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सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

"दिल तो बच्चा है जी"



     ज़िंदगी हर पल एक चलचित्र की तरह अपना रंग रूप बदलती रहती है। है न , जैसे चलचित्र में एक पल सुख का होता है तो दुसरा पल दुःख का...फिर अगले ही पल कुछ ऐसा जो हमें अचम्भित कर जाता है और एक पल के लिए हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि "क्या ऐसा भी होता है ?"ढाई तीन घंटे की चलचित्र में बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे तक का सफर दिख जाता है। हमारा जीवन भी तो एक चलचित्र ही है फर्क इतना है कि- चलचित्र में हमें  "The end "देखने को मिल जाता है वो भी ज्यादा से ज्यादा खुशियों से भरा अंत। हमारे जीवन का The end क्या, आगे क्या होगा ये भी हमें नहीं पता होता है।और पढ़िये

      हाँ,बस इतना पता होता है कि "मृत्यु"जो की एक शाश्वत सत्य है वो तो एक दिन आएंगी जरूर लेकिन ये नहीं पता की वो अंत सुखद तरीके से होगा या तकलीफो भरा। हाँ, एक और फर्क है कि- चलचित्र को जितनी बार चाहे देख सकते हैं लेकिन जीवन का वो हर एक पल जो गुजर गया वो गुजर गया दोबारा जीने को या देखने को नहीं मिलता।  हाँ,अपने ख्वाबों -ख्यालों में उसे जरूर ढूंढ़ कर देख सकते हैं और थोड़ो देर के लिए ही सही दिल को सुकून  दे सकते हैं।
   
    जब कभी भी मुझे एकांत में रहने का अवसर मिलता है तो दिल-दिमाग खुद-ब-खुद ज़िंदगी के झरोखें से झांकता हुआ बीते हुए लम्हों में चला जाता है। यकीन ही नहीं होता कि-जीवन के इतने सावन हमने देख लिये। सच यकीन ही नहीं होता...ऐसा लगता है जैसे अभी-अभी तो मैंने लड़कपन छोड़ जवानी के दहलीज़ पर कदम रखा था और मन ही मन दुखी भी हो रही थी...जब दसवीं पास करने पर पापा ने बड़े प्यार से कहा था --"बच्चें अब आप को भागना दौडना,खेलना कम  करना होगा...अब आप कॉलेज में जाओगे आप को सलीके से बैठना,चलना और बोलना सीखना होगा....अब आप बड़ी हो गई।" बहुत गुस्सा आया था उस वक़्त मुझे कि "कैसे मेरा बचपन इतनी जल्दी गुजर गया ?"फिर अगले ही पल खुश भी हो रही थी कि "अब मैं बड़ी हो गई।" वाकई 16 से 20 साल की उम्र काफी मनमोहक होती है। वो एक दिवास्वप्न नगरी जैसी होती है जहाँ जवां दिल अपने ही ख्वाबों की दुनिया सजाये उसी में खोये रहते हैं। उन्हें लगता ही नहीं कि- ज़िंदगी की हक़ीक़त से कभी उनका सामना भी होगा। मैं भी उसी में खोई थी, पता ही नहीं चला कि ज़िंदगी के  सपनो के वो चंद साल कब हाथों से रेत  की तरह फिसल कर गायब हो गए। फिर पता नहीं कब और कैसे माँ बाप ने ये समझ लिया की मैं घर-गृहस्थी बसाने के काबिल हो गई हूँ और उन्होंने मेरी शादी कर दी।

    शादी होते ही ये एहसास हो गया कि अब मेरे सपनो के दिन गये। अब ज़िंदगी के हक़ीक़त से सामना होगा। घर गृहस्थी  की ज़िम्मेदारी कंधे पर आते ही प्रकृति ने हर वो काम सीखा दिया जिसका इल्म तक बचपन में नहीं था और जवानी में सोच के भी डर लगता था। फिर वो दिन आया जब भगवान ने एक कीमती  तोहफे के रूप में मुझे एक प्यारी सी बेटी दिया और मुझे माँ बनने का गौरव प्राप्त हुआ और आज मेरी बेटी 20 साल की हो गई है। यकीन ही नहीं होता.....वक़्त कैसे इतनी तेज़ी से बदल गया। कैसे मैं एक बेटी से माँ बनी और यकीनन चंद सालो में मेरी बेटी माँ बन जाएगी और मैं नानी।

     अभी-अभी  कल ही तो वो दिन गुजरा है जब मैं 20 साल की थी और अपनी माँ से लाढ़ लगाते हुए कहती थी- "मुझे नहीं करनी शादी....मैं आप को छोड़ कभी नहीं जाऊँगी...कही नहीं जाऊँगी " और माँ हँस कर कहती -"सब जाते हैं....तुम भी जाओगी....मैं भी अपनी माँ को छोड़ कर नहीं आना चाहती थी लेकिन आई न तुम्हारे पापा के साथ....तुम भी जाओगी "और मुझे गुस्सा आ जाता था। आज मेरी बेटी भी मुझसे यही कहती है -"मैं शादी नहीं करुँगी "और मैं हँस पड़ती हूँ।  मैं भी उससे वही कहती हूँ जो मेरी माँ ने मुझसे कहा था -"सब जाते हैं अपनी माँ को छोड़ कर आप भी जाओगी। " जब भी वो कुछ ऐसी बातें करती है, दोस्तों के किस्से सुनाती है , लड़के -लड़की के किस्से बताती है ,कपडे, फैशन या हेयर स्टाइल की बातें  करती हैं तो ऐसा लगता है जैसे मैं खुद को ही देख रही हूँ।कभी-कभी किसी बात पर जब वो ये कहती है कि -"छोडो माँ आप नहीं समझोगे " तो मैं हँस पड़ती हूँ और कहती हूँ-" बेटा हम भी इस दौड से गुजरे है बस फर्क ये है कि आप को हमने बहुत आज़ादी दे रखी है और हम बहुत सारे संस्कारो के बंधन में बंधे थे।"

    सच, यकीन ही नहीं होता वक़्त इतनी तेज़ी से गुजर गया। अभी कुछ ही साल पहले जब मेरी शादी की बात चल रही थी तो मैंने अपनी  माँ के बालों में आई सफेदी को देखकर कहा था -"माँ इसे कलर कर लो अच्छा नहीं लग रहा है "और माँ हँसने लगी बोली - बेटा, अब मैं बूढी हो रही हूँ बाल सफ़ेद तो होंगे ही और आज आईने के सामने खड़ी  होती हूँ तो खुद के चेहरे पर बुढ़ापे की झलक देख सोचने लगती हूँ....सच, वक़्त कितनी तेज़ी से गुजर गया। बचपन ,जवानी सब गुजर गया बुढ़ापे की ओर चल पड़ी हूँ। कब हुआ ,कैसे हुआ ये सब?

     अभी चंद दिनों पहले मेरा फुफेरा भाई मेरे घर आया था। हम सारे भाई-बहन और हमारे बच्चें  एक दिन के लिए इक्ठा हुए थे। काफी दिनों बाद हम मिले थे। खाने-पीने और बात -चीत  का दौड़ चल रहा था। उससे मिल कर मैंने महसूस किया कि ज़िंदगी की बेहिसाब थपेड़ो को झेलने के वावजूद उसने अपने अंदर के  बच्चे को ज़िंदा रखा है। जब वो बचपन की सारी यादों की बखिये उधेड़ने लगा कि -कैसे हम सारे भाई-बहन खाने-पीने ,पढ़ने-लिखने या खेलने में एक-दूसरे को  छेड़ते थे.....कैसे हम खेल-खेल में फिल्मों की शूटिंग किया करते थे....मैं उसकी  हीरोइन बनती थी....कैसे जब वो छुट्टियों  में मेरे घर आता था तो मेरे पापा यानि अपने मामा को एक अर्ज़ी लिख कर देता था कि- हम बस 15 दिनों के लिए आये है प्लीज हमें अपनी मर्जी का करने दे और मेरे पापा जो कभी भी हम भाई-बहनों  को ना डाँटते थे ना कोई पावंदी ही लगते थे वो उस अर्ज़ी पर दस्तखत कर अपनी रज़ामंदी देते थे। कैसे हम रात-रात भर जागते और बेवज़ह की बातों पर ठहाके लगते थे। कैसे जवानी के दिनों में दूसरे लड़के-लड़कियों को देख एक-दूसरे से उसका नाम जोड़ बेतकल्लुफी से हँसते थे। किसी भी बात का कोई मायने मतलब हो न हो फिर भी हमारे ठहाके कैसे गूंजते रहते थे। उन दिनों की सारी बातों को याद करते हुए हम सब हंसी-ठहाके लगा रहे थे। इन सारी बातों ने बचपन और जवानी का कुछ इस तरह शमा बंधा की हम भूल ही गए कि "वो गालियां तो हम छोड़ आये हैं। " हमारे बच्चें जो हमारी बातें सुन रहे थे जब उन्होंने हमें टोका -"अच्छा आप सब भी इतनी मस्ती करते थे " तब हम जैसे नींद से जागे और वर्तमान में लौटे, दिल को समझाया कि अब हमारे दिन गये। हमने बच्चों  से कहा हाँ ,बच्चों तुम जो महफिल अभी सजाये बैठो हो हम उस महफ़िल का लुफ्त उठा आगे बढ़ चुके हैं।

    सच, यकीन ही नहीं होता...लेकिन एक बात का यकीन हो चूका है कि -"दिल तो बच्चा है जी" उसे जब कभी ,कही  भी एक पल का भी अगर मौका  मिलता है तो वो झट बच्चा बन जाता है। क्या हम इस बच्चें को हमेशा ज़िंदा नहीं रख सकते ? क्यूँ मारते देते हैं हम अपने अंदर के बच्चें को ? कौन रोकता है हमें इस बच्चें को ज़िंदा रखने से ? कोई नहीं रोकता जनाब आप को....कोई रोक ही नहीं सकता....किसने कहाँ आप से कि - आप इस बच्चें  को मार दो। हम खुद उस बच्चें के मौत के जिम्मेदार होते हैं। एक बार इस बच्चें को ज़िंदा करके तो देखे जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल जायेगी। आप देखते हैं न कैसे बच्चें अकेले में भी खुद को व्यस्त रख लेते हैं ,खुद की ख़ुशी का कोई रास्ता ढूढ़ लेते हैं । बस,अपने कर्म में लगे रहते हैं उन्हें फल की चिंता ही नहीं रहती। अगर हमने अपने अंदर के बच्चें को ज़िंदा रख लिया तो...ना तो हमें कोई दुःख सताएगा...ना अकेलापन और ना ही कल की फ़िक्र।  मेरा कहना भी यही है दोस्तों  - क्यों ना हम अपने दिल को बच्चा ही रहने दे। सच , इस उलझन भरी जीवन में बड़ा सुकुन दे जाता है ये" बचपना "और "बचपन की यादें "


30 टिप्‍पणियां:

  1. य कामिनी -- -- भीतर के बचपन से ही यादों की फसल में हमेशा हरियाली रहती है | बचपन के उन मासूम पलों को बड़ी ही मासूमियत से पिरोता ये अनमोल लेख बड़ी पारदर्शिता और आत्म मुग्धता से लिखा आपने | सच है जीवन की आपाधापी में हर कोई बचपन से दिनोदिन दूर जा बैठता है | पर हर किसी के भीतर एक बच्चा जरुर रहता है जो अक्सर किसी ना किसी बहाने अपना रूप दिखा ही देता है | माता - पिता का स्नेह , नसीहतें और डांट एक कसक बनकर हमेशा भीतर व्याप्त रहती है | बिता समय कभी पलट कर नहीं आता - पर उसकी मधुर यादें मन को सहलाती बहुत सुकून देती हैं |हमारी पीढ़ी ने समय का बहुत सुखद दौर देखा है जब माता - पिता समय के साथ बदलने की कोशिश में पिछली पीढ़ी से उदार सोच अपनाने को तैयार बैठे थे | हंसी ठहाकों और सामूहिक खेलों से सजी महफिलों का हमने खूब आनन्द लिया | आज सोशल मीडिया और इंटरनेट की चमक में खोया बचपन - बचपन में ही मासूमियत से दूर हो गया है | जबकि हर उम्र में इस बचपने से जीवन बहुत सरल हो जाता है | बच्चा यानि सरलता का पर्याय | बहुत मुश्किल है दुनिया में सरल होना ये तभी संभव है जब दिल बच्चा ही रहे | सच बहुत अच्छा लिखा आपने | खूब शोध परक लेख के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |
    40s

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    1. मेरे लेख के मर्म को समझ आपने खुले मन से इस पर जो अपनी टिप्पणी दी है वो मेरे लिए पुरस्कार स्वरूप है ,स्नेह सखी

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  2. य सखी कामिनी -- आपका ये सुंदर भावपूर्ण लेख अपने मोबाइल में ही पढ़ लिया था पर उससे ज्यादा लिख नही पाती अतः अब संभव हो पा रहा है | अपने बचपन किशोर वयकी यादों के साथ सजा कर इस लेख को अत्यंत सादगी के साथ लिख अपने मन की बातों के रूप में मेरे और सबके मन की बात लिख दी | मेरी सासु माँ कहती हैं कि जब हम बचपन हंस के लेते हैं , जवानी हंस के जीते हैं तो बुढ़ापा क्यों ना लें | इसे भी खुले मन से स्वीकार करें | पर मन में बचपन शेष रहना जरूरी है | कई लोग शरीर से बूढ़े भले हो जाएँ पर उनकी बातों , उनकी मुस्कान और आँखों से निश्छल बचपन कभी दूर नहीं होता| आपकी ही तरह मेरी बेटी भी मुझे बहुत सारे ब्यूटी टिप्स देती है और कहती है कि आप अपना ख्याल रखो नहीं तो बूढ़े दिखने लगोगे | मैं भी हंस देती हूँ , ये कहकर कि बुढ़ापा तो मुक्ति का द्वार है साथ में एक थकन भरी मानसिक अवस्था है जिससे बचने का एक ही रास्ता है भीतर के बचपन को ज़िंदा रखना | बहुत कठिन है किसी का सरल होना , वो भी एक बालक की तरह| उसी के साथ अपनी रचनात्मकता के साथ जीना हमे अनंत आनंद और आह्लाद से भर देता है | आपके लेख से कई बीते अनमोल पल आँखों में जीवंत हो दस्तक दे गये | शब्द नगरी ने आपके सुंदर लेख को अपने मुख्य पेज पर सजाया आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनायें | इस मंच पर आपके भावपूर्ण मौलिक सादगी भरे लेखन ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई है | मेरा हार्दिक स्नेह आपके लिए

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  3. परेशानियां और उलझन तो जीवन का हिस्सा है सखी ,अगर खुद के अंदर बचपन ज़िंदा रखेंगे तो यकीनन थोड़ा सुकून मिलेगा ,आभार सखी

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  4. मन का बच्चा सच है की कभी मरने नहि दे इंसान तो
    जीवन का असल मज़ा कहीं भी कभी भी और किसी भी माहोल में जिया जा सकता है ... बचपन की यादें जब सुकून देती हैं तो बचपन में जीना कितना मस्त बनाएगा जीवन ...

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  5. प्रिये स्वेता जी ,आप के स्नेह ,प्रोत्साहन और सहयोग के लिए तहे दिल से शुक्रिया ,आप सब ने मुझे इस काबिल समझा।इस मंच की मैं सदा आभारी रहूंगी। सस्नेह

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  6. जीवन के कई पहलुओं को छूती हुई सुंदर लेखनी..

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    1. प्रिये पम्मी जी ,आभारी हूँ ,जो आप ने मेरी रचना को सराहा ,इस अनजान पथ पर आप सब के सहयोग ने जो मेरी छोटी सी कोशिश को प्रोत्साहित किया ,दिल से शुक्रिया

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  7. प् प्रिय कामिनी रचनात्मकता के शिखरkeeओर पहला कदम मुबारक हो सखी।

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    1. प्रिये सखी रेणु ,आप को क्या कहुँ...... बस स्नेह सखी, आप के साथ और सहयोग ने ही मुझे इस मंच तक पहुंचाया ,मैं तो इस राह की एक अनजान पथिक थी.

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  8. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस लेख में।

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    1. आदरणीय संजय जी ,आभारी हूँ........ आप के इस प्रोत्साहन के लिए ,

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  9. हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं संजय भास्कर हार्दिक स्वागत करता हूँ.

    संजय भास्‍कर
    शब्दों की मुस्कुराहट
    http://sanjaybhaskar.blogspot.in

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    1. आदरणीय संजय जी ,आभारी हूँ आप सब के इस स्नेह की ,ब्लॉग की ये दुनियाँ मेरे लिए बिलकुल नयी है ,आप सब का साथ मिला तो थोड़ा हौसला बढ़ा दिल से शुक्रिया

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  10. प्रिये श्वेता जी ,मैं आप सब की आभारी हूँ ,आप सब ने हमे अपनाया ,इतने बड़े मंच पर मेरी लेख को साझा किया ,ये मेरा सौभाग्य है जो इस अनजान पथ पर आप सब जैसे साथी मिले ,मेरी लिए ये दुनिया बिलकुल नयी है ,कोई ज्ञान नहीं ,बस ये विश्वास हो गया कि आप सब का साथ मिल गया तो सफर सुहान रहेगा ,दिलसे धन्यवाद

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  11. सच कहा आपने अगर हम अपने अंदर के बच्चे को ज़िंदा रखें तो, ना तो हमे कोई दुःख सताएगा ,ना अकेलापन।
    बहुत ही बेहतरीन लेख लिखा आपने 👌👌

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    1. अनुराधा जी ,आप के स्नेह और प्रशंसा के लिए तहे दिल से शुक्रिया ,बचपन अनमोल होता है वो कभी लौट के तो नहीं आता पर उसकी यादे हमे ताज़गी दे जाती है ,आभार ..........

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  12. बहुत ही सुंदर, सरल, सरस कामिनी जी बचपन की यादों को यूंही सहेजे रखें और मन के किसी कोने में छूपे मासूम शरारती बच्चे को सदा बच्चा ही रहने दें तो सच हर उम में जिंदगी ताजगी और सूकून से जी जा सकती है और हमारे बच्चों द्वारा दी गई नसीहत याद दिलाती है कि भाई आप जिस स्कूल में दाखिल हुए हो हम वहां के हेड मास्टर रह चुके हैं।
    सच बहुत प्यारा संस्मरण युक्त आलेख सुंदर चिंतन देता ।
    ब्लाग दुनिया में आपका व आपके पहले आलेख का सहर्ष स्वागत है।
    सस्नेह

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    1. आभार..... कुसुम जी ,आप के स्नेह और प्रशंसा के लिए

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  13. बहुत सुंदर, सरल, सरस।
    बचपन को यादों में ससहेज कर रखें और मन के किसी कोने में छुपे मासुम शरारती बच्चे को सदा बच्चा ही रहने दें तो जिन्दगी में मायूसी कभी नही आ सकती बहुत सुंदर बात कही आपने और अपने बच्चों से जब नसीहत मिलती है तो यूं बोल उठता है मन भाई आपने जिस स्कूल में दाखिला लिया है वहां हम हेडमास्टर रह चुके ।
    बहुत सुंदर संस्मरण जैसा आलेख।
    ब्लाग पर आपका आपकी पहली कृति के साथ स्वागत ।
    सस्नेह।

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    1. प्रिये कुसुम जी ,आप के स्नेह और प्रशंसा के लिए तहे दिल से शुक्रिया..... ,बचपन की अनमोल यादे कहाँ कभी दिल से जाती है उस पर तो जितना लिखा जाये वो कम ही है

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  14. बचपन की मासूमियत अगर सदा बनी रहे तो जीवन कितना सहज व् सुंदर होगा .... बहुत सुंदर लिखा आपने

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    1. अपनी बहुमूल्य प्रितिक्रिया देने के लिए........बहुत बहुत धन्यवाद आप का ,आभार.....

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  15. सार्थक और प्रभावी आलेख
    बधाई
    सादर

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    1. आभार...... आदरणीय ,आप का मेरे ब्लॉग पर स्वागत है .....

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  16. दिल तो बच्चा है..सही कहा और ये दिल हमेशा बच्चा ही रहता है...बस हम इसे चुप करा देते हैं और यह अपने बचपन को अपने ही अन्दर छुपा देता है...बहुत ही सुन्दर आलेख आपका....जिन्दगी के कई झरोखों को झाँँकता हुआ.....।
    लाजवाब लेख के लिए अनन्त शुभकामनाएं...

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    1. आदरणीय सुधा जी ,आप मेरे ब्लॉग पर आई ये मेरा सौभाग्य है , मेरे ब्लॉग पर स्वागत है आप का ,आप के स्नेह और प्रोत्साहन के लिए सह्रदय धन्यवाद.....

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