रविवार, 16 अक्तूबर 2022

"एक रिश्ता ऐसा भी"-गतांक से आगे

     

    वसुधा के टैक्सी से उतरते ही आकाश आगे बढ़ा और टैक्सी ड्राइवर को पैसे देने लगा, वसुधा ने रोकना चाहा मगर अभी आकाश ने जो उस पर अपना अधिकार जताया है उसे देख वो कुछ बोल नहीं सकी। बिना किसी औपचारिकता के वो दोनों कॉफ़ी हाउस के अन्दर चलें गये।ऐसा लगा ही नहीं कि वो दोनों इतने अरसे बाद एक दूसरे को देख रहे हैं। "तुम क्या लोगी" - आकाश ने बड़ी बेतकल्लुफी से पूछा । अभी वसुधा कुछ कहती उससे पहले ही बोल पड़ा-"वहीं कॉफ़ी....आज भी पसंद है या...मेरे साथ-साथ कॉफ़ी को भी अलविदा कह चुकी हो- कहते हुए एक सरसरी सी निगाह उसने वसुधा पर डाली। वसुधा मुस्कुराईं-"अलविदा ही तो नहीं कर पाई...आज भी दोनों तहे दिल से पसंद है"।आकाश के चेहरे पर भी फीकी सी मुस्कान आ गई। आकाश बेहद गमगीन लग रहा था उम्र का असर उसके जिस्म पर नहीं मगर चेहरे पर नजर आ रहा था। वसुधा एकटक उसे देखे जा रही थी शायद उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी और आकाश उससे नजरें चुरा रहा था शायद वो अपने दर्द को वसुधा से छुपाने की नाकाम कोशिश कर रहा था। 

     कुछ देर दोनों के बीच खामोशी छाई रही। तब तक वेटर कॉफ़ी लेकर आ गया। कॉफ़ी की सिप लेते हुए वसुधा ने ही मौन तोड़ा-"आज ये उल्टा क्यों हो रहा है पहले तो आप मेरे चेहरे पर टकटकी बांधे रहते थे और मैं नज़रे चुराती थी और आज......"कहते-कहते वसुधा रुक गई। वक़्त बदल गया है वसुधा और मैं भी-आकाश बोला। "हम नहीं बदले आकाश तभी तो सालों बाद भी यूँ आमने-सामने बैठे है....अच्छा कहो, इतने दिनों बाद मुझसे मिलने की क्यूँ बेचैनी हुई"-वसुधा ने आकाश को छेड़ने के लहजे में कहा,वो उसे मुस्कुराते हुए देखना चाहती थी। मगर आकाश के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया उसने अपने पर्स से एक तस्वीर निकलकर मेज पर रख दी और बोला -"पहचानती हो इसे"? वसुधा हाथ में फोटो लेकर मुस्कुराते हुए बोली -हाँ-हाँ,इसे कैसे भूल सकती हूँ ये तो हमारा बेटा साहिल है...मेरा मतलब...आपका बेटा....कहते हुएं वसुधा थोड़ी झेंप सी गई। संकोच न करों...ये तुम्हारा ही बेटा है वसुधा- आकाश बोला। वसुधा को याद आ गया जब आकाश का आखिरी खत उसे मिला था साथ में यही फोटो था। आकाश ने लिखा था - ये हमारा बेटा है वसुधा....मैंने इसका नाम साहिल रखा है.....तुम्हारा ही दिया नाम है...याद है न...भले ही इसने  तुम्हारी कोख से जन्म ना लिया हो....मगर इसमें तुम्हारा ही अक्स है....ये वसुधा और आकाश का "साहिल"  है- वसुधा साहिल की तस्वीर को सीने से लगा कर घंटों रोती रही थी। वसुधा..वसुधा.. आकाश की आवाज पर चौंकते हुए वो वर्तमान में लौटी।

   साहिल की तस्वीर को बड़े प्यार से देखते हुए बोली - अब तो मेरा बेटा जवान हो गया होगा...कैसा लगता है वो। आकाश ने मेज़ पर एक दुसरी तस्वीर रख दी। फोटो देख वसुधा चहकती हुई बोली -कितना स्मार्ट है मेरा बेटा....बुरा नहीं मानिएगा मेरा बेटा आप से ज्यादा स्मार्ट है। इसमें बुरा मानने वाली क्या बात है...तुम्हारा बेटा था ही मुझसे स्मार्ट....वैसे भी माँ को तो अपना बेटा दुनिया में सबसे ज्यादा प्यारा लगता है - आकाश बोला। उसका एक-एक शब्द मुश्किल से निकल रहा था। वसुधा अपनी धुन में मगन चहकती हुई आकाश के बगल में आकर बैठ गई और तस्वीर दिखती हुई बोली-"था" का क्या मतलब है...इसकी आँखें देखिये कितनी प्यारी है....ऐसा लगता है अभी बोल पड़ेगा। वो अब कभी नहीं बोलेगा वसुधा....वो हमेशा के लिए खामोश हो गया है -बोलते हुए आकाश की आँखें बरस पड़ी। वसुधा अचंभित सी बोली-क्या मतलब है आपका....इसके गले में कुछ हो गया है क्या ?आकाश ने वसुधा के हाथों को कसकर पकड़ लिया जैसे वो हिम्मत जुटा रहा हो और कतार स्वर में बोला -"वो हमें छोड़कर चला गया वसुधा" -आकाश के चेहरे पर एक कठोर भाव था जैसे वो अपने आँसुओं पर बाँध लगाने की कोशिश कर रहा हो। वसुधा घबराई सी बोली -कहाँ चला गया ??? चला गया वसुधा...भगवान जी के पास चला गया - बोलता हुआ आकाश फूट -फूटकर रोने लगा,उसका सब्र टूट गया था,उसने वसुधा के हाथों से ही अपने चेहरे को ढक रखा था। वसुधा बूत सी बन गई थी, उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। 

    उसने आकाश को अपनी बाँहों में भरकर गले से लगा लिया उसे होश ही नहीं था आस-पास का,आकाश हिचकियाँ लेकर के रोता रहा उसके आँसुओं से वसुधा का दामन भींगता रहा, उसके भी आँसू थम नहीं रहे थे। थोड़ी देर बाद आकाश को ही होश आया वो झट से वसुधा से अलग हो गया।अपने आँसुओं को पोछने के लिए जेब से रुमाल निकल ही रहा था कि वसुधा अपने आँचल से उसके आँसू पोछने लगी फिर उसे पानी का ग्लास दिया,पानी पीकर नॉर्मल होते हुए आकाश बोला-कॉफ़ी ठंडी हो गयी होगी मैं दूसरी आर्डर करता हूँ। नहीं,इसकी जरुरत नहीं है-वसुधा बोली। उसके शब्दों को अनसुना कर आकाश ने वेटर को आवाज लगाई और दो कॉफ़ी और कुछ स्नैक्स आर्डर कर दिया। 

   थोड़ी देर के ख़ामोशी के बाद वसुधा बोली-कैसे हुआ ये। उसने आत्महत्या कर ली-नजरें नीचे किये हुए सपाट शब्दों में आकाश बोला। क्या....???वसुधा चीख पड़ी। हाँ वसुधा...मेरे बेटे...आकाश के बेटे ने आत्महत्या कर ली....पंखें से लटक गया वो....वो कमजोर या बुजदिल नहीं था....मैं लापरवाह था....मैं उसे समझ नहीं सका....ना उसे समझा सका....ना ही उसका साथ दे सका....मैं बुजदिल था वसुधा...मैं बुजदिल था.....मैंने तुम्हारे बेटे को मार दिया....कहते-कहते आकाश फिर सिसकियाँ लेने लगा। वसुधा उसके कंधे पर हाथ रखती हुई बोली-मुझे पूरी बात विस्तार से बताओं आकाश...मेरा दम घुट रहा है। 

   अपने आँसुओं को पोछते हुए आकाश बोलना शुरू किया -वसुधा सारी गलती मेरी थी...शादी के बाद अपने हिस्से की ईमानदारी वरतते हुए मैंने अपनी पत्नी को हमारी कहानी बता दी....मैंने सोचा उसे कही और से पता चलेगा तो दुःख होगा....बता देने से शायद वो मुझे समझेंगी.....तुमसे बिछड़कर खुद को किसी और को सौपना आसान नहीं था मेरे लिए.....मैंने सोचा मेरी पत्नी मेरा सहयोग करेंगी लेकिन....हुआ उल्टा....जब भी कोई छोटी-मोटी बात होती तो वो गुस्से में बोल जाती..."सारा प्यार तो आपने उस वसुधा को दे दिया मेरे लिए आपके पास कुछ बचा ही नहीं है।" उसे  खुश रखने और उसकी इस शिकायत को दूर करने के लिए मैं उसकी हर बात से समझौता करता रहा....लेकिन इसका भी उल्टा हुआ....उसका व्यवहार दिन ब दिन कठोर और स्वार्थी होता गया....घर में सिर्फ उसका शासन चलता....यहॉं तक की बच्चों की पढाई-लिखाई और केरियर के फैसले भी उसी के रहें....उसने मेरे जीवन पर ही नहीं बच्चों के जीवन पर भी कठोर अंकुश लगा रखा था ......उसकी मर्जी के खिलाफ घर में पत्ता भी हिल जाता तो वो कोहराम मचा देती....मैंने खुद को जैसे उसे ही समर्पित कर दिया था....उसके हर फैसले में अपनी रजामंदी दे देता....कहते-कहते आकाश ने ठंडी साँस ली। 

   ये तो तुम्हारी कहानी थी...मेरे बेटे साहिल के साथ क्या हुआ था-वसुधा का लहजा बिल्कुल कठोर था। मेरी कहानी से ही तो उसकी कहानी जुडी थी...साहिल बहुत ही प्यारा और शांत स्वभाव का लड़का था...माँ के कठोर अनुशासन को सर झुककर काबुल कर लेता...उसकी माँ ने कहा इंजीनियरिंग करना है वो मान गया जबकि उसे क्रिकेटर बनाना था....उसकी माँ उसके हर एक्टिविटी पर कड़ा नज़र रखती....इससे क्यों मिला....इससे क्या बात कर रहे हो....लड़कियों से दोस्ती क्यों की....घर सात बजे आना था सवा सात क्यों हुआ...यहाँ तक कि बच्चों के कमरे में उसने सीसी टीवी कैमरा लगवा दिया....ऐसे बहुत से बंदिश थे उस पर ....इस ज़माने में कौन इतनी बंदिशों में रहता है मगर मेरा साहिल रहता था....मेरे बाकि दोनों बच्चें अपनी माँ  के खिलाफ थोड़ा बहुत आवाज भी उठाते मगर वो नहीं....हाँ वसुधा,  मुझे एक बेटा और एक बेटी और भी है  -कहते-कहते आकाश रुक गया। वसुधा ने पूछा-फिर क्या हुआ। ग़हरी सांस लेते हुए वो बोलना शुरू किया-इंजीनियरिंग करने के दौरान कैम्पस सलेक्शन में उसे जॉब मिला लेकिन पैकेज काम था...माँ ने मना कर दिया....फिर पढाई पूरी करने के बाद मेरे बेटे का कही जॉब नहीं लग रहा था....दो साल वो बेकार रहा और माँ के ताने सुनता रहा....उसे एक लड़की से प्यार था मुझे उसके एक दोस्त से ये बात पता चला था लेकिन माँ के डर की वजह से वो उससे भी अलग हो गया....आजिज हो अब वो माँ को जबाब देने लगा....एक दिन बात बहुत बढ़ गई उसने जवान बेटे पर हाथ उठा दिया....साहिल मेरे पास आया और बोला-"पापा अब मैं ये सब नहीं सह सकता मेरा सब्र टूट रहा है" मैंने बेटे को पास बैठकर प्यार किया मगर कहा वही जो हमेशा कहता रहा कि-वो आपकी माँ है न बेटा, आपके भले के लिए ही तो डांटती है। साहिल ने पहली बार मुझसे कहा-"बचपन के पांच साल छोड़ दे तो 20 सालों से मैं आपको देख रहा हूँ...आपने माँ के हर जुल्म को नतमस्तक होकर स्वीकार किया है....आपका जुर्म क्या है जो माँ आपको इतनी सजा देती है....मैं नहीं जानता मगर....मेरा जुर्म इतना  ही है कि "मैं एक बुजदिल इंसान का बेटा हूँ" जिसने ना कभी अपनी हिफ़ाजत की ना अपने बेटे की मगर....मैं अब नहीं सह सकता।"

    कहते-कहते आकाश खामोश हो गया पानी का गिलास उठाकर उसने दो घुट पानी पीकर गला तर किया जैसे आगे की बात कहने  लिए हिम्मत जुटा रहा हो-वसुधा,उसकी बातें सुनकर ख़ुशी हुई....मुझे लगा मेरा बेटा मेरी तरह बुजदिल नहीं है.....वो जुर्म के खिलाफ आवाज़  उठाएंगे लेकिन....अगली सुबह उसका शरीर पंखे से लटकता मिला...साथ में एक पर्ची था "बुजदिल का बेटा बुजदिल ही रहा पापा, इन सब से खुद को आजाद करने का यही तरीका था मेरे पास मैं आपकी तरह पूरा जीवन माँ की कैद में नहीं गुजर सकता" -साहिल की लिखी पर्ची वसुधा की ओर बढ़ाते हुए आकाश चुप  हो गया। 

    तभी वेटर बिल लेकर आ गया -बिल अदायगी करते हुए आकाश उठ खड़ा हुआ और कॉफ़ी हॉउस से बाहर आ गया वसुधा भी उसके पीछे-पीछे बाहर आ गयी। बाहर आते ही आकाश ने कहा- वसुधा,तुम सोच रही होगी कि-ये सारी बातें बताने के लिए मैंने तुम्हें बुलाया था क्या ??वसुधा कुछ बोलती उससे पहले ही वो बोल पड़ा-  हाँ वसुधा,तुम्हें तुम्हारे बेटे के बारे में जानने का हक़ था....तुम्हें ये बताना जरुरी था कि-उसकी सौतेली माँ ने उसके साथ क्या किया....हाँ वसुधा, वो सौतेली माँ ही थी...जो माँ अपने कोख से बच्चें को जन्म देने के वावजूद उसे नहीं समझ सकी...नहीं संभाल  सकी....वो सौतेली माँ ही कहलायेंगी और...एक तुम थी ....जो किसी ना किसी माध्यम से उसकी खबर लेती रहती थी....उसे एक झलक देखने  लिए उसके कॉलेज के गेट पर खड़ी रहती थी....जैसे उसके बाप का तुम इंतज़ार करती थी.....यूँ आश्चर्य से मत देखों...मैं सब जानता हूँ....तुम्हें पता था कि-साहिल इसी शहर में है....कुछ दिनों से उसकी कोई खबर ना मिलने से तुम परेशान थी....लेकिन जिसके माध्यम से तुम ये सारी खबरे लेती थी....मैंने उसे तुम्हें ये खबर देने से मना कर रखा था...ये दर्द मैं तुम्हारे साथ साझा करना चाहता था....मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ....ना ही तुम्हें कोई खुशी दे सका ना तुम्हारे बेटे को....वसुधा, मै तुम्हे ये बताने आया था कि जिसे तुम पुजती हो वो तो तुम्हारे प्यार के भी काबिल नहीं है....एक कायर है वो। वसुधा की आँखें बरस रही थी वो कुछ भी बोलने में असमर्थ थी। 

   वसुधा का हाथ पकड़ते हुए आकाश फिर बोला-"वसुधा, मुझे तुम पर गर्व है....मेरी चाहत की आग में चलते हुए भी तुमने अपनी गृहस्थी को बहुत ही खूबसूरती और समझदारी से संभाल रखा है....यूँ क्या देख रही हो .....तुम मेरी खोज खबर रखती थी तो क्या वो माध्यम मुझे तुम्हारी खबर नहीं देता था....हमेशा यूँ ही रहना...और हाँ,आज के बाद मैं तुमसे तभी मिलूँगा जब मैं अपने दोनों बच्चों के जीवन को सँवार लूँगा...तभी तुमसे नज़रे मिलाने के काबिल हो सकूंगा...."वसुधा, रिश्तें सिर्फ मोहर लगा देने से नहीं बनते रिश्ते दिल के होते हैं और दिल से निभाए जाते हैं जो हम निभाएंगे " कहते हुए उसने टैक्सी को रुकने का इशारा किया और वसुधा को बैठने के लिए कहा। 

    दोनों ने एक दूसरे को हाथ हिलाकर अलविदा किया और दोनों की टैक्सी विपरीत दिशा की ओर चल पड़ी। वसुधा सोच रही थी कि - क्या आकाश का कसूर ये था कि उसने वसुधा  से निस्वार्थ प्यार किया या ये कि वो अपनी खुशी के लिए अपने माँ-बाप की मर्जी के खिलाफ नहीं जा सका या ये कि रिश्तें में ईमानदारी रखने  लिए उसने अपनी पत्नी को अपना अतीत  बता दिया या ये कि-एक माँ को अपने बच्चें के लिए बेहद सख्त होते हुए देखकर भी उसने घर की शांति को बनाये रखने के लिए चाहकर भी अपनी पत्नी के खिलाफ नहीं जा सका.....


ये तो वसुधा सोच रही थी मगर.....मैं भी सोच रही हूँ 

बुजदिल कौन था आकाश या साहिल.... 

आकाश जो उस जमाने का था जहाँ अपने लिए आवाज उठाना भी एक जुर्म था.... 

साहिल जो आज की अत्यधिक आजादी वाले युग में था जहाँ अपने हक़ के लिए आवाज उठाई जा रही है फिर भी वो चुपचाप कैसे सहता रहा.... 

या वो औरत जो ना एक अच्छी पत्नी साबित हो सकी ना माँ.... 

या कही वो भी तो अपने प्रेमी से बिछड़ने के कुंठा में तो नहीं जी रही थी....


 

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2022

"एक मुलाकात संगीता दी के साथ"




ब्लॉग जगत एक ऐसा संसार जहाँ अपनी काबिलियत और शिष्टाचार से किसी की नज़र में अपनी पहचान तो बना सकते हैं परंतु सबके दिलों पर राज वहीं कर सकता है जिसके व्यवहार में एक ठहराव हो, जिसके कुछ भी कहने के लहजे में अपनत्व हो, जिसका भाव निष्पक्ष हो,जो सांकेतिक शब्दों में ही आपके गुणों की भी प्रशंसा कर दें और आपकी कमियों को भी समझा दें । हमारे ब्लॉग जगत की एक ऐसी ही  शख्सियत है हमारी प्रिय संगीता दीदी।

 मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक आभासी दुनिया जहाँ हम सिर्फ नाम से और उनके लेखन से एक दूसरे को जानते और पहचानते हैं वहाँ से कोई दिल का रिश्ता भी जुड़ सकता है। लेकिन ये सम्भव है और मेरे साथ हुआ भी।

     एक- दो महीने पहले जब ब्लॉग पर मेरी उपस्थित कम हो रही थी तो संगीता दीदी ने फेसबुक पर मेसेज करके पुछा कि -"सब ठीक है न आज कल नज़र नहीं आ रही हो।" दीदी के इस अपनत्व भरे व्यवहार से मेरे दिल में उनके प्रति अपार श्रद्धा भाव उत्पन्न हो गया। मुझे लगा कि-"उन्हें क्या जरूरत थी एक आभासी रिश्ते की इतनी परवाह करने की" और फिर मैंने दी को कॉल किया। मैंने दीदी को बताया कि-इन दिनों मैं दिल्ली में हूँ और थोड़ी व्यस्त हूँ फिर बातों-बातों में पता चला कि दी तो मुझसे बस 6-7 किलोमीटर दूरी पर ही है।दी ने कहा - "अकेले सफर करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है तुम चाहो तो मुझसे मिलने आ सकती हो" मैंने कहा- नेकी और पूछ पूछ, मुझे तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई। "संगीता दीदी" ब्लॉग जगत की सबसे पुरानी  जानीमानी और हर दिल अजीज शख्सियत, कौन नहीं मिलना चाहेंगा उनसे और मैरी तो आदर्श है। 

   लेकिन... खुद के चाहने से क्या होता है जब तक वक्त ना चाहे।दी से बात किए हुए एक महीना गुजर गया मगर किसी ना किसी कारण वश जाना संभव नहीं हो रहा था।दी का एक बार फोन भी आ गया कि- "तुम आईं नहीं।" फिर 11अकटुबर को वो शुभ दिन आ ही गया।मैं अपने पतिदेव के साथ ही गई थी। जैसे ही हम दी के फ्लैट पर पहुंचे वो बाहर ही इन्तजार कर रही थी।उनका शांत सौम्य और आकर्षक व्यक्तित्व.....दरवाजे पर ही मन मोह गया। फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ, ब्लॉग जगत की बहुत सारी बातें, तभी सर आ गए (दीदी के पतिदेव) उनसे मिलना तो ऐसा रहा जैसे एक के साथ दुसरा मनचाहा तोहफा मिल गया हो "दीदी अगर सोना तो वो सुहागा" फिर तो इतना मजा आया कि मैं शब्दों में नहीं बता सकती। दोनों ही जिन्दा दिल शख्सियत..चाय नाश्ते का दौर चला...लगा ही नहीं कि पहली बार किसी से मिलना हो रहा है। सर ने जब मेरे माथे पर हाथ रखकर मुझे अशीष दिया तो लगा जैसे मेरे बड़े भाई ने मेरे सर पर हाथ रख दिया हो, मेरी आंखें नम हो गई। चलते वक्त दी ने पूछा -"हमलोगों से मिलकर कैसा लगा तुम्हें।" मैंने कहा-ब्लॉग  पर लेखन से सम्बंधित बहुत कुछ सीखा है आप से मगर आज जीवन की एक बहुत बड़ी सीख लेकर जा रही हूँ -"उमर के इस दौर को जिस जोश, उत्साह और जिन्दा दिली से आप दोनों गुजार रहे हैं न"....इस जीवन जीने के तरीके को हम पति पत्नी भी अपनाएंगे। 

    मुझे लगता है "जहाँ में ऐसा कोई नहीं जिसे कोई गम न हो और जीवन के आखिरी पड़ाव पर तो कभी सेहत को लेकर कभी बाल-बच्चों को लेकर लोग कोई ना कोई दुःख और कमजोरी पल ही लेते है और उसी से कुंठाग्रस्त रहते हैं" लेकिन दी और सर ने भगवान की दी हुई अनमोल जीवन के पलों को ख़ुशी-ख़ुशी गुजरने के लिए खुद को बड़े ही मनोयोग से संतुलित किया हुआ है...बिना भगवान से कोई शिकवा-शिकायत किये हुए। उनके जीवन जीने की इस कला ने मुझे बहुत प्रभावित किया। संगीता दीदी से मिलना मेरे लिए बेहद सुखद अनुभव रहा। 


दीदी और सर को दिल से शुक्रिया और सादर नमन 








रविवार, 9 अक्तूबर 2022

"एक रिश्ता ऐसा भी"

     



      आज सुबह से ही वसुधा का  दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। ऐसा अक्सर होता था और मन  को शांत करने के लिए वसुधा खुद को घरलू कामों में व्यस्त कर लेती थी, आज भी वो यही कर रही थी। लेकिन आज धड़कने बेकाबू हुई जा रही थी ऐसी अनुभूति उसे 30 सालों बाद हो रही थी। कामों में व्यस्त होने के वावजूद आज घबड़ाहट बढ़ती ही जा रही थी। वो मन बहलाने के लिए मोबाईल पर कुछ गाने बजाने के लिए फोन उठाई ही थी कि फोन की घंटी बज उठी, नंबर अनजाना था। वैसे अक्सर वो अन-नोन कॉल रिसीव नहीं करती थी लेकिन, उसने फोन रिसीव कर लिया, फोन उठाते ही हल्की सी आवाज आई "हैलो" आवाज सुनते ही वसुधा के रोम रोम में एक सिहरन सी उठी और वो खुद में बड़बड़ाई-"ये नहीं हो सकता"। लेकिन अगले ही पल वो खुद को संयमित कर बोली -कौन ?उसकी दिल की धड़कन तेज हो रही थी। "मैं" उधर से आवाज आई। बड़ी मुश्किल से अपनी सांसों को रोके हुए वसुधा ने पूछा "मैं कौन"? अच्छा, तो अब मेरी आवाज भी भूल गई। नहीं-नहीं...ये नहीं हो सकता....ये मुमकिन ही नहीं है....मुझे वहम हो रहा है...उसने खुद को समझाया। "मैं आकाश" वसुधा के हाथों  से फोन छूटकर गिर गया और डिस्कनेक्ट हो गया।

    वो काँप रही थी.....नहीं, ये नहीं हो सकता.....30 साल बाद....ये कैसे सम्भव है.....उसने तो मुझसे वादा लिया था कि मैं उससे कोई सम्पर्क नहीं रखूंगी...भूल जाऊँगी उसे...और आज खुद....उसे मेरा नंबर कैसे मिला....मैं तो 30 साल से किसी के सम्पर्क में भी नहीं हूँ....फिर कैसे सम्भव है...??  फोन की घंटी फिर बज उठी। काँपते हाथों से उसने फोन रिसीव किया और बोली -"आप" उसकी आवाज़ थरथरा रही थी। उधर से आवाज आई हाँ मैं,  कैसी हो तुम....अब ये मत पूछना कि -मुझे तुम्हारा नंबर कैसे मिला....मैं बताऊंगा नहीं। नहीं पूछूँगी.....ये तो पूछ सकती हूँ न कि इतने बर्षों बाद मेरी याद कैसे आई - वो भरे गले से बोली। उसे अब तक यकीन ही नहीं हो रहा था कि-जो हर पल उसकी धड़कनों के साथ धड़कता  रहता है आज वो उसकी आवाज़ सुन रही है 30 साल बाद....

       दो मिनट की ख़ामोशी छा गई थी शायद, दोनों का सब्र आंसुओं के साथ बह रहा था। फिर आवाज आई-"भुला ही कब हूँ तुम्हें...आज तुम्हारी जरूरत आन पड़ी है इसलिए फोन किया" -आकाश के आवाज में भी थरथराहट थी, उसका गला भी रुंध रहा था। वसुधा फुसफुसाई -मेरी जरूरत ? हाँ,आज तक मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं चाहा मगर, आज मुझे तुम्हारा साथ चाहिए....वो साथ चंद घड़ियों का ही क्यों ना हो...मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ वसुधा,  क्या तुम अपने  जीवन के चंद पल मुझे दे सकती हो...मेरे तपते रूह को सुकून मिल जायेगा ? आकाश के स्वर में याचना थी जैसे एक फरियादी तड़पकर भगवान से फरियाद कर रहा हो। देखों ना नहीं कहना - वसुधा कुछ बोलती उससे पहले वो तड़पकर बोल पड़ा। आप याचना ना करें आज्ञा करें... आपका तो मेरे पूरे जीवन पर हक है....मैं जरूर मिलूंगी आपसे...बोले कब और कहाँ मिलना है - वसुधा ने सिसकते हुए कहा। देखों, तुम रोओ मत...तुम्हारे आंसू मुझे और कमजोर करते हैैं...मुझे इस वक़्त तुम्हारे सहारे की जरूरत है...मैं तुम्हारे ही शहर में हूँ...तुम जहाँ कहो मैं वहां आ जाऊँगा -आकाश बोला। मैं एक घंटे में आपसे मिल रही हूँ....मैं आपको लोकेशन भेज रही हूँ आप वही आ जाईये -अपने आँसू पोछते हुए वसुधा  ने कहा। 

    सुबह से उसके दिल की धड़कने उससे क्या कहना चाह रही थी वसुधा समझ चुकी थी। पहले भी यही होता था आकाश जैसे उसे याद करता उसका दिल उसे बता देता था वो अगर उदास होता तो वसुधा के दिल में जोर की टीस उठती थी। बीते कई दिनों से ऐसा लगातार हो रहा था इसलिए वसुधा कुछ बेचैन भी रहने लगी थी, घर के कामों में भी उसका दिल नहीं लगता था। आज सुबह से  बैचेनी बढ़ती जा रही थी  मगर, वसुधा इसे नाकरने की भरपूर कोशिश कर  रही थी।घर के सारे कामों को छोड़  वसुधा जल्दी-जल्दी तैयार होने लगी। आज पहली बार उसके प्रियतम ने उसे आवाज दी थी, उसे जल्द से जल्द उसके पास पहुँचना था। बालों को सवांरते हुए उसने आईने में खुद को देखा, बालों में सफेदी झलक रही थी कितने दिनों से उसने कलर भी नहीं किया था, उसे खुद को संवारने का ख्याल ही नहीं रहता मगर आज वो खुद को  निरख रही थी, मुरझाया सा चेहरा उदास आँखे...वो पहले वाली तेज ना चेहरे पर थी ना आँखों में वो चमक....आकाश क्या सोचेगा मुझे कोई दुःख तो नहीं है....सुखी सम्पन्न परिवार है पति भी बहुत अच्छे है....भगवान ने एक प्यारी सी बेटी दी है...दोनों उसे बहुत प्यार करते है फिर....अरे, छोडो पूछेगा तो कह दूंगी बुढ़ापा है....सोचते हुए वो अपने आप में मुस्कुराई और साड़ी बांधने लगी। उसे पता था आकाश को साड़ी ही पसंद था, सफेद साड़ी और खुले बाल।

    इतने वर्षों बाद प्रियतम से मिलने को वो भी बेचैन हो रही थी। सज-संवर कर वो खुद को एक बार फिर आईने में देखने लगी अचानक उसे अपने भीतर से आवाज आई -ये क्या कर रही हो....किससे मिलने जा रही हो....वो कौन है तुम्हारा....कोई देख ले और पूछेगा तो क्या बोलोगी.....पतिदेव या बेटी को पता चला तो.....हजार सवाल खड़े हो जायेगे.....30 सालों की बसी-बसाई गृहस्थी में आग लग जाएगी....ये ख्याल आते ही उसके पैर काँपने लगे और वो धम से बिस्तर पर जा गिरी....मैं ये क्या कर रही हूँ ???  लेकिन अगले ही पल आकाश की आवाज उसके कानों में गूँजने लगी "मुझे तुम्हारी जरूरत है वसुधा" उसका दम घुटने सा लगा। आज तक आकाश ने उससे कभी कुछ नहीं माँगा, उसकी चाहत हमेशा निःस्वार्थ रही। 12 सालों की मुहब्बत और कभी कोई फरमाईश नहीं...ना मिलने की जिद्द ना खत लिखने को मजबूर करना...बस, एक ही बात कहता- "मैं सिर्फ तुम्हें चाहता हूँ...मेरी सांसों की डोर तुमसे बंधी है और हमेशा बंधी रहेंगी...लेकिन तुम्हें मैं कभी नहीं बांधूंगा।" फिर आज उसने मिलने की जिद्द क्यूँ की...क्या मजबूरी आ पड़ी है.... हे ईश्वर मुझे शक्ति दो...मैं सही निर्णय कर सकूं- कतार स्वर में वो गिड़गिड़ाई। कुछ देर वो आँखे बंद कर यूँ ही पड़ी रही और फिर अचानक, उठ खड़ी हुई जैसे उसने निर्णय ले लिया हो, मेरे आराध्य ने पहली बार मुझसे कुछ माँगा है...मैं उसे "ना' नहीं कह सकती...आगे जो होगा देखा जायेगा....मेरा मन पवित्र है....मेरे पति के प्रति मेरी पूरी आस्था है...मैं तन-मन से अपनी गृहस्थी को समर्पित हूँ.....मैं कोई पाप करने नहीं जा रही....परमात्मा मेरी लाज जरूर बचाएंगे- ये सोचते हुए उसने पर्स उठाया और चल पड़ी अपने आराध्य से मिलने। 

     टैक्सी में बैठे-बैठे उसका सम्पूर्ण अतीत उसके आँखों के सामने से गुजर रहा था, वो खुद को उसी शहर के उन्ही गलियों में देख रही थी जहाँ, उसे अपने प्रियतम की एक झलक पाने लिए कितनी जुगत लगानी पड़ती थी। उन दिनों तो आज के जैसा माहौल नहीं था न,जहाँ सब खुल्म-खुला है,उन दिनों तो  लड़का -लड़की का  एक दूसरे को चाहना तो  जैसा महापाप था। घर से बाहर भी जाना  होता तो कोई ना कोई साथ होता, बेचारे प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे को दूर से ही देखकर सब्र कर लेते थे और बातें करने का माध्यम तो बस खत होता, वो भी किसी विश्वसनीय सहेली के हाथों ,लेकिन वो कहते है न कि -इश्क़ और मुश्क कभी छुपाये नहीं छुपता, हवा में  सुगंध फैल जाती है। वसुधा के घरवालों को भी उसकी गंध मिल गई, उसकी रेगुलर पढाई रोक दी गई, वो घर से ही पढाई करने लगी। वसुधा पापा की लाड़ली थी मगर, पापा भी समाज से बाहर जाकर उसकी  ख़ुशी पूरी नहीं कर सकते थे। ना ही आकाश के माँ-बाप ही उसका साथ देते तो....उस वक़्त की हर प्रेम कहानी की तरह वसुधा का प्यार भी अधूरा ही रहा। 12 साल जब तक दोनों की शादी नहीं हुई थी किसी ना किसी माध्यम से खतों का आदान-प्रदान होता रहा, 12 साल की मुहब्बत और दोनों कभी एक बार भी एक दूसरे से नहीं मिले थे, जो भी इज़हारे मुहब्बत थी वो ख़त के जरिए ही थी। दोनों ने तय किया था कि-शादी के बाद हम अपने रिश्तों के साथ ईमानदार रहेंगे इसलिए कोई सम्पर्क नहीं रखेंगे और आज अचानक 30 सालों बाद ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी है जो आकाश मिलना चाहता है।

अतीत की याद आते ही उसकी आत्मा तड़प उठी -"मेरे साथ ऐसा क्यूँ हुआ था" ?


क्यूँ,कुदरत ने ऐसा फैसला किया था ? 

क्यूँ, दो हिस्सों में मेरा बंटवारा किया था ?

क्यूँ, दिए एक चन्दा को दो चकोर ?

क्यूँ ,खेल रचाया उसने पुरजोर ?


    शादी के बाद वसुधा को पता चला था कि-बालपन से ही वो और उसके पति समीर एक ही शहर के एक ही मोहल्ले में रहते थे। यहाँ तक की जिस घर में वसुधा का जन्म हुआ था, दो साल का समीर भी उसी के बगलवाले घर में था।बचपन से लेकर जवानी तक समीर का हर उस घर में आना-जाना था जहाँ-जहाँ वसुधा का आना-जाना था। एक ही कॉलेज में दोनों का परीक्षा सेंटर भी होता था। मगर, कभी उन दोनों ने एक-दूसरे को देखा तक ना था,काश ! देख लिए होते और उन्हें ही एक दूसरे से प्यार हो जाता तो दिल नहीं टूटते न। और आकाश जिससे मिलना नहीं लिखा था उसे एक झलक देखते ही महज  14 साल की उम्र में ही वसुधा ने  दिल में  बसा लिया था और फिर किसी को देख ही नहीं पाई थी। वो सोच रही थी -

एक जो जन्म के साथ ही जिस्म के

 आस-पास ही मंडरा रहा था। 

और एक, जो होश संभालते ही

 रुह में आन बसा था। 


एक जो हर पल निगाहों के सामने था

 पर,उस पर मेरी नजर ना थी। 

एक जो नजर नहीं आता था

पर, हर पल नजरें उसको ढुँढती थी। 


एक जिससे बंध गई जीवन की डोर

एक जो दूर चला गया  होकर मज़बूर। 

एक जिसे मुझसे कोई लगाव तक ना था

एक जो मेरे इश्क में डुबा हुआ था। 


     वसुधा और समीर वैसे तो आदर्श जोड़े थे। दोनों का जीवन बाहर से देखने पर बिल्कुल शाँत-और सुखमय ही था। समीर की नजर में वसुधा एक आम पत्नी थी जिसका काम  उसकी जरूरतों को पूरा करना था। समीर रिश्तों में भी गुडलक और बैडलक ढूंढता था और उसके जीवन में वसुधा के आने से कुछ खास बदलाव नहीं हुआ था। उसे दिल-विल,प्यार-व्यार में बिल्कुल यकीन ना था। उसका मानना था सारे रिश्तें जिस्म से शुरू होते है और जिस्म पर ही जाकर ख़त्म होते है। ,उसे "चित्रलेखा" के उस कथन पर ज्यादा यकीन था कि"ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानों" और वसुधा वो तो आजीवन तन से परे मन की पुजारन थी।और "आकाश" जो उसे छूना तो दूर, कभी करीब से देखा तक नहीं था,मगर इन बातों पर समीर को कभी यकीन नहीं था,उसका कहना था-ऐसा हो ही नहीं सकता।  दोनों एक दूसरे की ये बात समझ नहीं सकते थे। आखिर कैसा ये संयोग है -


एक जिसकी हर दुआओं में जिक्र था मेरा

एक जिसने कहा, तुम बदुआ हो मेरी 

एक जिसकी होकर भी मैं नहीं थी

एक जो मेरा होकर भी मेरा नाम था


एक जिसकी मैं सिर्फ पत्नी हूँ 

एक जिसकी कुछ भी ना होकर, सबकुछ हूँ। 

एक जिसके साथ उम्र गुजर रही है, 

एक जिसके साथ वक्त वहीं ठहर हुआ है।  


एक मेरा सुहाग है,

 जिससे मुझे प्यार है 

एक सांसों का आधार है,

 जिसके बिना जीना एक श्राप है।


लेकिन कुछ फैसले तो उपरवाले के हाथ ही होता है उस पर इंसानो का कोई जोर नहीं। लेकिन भुगतता तो इंसान है। 

एक जिसे दिल ने चुना था,

एक जिसे भगवान ने दिया था। 

फैसला ये दिल और भगवान ने किया था

मगर,दो हिस्सों में मुझे बांट दिया था।


और वाह रे इंसाफ,बंटवारा भी क्या खूब किया था 


जिसे जिस्म चहिए था 

उसे जिस्म ही मिला। 

मोहब्बत की किस्मत में हार होती है 

तो,उसे हार ही मिला था। 

 वो अपने ही ख्यालों में उलझी थी तभी टैक्सी ड्राईवर की आवाज आई-लो मैडम,आ गया आपका कैफे हॉउस।  वसुधा जैसे नींद से जगी हो,टैक्सी रुकते ही थोड़ी दूर पर खड़े आकाश पर उसकी नज़र गई वो आज भी हमेशा की तरह राहों में पलकें बिछाए अपनी वसुधा का इंतजार कर रहा था।30 साल पहले भी वो हर उस गली में,उस नुक्क्ड़ पर खड़ा वसुधा का इंतजार करता जहाँ से होकर उसकी वसुधा की गुजरने की संभावना  होती। दोनों की नज़रे मिली और वक़्त ठहर सा गया....

क्रमशः 

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...