते ही मैं काफी प्रभावित हो गई। प्राकृतिक छटा से सुशोभित वो बांग्ला बाहर से बहुत ही खुबसूरत लग रहा था। मैं अपनी कल्पनाशक्ति लगाते हुए ये सोच रही थी कि -"वाकई बड़े समृद्ध लोग हैं ,बांग्ला बाहर से इतना खूबसूरत हैं तो अंदर की साजोसज्जा तो और बेहतरीन होगी और उसमे रहने वाले काफी सुसभ्य होंगे। इतने बड़े लोगो के घर जाते हुये मुझे थोड़ी झिझक भी महसूस होने लगी। बरबस मेरी नज़र अपने पहनावे और चालढाल पर चली गई कि - " मैं इस घर में प्रवेश करने लायक तो हूँ न "परन्तु दरवाज़े पर ही जिस तरह की आवाज़ ने हमारा स्वागत किया ,मुझे समझते देर ना लगी कि ये बाहरी सुंदरता महज़ दिखावा हैं अंदर से तो रिश्ते बास मार रहे हैं।
सजना बड़े ही समृद्ध घर में व्याही गई थी। उसका पति अनिल बड़े बिजनेसमैन थे वो अपने पिता के बिजनेस को ही विस्तार दे रहे थे, यानि खानदानी राईस थे। उसके सास स्वसुर तो बड़े ही शालीन थे। संजना वैसे तो कुछ नहीं करती थी लेकिन उसका दिन किट्टी पार्टियों में और ज्यादातर राते कल्बो में ही गुजरती थी। दो बच्चे 10 साल की बेटी और 12 साल का बेटा था। बच्चे सास स्वसुर के संरक्षण में नोकरो के हाथो पलते थे। ये सारी बाते स्वाति मुझे पहले से ही बता चुकी थी। लेकिन ये नहीं बताया था कि इनके घर में ये चीखने चिल्लाने वाला महायुद्ध भी होता हैं। शायद स्वाति के लिए ये बड़ी बात नहीं होगी उसने उनका ये रूप पहले भी देख रखा होगा। लेकिन मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी क्योकि ना तो हम पति पत्नी कभी इस तरह चीखे चिल्लाये थे और ना ही अपने परिवार में इस तरह का वातावरण देखे थे। मेरी 8 -9 साल की बेटी के लिए तो ये अजूबा ही था।
बाहर आते ही मेरी बेटी ने मुझसे सवाल किया -" मम्मी वो दोनों तो एक ही कमरे में एक दूसरे के बिलकुल पास थे फिर वो इतनी जोर जोर से बाते क्यों कर रहे थे ? क्या वो दोनों उच्चा सुनते हैं ?"उसकी बाते सुन मैं हॅंस पड़ी ,मैंने कहा -" नहीं बेटा वो उच्चा नहीं सुनते ,बस उनकी बात एक दूसरे तक नहीं पहुंच पा रही हैं ,वो पास होते हुए भी बहुत दूर है ,आप अभी ये बाते नहीं समझ पाओगी ,आप बड़ी हो जाओगी न तब आप को समझाऊँगी। " उसने जिद की -" नहीं मम्मी मैं बड़ी हो गई हूँ समझाओ मुझे ,आप पापा और मैं तो कभी इतनी जोरजोर से नहीं बोलते" मैंने कहा - " बेटा ,अगर हम आप की बात को एक बार में ध्यान से नहीं सुनेगे और आप को वही बात बार बार हम से बोलना पड़े तो आप अपनी बात हम तक पहुंचने के लिए जोर से बोलोगे न ,ताकि तुम्हारी बात हम तक पहुंच सके और हम तुम्हारी बातो को ध्यान से तब नहीं सुनेगे जब हम आप को कम प्यार करेंगे है न ,लेकिन हम सब तो एक दूसरे को बहुत प्यार करते हैं और इसलिए हम एकदूसरे की सारी बाते ध्यान से सुनते हैं और हमे चिल्लाना नहीं पड़ता ,समझे। "उसने भी बड़े प्यार से " हाँ "में सर हिला दिया।
कैसे समझाऊँ उस छोटी बच्ची को कि जब भावनाओ के तल पर दूरियां बढ़ जाती है तो पास होकर भी भावनाये जुड़ती -मिलती नहीं और दूरियों का एहसास स्वतः ही होने लगता हैं। ऐसा लगता हैं मानो वो एक साथ होकर भी नहीं हैं। धीरे धीरे इस दुरी का एहसास इतना गहरा हो जाता है कि पास होकर भी दूर-दूर होने जैसा लगता हैं। भावनात्मक अलगाव एक साथ रहने वालो के बीच भारी अंतर् एवं दूरी बना देता हैं ,सबके बीच एक दीवार खड़ी कर देता हैं।तब एक दूसरे की बाते समझना तो दूर सुनाई भी नहीं पड़ती। जब प्रेम हो तो दूरी का एहसास ही ख़त्म हो जाता हैं। एक दूसरे से भावनात्मक जुड़ाव हो ,उनकी भावनाओ की समझ और कद्र हो तो भाव इतने गहरे हो जाते हैं कि तब फुसफुसाहट भी अच्छे से समझ आ जाती हैं।यहां तक कि मीलो दूर होने पर भी हमारे भावनायें एक दूसरे तक पहुंच जाती हैं। जिसे आधुनिक युग में टेलीपैथी कहते हैं।
अपनापन होने का मतलब हैं भावनाओ के तल पर जीना और उसे अनुभव करना। इसमें गहरी तृप्ति और शांति मिलती हैं। जब तक परस्पर प्रेमपूर्ण भावनायें नहीं होगी ऐसा ही सब ओर दिखाई देगा। संबंधो में प्रेम भाव होने के साथ साथ अपने अधिकार और कर्तव्य का बोध हो तो अमीर हो या गरीब कभी भी उनमे भावनात्मक दूरियां नहीं आयेगी। परन्तु आज चहुँ ओर भावनाये दम तोड़ रही हैं ,प्रेम आखिरी सांसे ले रहा हैं ,अपने अधिकार सभी को याद हैं परन्तु अपने कर्तव्यों का भान किसी में नहीं। सम्बन्ध टूट रहे है, घर बिखर रहा हैं ,बच्चे माँ -बाप के होते हुये भी अनाथ हो रहे हैं और बच्चो के होते हुए भी वृद्ध माँ -बाप वृद्धाआश्रम की शरण में जीने को मजबूर हो रहे है ,संजना और अनिल जैसे पति पत्नी की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं।
वर्तमान समय में घर और बाहरी वातावरण ,यह तक कि व्यक्ति विशेष की ऊपरी सजोसज्जा तो मनमोहक और शालीन नजर आते हैं पर अंदुरनी स्तर पर वो व्यक्ति ,उसका वक्तित्व और उसके रिश्ते सड़े गले पड़े हैं जो दूर ही से बास मार रही है।खुशियों के आपार साधन हो गये हैं सोशल मिडिया ,थियेटर ,टेलीविजन ,नाइट क्लब और ना जाने क्या क्या ,फिर भी कोई खुश नहीं हैं ,हर एक यहाँ तन्हा हैं। क्योकि खुशियाँ हम बाहर तलाश रहे हैं,जिनसे हमे खुशियाँ मिलनी हैं उनसे मुँह मोड़े जा रहे हैं। अपने रिश्तो को अपने प्रियजनों को देने के लिए तो हमारे पास वक़्त ही नहीं हैं। भावनायें दम तोड़ रही हैं ,डर लगता हैं ये सोचकर कि आने वाला वक़्त और कितना डरावना होगा ? या अब ये अति हैं बहुत जल्द इसका अंत होगा। क्या हमारे भीतर भावनायें फिर से जागृत होगी ?क्या हम फिर से एक हॅसते खेलते घर आँगन और उनमे गूंजती ठहाको को ,किलकारियों को फिर से सुन पायेगे या हर घर में संजना और अनिल ही मिलेंगे ?
भोतिक सुविधा और आधुनिकता के युग में पैसे कमाने और पैसे से सुविधा ढ़ूढता मानव भावात्मक रिश्तों से दूर होकर बिलकुल नीरस और असंवेदनशील हो गया है साथ ही असभ्य भी ।
जवाब देंहटाएंआज पैसे की चमक में पागल परिवारों की सटीक दास्ताँ कामिनी बहन
बहुत सराहनीय लेख या फिर कहानी ।
उस पर आपकी विस्तृत चर्चा सब कुछ बेमिसाल ।
बहुत बहुत शुक्रिया कुसुम जी ,आप की प्रतिक्रिया मेरे लिए अनमोल हैं सादर नमस्कार
हटाएंभावनाएं दम तोड़ रहीं हैं ... बेहद सटीक और सशक्त लेखन ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सदा जी ,इस स्नेह के लिए आभार सखी
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जवाब देंहटाएंअपनों की भीड़ में अजीब सी तन्हाई है
जवाब देंहटाएंहमने खुद अपनी ऐसी दुनिया बनाई है
क्यों दोष दें दूसरों को भला हम
हमें भी कब कहां अपनों की याद आई है
सुंदर और सटीक लेख लिखा आपने प्रिय सखी
वाह !! सखी बहुत खूब ,सही कहा आपने इसके जिम्मेदार तो हम ही हैं ,किससे शिकायत करे लेकिन बिगाड़ा हमने हैं तो अब सवारना भी हमे ही हैं। आभार
हटाएंअपनत्व और एक दूसरे की प्रति सम्मान भाव समाप्त होने पर कलह ही शेष बचती है । सदैव की तरह मानवीय भावनाओं पर सशक्त लेख कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद मीना जी ,सादर
हटाएंजब दो इंसानों के मन के बीच की दूरी बढ़ जाती हैं तब पास हो कर भी उन्हें अपनी बात दूसरे तक पहुंचाने के लिए जोर से बोलना पड़ता हैं। बहुत सुंदर विवेचन, कामिनी दी।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद ज्योति जी ,सादर
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जवाब देंहटाएंप्रिय कामिनी -- अनंत वैभवशाली जीवन के आंतरिक खोखलेपन के बारे तुमने बहुत ही सार्थकता से अपने लेख में लिखा है | भरे पूरे परिवार अब कोई नहीं चाहता | हम दो हमारे दो में बेलगाम ख्वाहिशें और अपनों से दूर होते हम | इसका खामियाजा परिवारों में बढती अकुलाहट के रूप में देखने को मिल रहा है | बच्चे अकेलेपन का शिकार हो अनाप शनाप गेम्स के आदी हो वास्तविक दुनिया से दूर होते जा रहे हैं जिससे वे अधिक आक्रामक और व्याघ्र हो रहे हैं | कितना अच्छा हो यदि हम आपसी सद्भावना भरी उसी दुनिया का रुख करें जहाँ भावनाओं का मोल था पैसे का नहीं | आने वाली पीढ़ी को भी इसका मोल और महत्व सिखाना होगा ताकि वे व्यर्थ के तनाव और संकीर्ण मानसिकता से बाहर आयें | तुमने बहुत ही सुंदर परिभाषित किया सखी कि क्यों प्रेम आखिरी साँस लेने को बाध्य है और भावनाएं क्यों दम तोड़ रही हैं | सस्नेह शुभकामनायें तुम्हारे लिए |
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सखी ,तुम्हारी विस्तृत टिपण्णी मेरे लेख की कमियों को पूरा कर देती हैं,सादर स्नेह
हटाएंजब भावनाओ के तल पर दूरियां बढ़ जाती है तो पास होकर भी भावनाये जुड़ती -मिलती नहीं और दूरियों का एहसास स्वतः ही होने लगता हैं। ऐसा लगता हैं मानो वो एक साथ होकर भी नहीं हैं
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक, सार्थक, चिन्तनपरक लेख...
भावनाएं दम तोड़ रही हैं ....रिश्ते कैसे पनपे...
बहुत लाजवाब
हृदय तल से धन्यवाद सुधा जी ,आपको मेरी रचना पसंद आई मुझे बहुत प्रशंता हुई ,सादर नमस्कार
हटाएंबहुत बहुत आभार सर ,आपने मेरी रचना को पसंद किया ,मैं क्षमा चाहती हूँ कल मैं लिंक पर उपस्थित नहीं हो पाई ,इसका मुझे खेद हैं ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी सदैव कुछ न कुछ संदेश दिया करती है।
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम।
मैंने भी काकी माँ एक लेख लिखा है। उसमें कुछ खामियां हो तो बताने की कृपा करें।
सहृदय धन्यवाद शशि जी ,व्यस्तता के कारण कई दिनों से ब्लॉग पर आना नहीं हुआ ,आज कई दिनों बाद आयी हूँ। मैं आप की हर रचना पढ़ती हूँ ,क्षमा चाहती हूँ पर मैं आप की रचनाओं में कमियां निकलने के काबिल नहीं ,मैं तो आप की हर रचना से खुद ही सिखने की कोशिश करती हूँ ,आप मेरा मार्गदर्शन करते रहे। सादर नमस्कार
हटाएंप्रभावशाली रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद विजय जी ,स्वागत हैं आप का मेरे ब्लॉग पर ,सादर नमस्कार
हटाएंबहुत सुन्दर लिखा है आपने .. बधाई
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद अरुण जी ,सादर नमस्कार
हटाएंबेहतरीन रचना,सत्य का सटीक आकलन
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद... सखी
हटाएंसंदेशप्रद सार्थक लेख
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद ,आदरणीय
हटाएंबहुत ही सार्थक कहानी। वैसे अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी जीवन में ये द्वन्द स्वभाविक है।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद, ,स्वागत हैं आपका , सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार ,सादर नमस्कार
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