रविवार, 9 अक्तूबर 2022

"एक रिश्ता ऐसा भी"

     



      आज सुबह से ही वसुधा का  दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। ऐसा अक्सर होता था और मन  को शांत करने के लिए वसुधा खुद को घरलू कामों में व्यस्त कर लेती थी, आज भी वो यही कर रही थी। लेकिन आज धड़कने बेकाबू हुई जा रही थी ऐसी अनुभूति उसे 30 सालों बाद हो रही थी। कामों में व्यस्त होने के वावजूद आज घबड़ाहट बढ़ती ही जा रही थी। वो मन बहलाने के लिए मोबाईल पर कुछ गाने बजाने के लिए फोन उठाई ही थी कि फोन की घंटी बज उठी, नंबर अनजाना था। वैसे अक्सर वो अन-नोन कॉल रिसीव नहीं करती थी लेकिन, उसने फोन रिसीव कर लिया, फोन उठाते ही हल्की सी आवाज आई "हैलो" आवाज सुनते ही वसुधा के रोम रोम में एक सिहरन सी उठी और वो खुद में बड़बड़ाई-"ये नहीं हो सकता"। लेकिन अगले ही पल वो खुद को संयमित कर बोली -कौन ?उसकी दिल की धड़कन तेज हो रही थी। "मैं" उधर से आवाज आई। बड़ी मुश्किल से अपनी सांसों को रोके हुए वसुधा ने पूछा "मैं कौन"? अच्छा, तो अब मेरी आवाज भी भूल गई। नहीं-नहीं...ये नहीं हो सकता....ये मुमकिन ही नहीं है....मुझे वहम हो रहा है...उसने खुद को समझाया। "मैं आकाश" वसुधा के हाथों  से फोन छूटकर गिर गया और डिस्कनेक्ट हो गया।

    वो काँप रही थी.....नहीं, ये नहीं हो सकता.....30 साल बाद....ये कैसे सम्भव है.....उसने तो मुझसे वादा लिया था कि मैं उससे कोई सम्पर्क नहीं रखूंगी...भूल जाऊँगी उसे...और आज खुद....उसे मेरा नंबर कैसे मिला....मैं तो 30 साल से किसी के सम्पर्क में भी नहीं हूँ....फिर कैसे सम्भव है...??  फोन की घंटी फिर बज उठी। काँपते हाथों से उसने फोन रिसीव किया और बोली -"आप" उसकी आवाज़ थरथरा रही थी। उधर से आवाज आई हाँ मैं,  कैसी हो तुम....अब ये मत पूछना कि -मुझे तुम्हारा नंबर कैसे मिला....मैं बताऊंगा नहीं। नहीं पूछूँगी.....ये तो पूछ सकती हूँ न कि इतने बर्षों बाद मेरी याद कैसे आई - वो भरे गले से बोली। उसे अब तक यकीन ही नहीं हो रहा था कि-जो हर पल उसकी धड़कनों के साथ धड़कता  रहता है आज वो उसकी आवाज़ सुन रही है 30 साल बाद....

       दो मिनट की ख़ामोशी छा गई थी शायद, दोनों का सब्र आंसुओं के साथ बह रहा था। फिर आवाज आई-"भुला ही कब हूँ तुम्हें...आज तुम्हारी जरूरत आन पड़ी है इसलिए फोन किया" -आकाश के आवाज में भी थरथराहट थी, उसका गला भी रुंध रहा था। वसुधा फुसफुसाई -मेरी जरूरत ? हाँ,आज तक मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं चाहा मगर, आज मुझे तुम्हारा साथ चाहिए....वो साथ चंद घड़ियों का ही क्यों ना हो...मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ वसुधा,  क्या तुम अपने  जीवन के चंद पल मुझे दे सकती हो...मेरे तपते रूह को सुकून मिल जायेगा ? आकाश के स्वर में याचना थी जैसे एक फरियादी तड़पकर भगवान से फरियाद कर रहा हो। देखों ना नहीं कहना - वसुधा कुछ बोलती उससे पहले वो तड़पकर बोल पड़ा। आप याचना ना करें आज्ञा करें... आपका तो मेरे पूरे जीवन पर हक है....मैं जरूर मिलूंगी आपसे...बोले कब और कहाँ मिलना है - वसुधा ने सिसकते हुए कहा। देखों, तुम रोओ मत...तुम्हारे आंसू मुझे और कमजोर करते हैैं...मुझे इस वक़्त तुम्हारे सहारे की जरूरत है...मैं तुम्हारे ही शहर में हूँ...तुम जहाँ कहो मैं वहां आ जाऊँगा -आकाश बोला। मैं एक घंटे में आपसे मिल रही हूँ....मैं आपको लोकेशन भेज रही हूँ आप वही आ जाईये -अपने आँसू पोछते हुए वसुधा  ने कहा। 

    सुबह से उसके दिल की धड़कने उससे क्या कहना चाह रही थी वसुधा समझ चुकी थी। पहले भी यही होता था आकाश जैसे उसे याद करता उसका दिल उसे बता देता था वो अगर उदास होता तो वसुधा के दिल में जोर की टीस उठती थी। बीते कई दिनों से ऐसा लगातार हो रहा था इसलिए वसुधा कुछ बेचैन भी रहने लगी थी, घर के कामों में भी उसका दिल नहीं लगता था। आज सुबह से  बैचेनी बढ़ती जा रही थी  मगर, वसुधा इसे नाकरने की भरपूर कोशिश कर  रही थी।घर के सारे कामों को छोड़  वसुधा जल्दी-जल्दी तैयार होने लगी। आज पहली बार उसके प्रियतम ने उसे आवाज दी थी, उसे जल्द से जल्द उसके पास पहुँचना था। बालों को सवांरते हुए उसने आईने में खुद को देखा, बालों में सफेदी झलक रही थी कितने दिनों से उसने कलर भी नहीं किया था, उसे खुद को संवारने का ख्याल ही नहीं रहता मगर आज वो खुद को  निरख रही थी, मुरझाया सा चेहरा उदास आँखे...वो पहले वाली तेज ना चेहरे पर थी ना आँखों में वो चमक....आकाश क्या सोचेगा मुझे कोई दुःख तो नहीं है....सुखी सम्पन्न परिवार है पति भी बहुत अच्छे है....भगवान ने एक प्यारी सी बेटी दी है...दोनों उसे बहुत प्यार करते है फिर....अरे, छोडो पूछेगा तो कह दूंगी बुढ़ापा है....सोचते हुए वो अपने आप में मुस्कुराई और साड़ी बांधने लगी। उसे पता था आकाश को साड़ी ही पसंद था, सफेद साड़ी और खुले बाल।

    इतने वर्षों बाद प्रियतम से मिलने को वो भी बेचैन हो रही थी। सज-संवर कर वो खुद को एक बार फिर आईने में देखने लगी अचानक उसे अपने भीतर से आवाज आई -ये क्या कर रही हो....किससे मिलने जा रही हो....वो कौन है तुम्हारा....कोई देख ले और पूछेगा तो क्या बोलोगी.....पतिदेव या बेटी को पता चला तो.....हजार सवाल खड़े हो जायेगे.....30 सालों की बसी-बसाई गृहस्थी में आग लग जाएगी....ये ख्याल आते ही उसके पैर काँपने लगे और वो धम से बिस्तर पर जा गिरी....मैं ये क्या कर रही हूँ ???  लेकिन अगले ही पल आकाश की आवाज उसके कानों में गूँजने लगी "मुझे तुम्हारी जरूरत है वसुधा" उसका दम घुटने सा लगा। आज तक आकाश ने उससे कभी कुछ नहीं माँगा, उसकी चाहत हमेशा निःस्वार्थ रही। 12 सालों की मुहब्बत और कभी कोई फरमाईश नहीं...ना मिलने की जिद्द ना खत लिखने को मजबूर करना...बस, एक ही बात कहता- "मैं सिर्फ तुम्हें चाहता हूँ...मेरी सांसों की डोर तुमसे बंधी है और हमेशा बंधी रहेंगी...लेकिन तुम्हें मैं कभी नहीं बांधूंगा।" फिर आज उसने मिलने की जिद्द क्यूँ की...क्या मजबूरी आ पड़ी है.... हे ईश्वर मुझे शक्ति दो...मैं सही निर्णय कर सकूं- कतार स्वर में वो गिड़गिड़ाई। कुछ देर वो आँखे बंद कर यूँ ही पड़ी रही और फिर अचानक, उठ खड़ी हुई जैसे उसने निर्णय ले लिया हो, मेरे आराध्य ने पहली बार मुझसे कुछ माँगा है...मैं उसे "ना' नहीं कह सकती...आगे जो होगा देखा जायेगा....मेरा मन पवित्र है....मेरे पति के प्रति मेरी पूरी आस्था है...मैं तन-मन से अपनी गृहस्थी को समर्पित हूँ.....मैं कोई पाप करने नहीं जा रही....परमात्मा मेरी लाज जरूर बचाएंगे- ये सोचते हुए उसने पर्स उठाया और चल पड़ी अपने आराध्य से मिलने। 

     टैक्सी में बैठे-बैठे उसका सम्पूर्ण अतीत उसके आँखों के सामने से गुजर रहा था, वो खुद को उसी शहर के उन्ही गलियों में देख रही थी जहाँ, उसे अपने प्रियतम की एक झलक पाने लिए कितनी जुगत लगानी पड़ती थी। उन दिनों तो आज के जैसा माहौल नहीं था न,जहाँ सब खुल्म-खुला है,उन दिनों तो  लड़का -लड़की का  एक दूसरे को चाहना तो  जैसा महापाप था। घर से बाहर भी जाना  होता तो कोई ना कोई साथ होता, बेचारे प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे को दूर से ही देखकर सब्र कर लेते थे और बातें करने का माध्यम तो बस खत होता, वो भी किसी विश्वसनीय सहेली के हाथों ,लेकिन वो कहते है न कि -इश्क़ और मुश्क कभी छुपाये नहीं छुपता, हवा में  सुगंध फैल जाती है। वसुधा के घरवालों को भी उसकी गंध मिल गई, उसकी रेगुलर पढाई रोक दी गई, वो घर से ही पढाई करने लगी। वसुधा पापा की लाड़ली थी मगर, पापा भी समाज से बाहर जाकर उसकी  ख़ुशी पूरी नहीं कर सकते थे। ना ही आकाश के माँ-बाप ही उसका साथ देते तो....उस वक़्त की हर प्रेम कहानी की तरह वसुधा का प्यार भी अधूरा ही रहा। 12 साल जब तक दोनों की शादी नहीं हुई थी किसी ना किसी माध्यम से खतों का आदान-प्रदान होता रहा, 12 साल की मुहब्बत और दोनों कभी एक बार भी एक दूसरे से नहीं मिले थे, जो भी इज़हारे मुहब्बत थी वो ख़त के जरिए ही थी। दोनों ने तय किया था कि-शादी के बाद हम अपने रिश्तों के साथ ईमानदार रहेंगे इसलिए कोई सम्पर्क नहीं रखेंगे और आज अचानक 30 सालों बाद ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी है जो आकाश मिलना चाहता है।

अतीत की याद आते ही उसकी आत्मा तड़प उठी -"मेरे साथ ऐसा क्यूँ हुआ था" ?


क्यूँ,कुदरत ने ऐसा फैसला किया था ? 

क्यूँ, दो हिस्सों में मेरा बंटवारा किया था ?

क्यूँ, दिए एक चन्दा को दो चकोर ?

क्यूँ ,खेल रचाया उसने पुरजोर ?


    शादी के बाद वसुधा को पता चला था कि-बालपन से ही वो और उसके पति समीर एक ही शहर के एक ही मोहल्ले में रहते थे। यहाँ तक की जिस घर में वसुधा का जन्म हुआ था, दो साल का समीर भी उसी के बगलवाले घर में था।बचपन से लेकर जवानी तक समीर का हर उस घर में आना-जाना था जहाँ-जहाँ वसुधा का आना-जाना था। एक ही कॉलेज में दोनों का परीक्षा सेंटर भी होता था। मगर, कभी उन दोनों ने एक-दूसरे को देखा तक ना था,काश ! देख लिए होते और उन्हें ही एक दूसरे से प्यार हो जाता तो दिल नहीं टूटते न। और आकाश जिससे मिलना नहीं लिखा था उसे एक झलक देखते ही महज  14 साल की उम्र में ही वसुधा ने  दिल में  बसा लिया था और फिर किसी को देख ही नहीं पाई थी। वो सोच रही थी -

एक जो जन्म के साथ ही जिस्म के

 आस-पास ही मंडरा रहा था। 

और एक, जो होश संभालते ही

 रुह में आन बसा था। 


एक जो हर पल निगाहों के सामने था

 पर,उस पर मेरी नजर ना थी। 

एक जो नजर नहीं आता था

पर, हर पल नजरें उसको ढुँढती थी। 


एक जिससे बंध गई जीवन की डोर

एक जो दूर चला गया  होकर मज़बूर। 

एक जिसे मुझसे कोई लगाव तक ना था

एक जो मेरे इश्क में डुबा हुआ था। 


     वसुधा और समीर वैसे तो आदर्श जोड़े थे। दोनों का जीवन बाहर से देखने पर बिल्कुल शाँत-और सुखमय ही था। समीर की नजर में वसुधा एक आम पत्नी थी जिसका काम  उसकी जरूरतों को पूरा करना था। समीर रिश्तों में भी गुडलक और बैडलक ढूंढता था और उसके जीवन में वसुधा के आने से कुछ खास बदलाव नहीं हुआ था। उसे दिल-विल,प्यार-व्यार में बिल्कुल यकीन ना था। उसका मानना था सारे रिश्तें जिस्म से शुरू होते है और जिस्म पर ही जाकर ख़त्म होते है। ,उसे "चित्रलेखा" के उस कथन पर ज्यादा यकीन था कि"ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानों" और वसुधा वो तो आजीवन तन से परे मन की पुजारन थी।और "आकाश" जो उसे छूना तो दूर, कभी करीब से देखा तक नहीं था,मगर इन बातों पर समीर को कभी यकीन नहीं था,उसका कहना था-ऐसा हो ही नहीं सकता।  दोनों एक दूसरे की ये बात समझ नहीं सकते थे। आखिर कैसा ये संयोग है -


एक जिसकी हर दुआओं में जिक्र था मेरा

एक जिसने कहा, तुम बदुआ हो मेरी 

एक जिसकी होकर भी मैं नहीं थी

एक जो मेरा होकर भी मेरा नाम था


एक जिसकी मैं सिर्फ पत्नी हूँ 

एक जिसकी कुछ भी ना होकर, सबकुछ हूँ। 

एक जिसके साथ उम्र गुजर रही है, 

एक जिसके साथ वक्त वहीं ठहर हुआ है।  


एक मेरा सुहाग है,

 जिससे मुझे प्यार है 

एक सांसों का आधार है,

 जिसके बिना जीना एक श्राप है।


लेकिन कुछ फैसले तो उपरवाले के हाथ ही होता है उस पर इंसानो का कोई जोर नहीं। लेकिन भुगतता तो इंसान है। 

एक जिसे दिल ने चुना था,

एक जिसे भगवान ने दिया था। 

फैसला ये दिल और भगवान ने किया था

मगर,दो हिस्सों में मुझे बांट दिया था।


और वाह रे इंसाफ,बंटवारा भी क्या खूब किया था 


जिसे जिस्म चहिए था 

उसे जिस्म ही मिला। 

मोहब्बत की किस्मत में हार होती है 

तो,उसे हार ही मिला था। 

 वो अपने ही ख्यालों में उलझी थी तभी टैक्सी ड्राईवर की आवाज आई-लो मैडम,आ गया आपका कैफे हॉउस।  वसुधा जैसे नींद से जगी हो,टैक्सी रुकते ही थोड़ी दूर पर खड़े आकाश पर उसकी नज़र गई वो आज भी हमेशा की तरह राहों में पलकें बिछाए अपनी वसुधा का इंतजार कर रहा था।30 साल पहले भी वो हर उस गली में,उस नुक्क्ड़ पर खड़ा वसुधा का इंतजार करता जहाँ से होकर उसकी वसुधा की गुजरने की संभावना  होती। दोनों की नज़रे मिली और वक़्त ठहर सा गया....

क्रमशः 

रविवार, 25 सितंबर 2022

"वसुधैव कुटुम्बकम "



    भारतीय "हिन्दू संस्कृति" सबसे प्राचीनतम संस्कृति मानी जाती है और इस संस्कृति का मुलभुत सिद्धांत था "वसुधैव कुटुम्बकम "अर्थात पूरी वसुधा ही हमारा परिवार है। इस परिवार में मानव ही नहीं, प्रकृति और समस्त जीवों का भी स्थान था। हिन्दू संस्कृति में प्रकृति और जीवों का इतना गहरा रिश्ता है कि -दुनिया की सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही "अग्नि" की स्तुति में रचा गया है। समय-समय पर पेड़-पौधे और जीवों की पूजा तो सर्वविदित है। 

     "हिन्दू धर्म" में अनगिनत त्यौहार मनाये जाते हैं। हर त्यौहार के पीछे कोई ना कोई उदेश्य जरूर होता है। अब नवरात्री पूजन को ही लें -  "नवरात्री" के नौ दिन में नौ देवियों का आवाहन अर्थात आठ दिन में देवियों के अष्ट शक्तियों को खुद में समाहित करना ( रोजमर्रा के दिनचर्या के कारण हम अपनी आत्मा के असली स्वरूप को खो देते है..उसका जागरण करना )और नवे दिन देवत्व प्राप्त कर दसवे दिन अपने अंदर के रावण का वध कर उत्सव मनाना। जब अंदर का रावण मर जायेगा तो जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ होगी, फिर घर-घर खुशियों के दीप जलाकर दीपावली मनाऐगे ही। भारतीय संस्कृति में  प्रचलित प्रत्येक त्यौहारों  पर यदि हम गहनता से चिंतन करें तो ये स्पष्ट होगा कि इनके पीछे आध्यात्म की प्रमुखता तो थी ही साथ-साथ एक बहुत बड़ा पारिवारिक,सामाजिक,मनोवैज्ञानिकऔर प्रकृति संरक्षण का उदेश्य भी छिपा होता है।नवरात्रि में देवी पूजन कर अपनी आत्मा की शक्तियों को जागृत करने से भी पहले हम पंद्रह दिन अपने पतृदेवों का पूजन कर उनकी आत्मा को तृप्त करते हैं ताकि अष्ट शक्तियों को जागृत करने के लिए   हमें जो बल चाहिए, वो पतृदेवों के आशीर्वाद से हमें मिल सकें। और पतृदेवो के प्रति सच्ची श्रद्धा-विश्वास और कर्तव्य परायणता की सीख तो गणपति जी से अच्छा कौन दे सकता है,इसलिए पतृपक्ष से पहले हम ग्यारह दिन मातृ-पितृ भक्त गजानन की पूजन करते हैं।इस तरह सारे त्यौहारों को क्रमबद्ध कर इस तरह से व्यवस्थित  किया गया है जो हमें समय-समय पर जीवन को बेहतर बनाने की सीख देते हैं। 

     "हिन्दू धर्म" के प्रत्येक त्यौहारों में तन-मन और वातावरण दोनों की शुद्धता को प्रमुखता दी गई है। दशहरा में मन की शुद्धता तो दीपावली में वातावरण की शुद्धता।  चार माह के बारिस के मौसम के बाद सर्दी के मौसम का आगमन होता है और बरसात के मौसम में घर के अंदर से लेकर बाहर तक गंदगी और कीड़ें -मकोड़ों की संख्या काफी बढ़ जाती है। सर्दी बढ़ने से पहले अगर इनकी सफाई नहीं हुई तो बीमारियों का प्रकोप बढ़ जायेगा। हमारे पूर्वजों ने दिवाली को लक्ष्मी पूजा से भी जोड़ा और कहा कि अपना घर और अपने आस-पास का वातावरण अगर साफ नहीं रखोगे तो लक्ष्मीजी तुमसे नाराज़ हो जाएगी और तुम्हारे घर नहीं आएगी।स्वाभाविक है, यदि घर में बिमारियों का प्रकोप होगा तो लक्ष्मी नाराज़ ही कहलाई न।  दिवाली पर तेल या घी के दीपक जलाने की परम्परा बनाई ताकि उस दीये के आग में वो सारे बरसाती कींट -पतंगे जल कर खत्म हो जाये जो हमारे शरीर के साथ-साथ आगे चलकर हमारे खेतो को भी नुकसान पहुँचायेगें। घी और तेल से निकलने वाले धुएं हमारे पर्यावरण को शुद्ध करेंगें।

      दीपावली के बाद बिहार और उतरप्रदेश के कुछ क्षेत्र में "छठ पूजा" का भी बहुत बड़ा महत्व है। इस त्यौहार के पीछे भी हमारे पूर्वजो की बड़ी गहरी मानसिकता रही है ।(इस त्योहर के बारे में विस्तारपूर्वक जानने  लिए पढ़े मेरा ये लेख-आस्था और विश्वास का पर्व -" छठ पूजा "ये  एक मात्र ऐसा पौराणिक पर्व है जो ऊर्जा के देवता सूर्य और प्रकृति की देवी षष्ठी माता को समर्पित है। पृथ्वी पर हमेशा के लिए जीवन का वरदान पाने के लिए ,सूर्यदेव और षष्ठीमाता को धन्यवाद स्वरूप ये व्रत किया जाता है।इस पूजा में अपने अंतर्मन की सफाई के साथ-साथ पर्यावरण की सफाई, जिसमे नदी-तालाब की सफाई को प्रमुखता दी गई थी।  इस पूजा में प्रकृति से प्राप्त हर एक वस्तु की पूजा की जाती है जो ये संदेश देता है कि -प्रकृति ने जो भी  वस्तु हमें  प्रदान की है उसका अपना एक विशिष्ट महत्व होता है इसलिए किसी भी वस्तु का अनादर नहीं करें।हमारे हर पूजा-पाठ,हवन-यज्ञ के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक कारण अवश्य होता है। 

   काश !  हम समझ पाते कि-इतने सुंदर ,पारिवारिक ,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सन्देश देने वाले  इन त्यौहारों को जिन्हे हमारे पूर्वजों ने कितना मंथन कर शुरू किया होगा जिसमे सर्वोपरि "प्रकृति" को रखा गया था। लेकिन आज यह पावन- पवित्र त्यौहार अपना मूलरूप खो चूके हैं। इनकी शुद्धता ,पवित्रता ,सादगी ,सद्भावना ,और आस्था महज दिखावा बनकर रह गया है।भारतीय संस्कृति और त्योहारों पर हम गहनता से चिंतन करे तो पाएंगे कि-प्रकृति संरक्षण का ऐसा कोई संस्कार अखंड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र कही देखने को नहीं मिलेगा। शायद, यही कारण है कि-और देशो के मुकाबले हमारे देश में प्रकृति से संबंधित हालात अभी भी बेहतर है। दूसरे देश तो भौतिक चकाचोंध में अपना सब कुछ लुटा चुके हैं और थककर भारतीय परम्परा अपनाने के लिए अग्रसर हो रहे हैं और हम अपना महत्व अब भी नहीं समझ पा रहें हैं। यदि आज भी हम सतर्क हो जाए तो स्थिति सुधर सकती है। 

   अब हमें धर्म और त्योहारों के मूलरूप को फिर से समझना ही होगा -कब तक हम धर्म (धर्म भी नहीं धर्म का छलावा )के नाम पर खुद का ,समाज का और अपने पर्यावरण का शोषण करते रहेंगे ? क्या क्रिसमस ,ईद , दिवाली और नववर्ष पर पटाखें  जलाने से ही हमारा त्यौहार मनाना सम्पन होगा ?क्या जगह-जगह  रावण जलाकर ही हम ये सिद्ध कर सकते  हैं  कि हमने रावण को मार दिया? रावण भी ऊपर से देखकर हँस रहा होगा और कहता होगा - "मूर्खो मारना ही है तो अपने भीतर के रावण को मारो,मैं तो तुम सब के अंदर जिन्दा हूँ ,तभी तो किसी ना किसी रूप में हर साल हज़ारो की जान ले ही लेता हूँ ,पाँखंडियों खुद के  भीतर के रावण को तो मार नहीं सकते इसलिए हर साल मेरे पुतले को जला मुझे मारने का ढोंग करते हो। "लक्ष्मी माता भी हँसती होगी कि -पटाखें जलाकर,प्रदूषण फैलाकर मेरे ही स्वरूप "प्रकृति" को नष्ट कर रहे हो और मुझसे ही अन्न-धन और खुशियों की सौगात माँगते हो,मेरी दी हुई प्राणवायु को प्रदूषित कर मुझसे ही जीवन का वरदान माँगते हो "कहाँ से दूँगी मैं तुम्हें ये खुशियाँ"?

     त्यौहार जीवन में खुशियाँ लाने के लिए होती है दुखों को दावत देने के लिए नहीं। हिंदुत्व वैज्ञानिक जीवन पद्धति है। प्रत्येक हिन्दू परम्परा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक रहस्य छिपा है। इसे समझने और अपनाने का वक़्त आ गया है। अभी नहीं तो कभी नहीं.....

आईये,इस साल  हम सभी  प्रण ले कि-हर त्यौहार पूर्ण भारतीय परम्परा के साथ मनाएंगे 

अपने घर और वातावरण को नव जीवन प्रदान करेंगे। 

और पुरे विश्व में एक बार फिर से  "वसुधैव कुटुम्बकम " का संदेश देगे। 



 



मंगलवार, 13 सितंबर 2022

"सत्य ना असत्य"

  

आज मैं आप सभी को एक कहानी सुनाती हूँ। आप भी अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से इसका "अर्थ" निकाल सकते हैं। 

एक बाबा जी थे। लोगों का मानना था कि -बहुत पहुँचे हुए संत है जो कहते हैं सत्य हो जाता है,खासतौर पर संतानहीन माँ-बाप को बच्चों के बारे में जो बताते हैं वो तो बिल्कुल सत्य होता है। बाबा जी भक्तों को उत्तर एक पर्ची पर लिख कर देते थे। अब,जब भी कोई दम्पति आकर पूछता कि-"बाबा जी,मुझे बताये कि-लड़का होगा या लड़की" तो बाबा जी एक पर्ची पर लिख देते "बेटा ना बेटी" लोग अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से या यूँ कहे मनोकामना के हिसाब से अपना उत्तर स्वयं सोच लेते थे। अब,अक्सर तो लोग बेटे की ही कामना कर खुश होते हैं। तो जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती और वो बाबा जी को धन्यवाद देने आते तो बाबा जी भी बड़े शान से छाती चौड़ी करके बोलते -"मैंने कहा था न बेटा,ना बेटी"यानि तुम्हे तो बेटा ही होना था। लोग खुश हो जाते। अब जिन्हे बेटी हो गई  और बेटी तो शायद ही किसी को चाहिए होता है तो वो दुखी होकर बाबा जी के पास आता तो बाबा जी बड़े प्यार से कहते-कोई बात नहीं बच्चें मैंने तो पहले ही कह दिया था कि-"बेटा ना,बेटी" तुम समझे ही नहीं। अब जिन्हे काफी इंतजार के बाद भी कुछ नहीं होता वो बाबा जी के पास शिकयत लेकर आता अपना दुखड़ा रोने लगता कि- बाबा जी मुझे तो ना बेटा हुआ ना बेटी मेरी झोली तो खाली ही रह गई तो बाबा जी सांत्वना भरे शब्दों में रूखे गले से बोलते-"मेरा तो कलेजा फट रहा था तुम्हें ये कहते हुए इसीलिए सांकेतिक रूप से कह दिया था "बेटा ना बेटी" अर्थात अभी तुम्हारे नसीब में कुछ भी नहीं था मेरे बच्चें,तुम्हें अभी प्रतीक्षा करनी होगी। और इस तरह बाबा जी का धंधा बड़े मजे से चलता था नाम,यश और धन किसी चीज की कमी नहीं थी ना आगे भविष्य में ही होनी थी क्योंकि लोगों को क्या चाहिए एक "सांत्वना" और वो उन्हें मिलता रहा उनकी झोली भरे ना भरे बाबा जी की भरती रही। 

 बाबा जी के पर्ची पर लिखे सांकेतिक भाषा को लोगो ने कितना समझा मैं नहीं जानती लेकिन धीरे-धीर इसका चलन जरूर बढ़ता जा रहा है ।  हमारे राजनेता तो पहले से ही इसमें माहिर है। वैसे ये कहना भी अतिशयोक्ति होगी कि-ये सिर्फ राजनेताओं ने ही सीखा है अब तो हम सभी ने भी बड़ी आसानी से बाबा जी की भाषा के साथ तालमेल बिठा लिया है। अब हम भी "ना सत्य बोलते है ना असत्य" समय और जगह के मुताबिक "सत्य ना असत्य" में एक अल्पविराम चिन्ह देकर उसका माने-मतलब बदल देते हैं और अपनी बातों को सिद्ध कर देते हैं।

वैसे देखा जाए तो ये भी एक कला है। आप क्या कहते हैं ???

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...