" पर्दा " यानि किसी भी खूबसूरत या बदसूरत व्यक्ति ,वस्तु या बातो के ऊपर एक आवरण रख देना या यूँ भी कह सकते हैं कि उसकी हक़ीक़त को छुपा देना। जीवन में हमे अक्सर जरूरत पड़ ही जाती हैं एक ऐसे आवरण की जो हमारे जिस्म को, हमारी सोच को, हमारे बोल को, यहां तक की हमारे कर्मो को भी ढके रखे। जिस्म को तो एक पर्दें से ढकना जरुरी हैं ये तो सभ्यता हैं। हम आदि मानव तो रहे नहीं जिसको जिस्म पर भी पर्दें डालने की जरुरत नहीं थी। जिस्म को तो कभी कभी लोगो की बुरी नजर से बचाने के लिए जरुरत से ज्यादा भी छुपाना पड़ता हैं। लेकिन सोच ,बोल और कर्म को पर्दे की क्या जरूरत ? पर इन्हे भी छुपाना पड़ता हैं ????
अब सवाल ये उठता हैं कि हमे किससे छुपाना पड़ता हैं खुद से ,खुदा से या दुनिया वालो से। हम दुनिया वालो से भले ही सब कुछ छुपा ले पर खुद से और खुदा से कुछ छुपाना मुमकिन हैं क्या ? खुदा की बात छोड़े क्या हम अपने सोच ,बोल और कर्म पर अच्छाई या बुराई रुपी पर्दा डाल कर खुद के मन से वो सब छुपाने में सफल हो पाते हैं क्या ? कभी ना कभी तो हमारा मन उस पर्दे से बाहर निकलने के लिए मचलेगा न ????
कभी कभी आप अपने अच्छे कर्मो को तो छुपा सकते हैं, छुपाना भी चाहिए क्योकि " अपना आप बड़ाई " शोभा नहीं देता। वैसे भी अच्छे कर्मो पर तो आप ज्यादा दिन तक पर्दा डाल भी नहीं सकते। क्योकि अच्छे कर्मो की खुश्बू बंद दरवाजे से भी खुद ब खुद बाहर निकल समूचे वातावरण को सुगंधित कर देती हैं। हाँ ,बुरे कर्मो को आप जरूर पर्दा-दर - पर्दा ढ़क सकते हैं। अपनी गन्दी अंतरात्मा पर अच्छाई का आवरण डाले बहुत ही सम्भ्रांत व्यक्तित्व आप को आपने आस पास हमेशा देखने को मिल ही जाते होंगे या यूँ भी कह सकते हैं कि ऐसे ही लोगो की तदाद ज्यादा हैं, हम चारो तरफ से उनसे ही घिरे हैं।
मैं अक्सर सोचती हूँ ऐसे व्यक्ति जो अच्छाई का आवरण ओढ़े घूमते हैं उनका मन कभी तो उन्हें धिधकारता होगा। हाँ ,जरूर धिधकारता होगा ,आप लाख अपने अंतर्मन को दबाना चाहे वो चीत्कार जरूर करेगा ,आप उसकी आवाज़ को भले ही अनसुना करे पर वो चीख चीख कर अपनी आवाज़ खुदा तक जरूर पंहुचा देगा। फिर कुछ छुपा नहीं रहेगा ,सारे पर्दे हट जायेगे ,सारे राज खुल जाएंगे। फिर कहाँ जाकर और किस चीज से आप अपना मुख छुपायेंगे। सोचे जरा ........
मुझे बचपन में सुनी एक कहानी याद आ रही है -एक व्यक्ति था सात्विक जीवनशैली ,सात्विक विचार और सात्विक भोजन अर्थात उसका व्यक्तित्व दुनिया के सामने संतरूपी था। परन्तु वो जैसा दिखता था वैसा था नहीं तो जाहिर हैं वो सारे गलत काम पर्दे में करता था। वो जब भी नदी में नहाने जाता और जब वो पानी में डुबकी लगता तो पानी के अंदर ही बड़ी चालाकी से एक मछली गटक जाता और मन ही मन खुश होकर कहता -" ऐसा चोरी किया जो खुदा ने भी नहीं देखा " एक दिन एक मछली उसके गले में अटक गई और खुदा ने उसे समझा दिया कि मुझसे कुछ नहीं छिपा। उसे अपने किये की सजा मिल गई।
ये कहानी पापा अक्सर हमे सुनाया करते थे जब भी हम कुछ गलत करते थे और वो हमे पकड़ लेते तो यही जुमला कहते - आप लोग क्या सोच रहे थे कि " ऐसा चोरी किये जो खुदा ने भी नहीं देखा " और ये कह वो ठहाके लगाकर हंसने लगते। हम सब झेप जाते थे और अपनी गलती मान पापा के आगे कान पकड़ लेते थे। बचपन में तो इस कहानी के असली भाव को हम समझ नहीं पाते थे लेकिन अब समझ आता हैं कि -हम लाख कोशिश करे अपने व्यक्तित्व को, अपने सोच -विचार को ,अपने बोल को और अपने कर्मो को कभी भी किसी भी तरह के पर्दे से नहीं ढक़ सकते या यूँ भी कह सकते हैं कि ऐसा कोई पर्दा ईश्वर ने बनाया ही नहीं जिससे ये ढका जा सके। हाँ , अपने मद में मदहोश हम ये झूठा प्रयास अवश्य करते रहते हैं।
आज ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं कि कल जिन्होंने भी संत का नकाब ओढ़ रखा था ,आज वो दुनिया के सामने बेनकाब हैं। लाख पर्दे में अपने गुनाहो को छुपा लो वो एक न एक दिन सबको नजर आ ही जायेगा। क्यों छुपाये हम अपनी खूबसूरती या बदसूरती को किसी से ? क्यों किसी भी वस्तु की हकीकत को छुपाने के लिए उस पर आवरण रख दे ? क्यों मुख से ऐसा कुछ निकले जिसके प्रभाव को कम करने के लिए हमे उसके ऊपर कोई दूसरी बात कह कर पहली बात पर आवरण डालना पड़े ? क्यों हम ऐसा कोई भी काम करे जिस के लिए हमे खुद से , खुदा से या जग से मुँह छुपाना पड़े ?
क्युँ न हम अपनी सोच को ,अपने लफ्जो को ,अपने कर्मो को इतना प्रभावशाली और पारदर्शी बनाएं कि हमे किसी भी आवरण की जरूरत ही ना पड़े। अपनी नजरों को इतना पाक बनाएं कि किसी को भी अपनी खूबसूरती या बदसूरती को छुपाना ही ना पड़े। क्युँ न हम ऐसे काम करे कि निःसकोच हो, बिना डरे, हम शान से सर उठाकर ये कह सके -
क्युँ न हम अपनी सोच को ,अपने लफ्जो को ,अपने कर्मो को इतना प्रभावशाली और पारदर्शी बनाएं कि हमे किसी भी आवरण की जरूरत ही ना पड़े। अपनी नजरों को इतना पाक बनाएं कि किसी को भी अपनी खूबसूरती या बदसूरती को छुपाना ही ना पड़े। क्युँ न हम ऐसे काम करे कि निःसकोच हो, बिना डरे, हम शान से सर उठाकर ये कह सके -
" पर्दा नहीं जब कोई खुदा से बंदो से पर्दा करना क्या "
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (0६ -१०-२०१९ ) को "बेटी जैसा प्यार" (चर्चा अंक- ३४८०) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
सहृदय धन्यवाद अनीता जी ,मेरी लेख को चर्चामंच में स्थान देने के लिए ,सादर
हटाएंबहुत सुंदर, एकदम मौलिक सी पठनीय रचना। सस्नेह।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद मीना जी ,आपकी प्रतिक्रिया हमेशा मेरा मनोबल बढाती हैं ,सादर
हटाएंसार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद ओंकार जी ,आभार एवं सादर नमस्कार आपको
हटाएंसही कहा सखी आपने।सच को छुपाने के लिए झूठ के कितने भी आवरण रख दें।एक न एक दिन सत्य बाहर आ ही जाता है। बहुत सुंदर आलेख लिखा 👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सखी ,सादर स्नेह
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय आभार श्वेता जी
हटाएंप्रिय कामिनी , बहुत सुंदर आंतरिक बोध को झंकृत करती पर्दे की विवेचना ! सच है सखी , प्राय हर इंसान अपने आप को अच्छे से भी अच्छा सिद्ध करने की कोशिश में लगा रहता है , पर अक्सर छद्म आचरण का पटाक्षेप हो ही जाता है क्योकि ईश्वर को भी सरल सहज लोग ही पसंद आते हैं , जिसके उदाहरण हमारे पुराणों में भरे पड़े हैं | अगर वे कपोल काल्पनिक भी होंगे तब भी उन्हें सच्चाई की महिमा बढ़ाने के उद्देश्य से लिखा गया होगा |और हमारे पौराणिक आदर्श तो यही कहते हैं कि अपनी अच्छाई को पर्दे में ही रहने दें क्योकि -----
जवाब देंहटाएंबड़े बडाई ना करें - बड़े ना बोलें बोल -- रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरा मोल !!!
हाँ अपनी कमियां पर्दे से बाहर निकाल सरेआम रखने वालों को भी बख्शा नहीं जाता -- उनकी पारदर्शी ईमानदारी पर सौ सवाल खड़े किये जाते हैं | सुंदर सार्थक लेख के लिए बधाई और त्यौहार पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनायें | तुम यूँ ही बढिया चिंतन परक लेखों से अपना ब्लॉग सजती रहो यही दुआ है |
मेरी रचना पर इतनी सुंदर प्रतिक्रिया देने के लिए हृदय तल से आभार सखी ,तुम्हे भी रामनवमी की हार्दिक बधाई
हटाएंसच । लोग कितना भी सच को छिपा लें।एक-न-एक दिन वह खुलकर सामने आ ही जाता है।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सुजाता जी , विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
हटाएंपर्दा या आवरण ख़ास कर मन पर (अक्ल के लिए तो मुहावरा प्रचलित है ही ) जितना पारदर्शी हो या हो ही नहीं तो बेहतर ... अच्छी मानसिकता से ओत-प्रोत रचना के लिए शुभकामनाएं ...
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सुबोध जी ,आपके बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए आभार ,सादर
हटाएंहम अपनी नजरों को इतना पाक बनाएं कि किसी को भी अपनी खूबसूरती या बदसूरती को छुपाना ही ना पड़े। काश,इंसान की सोच ऐसी हो जाए तो धरती को स्वर्ग बनते देर नहीं लगेगी। बहुत सुंदर विचार,कामिनी दी।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा आपने ज्योति बहन फिर धरती पर स्वर्ग की कल्पना नहीं करनी होगी स्वर्ग खुद ब खुद आजायेगा ,पर बदलाव की शुरुआत खुद से ही करनी होगी ,मेरे लेख पर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल से शुक्रिया ,सादर
हटाएंक्युँ न हम अपनी सोच को ,अपने लफ्जो को ,अपने कर्मो को इतना प्रभावशाली और पारदर्शी बनाएं कि हमे किसी भी आवरण की जरूरत ही ना पड़े।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कामिनी जी पर्दा क्या है? जब खुद से खुद का हो तो एक धोखा ही तो है, खुद को भ्रम में रखने का खुद को धोखा देते जाने का, जिसमें कभी कामयाबी नहीं मिलती बस एक भुलावे में जिंदगी गुजार ने का झुठा प्रयास ।
सार्थक विषय सार्थक लेख।
आपने अपनी प्रतिक्रिया से मेरे लेख को और विस्तार दे दिया सहृदय धन्यवाद एवं आभार ,सादर नमन
हटाएंबहुत सुंदर लिखा आदरणीया
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद लोकेश जी ,अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए आभार ,सादर
हटाएंबहुत खूब 👌👌👌
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभार नीतु जी, सादर
हटाएंबहुत सुन्दर चिन्तन कामिनी जी ! आपकी सुन्दर सोच को नमन!!
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभारी हुँ मीना जी, सादर नमन
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