"अरे 11 बज गए" माँ को फोन करना था इंतज़ार कर रही होगी" नीरा अपने आप में ही बड़बड़ाई। किसको कॉल करना है...कितनी बार याद दिलाऊँ माँ, नानी चली गई....इतनी दूर जहाँ से कोई कॉन्टेक्ट नहीं हो सकता....मनु ने नीरा को पीछे से पकड़ते हुए कहा। अरे हाँ,मैं तो भूल ही जा रही हूँ -कहते हुए नीरा ने मुँह फेर लिया शायद, मनु से अपनी आँसुओं को छुपाना चाहती थी। माँ के जाने के बाद नीरा जब तक मायके में थी तब तक तो रश्मो-रिवाज में बिजी थी मगर जब से घर वापस आई थी रोज का यही हाल था। अक्सर दिन के 11 बजे और शाम को 7-8 बजे माँ को फोन करना उसकी दिनचर्या में शामिल था और उस टाइम पर वो अनायास फोन उठा ही लेती। मगर जैसे ही याद आती कि "माँ अब नहीं रही" उसके अंदर कुछ टूटता सा महसूस होने लगता।
पिछले चार-पाँच महीना का दिनचर्या भी उस पर इस कदर हावी था कि-दिन हो या रात जब भी उसकी आँख लगती "आई माँ "कहते हुए वो उठ बैठती। पति और बेटी ने उसे बहुत हद तक संभाल लिया था...उन दिनों से उसे बाहर निकलने की भी पूरी कोशिश कर रहे थे मगर, नीरा कैसे भुला पाती उन चार-पाँच महीनों को....जिसका एक-एक पल माँ के इर्द-गिर्द उनकी सेवा में ही गुजरा था। चार-पाँच महीना क्या वो तो बीते चालीस साल से माँ की सेवा कर रही थी और अचानक एक दिन उसे छुट्टी मिल गई उसे लग रहा था जैसे उसके जीवन में कुछ करने को बचा ही नहीं....
मम्मा, अब बाहर आ जाओं इन सब से चलो, मैं आपका सर सहला देती हूँ सो जाओं थोड़ी देर- मनु ने नीरा को बड़े प्यार से समझाया तो नीरा की ऑंखें फिर भर आई बोली- चालीस साल बेटा, भूलने में वक़्त तो लगेगा न...बेटा मैं लगभग दस साल की थी.....उन दिनों माँ बहुत बीमार हो गई.....डॉक्टरों ने उन्हें तीन महीने का बेड रेस्ट बता दिया और मैंने पूरा घर संभाल लिया....ना कभी माँ पुरी तरह ठीक हुईं और ना ही मेरे जीवन से वो तीन महीने कभी ख़त्म हुए....
नीरा फिर अतीत की गहराईयों में खो गई....शादी के बाद भी वो मायके की जिम्मेदारियों से कहाँ मुक्त हो पाई थी....क्योंकि ससुराल में तो उसे परिवार मिला ही नहीं....इसलिए माँ-पापा ने उसे हमेशा खुद से ही बाँधे रखा और खुद नीरा भी माँ-पापा भाई बहनों की जिम्मेदारियाँ संभालते-सँभालते उनसे ऐसी जुड गई थी कि उससे भी वो बंधन तोडा ना गया। भाई जब तक कुंवारे थे अपने थे...शादी होते ही वो गैर के हो गए। बड़ा भाई तो बिलकुल बीवी के पल्लू से बंध गया...हाँ,छोटा अपनी बीवी से लड़-झगड़कर जुड़े रहने की कोशिश करता रहा और आखिरी वक़्त में भी माँ छोटे वाले भाई के घर ही रही थी। तन-मन दोनों से थक गई थी वो जिम्मेदारियाँ उठाते-उठाते ऊपर से भाभियों के लालझन ने उसे और तोड़ दिया था और फिर.....माँ के जाते ही अचानक से उसे सारी जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल गई, कभी उसको खुद का वज़ूद हल्का लगने लगता और कभी इस खालीपन से वो बेचैन होने लगती।ऐसा नहीं था कि उसके ऊपर अपने घर-परिवार की जिम्मेदारी नहीं थी लेकिन फिर भी उसे लगता जैसे सारा काम खत्म हो गया है....जबकि उसे भी पता था...काम ख़त्म नहीं हुआ है बस....जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ है...
माँ की जीवन के आखिरी चार-पाँच महीने तो नीरा के लिए बेहद सुखद भी थे और कष्टदायक भी। सुखद इसलिए कि-आखिरी दिनों में उसे माँ की भरपूर सेवा करने का अवसर मिला और कष्टदायक इसलिए कि माँ की पीड़ा उससे देखी नहीं जाती। जब माँ कुछ खाने की जिद्द करती और वो नहीं दे पाती,जब माँ अपनी शारीरिक पीड़ा से कराह उठती,बिस्तर से उठ कर घूमने की जिद्द करती, नहाने की जिद्द करती तो उसकी और अपनी बेवसी पर नीरा तड़प उठती थी। नीरा के लिए माँ एक-दो साल की छोटी बच्ची बन गई थी...छोटे बच्चें की तरह उसकी मालिस करना,स्पंजिंग करना,डाईपर बदलना,उसे सजाना-संवारना,अपने हाथो से खाना खिलाना, उसका दिल बहलाने के लिए घंटो उससे बातें करना, उसे भजन और गीता का पाठ सुनाना और उसके सारे नखरे उठाना बस...यही उसकी और उसके छोटे भाई की दिनचर्या बन गई थी। हाँ,उसका छोटा भाई भी अपनी बीवी की नाराजगी सहते हुए भी माँ के सेवा में एक बेटी की तरह से लगा था।
फिर कहाँ खो गई माँ....मैं जानती हूँ नानी माँ तुम्हारी माँ कम बेटी ज्यादा थी मगर....तुम्हारी एक बेटी मैं भी हूँ...अब मुझ पर ध्यान दो -मनु ने हँसते हुए कहा। नीरा ने मनु को गले लगा लिया वो उससे कहना चाहती थी..."अब तुम्ही तुम हो" मगर...होठ खामोश रहे उसके। उसकी चुप्पी देख मनु ही बोली- अच्छा ये राज तो बताओं नानी तुम्हारी माँ से बेटी कैसे बन गई....वो तो तुम्हारे साथ मुझसे भी ज्यादा नख़रे दिखाती थी....उतना तो मैंने भी तुम्हें तंग नहीं किया जितना उन्होंने किया। नीरा हँस पड़ी उसे माँ की आखिरी दिनों की बातें याद आ गई बोली- पता है बेटा, आखिरी दो महीने तो नानी बिलकुल छोटी बच्ची बन गई थी....हर वक़्त वो मेरा दुपट्टा पकडे रहती थी...अगर थोड़ी देर के लिए भी मैं उससे दूर हो जाती तो "माँ-माँ" चिल्लाने लगती और सबको परेशान कर देती....जब पास आऊँ तो मुझसे नाराज होकर बात नही करती...फिर मुझे उसको घंटों मनाना पड़ता और फिर ना छोड़कर जाने का वादा करना पड़ता...रात को जब सोती तब भी मुझे कसकर पकड़े रहती और पूछती...."सो जाऊँगी तो छोड़ कर जाओंगी तो नहीं" फिर....खुद ही हँसकर कहती -"माँ के साथ भी ऐसा ही किया करती थी" एक पल में मेरी बेटी बन जाती तो दूसरे पल में मेरी माँ....और कभी मुझे पहचानती ही नहीं, मुझसे पूछती- "तुम कौन हो" सबको पहचानती बस मुझे ही भूल जाती.....कभी-कभी तो मुझसे ही पूछती " नीरा कहाँ है मेरी नीरा को बुला दो" जब मैं कहती- "मैं नीरा हूँ माँ तुम्हारी नीरा" तो बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में कहती- "पता नहीं मुझे क्या हुआ है, तुम तो मेरी कस्तूरी बन गई हो...हर पल मेरे पास होती हो फिर भी मैं तुम्हें ही ढूँढती रहती हूँ"
मगर, ऐसा क्यों था माँ....तुम्हारा और उनका रिश्ता मुझे कभी समझ ही नहीं आया- ये कहते हुए मनु के चेहरे पर कुछ अलग ही भाव थे। नीरा ने गहरी साँस लेते हुए कहा- मैं भी कभी नहीं समझ पाई बेटा- सच, मेरा उनका रिश्ता कुछ अजीब ही था.....वो तो मुझे ही अपनी माँ मानती थी....पता नहीं क्यूँ उसको यकीन था कि- मैं उसकी पिछले जन्म की माँ हूँ....अब पूर्वजन्म में विश्वास वजह था या मेरा उसका जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना वो तो परमात्मा ही जाने...वो अक्सर बीमार रहा करती थी और दस साल की उम्र से ही मैं उसकी सेवा करती रही....सेवा करते-करते कब वो मेरी माँ से मेरी बेटी बनी....हम दोनों नहीं जा पाए...तुमने तो देखा नहीं था न....आखिरी पल में भी उसकी आँखे मुझ पर ही टिकी थी मैं उसके चेहरे को साफकर क्रीम लगा रही थी....तुम्हे तो पता ही है न, नानी को क्रीम से कितना लगाव था...मैं उनसे बोल भी रही थी....चिंता ना करों जाते-जाते भी क्रीम लगाकर ही भेजूँगी और...पता है उसकी आँखे अचानक बड़ी हो गई और घुट्टी-घुट्टी सी आवाज आई "माँ" मैं बोल भी रही हूँ हाँ,बोलो न और....मैं वहाँ से हाथ धोने चली गई...मामा देख रहा था बोला-माँ चली गई दीदी....और मैं सुन सी खड़ी देखती रह गई...उसने मेरे हाथों में ही प्राण तज दिया था....आखिरी शब्द "माँ" कहते हुए और मैं समझ ही नहीं पाई बेटा कि- मेरी माँ जा रही है- कहते-कहते नीरा फफक पड़ी। मत रो माँ....नानी कितनी तकलीफ में थी...हम सब उनकी तकलीफ देखकर भगवान से उन्हें ले जाने की ही तो प्रार्थना कर रहें थे...उनका जाना जरूरी हो गया था....मनु नीरा के आँसुओं को पोछते हुए उसके सर को अपनी गोद में रख सहला रही थी....और छोटे बच्चे की तरह समझा भी रही थी...नीरा को लगा जैसे अब वो छोटी बच्ची है और मनु उसकी माँ बन गई है......
[चित्र-गूगल से साभार]
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-03-2022) को चर्चा मंच "कटुक वचन मत बोलना" (चर्चा अंक-4385) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मेरे लेख को मंच पर स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद सर,सादर नमस्कार
हटाएंबस निस्तब्ध हूँ और यह निस्तब्धता बड़ा डराती है।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने, मौन ज्यादा डराती है इसीलिए कह देना चाहिए जो कहना चाहते है,ये कलम का सहारा अच्छा मिला है कुछ तो मन हल्का हो ही जाता है , सराहना हेतु दिल से शुक्रिया एवं नमस्कार
हटाएंप्रिय कामिनी,मनु और नीरा के संवाद के माध्यम से सहेजी गई ये मर्मकथा एक माँ-बेटी के अटूट रिश्ते की भावपूर्ण कहानी है,जिसे पढ़कर अनायास आँखें छलक पड़ी।जब बेटी के सामने आजीवन अदम्य साहस और जीवटता के साथ जीने वाली माँ,एक असहाय,खंडित मूर्त-सी पड़ी हो तो वह बेटी के लिए शिशु-तुल्य ही हो जाती है।मेरी दिवंगत दादी मुझे बचपन में अक्सर कहा करती थी कि इन्सान जीवन में पराजित तभी होता है जब वह दैहिक रूप से क्षीण और जर्जर हो जाता है।तब दुनिया के सब रंग बेमानी हो जाते हैं उसके लिए।उस समय, कोई उसे अच्छे से सम्भाले अथवा दुत्कार दे,ये सामने वाले की मर्जी।वह हर तरह से दूसरोँ पर आश्रित हो जाता है।पर एक बेटी माता-पिता को असहाय अवस्था बहुत बड़ा संबल प्रदान करती है जैसे नीरा ने किया।बिल्कुल तुम्हारी तरह------
जवाब देंहटाएंजैसे तुमने माँ को बेटी मानकर ही,अन्तिम समय में उनकी जी भर सेवा की और उनकी दारुण दशा पर तुम किस तरह व्याकुल और विचलित रही,मुझे पता है।पर सखी,माता-पिता या कोई भी,सदैव जीवन में कहाँ रह पाता है। संसार को ऋण बन्धु कहा गया है।शायद हर रिश्ता किसी ऋण चुकाने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा है।माँ को तुमने आजीवन और विशेषकर अन्तिम पलों में जो स्नेह दिया उसको चुकाने वे तुम्हारे घर जरुर आयेंगी एक दिन।एक माँ-बेटी के अटूट स्नेह-सेतु सी इस भावपूर्ण कथा की सराहना के लिए शब्द नहीं सूझ रहे मुझे।बस यही कहना चाह्ती हूँ माँ के अनंत पथ पर जाने की पीड़ा जीवन का सबसे बड़ा आघात है पर कहीं ना कहीं उनकी मृत्यु उनकी असहनीय पीड़ा से मुक्ति का पर्व भी था।अब तुम्हें उस दुख से बाहर आना ही होगा,अपनी बेटी के लिए,अपने लिये।इस असहनीय दुख में सभी तुम्हारे साथ हैं।माँ की पुण्य स्मृति को सादर नमन।
🙏🙏
किसी समय अपनी दिवंगता दादी के लिए लिखी गई मेरी कुछ पंक्तियाँ -------
है अवरुद्ध कंठ ,सजल नयन
बोलो ! माँ आज कहाँ तुम हो ?
कम्पित अंतर्मन -कर रहा प्रश्न
बोलो माँ आज कहाँ तुम हो ?
जिसमें समाती थी धार
मेरे दृग जल की,
खो गई वो छाँव
तेरे आँचल की ;
जीवन रिक्त स्नेहिल स्पर्श बिन
बोलो ! माँ आज कहाँ तुम हो ?
हुआ आँगन वीरान माँ तुम बिन
घर बना मकान माँ तुम बिन !
रमा बैठा धूनी यादों की -
मन श्मशान बना माँ तुम बिन !
किया चिर शयन -चली मूँद नयन,
बोलो ! माँ आज कहाँ तुम हो ?
तेरा अनुपम उपहार ये तन
साधिकार दिया बेहतर जीवन!
तेरी करुणा का मैं मूर्त रूप
तेरे स्नेहाशीष संचित धन !
ले प्राणों में थकन -निभा जग का चलन
बोलो माँ ! आज कहाँ तुम हो !
🙏🙏😔🙏🙏😔🙏🙏😔🙏🙏
हाँ सखी,ये माँ के लिए तो "मुक्ति का पर्व" ही था हाँ हमारी दुनिया जरूर सुनी हो गई। मैंने तो कहानी लिखी थी और तुम तो मेरी नब्ज ही पकड़ ली। सखी,
हटाएंकोई भी जख्म भरने में वक़्त तो लगता ही है धीरे-धीरे कम हो जायेगा। तुम्हारी हृदयस्पर्शी कविता ने तो और भावुक कर दिया। तुम्हारी सराहना और संतावना दोनों मेरे लिए बहुत अहम है तहे दिल से शुक्रिया सखी,ढेर सारा स्नेह तुम्हे
बहुत मार्मिक बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर,सादर नमन
हटाएंहृदय को द्रवित करते भाव या सत्य जो आपने जीए हैं उनसे अलग होना मुश्किल है कामिनी जी पर सामने एक और कर्तव्यों की ममता मय डगर भी है।
जवाब देंहटाएंहृदय स्पर्शी लेख।
सहृदय धन्यवाद कुसुम जी,जीवन यही है जो छूट गया उसे पीछे छोड़ते हुए जो आगे है उसका हाथ थाम आगे बढ़ना ही होता है,आपके स्नेह के लिए हृदय से आभारी हूँ,सादर नमन आपको
हटाएंशब्द कम पड़ रहे हैं कामिनी जी आपकी नीरा को समझाने के लिए , मर्मस्पर्शी लेख।
जवाब देंहटाएंजब नीरा के पास आप सब जैसी स्नेहिल सखियाँ हो तो धीरे-धीरे नीरा खुद ही समझ जाएगी। आपकी बारम्बार दी हुई प्रेरणा और प्रोत्साहन ने मुझे कलम उठाने का साहस दिया तो सोचा पहले दर्द ही निकल दूँ तब कही जाकर कुछ अच्छा लिख पाऊँगी। आपके इस मानसिक सहयोग के लिए हृदयतल से धन्यवाद सखी
हटाएंआप सदैव ख़ुश रहें ।ख़ुशियाँ बांटने से बढ़ती हैं और दर्द कम होते हैं । आपका सृजन कौशल दिनोंदिन बढ़ता रहे ।सस्नेह….।
हटाएंहृदय तल से धन्यवाद मीना जी, आप का
हटाएंस्नेह अनमोल है,🙏
दिल को छूने वाली मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद अनीता जी,सादर नमस्कार
हटाएंआपकी कहानी माँ बेटी के अनमोल रिश्ते का सुंदर प्रतिबिम्ब दिखा गई । सच में ये रिश्ता दुनिया के हर रिश्ते में सबसे ऊपर है।
जवाब देंहटाएंये भी ख़ुशनसीबी ही होती है कि कोई बेटी अपनी माँ की अंतिम क्षणों तक सानिध्य में रहकर सेवा कर सके ।
दिल को छूती उत्कृष्ट कहानी लिखी है आपने ।
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद जिज्ञासा जी 🙏
हटाएंबहुत सुन्दर आलेख, मनु और नीरा के संवाद ने दिल को भावुक कर दिया , मार्मिक। जय श्री राधे।
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग रुपी घर में आपका स्वागत है आदरणीय,सराहना हेतु दिल से आभार एवं नमन
हटाएंबहुत ही सुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएं- बीजेन्द्र जैमिनी
मेरे ब्लॉग रुपी घर में आपका स्वागत है आदरणीय,सराहना प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार एवं नमन
हटाएंकामिनी दी,जब मैं ने पढ़ना शुरू किया तब ही कही न कही महसूस हुआ कि ये कहानी नीरा की नहीं आपकी खुद की है। क्योंकि जिन शब्दों में आपने इसे पिरोया है वो शब्द कोई आप बीती ही लिख सकता है।
जवाब देंहटाएंदी आपको इस दुख से निकलना ही होगा। वास्तव में माँ को तो मुक्ति ही मिली न। कितने दुख सहे उन्होंने। अपने आप को संभालिए दी।
ढाढ़स बँधाते आपके शब्दों ने मेरे दर्द पर मरहम सा काम किया है। आपका तहे दिल से शक्रिया सखी
हटाएंभूलना तो होता ही है मगर थोड़ा वक़्त लगता है। इस कहानी के माध्यम से मैंने अपना दर्द निकलने की ही कोशिश की है। क्योंकि बहुत सी बातें हम किसी से कह नहीं पाते तो हमारे पास ये अच्छा माध्यम है अपने दर्द को शब्दों में ढालकर कागज पर उकेर दे और थोड़ा काम कर ले।
बहुत बहुत शुक्रिया ज्योति जी
ये सौभाग्य ही है कि माँ की सेवा का अवसर मिला औरसेवा ऐसी की कि माँ बेटी में अपनी माँ देखने लगी । माँ का सम्बोधन करने लगी बेटी को...मेरी नजर में ये उऋण होना है कामिनी जी ,कहते हैं न माँ बाप का ऋण कोई नहीं चुका सकता...आपने चुकाया हैबहुत बहुत सौभाग्यशाली हैं आप सेवा तो बहुत लोग करते हैं तन की सेवा । पर मन तक जो पहुँचे ऐसी सेवा जो एहसान से ऊपर अधिकार बन जाय माँ सा स्नेह दे ...ऐसी सेवा हर ऋण से उऋण कर देती है । आपका सेवाभाव वंदनीय है अब आप बस दुखी मत रहिएगा... आपकी खुशी में माँ का मौक्ष है..ऐसा मेरा मानना है।
जवाब देंहटाएंसत्य को बहुत ही सत्यता से लिखा है आपने ।जो दिल को छू रहा है।
इस नजरिये से तो मैंने सोचा ही नहीं था सुधा जी,कि "माँ ने मुझे अपने ऋण से उऋण होने का अवसर दिया"
हटाएंआपके बातों से मुझे बड़ा संतोष मिल रहा है। माँ-बाप के ऋण से तो कोई उऋण हो ही नहीं सकता फिर भी मेरी माँ ने मुझे उऋण किया।
मैंने तो कहानी समझकर ही अपनी व्यथा लिखी थी पता नहीं आप सखियों ने कैसे मेरे अंतर्मन के भाव को पढ़ लिया। ये आभासी दुनिया के हमारे रिश्ते भी बड़े ही अनोखे है दूर रहकर भी दर्द जान जाते हैं। मैं पूरी कोशिश कर रही हूँ इस दर्द से बाहर आने की और उसी का एक प्रयास ये कहानी भी है। मैंने सुना था अपना दर्द लिख दो तो मन हल्क़ा हो जाता है। और मुझे तो आप सभी का स्नेह भी मिल गया। आपकी इस स्नेह के लिए हृदयतल से धन्यवाद सुधा जी
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जवाब देंहटाएंसच में ये रिश्ता दुनिया के हर रिश्ते में सबसे ऊपर है माँ बेटी के अनमोल रिश्ते का सुंदर प्रतिबिम्ब दिखा गई कामिनी जी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया संजय जी,सच कहा आपने माँ-बेटी का रिश्ता ही अलग होता है।
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