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रविवार, 6 नवंबर 2022

"तुलसी विवाह"आस्था की प्रकाष्ठा

 





कल मन्दिर में तुलसी विवाह समारोह था। मैं भी इस विवाह में शामिल थी।जब विवाह की सारी रस्में हो रही थी जैसे वरमाला, कन्यादान और फेरे तो मेरे मन में कई सवाल उठ रहें थे "एक पौधे का एक पत्थर से विवाह"
कैसी प्रथा है?

 कैसी रस्में है ये?

क्या ये ढकोसला है या बेवकूफी?

आज के इस जेट और नेट के युग में भी ये रुढ़िवादिता ?

 देखने-सुनने में कितना अजीब लगता है न ?

दूसरे धर्मो के लोग इसे क्या समझेंगे ?

लेकिन ये है सनातन धर्म की "आस्था की प्रकाष्ठा"  

आज की नई  पीढ़ी के लिए ये सारी बातें जरूर ढकोसला या अन्धविश्वास होगा मगर, ये प्रथाएं सिद्ध करती  है कि-हमारी पौराणिक कथाओं में कुछ तो सत्यता है जो आज भी ऐसी  प्रथाओं को पुरी आस्था-विश्वास और श्रद्धा  साथ निभाया जाता है। लोग इतने प्यार से तुलसी जी को सजा-सँवार रहें थे जैसे अपनी बेटी को सजाते हैं  हल्दी,मेहँदी,चूड़ी-कंगन,बिंदी-सिंदूर और चुँदरी चढ़ा रहें थे। एक वर पक्ष था जो शालिग्राम जी को हाथ में लिए हुए  थे और एक कन्या पक्ष जो तुलसी जी को हाथ में उठाये हुए थे और उनके फेरे लगवाएं गए उससे पहले वधु पक्ष ने तुलसी जी का कन्यादान भी किया। सारे विधि-विधान पुरे आस्था और श्रद्धा के साथ किया गया। 

ये सब देख मैं सोच  थी कि-कितनी गहरी है हमारी सनातन धर्म की जड़ें जो आज भी किसी के हिलाये नहीं हिलती। तुलसी और शालिग्राम जी की कथा तो सर्वविदित है इसे बताने की जरूरत नहीं। बस ये कहना चाहूँगी कि-कुछ बातें ऐसी होती है जो पौराणिक कथाओं की सत्यता स्वयं सिद्ध करती है।

तुलसी जी का नाम वृंदा था। वृंदा एक वैध थी और उनमें निष्काम सेवा भाव कूट-कूटकर भरा था। पंचतत्व का शरीर त्यागने के बाद जब उन्होंने एक पौधे का रूप धारण  किया तब भी वो अपनी प्रवृत्ति नहीं बदली, इस रुप में भी वो अपनी औषधीय गुण से मानव कल्याण ही करती है।तुलसी के पौधे का एक-एक भाग ओषधियें गुणों से भरपूर है। "शालिग्राम" को जीवाश्म पथ्थर कहते हैं। "जीवाश्म" अर्थात "पृथ्वी पर किसी समय जीवित रहने वाले अति प्राचीन सजीवों के परिरक्षित अवशेषों" अर्थात किसी समय ये पथ्थर सचमुच जीवित होगा और शालिग्राम जी गंडकी नदी के अलावा और कहीं क्यों नहीं मिलते? एक पत्थर ही तो है कहीं भी मिल सकते थे।ये सारी बातें कही-न-कही ये सिद्ध करती है कि-कुछ तो सच्चाई थी इन कथाओं में।अब तर्क-कुतर्क करने वालों को तो कुछ कह नहीं सकते।  ये कहानी एक बात और सिद्ध करती है कि भक्त और भगवान के सम्बंध में कोई बड़ा-छोटा नही होता। भक्त वृन्दा के श्राप से भगवान भी मुक्त नही हो सकें।

अब एक बार ये सोचे कि-ये बातें मनगढ़ंत है तब भी प्रकृति और पुरुष का ये अद्धभुत मिलन समारोह ये क्या सिद्ध नहीं करता कि -हमारी सनातन संस्कृति अपनी प्राकृतिक धरोहर को पूजनीय मान इनका पूरी श्रद्धा से संरक्षण करती थी ?

और आज हम अपने ही हाथों से अपनी संस्कृति और प्रकृति दोनों का सर्वनाश कर रहें हैं।