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सोमवार, 21 जून 2021

"योग को अपनायेंगे रोग को हराएंगे"



" 21 जून "विश्व योगदिवस 

    "योग" हमारे भारत-वर्ष की सबसे अनमोल धरोहर है।  वैसे तो "योग की उत्पति" योगिराज कृष्ण ने किया था मगर जन-जन तक पहुंचने का श्रेय महर्षि पतंजलि को जाता है उन्हें ही योग का जनक कहा जाता है।  "योग" अर्थात जुड़ना या बंधना। ये बंधन शरीर, मन और भावनाओं को संतुलित करने और तालमेल बनाने का एक साधन है।आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बँध, षट्कर्म और ध्यान के माध्यम से ये योग की प्रक्रिया होती है। "योग क्या है" इसे समझाने की तो आवश्यकता ही नहीं है, माने ना माने मगर जानते सब है कि योग  हमारे भारत-वर्ष की सबसे प्राचीनतम पद्धति है जिस पर अब तक मार्डन साइंस रिसर्च ही कर रहा है और हमारे ऋषि -महर्षियों ने हजारों वर्ष पहले ही इसकी उपयोगिता सिद्ध कर हमें सीखा गए थे मगर हमने इसे ये कहते हुए कि-ये तो साधु-संतो का काम है, बिसरा दिया और कूड़े के ढेर में फेक दिया था।आजादी के बाद से ही "ब्रांडेड" छाप को ही महत्व देने की हमारी आदत जो हो गई है। तो हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयास से अब इसे "ब्रांडेड" कर दिया गया।शायद अब इसे अपनाने में हमें शर्म नहीं आएगी। 

     कुछ मान्यवरों  के अमूल्य योगदान से जिसमे सबसे प्रमुख योगगुरु रामदेव जी और श्री श्री रविशंकर जी है इसे आज के परिवेश में भी जीवित रखने का निरंतर प्रयास चलता रहा।  लेकिन विश्व स्तरीय प्रतिष्ठा इसे हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने दिलवाई जिनके अपील पर  27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के प्रस्ताव को अमेरिका द्वारा मंजूरी मिली, सर्वप्रथम इसे 21 जून 2015 को पूरे विश्व में "विश्व योग दिवस" के नाम से मनाया गया।चुकि यह दिन वर्ष का सबसे लम्बा दिन होता है और योग भी मनुष्य को दीर्घ जीवन प्रदान करता है इसीलिए इस तारीख का चयन हुआ। 

   "योग या बंधन" सिर्फ तन-मन को नहीं जोड़ता ये आत्मा को परमात्मा से भी जोड़ता है। योग मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करता है, ये सिर्फ स्वस्थ शरीर के लिए ही नहीं वरन स्वस्थ मानसिकता या  मानसिक अनुशासन के लिए भी कारगर है ये सारी बातें अब वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित हो चुकी है । मगर आज के परिवेश में किसी को "बंधन" मंजूर नहीं, हर एक बंधन मुक्त रहना चाहता है।आज इंसान नहीं समझता कि-बंधन ही जोड़े रखता है और मुक्त होना बिखराव है तभी तो तन-मन बिखर गया है,रिश्ते-नाते  बिखर गए है देश-समाज बिखर गया है प्रकृति और जलवायु बिखर गए है। किसी का किसी से कोई बंधन ही नहीं रहा। ये बिखराव हमें यहां तक ले आई है कि - आज हम त्राहि-माम् कर रहे हैं। 

   पिछले वर्ष से ही "कोरोना काल " के जरिए प्रकृति हमें समझाने की कोशिश कर रही है कि -हमारे देश की सभी पद्धतियां,सभी नियम और संस्कार उच्च-कोटि की थी जो हमें सहजता से जीवन जीना भी सीखती थी और रश्तों को संभालना भी। "कोरोना काल"में ये काम तो बहुत अच्छा हुआ, सब को इस बात का अनुभव तो बहुत अच्छे से हो गया। अब भी हम समझकर भी  ना-समझी करे तो हमारा भला राम भी नहीं कर सकते।

    प्रकृति चेता गई है, थोड़े दिनों की मोहलत भी दे गई है "योग को अपनाओं रोग को भगावो" ये सीखा गई है।" प्रकृति को सँवारों और सांसों को सहेज लो" समझा गई है। यदि अब भी हम ना समझे तो अभागे है हम और हम जैसे अभागों को कोई हक नहीं बनता जो किसी पर भी दोषारोपण करें। ना समाज पर,ना सरकार पर,ना डॉक्टर-बैध पर और ना ही भगवान पर। 

   "बंधन" सांसों का जीवन से,तन का मन से,सृष्टि का प्रकृति से,मानव का मानवता से और आत्मा का परमात्मा से , जब तक है हमारा आस्तित्व है खुल गया सब बिखर जायेगा और फिर विनाश निश्चित है। 

    ये भी सत्य है कि -पिछले कुछ दिनों में बदलाव तो आया है लोगो ने योग को अपनाया है, कुछ प्रयासरत है ,कुछ ना समझे है जो समझकर भी नहीं समझते उन जैसो से तो कोई अपेक्षा रखनी ही नहीं चाहिए मगर जो भी प्रयासरत है उन्हें प्रोत्साहित जरूर करना चाहिए। 

आइये आज इस योग दिवस पर हम भी प्रण ले कि -"योग को अपनायेंगे रोग को हराएंगे"

फिर बाकी जीवन तो खुद-ब-खुद सँवर जायेगा.....



शुक्रवार, 18 जून 2021

"माँ बारिश क्या होती है ?"

    



   "माँ फिल्मों में सावन के रिमझिम पर इतने सारे गीत क्यों बने है.....क्या ख़ासियत थी इस महीने की....हमने तो कभी इसे इतना बरसते नही देखा.....हमारे लिए तो ये आग उगलता घुटन भरा मौसम ही होता है।" हाँ , बेटा तुम लोग कैसे देखोगे...हमने ऋतुओं का रंग-रूप जो बिगाड़ दिया....बारिश का होना बृक्षों के होने ना होने पर निर्भर करता है और हमने तो धरती को वृक्ष विहीन ही करने की ठान रखी है। पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कर हमने ऋतुओं को भी अपना स्वभाव बदलने पर मजबूर कर दिया है।

    बेटा तुम्हें पता है- भारत-वर्ष की सबसे बड़ी  ख़ासियत कहो या खूबसूरती वो है "यहाँ के रंग बदलते चार मौसम "शीत,बसंत,ग्रीष्म और रिमझिम बरसता सावन यानि बरसात" ये ऋतुएँ ही हमारे भारतवर्ष को सम्प्रभुता भी प्रदान करती है। सबसे बड़ी विशेषता है इन ऋतुओं के शुरू होने से पहले इन से जुड़े तीज-त्यौहार....एक ऐसी प्रक्रिया जो हमें परिवर्तन का नियम सिखाती है और इस परिवर्तन के अनुसार तन-मन को ढालना भी सिखाती है। दो ऋतुओं के बीच आने वाले नवरात्रि के नौ दिन के नियम जो हमारे शरीर को आने वाले मौसम के अनुकूल सहजता से परिवर्तित करने के लिए बनाये गए थे। 

   हमने बचपन के दिनों में देखा है- कैसे एक नियत समय पर हर मौसम आ जाता था और उसकी पूर्व से ही तैयारी हर घर में शुरू हो जाती थी। जैसे अश्विन नवरात्रि जिसे शरदीय नवरात्रि भी कहते हैं,इसका आना यानि "अब बरसात के जाने और सर्दी के आने का समय हो गया है।" दशहरा से हल्की मीठी ठंढ तन-मन को गुदगुदाने लगती थी  और सर्दी के लिए गर्म कपड़ो की तैयारी के लिए  महिलाओं के हाथ में ऊन -सलाई दिखने लगती थी....घरो को गर्म रखने के लिए आग जलाने की व्यवस्था होने लगती थी...दीवाली पर घरों की अच्छे से सफाई होती थी ताकि बरसात में फैले कीड़े-मकोड़ो और गंदगी की सफाई हो जाए...क्योंकि चार महीने तो कड़कती ठंड के कारण घरों की विस्तृत सफाई तो हो नहीं पायेगी। वैसे ही बरसात ऋतु के स्वागत की तैयारी तो पुरजोर होती थी क्योंकि पता ही नहीं होता था कि -एक बार इंद्रदेव बरसना शुरू हुए तो फिर कब रुकेंगे। घरों की तैयारियां अलग और किसानों की तैयारी अलग...आखिर पुरे साल का अनाज जो देकर जाते थे इंद्रदेव। 

   हिंदी महीने का आषाढ़ माह यानि जुलाई महीना से बारिश  शुरू हो जाती थी,बिल्कुल अपने नियत समय पर,ज्यादा से ज्यादा एकाध -दो दिन ऊपर नीचे । बारिश शुरू होने से पहले घरों में राशन भर लिया जाता था,खासतौर पर जलावन यानि लकड़ियां। उन दिनों तो अधिकांश घरों में लकड़ी ही मुख्य  ईंधन था। जो शहर में रहते थे वो थोड़ा स्टेंडर होते उनके यहाँ कुन्नी के चूल्हे की व्यवस्था थी। ( लकड़ियों से निकले बुरादे को एक विशेष प्रकार के चूल्हे में भरकर एक-दो लकड़ियों की सहायता से जलाई जाती थी जिसमे मिट्टी के साधारण चूल्हे के अपेक्षा थोड़ी ज्यादा सहूलियत होती थी )बेटा, बृक्ष हमारे जीवन का मुख्य हिस्सा थे वो हमें शुद्ध हवा और बारिश ही नहीं वरन पर्याप्त ईंधन भी देते थे मगर, ईंधन के लिए लोग पूरा पेड़ नहीं काटते थे...देखकर हर पेड़ से सुखी डाली ही काटी जाती थी। 

     तुम्हें बचपन की एक घटना सुनती हूँ -बात 82 -83 की है। आषाढ़ शुरू होने के 10 दिन पहले से ही माँ, पापा को बोल रही थी कि -"बरसात शुरू हो जायेगा कुन्नी और लकड़ी आँगन में ही पड़ा है उसे ऊपर रखवाने की व्यवस्था करवा दीजिए...थोड़ा और कुन्नी और लकड़ी भी मंगवा दीजिए " (बरसात के दिनों में जलावन को मचान बनाकर एक शेड के नीचे रखा जाता था ) पापा आजकल  कर के टाल रहे थे। एक रात बारिश शुरू हो गई,कुन्नी और लकड़ी की चिंता में माँ की नींद गायब हो गई और वो पापा की भी नींद हराम करने लगी -"अब सारा जलावन भींग जाएगा सुबह बच्चों के लिए खाना कैसे बनाऊँगी " पापा बोले-अरे,आज पहली ही बारिश है....इतना थोड़े ही बरसेगा....कुछ नहीं होगा तुम्हारे जलावन को...सो जाओं और मुझे भी सोने दो " पापा ने समझा-बुझाकर माँ को सुला दिया। बारिश ने जेठ की तपती गर्मी  से तन-मन को ऐसी राहत दी कि -हम सब घोड़े बेचकर सो गए। सुबह छह बजे माँ की नींद खुली,कमरे में अँधेरा था, माँ ने जैसे ही जमीन पर पैर रखा वो चीख पड़ी। उसकी चीख से हम सब उठ बैठे, पापा ने झट से लाईट जलाया तो देखते हैं कि -घर में एक-डेढ़ फुट पानी भर गया है और सारे हल्के-फुल्के सामान पानी में तैर रहे है। पापा जब दरवाजा खोल आँगन में गए तो होश उड़ गए उनके...सारा कुन्नी और पानी एक हो गया था और लकड़ियां बेचारी पानी में डूबी पड़ी थी। बारिश अब भी बहुत तेज हो रहा था...माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर...अब बादल नहीं माँ कड़क रही थी। उसने जो पापा की क्लास ली कि पूछो मत, पापा जीवन भर वो सुबह भूल नहीं पाए और फिर माँ के ऐसे हुक्म की नाफ़रमानी कभी नही की। 

     मेरी माँ वैसे तो बहुत ही शांत स्वभाव की थी...हमनें माँ-पापा को लड़ते कभी नहीं देखा था लेकिन...वो कहते हैं न कि -माँ सब कुछ सह जाती है मगर, बच्चों को भूखा रखने के ख्याल से ही वो सबसे लड़-भीड़ लेती है। मेरी माँ का भी वही हाल था। अब कुछ उपाय नहीं सूझ रहा था...पड़ोस के ऑफिसर फैमली ने हमारे घर की हालत बिन बताएं समझ लिया था..क्योंकि माँ की उनसे बहुत अच्छी दोस्ती थी..उन्होंने अपने  घर से स्टोव (कैरोसिन ऑयल से जलने वाला चूल्हा )भेजा...फिर माँ ने एक चौकी के ऊपर सारी व्यवस्था की....तब कही जाकर खाना बना। हम बच्चों के लिए तो वो दिन उत्सव का था....हमें क्या मतलब कैसे खाना बन रहा है...हम तो बाढ़ और बारिश के मजे लेने में लग गए । बाढ़  के पानी के साथ रंग-बिरंगी मछलियां भी आ गयी थी....कॉलोनी के सारे बच्चें बारिश का मजे लेने मैदान में उतर गए...कोई मछली पकड़ रहा है ...कोई कागज की नाव पर सैर कर रहा है...कुछ लड़के एक दूसरे को उसी पानी में धो रहे है। उफ्फ!! क्या मस्ती का दिन था वो....आखिर मौसम की पहली बारिश जो थी। 

   क्या बताऊँ बेटा, बड़ी याद आती है उन दिनों की। उन दिनों हर मौसम का अपना एक खास महत्व और मजा था। हमें ये पता होता था कि -इस मौसम की ये जरूरतें है...ये पहनने को मिलेगा...ये खाने को मिलेगा...स्कूल आने-जाने का समय बदलेगा....एक उत्सुकता  रहती थी हर चीज के लिए। मगर अब, आम और तरबूज खाने का इंतजार नहीं करना होता..क्योंकि वो अब हर मौसम में मिलता है....बारिश के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करनी होती....क्योंकि पता ही नहीं है वो कब बरसेगा...बरसेगा भी या नहीं...कही इतना बरसेगा की बाढ़ ला देगा...कही बून्द को भी किसान तरसेंगे।बेटा ,ये सब पर्यावरण के साथ हमारे खिलवाड़ का नतीजा है...प्रकृति के साथ आवश्यकता से अधिक छेड़-छाड़ ने मौसमो का मिजाज़ बदल दिया। 80-90 के दशक तक भी पर्यावरण का दोहन बहुत सोच-समझकर किया जाता था। अगर कोई पेड़-पौधे या प्रकृति के साथ खेलवाड़ करता भी  था तो आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा जैसे पर्यावरण के संरक्षक अपना तन-मन समर्पण कर प्रकृति की रक्षा करते थे। लेकिन धीरे-धीरे प्रकृति का अति दोहन हुआ और पर्यावरण बदला....फिर ऋतुओं ने भी अपना समय ही नहीं अपना रंग-ढंग भी बदल दिया। जिन सावन-भादों के रिमझिम फुहारों पर गीत और कविताएँ लिखी जाती थी....आज वो सावन आग उगल रहा है।अब तो बस कवियों के कल्पनाओं  में ही सावन गीत भी मुस्कुरा लेते है। 

  बच्चें, हमारी पीढ़ी ने बड़ी नासमझी की मगर...तुम सब तो जेट-नेट युग के बच्चें हो...तुम्हें तो हमसे कही ज्यादा ज्ञान है....कम से कम तुम सब तो ऐसी गलती नहीं करों....जितना तुम से बन पड़े उतना ही प्रकृति का संरक्षण खुद भी करों और अपने दोस्तों को भी प्रेरित करों.....जितना हो सकें पेड़ लगाओ....क्योंकि पेड़ नहीं होंगे तो बारिश भी नहीं होगी। पेड़ और बारिश का साथ ऐसा जैसे तन के साथ साँस जुड़ा होता है...जब तक साँस चल रही है....ये शरीर जिन्दा है, वैसे ही जब तक बृक्ष जिन्दा है...तब तक बारिश है, बृक्ष और बारिश है .....तो सृष्टि पर खाध-पदार्थ है....साँस लेने के लिए प्राण-वायु है और.....ये दोनों है तो ही हमारा अस्तित्व है। तुम आज मुझसे सावन के बारे में पूछ रही हो...कही तुम्हारी गलतियों की वजह से तुम्हारे बच्चें एक दिन तुम से ये ना पूछे कि -"माँ बारिश क्या होती है ?"


गुरुवार, 10 जून 2021

"मर्जी हमारी..आखिर तन है हमारा...."




      सर्वविदित है,आजकल "आर्युवेद" और "एलोपैथ" में घमासान छिड़ा हुआ है। आज से पहले शायद, ऐसी बहस कभी देखने को नहीं मिली थी। क्योंकि आर्यवेद ने कभी सर उठाया ही नही ,कैसे उठता बेचारा वो अपनों से ही उपेक्षित जो था। उसे तो अछूत समझ सब अलग हो ही गए थे। अब निमित कोई भी बना हो मगर सत्य यही है कि -"आर्युवेद"सर उठा रहा है। अब स्वाभाविक है जो इतने दिनों से मुँह छुपाये फिर रहा था...काबिलियत होते हुए भी नाकाबिल करार दे दिया गया था....वो भी अपनों के द्वारा....वो यदि धीरे-धीरे अँधेरे से निकल घर के बाहर उजाले में आने लगा तो....अचरज तो होगा ही और जिस पडोसी ने घर के अपने ही संतान को घर से बाहर निकाल दिया था और समस्त परिवार पर अखलराज कर रहा था...वो तो तिलमिलायेगा ही। अब बेचारा "आर्युवेद" शिकायत भी किससे करता ?

   लेकिन आज के इस दौर के "कोरोना काल " में आर्युवेद और योग ने अपना महत्व समझा ही दिया है,इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।  "गिलोय" जिसे आर्युवेद की अमृता कहते हैं आज से दस साल पहले एका-दुक्का ही इसका नाम जानते थे आज बच्चा-बच्चा जानता है। यकीनन पचास प्रतिशत घरों में इसका पौधा भी मिल जायेगा। वैसे ही एलोविरा अर्थात "घृत कुमारी" जिसका नाम कभी-कभी दादी के मुख से सुना था मगर देखा नहीं था आज घर-घर में मिल जाएगा। ऐसे कितने ही औषधियों का नाम हम जान चुके हैं। योग से तो युग-युग की दुरी हो गई थी,प्राणायाम किस चिड़िया का नाम है जानते भी नहीं थे, आज अपना रहे हैं । 

    बड़ा दुखद है अपनों को भुलाकर हमने गैरों को अपना लिया। गैरों को अपनाने में कोई बुराई नही ये तो हमारी सहृदयता है, सबको मान-सम्मान देने की हमारी भावनाओं ने ही तो हमें अपनी अलग पहचान दी है। मगर, इसके लिए क्या अपनों को उपेक्षित करना जरूरी था ?बिलकुल नहीं।  200 सालों की गुलामी ने हमसे हमारा बहुत कुछ छीन लिया। ये बात सत्य है कि -अंग्रेज तो चले गए लेकिन उनकी गुलामी से हम कभी आजाद नहीं हुए। उन्होंने हमारी रग-रग में अपनी अपनी संस्कृति और सभ्यता भर दी और उसी में ये एक "एलोपैथ" भी है। 

    मेरा मानना है कि ना कोई सभ्यता-संस्कृति बुरी होती है ना कोई "पैथ" यानि ईलाज का तरीका। बुरे होते हैं  इसका गलत प्रसारण करने वाले या गलत शिक्षा देने वाले या स्वार्थ से बशीभूत हो इसका दुरोपयोग करने वाले और इनसे भी पहले हम खुद...खासतौर पर वे जो पढ़े-लिखे है, अनुभवी है या यूँ कहे  जो खुद को ज्ञानी मानते हैं। जिनके पास बुद्धि-विवेक तो है पर  परखने की शक्ति नहीं....सर्वसामर्थ होते हुए भी जो सही गलत को चुन नहीं पाते। 

    हाँ,बुरा ईलाज का तरीका नहीं है बुरे हो गए है ईलाज करने वाले। बुरे हो गए है हम जिन्हे सब कुछ "इंस्टेंट "चाहिए। ना हममें धीरज बचा है ना सहनशक्ति। जिसका नाजायज फायदा "एलोपैथ" उठता है। क्यों ना उठाये---उसने देखा कि ये लोग तो खुद ही अपनी पद्धति को ठुकरा चुके हैं सिर्फ उनके धीमें  रफ्तार के कारण तो यदि, मैंने भी वही तरीका अपनाया तो मेरी  दुकानदारी भी बंद हो जायेगी...जैसे भी हो तत्काल रोग को ठीक करो और तत्काल ठीक होने का कुछ तो बिपरीत प्रभाव जरूर होगा। साधारण सी सर्दी-जुकाम जिसकी उम्र सिर्फ ढाई दिन की होती है उसके बाद वो खुद ब खुद बिना दवा के ठीक हो जाता है आज वो लाईलाज "कोरोना " का रूप ले लिया है क्यों ? छोटे-छोटे रोगों में भी  एंटीबायोटिक खा-खाकर अनगिनत रोगों को न्यौता दे दिया हमने। 

   आज ये झगड़ा या बहस सिर्फ एलोपैथ या आर्युवेद का नहीं है। ये बहस हमें खुद से करनी होगी हमें क्या चाहिए "इंस्टेंट आराम या सम्पूर्ण रोग विराम " ये हमें तय करना है। 

    "पैथ "कोई भी हो सबकी अपनी एक खास महत्ता है सब अपने आप में परिपूर्ण है। मुश्किल से मुश्किल रोगों को भी नेचुरलपैथ, आर्युवेद और होमियोपैथ से भी ठीक होते देखा गया है। इन पैथो से मुख मोड़ने और एलोपैथ की तरफ आकर्षित होने की खास वजह थी "डॉक्टरों का रवईया " एलोपैथ के डॉक्टर जब तेज़ी से रोगो को दूर करने लगे तो सबका आकर्षित होना लाजमी था। उस वक़्त धीरे-धीरे होमियोपैथ और आर्युवेद के डॉक्टरों के पास मरीजों की संख्या घटने लगी। उस वक़्त ये डॉक्टर भी मरीजों को फंसाये रखने के लिए या यूँ कहे अपनी दुकानदारी चलाने के लिए ईलाज का तरीका कॉम्प्लिकेटेड करते गए। अब यहां इन डॉक्टरों की इस  मानसिकता के पीछे एक और वजह थी "हमारी गलत सोच" -जब हम एलोपैथ से ईलाज करवाते हैं तो डॉक्टर दवा देने के बाद कहता है -"फिर तीसरे दिन आकर दिखवा लेना" रोग ठीक हो या ना हो हम तीसरे दिन उस डॉक्टर के पास दुबारा जरूर जाते हैं  लेकिन जब दूसरे पैथ में ईलाज करवा रहे होते हैं  तो तीन दिन में रोग ना ठीक हो तो डॉक्टर को दोषी करार दे डॉक्टर बदल लेते हैं और यदि ठीक हो जाए तो दुबारा जाकर सलाह लेने की जहमत नहीं उठाते। क्योंकि हमारी नज़र में इन पैथो की महत्ता इतनी ही है। भले ही एलोपैथ ने "इंस्टेंट" एक रोग ठीक कर हमें दूसरे रोग का शिकार बना लिया हो फिर भी हम उस डॉक्टर की तारीफ करते हुए दुबारा उसके पास जायेगे मगर दूसरे पैथ उसी रोग को तीन दिन के वजाय छह दिन में पूर्ण  ठीक कर दे वो भी बिना किसी साईड इफेक्ट के तो भी हम उस डॉक्टर को नाकारा घोषित कर देंते हैं । 

    हमारी इसी मानसिकता ने सभी पैथों के डॉक्टरों को हमें लूटने की खुली छूट दे दी। अब हम जब खुद लूटने को तैयार है तो कोई लूटेगा क्यों नहीं ? हमारी ये भी मानसिकता हो गयी है कि -"अच्छा डॉक्टर वही है जिसकी मोटी फ़ीस है जिसके पास ताम-झाम ज्यादा है।" होमियोपैथ में भी जितने भी डॉक्टरों की मोटी फीस है उनके यहाँ मरीजों की लम्बी लाइन लगी होती है मगर  एक छोटा सा क्लिनिक खोलकर बैठा डॉक्टर कितना भी काबिल  हो उसकी कदर नहीं होती भले ही वो महंगे डॉक्टर से कम पैसों में आपका बेहतर ईलाज कर दे। यहाँ  हम ये बात सिद्ध कर देते हैं कि -"जो दिखता है वही बिकता है"इसिलए आजकल  दिखावे पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। 

  मेरा मानना ये है कि -हम खुद ही समस्याओं को जटिल करते हैं और जब वे हमें जकड़ लेती है तो दोषारोपण भी खुद ही करते हैं और यही करके हमने खुद डॉक्टरों को हमारे साथ गलत करने को मजबूर किया है। "एलोपैथ पद्धति" में शुरू से ये बात स्पष्ट था कि -इसके साइड इफेक्ट होते हैं, सिर्फ एक यही कारण था कि -डॉक्टर हैनीमेन जो खुद एक प्रख्यात एलोपैथ डॉक्टर थे इस पद्धति से संतुष्ट नहीं थे और उनकी इसी असंतुष्टि ने होमियोपैथ को  जन्म दिया था। ये बात जगजाहिर था कि इन दवाओं का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए।

   आज कोई भी पैथ  के डॉक्टर हो सभी रोगी का ईलाज नहीं बिजनेस कर रहे हैं। मुझे "आनंद फिल्म"के दो डॉक्टर्स याद आ रहे हैं एक डॉ.भास्कर बनर्जी जो लोगो के दुःख दर्द से दुखी होते हैं  उसे पूरी तरह ठीक करने का रास्ता ढूढ़ते रहते हैं, जिन्हे रोग नहीं है उन्हें बेवजह दवाईयां नहीं देते, डांटकर भगा देते है, उनके इस व्यवहार के कारण एक काबिल डॉ.होने के बावजूद वो सफल डॉ. नहीं होते  और एक डॉ.प्रकाश जो काबिल भी है और सफल भी क्योंकि उन्होंने रोगियों की मानसिकता पकड़ ली है। उस फिल्म में अच्छी कहानी के साथ-साथ मेडिकल से जुड़ा सत्य भी उजागर हुआ था कि -डॉक्टरी भावुक  होकर नहीं की जा सकती रोगी की मानसिकता भी पहचाननी जरूरी है साथ-ही-साथ डॉक्टरों को मरीजों के जान के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी समझनी जरुरी है,डॉक्टरी सिर्फ पैसे कमाने के लिए भी नहीं है । आज डॉक्टर प्रकाश जैसे डॉक्टरों की ही आवश्यकता है। 

   चाहे ईलाज की पद्धति कोई भी हो डॉक्टरों का सहृदय होना बेहद जरूरी है वो अपना धर्म अगर भली-भाँति निभाए तो हर पैथ में सफल ईलाज संभव है। रोगो के जटिल होने पर एलोपैथ ने अनगिनत बार लोगों की जान बचाई है वही धीमे रफ्तार की कही जाने वाली होमियोपैथ  की दवाओं के इंस्टेंट चमत्कार  को भी मैंने खुद अनुभव किया है। जहाँ तक आर्युवेद की बात है वो तो भारत  की सबसे पुरानी पद्धति है,जिसकी औषधी हमारे घरों में किसी ना किसी रूप में हर वक़्त उपलब्ध रहता है और वो भी इंस्टेंट असर करता है। बस आवश्यकता है हमें अपनी मानसिकता बदलने की। "मर्जी हमारी है ,आखिर तन  हमारा है"

मेरा मानना है-निष्पक्ष होकर रोगों के जटिलता के अनुसार ही हमें किसी भी पैथ का अनुसरण करना चाहिए। 

बुधवार, 2 जून 2021

"जीवन साथी साथ निभाना "



जीवन साथी साथ निभाना 

बीच राह में छोड़ ना जाना 

थामा है जब हाथ हमारा 

अंतिम सफर तक संग में आना 


दुल्हन बनी जिस दिन से  तेरी 

तुम्ही बसे हो नयनन में मेरी 

सुख मिला या दुःख जीवन में 

थामे रही तुम्हें बाँहों में 


रहना था संग हर पल तेरे 

पर कासे  कहूँ ये, किस्मत के फेरे 

समय के इस कठिन डगर पे,

चलना है, दोनों को अभी अकेले 


माना,वक़्त ने दूर किया है  

मिलने से भी  मजबूर किया  है

तन की दुरी सह जाऊँगी  

मन जो टुटा मर जाऊँगी 


दिन वो सुहाना फिर आएगा 

प्यारा हमारा रंग लाएगा 

मन को ना तुम करों मलिन

मिलन गीत गाएंगे फिर मन मीत 


प्यार की बदली फिर छायेगी 

घडी मिलन की फिर आयेगी 

आखियाँ बहुत है, बरसी अब तक 

अब सावन की बुँदे बरसेंगी  


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