सर्वविदित है,आजकल "आर्युवेद" और "एलोपैथ" में घमासान छिड़ा हुआ है। आज से पहले शायद, ऐसी बहस कभी देखने को नहीं मिली थी। क्योंकि आर्यवेद ने कभी सर उठाया ही नही ,कैसे उठता बेचारा वो अपनों से ही उपेक्षित जो था। उसे तो अछूत समझ सब अलग हो ही गए थे। अब निमित कोई भी बना हो मगर सत्य यही है कि -"आर्युवेद"सर उठा रहा है। अब स्वाभाविक है जो इतने दिनों से मुँह छुपाये फिर रहा था...काबिलियत होते हुए भी नाकाबिल करार दे दिया गया था....वो भी अपनों के द्वारा....वो यदि धीरे-धीरे अँधेरे से निकल घर के बाहर उजाले में आने लगा तो....अचरज तो होगा ही और जिस पडोसी ने घर के अपने ही संतान को घर से बाहर निकाल दिया था और समस्त परिवार पर अखलराज कर रहा था...वो तो तिलमिलायेगा ही। अब बेचारा "आर्युवेद" शिकायत भी किससे करता ?
लेकिन आज के इस दौर के "कोरोना काल " में आर्युवेद और योग ने अपना महत्व समझा ही दिया है,इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। "गिलोय" जिसे आर्युवेद की अमृता कहते हैं आज से दस साल पहले एका-दुक्का ही इसका नाम जानते थे आज बच्चा-बच्चा जानता है। यकीनन पचास प्रतिशत घरों में इसका पौधा भी मिल जायेगा। वैसे ही एलोविरा अर्थात "घृत कुमारी" जिसका नाम कभी-कभी दादी के मुख से सुना था मगर देखा नहीं था आज घर-घर में मिल जाएगा। ऐसे कितने ही औषधियों का नाम हम जान चुके हैं। योग से तो युग-युग की दुरी हो गई थी,प्राणायाम किस चिड़िया का नाम है जानते भी नहीं थे, आज अपना रहे हैं ।
बड़ा दुखद है अपनों को भुलाकर हमने गैरों को अपना लिया। गैरों को अपनाने में कोई बुराई नही ये तो हमारी सहृदयता है, सबको मान-सम्मान देने की हमारी भावनाओं ने ही तो हमें अपनी अलग पहचान दी है। मगर, इसके लिए क्या अपनों को उपेक्षित करना जरूरी था ?बिलकुल नहीं। 200 सालों की गुलामी ने हमसे हमारा बहुत कुछ छीन लिया। ये बात सत्य है कि -अंग्रेज तो चले गए लेकिन उनकी गुलामी से हम कभी आजाद नहीं हुए। उन्होंने हमारी रग-रग में अपनी अपनी संस्कृति और सभ्यता भर दी और उसी में ये एक "एलोपैथ" भी है।
मेरा मानना है कि ना कोई सभ्यता-संस्कृति बुरी होती है ना कोई "पैथ" यानि ईलाज का तरीका। बुरे होते हैं इसका गलत प्रसारण करने वाले या गलत शिक्षा देने वाले या स्वार्थ से बशीभूत हो इसका दुरोपयोग करने वाले और इनसे भी पहले हम खुद...खासतौर पर वे जो पढ़े-लिखे है, अनुभवी है या यूँ कहे जो खुद को ज्ञानी मानते हैं। जिनके पास बुद्धि-विवेक तो है पर परखने की शक्ति नहीं....सर्वसामर्थ होते हुए भी जो सही गलत को चुन नहीं पाते।
हाँ,बुरा ईलाज का तरीका नहीं है बुरे हो गए है ईलाज करने वाले। बुरे हो गए है हम जिन्हे सब कुछ "इंस्टेंट "चाहिए। ना हममें धीरज बचा है ना सहनशक्ति। जिसका नाजायज फायदा "एलोपैथ" उठता है। क्यों ना उठाये---उसने देखा कि ये लोग तो खुद ही अपनी पद्धति को ठुकरा चुके हैं सिर्फ उनके धीमें रफ्तार के कारण तो यदि, मैंने भी वही तरीका अपनाया तो मेरी दुकानदारी भी बंद हो जायेगी...जैसे भी हो तत्काल रोग को ठीक करो और तत्काल ठीक होने का कुछ तो बिपरीत प्रभाव जरूर होगा। साधारण सी सर्दी-जुकाम जिसकी उम्र सिर्फ ढाई दिन की होती है उसके बाद वो खुद ब खुद बिना दवा के ठीक हो जाता है आज वो लाईलाज "कोरोना " का रूप ले लिया है क्यों ? छोटे-छोटे रोगों में भी एंटीबायोटिक खा-खाकर अनगिनत रोगों को न्यौता दे दिया हमने।
आज ये झगड़ा या बहस सिर्फ एलोपैथ या आर्युवेद का नहीं है। ये बहस हमें खुद से करनी होगी हमें क्या चाहिए "इंस्टेंट आराम या सम्पूर्ण रोग विराम " ये हमें तय करना है।
"पैथ "कोई भी हो सबकी अपनी एक खास महत्ता है सब अपने आप में परिपूर्ण है। मुश्किल से मुश्किल रोगों को भी नेचुरलपैथ, आर्युवेद और होमियोपैथ से भी ठीक होते देखा गया है। इन पैथो से मुख मोड़ने और एलोपैथ की तरफ आकर्षित होने की खास वजह थी "डॉक्टरों का रवईया " एलोपैथ के डॉक्टर जब तेज़ी से रोगो को दूर करने लगे तो सबका आकर्षित होना लाजमी था। उस वक़्त धीरे-धीरे होमियोपैथ और आर्युवेद के डॉक्टरों के पास मरीजों की संख्या घटने लगी। उस वक़्त ये डॉक्टर भी मरीजों को फंसाये रखने के लिए या यूँ कहे अपनी दुकानदारी चलाने के लिए ईलाज का तरीका कॉम्प्लिकेटेड करते गए। अब यहां इन डॉक्टरों की इस मानसिकता के पीछे एक और वजह थी "हमारी गलत सोच" -जब हम एलोपैथ से ईलाज करवाते हैं तो डॉक्टर दवा देने के बाद कहता है -"फिर तीसरे दिन आकर दिखवा लेना" रोग ठीक हो या ना हो हम तीसरे दिन उस डॉक्टर के पास दुबारा जरूर जाते हैं लेकिन जब दूसरे पैथ में ईलाज करवा रहे होते हैं तो तीन दिन में रोग ना ठीक हो तो डॉक्टर को दोषी करार दे डॉक्टर बदल लेते हैं और यदि ठीक हो जाए तो दुबारा जाकर सलाह लेने की जहमत नहीं उठाते। क्योंकि हमारी नज़र में इन पैथो की महत्ता इतनी ही है। भले ही एलोपैथ ने "इंस्टेंट" एक रोग ठीक कर हमें दूसरे रोग का शिकार बना लिया हो फिर भी हम उस डॉक्टर की तारीफ करते हुए दुबारा उसके पास जायेगे मगर दूसरे पैथ उसी रोग को तीन दिन के वजाय छह दिन में पूर्ण ठीक कर दे वो भी बिना किसी साईड इफेक्ट के तो भी हम उस डॉक्टर को नाकारा घोषित कर देंते हैं ।
हमारी इसी मानसिकता ने सभी पैथों के डॉक्टरों को हमें लूटने की खुली छूट दे दी। अब हम जब खुद लूटने को तैयार है तो कोई लूटेगा क्यों नहीं ? हमारी ये भी मानसिकता हो गयी है कि -"अच्छा डॉक्टर वही है जिसकी मोटी फ़ीस है जिसके पास ताम-झाम ज्यादा है।" होमियोपैथ में भी जितने भी डॉक्टरों की मोटी फीस है उनके यहाँ मरीजों की लम्बी लाइन लगी होती है मगर एक छोटा सा क्लिनिक खोलकर बैठा डॉक्टर कितना भी काबिल हो उसकी कदर नहीं होती भले ही वो महंगे डॉक्टर से कम पैसों में आपका बेहतर ईलाज कर दे। यहाँ हम ये बात सिद्ध कर देते हैं कि -"जो दिखता है वही बिकता है"इसिलए आजकल दिखावे पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है।
मेरा मानना ये है कि -हम खुद ही समस्याओं को जटिल करते हैं और जब वे हमें जकड़ लेती है तो दोषारोपण भी खुद ही करते हैं और यही करके हमने खुद डॉक्टरों को हमारे साथ गलत करने को मजबूर किया है। "एलोपैथ पद्धति" में शुरू से ये बात स्पष्ट था कि -इसके साइड इफेक्ट होते हैं, सिर्फ एक यही कारण था कि -डॉक्टर हैनीमेन जो खुद एक प्रख्यात एलोपैथ डॉक्टर थे इस पद्धति से संतुष्ट नहीं थे और उनकी इसी असंतुष्टि ने होमियोपैथ को जन्म दिया था। ये बात जगजाहिर था कि इन दवाओं का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए।
आज कोई भी पैथ के डॉक्टर हो सभी रोगी का ईलाज नहीं बिजनेस कर रहे हैं। मुझे "आनंद फिल्म"के दो डॉक्टर्स याद आ रहे हैं एक डॉ.भास्कर बनर्जी जो लोगो के दुःख दर्द से दुखी होते हैं उसे पूरी तरह ठीक करने का रास्ता ढूढ़ते रहते हैं, जिन्हे रोग नहीं है उन्हें बेवजह दवाईयां नहीं देते, डांटकर भगा देते है, उनके इस व्यवहार के कारण एक काबिल डॉ.होने के बावजूद वो सफल डॉ. नहीं होते और एक डॉ.प्रकाश जो काबिल भी है और सफल भी क्योंकि उन्होंने रोगियों की मानसिकता पकड़ ली है। उस फिल्म में अच्छी कहानी के साथ-साथ मेडिकल से जुड़ा सत्य भी उजागर हुआ था कि -डॉक्टरी भावुक होकर नहीं की जा सकती रोगी की मानसिकता भी पहचाननी जरूरी है साथ-ही-साथ डॉक्टरों को मरीजों के जान के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी समझनी जरुरी है,डॉक्टरी सिर्फ पैसे कमाने के लिए भी नहीं है । आज डॉक्टर प्रकाश जैसे डॉक्टरों की ही आवश्यकता है।
चाहे ईलाज की पद्धति कोई भी हो डॉक्टरों का सहृदय होना बेहद जरूरी है वो अपना धर्म अगर भली-भाँति निभाए तो हर पैथ में सफल ईलाज संभव है। रोगो के जटिल होने पर एलोपैथ ने अनगिनत बार लोगों की जान बचाई है वही धीमे रफ्तार की कही जाने वाली होमियोपैथ की दवाओं के इंस्टेंट चमत्कार को भी मैंने खुद अनुभव किया है। जहाँ तक आर्युवेद की बात है वो तो भारत की सबसे पुरानी पद्धति है,जिसकी औषधी हमारे घरों में किसी ना किसी रूप में हर वक़्त उपलब्ध रहता है और वो भी इंस्टेंट असर करता है। बस आवश्यकता है हमें अपनी मानसिकता बदलने की। "मर्जी हमारी है ,आखिर तन हमारा है"
मेरा मानना है-निष्पक्ष होकर रोगों के जटिलता के अनुसार ही हमें किसी भी पैथ का अनुसरण करना चाहिए।
Sach kaha aapne .Alternative therapies se bhi kai baar bahut labh hota hai .
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद अनुपमा जी,सादर नमन
हटाएंसुंदर विश्लेषण
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद सर ,सादर नमन
हटाएंकामीनी दी, सही कहा आने की बुरा ईलाज का तरीका नहीं है बुरे हो गए है ईलाज करने वाले। बुरे हो गए है हम जिन्हे सब कुछ "इंस्टेंट "चाहिए। निष्पक्ष होकर रोगों के जटिलता के अनुसार ही हमें किसी भी पैथ का अनुसरण करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद ज्योति जी,अपना अनुभव तो यही कहता है ,सादर नमन
हटाएंसही कहा आपने कि पैथ "कोई भी हो सबकी अपनी एक खास महत्ता है सब अपने आप में परिपूर्ण है। मुश्किल से मुश्किल रोगों को भी नेचुरलपैथ, आर्युवेद और होमियोपैथ से भी ठीक होते देखा गया है हमें निष्पक्ष होकर रोगों के जटिलता के अनुसार ही किसी भी पैथ का अनुसरण करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब विश्लेषणात्मक लेख।
हृदयतल से धन्यवाद सुधा जी,मैंने अपना अनुभव ही साझा किया है आप सभी से। आपके विचार भी ऐसे ही है ये जानकर ख़ुशी हुई ,सादर नमन आपको
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ जून २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार श्वेता जी,सादर नमन
हटाएंअच्छा डॉक्टर वही है जिसकी मोटी फ़ीस है जिसके पास ताम-झाम ज्यादा है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल आपने सही फरमाया यह हमारी मानसिकता बन गई है कि जो डॉक्टर ज्यादा फीस लेता है वह काफी है अच्छा डॉक्टर होगा इसीलिए इन डॉक्टरों की दुकानों पर सबसे अधिक भीड़ होती है आजकल तो मैं देख रहा हूं ज्यादातर डॉक्टर फीस तो इतनी ही ले रहे हैं पर देख कर सिर्फ ऑनलाइन मोबाइल के द्वारा वीडियो कॉलिंग के द्वारा पेशेंट को देखा जा रहा है इनके साथ मेडिकल स्टोर वालों की भी चांदी हो रही है क्योंकि जो दवाइयां डॉक्टर लिखते हैं वह आपको और कहीं नहीं मिलेंगे उनके खुद के मेडिकल स्टोरों पर ही मिलेगी जिसमें उनका खुद का बहुत बड़ा कमीशन होता है इतना ही नहीं दादी कई तरह की मेडिकल रिपोर्ट करवाने के लिए बोलते हैं वह भी अपने ही सेंटर पर पूरी तरीके से लूटने का धंधा बना रखा है लेकिन गरीब आदमी करे तो करे क्या इलाज करवाना है तो यह सारी फॉर्मेलिटी करनी पड़ती है आपको बहुत-बहुत धन्यवाद बहुत ही सुंदर विश्लेषण किया आपने
सही कहा आपने सर,परन्तु क्षमा चाहूंगी -मैंने गरीबो को भी देखा है उन्हें भी तो इन ताम-झाम वाले डॉक्टरों पर ही भरोसा होता है। भले ही वो ईलाज करवाते-करवाते अपने आप को और निर्धन करले,कर्जे तक में डूब जाए। भले ही वो सरकरी बड़े-बड़े अस्पतालों के आगे ( जैसे एम्स,सफदरजंग हॉस्पिटल ) कई-कई दिनों तक बाल-बच्चों समेत पड़े रहते है। लेकिन जब उनका रोग अभी भयानक नहीं होता तो कोई भी घरेलू दवा या होमियोपैथ पर भी भरोसा नहीं करते। मैंने कई बार कितने ही गरीबो की मुफ्त में ईलाज करने की कोशिश की है मगर,वो कहते हैं इन मीठी गोलियों से कुछ नहीं होता। हम आप तो फिर भी इन तरीको को आजमा ले। बस मानसिकता ही हो गई है "मंहगी ईलाज ही कारगर होगी।"
हटाएंएक सच्ची घटना बताती हूँ -मेरे पड़ोस में बहुत ही अच्छा एलोपैथ डॉक्टर है जो गरीब मजदूरों को मात्र 50 रु में ही ईलाज करता था कोई ज्यादा टेस्ट वैगेरह भी नहीं करवाता दवाये भी सस्ती देता मगर वो लोग ये कहकर उसके पास नहीं जाते कि -कैसा डॉक्टर है कोई टेस्ट तो करवाता ही नहीं है। जो जाते है उन्हे लाभ भी होता है फिर उनके पास मरीजों की संख्या कम है। जरूरत है मानसिकता बदलने की।
आपकी इस बिस्तृत प्रतिक्रिया और लेख को आगे बढ़ने के लिए हृदयतल से आभारी हूँ। सादर नमन आपको
बहुत अच्छा विश्लेषण। सारी इलाज पद्धतियाँ और 'पैथ' अच्छे हैं। बस लोलुप मनुष्य 'साइकोपैथ' हो गया है।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने लोग साइको ही हो गए है। सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से आभारी हूँ। सादर नमन आपको
हटाएंचाहे इलाज की पद्धति कोई भी हो डॉक्टरों का सहृदय होना बेहद जरूरी है वो अपना धर्म अगर भली-भाँति निभाए तो हर पैथ में सफल इलाज संभव है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही। डॉक्टरों और फार्मा लॉबी के लालच ने एलोपैथी को जरूरत से ज्यादा बदनाम कर दिया। मुझे लगता है कि बचपन से शरीर को जिस चिकित्सा पद्धति की आदत हो जाए, वही उस पर ज्यादा काम करती हैं। ज्ञानवर्धक लेख।
"डॉक्टरों और फार्मा लॉबी के लालच ने एलोपैथी को जरूरत से ज्यादा बदनाम कर दिया।"
हटाएंये बात सत प्रतिशत सही कहा आपने मीना जी,इस सुंदर विश्लेषण के लिए हृदयतल से धन्यवाद आपको,सादर नमन
सटीक और सार्थक लेख । निष्पक्ष हो कर स्वयम ही निर्णय काटें की कौन सी पैथी से इलाज कराना है ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद दी ,सादर नमन
हटाएंगहन और सार्थक लेखन...।
जवाब देंहटाएं-"अच्छा डॉक्टर वही है जिसकी मोटी फ़ीस है जिसके पास ताम-झाम ज्यादा है।" होमियोपैथ में भी जितने भी डॉक्टरों की मोटी फीस है उनके यहां मरीजों की लम्बी लाइन लगी होती है मगर एक छोटा सा क्लिनिक खोलकर बैठा डॉक्टर कितना भी काबिल हो उसकी कदर नहीं होती भले ही वो महंगे डॉक्टर से कम पैसों में आपका बेहतर ईलाज कर दे। यहाँ हम ये बात सिद्ध कर देते हैं कि -"जो दिखता है वही बिकता है "इसिलए आजकल दिखावे पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। ---वो सच जो सभी महसूस करते हैं, लेकिन आपने लिख दिया है...। बहुत खूब और गहन लेखन कामिनी जी।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद संदीप जी ,सराहना हेतु आभार,सादर नमन आपको
हटाएं"पैथ "कोई भी हो सबकी अपनी एक खास महत्ता है सब अपने आप में परिपूर्ण है। सटीक विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय आदरणीय कामिनी दी।
सादर
दिल से शुक्रिया अनीता जी, सराहना हेतु आभार,सादर नमन आपको
हटाएंआज के समय में आपका ये आलेख कई सारगर्भित तथ्यों को इशारे ही इशारे में समझा गया, इस पर विचार जरूर किया जाना चाहिए,सरकार को भी निरर्थक बहस को हटाकर एक सार्थक शोध करना चाहिए । आखिर ये मानव जीवन का सवाल है, हमारे देश की इतनी बड़ी जनसंख्या है,लोग तो भ्रमित होंगे ही, लोगों को समझ ही नहीं आता कि किस बीमारी में कौन सी पैठी लाभप्रद है, सार्थक सृजन के लिए आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं प्रिय कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया जिज्ञासा जी, सरकार को तो कदम उठाना ही चाहिए मगर हमें अपनी मानसिकता भी बदलनी चाहिए। माना पैथ का ज्ञान हर किसी को नहीं है,उसका चुनाव मुश्किल है मगर ये मानसिकता कि -" महंगा ईलाज और ज्यादा टेस्ट करवाने वाले डॉक्टर ही अच्छे है " इस पर तो विचार कर सकते हैं न। सराहना हेतु आभार,सादर नमन आपको
हटाएंसारगर्भित आलेख तार्किक और सार्थक , सच्चाई जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता, चेतना को नमन आदरणीया
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद सर ,सराहना हेतु आभार,सादर नमन आपको
हटाएंसारगर्भित ... पूर्णतः सहमत आपकी बात से ...
जवाब देंहटाएंये कोई झगडा नहीं है ... अपनी पसंद है ... एक दूजे के पूरक हैं दोनों ज्ञान ... बस कमर्शिअल / पैसे का खेल बनाया है किसी एक पक्ष ने और लड़ रहे हैं ...
सहृदय धन्यवाद दिगंबर जी ,सही कहा आपने -ये झगड़े और बहस का समय नहीं है वर्ण अपनी बुद्धि-विवेक को जागृत करने का समय है। सराहना हेतु आभार,सादर नमन आपको
हटाएंबेहतरीन आलेख, विश्वास और भरोसा दोनों ही जरूरी है
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया हेतु तहे दिल से धन्यवाद भारती जी ,सादर नमन आपको
हटाएंबहुत सही विश्लेषण कामिनी जी, मरीज का और घरवालों का रवैया ही चिकित्सकों को लोभी बनाता जा रहा है ।
जवाब देंहटाएंपैसा अंधाधुंध खर्च सकने वाले चाहते हैं बस उनका मरीज़ बच जाते और उसी चक्कर में हास्पिटल डाक्टर फायदा उठा रहे हैं,पैथी कोई भी हो अगर मानव हित में है तो सरकारों को भी सार्थक कदम उठाने चाहिए।
बहुत सुंदर सार्थक चिंतन परक लेख।
दिल से शुक्रिया कुसुम जी,बिल्कुल सही कहा आपने-" मरीज का और घरवालों का रवैया ही चिकित्सकों को लोभी बनाता जा रहा है। " सराहना हेतु आभार,सादर नमन आपको
हटाएंसबसे पहले बिलम्ब से प्रतिउत्तर देने के लिए क्षमा चाहती हूँ। मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार मीना जी,सादर नमन
जवाब देंहटाएंअति सुंदर विश्लेषण कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएंसच्चाई बयान की आने
सार्थक पोस्ट ।
सादर
स्वागत है आदरणीय,सरहना हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं नमन आपको
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