गुरुवार, 7 जुलाई 2022

" तुम्हें गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो....."




 "छाई बरखा बहार पड़े अंगना फुहार....", 

"पड़ गए झूले सावन रुत आई रे...."

"पुरवा सुहानी आई रे ऋतुओं की रानी आई रे...." 


ऐसे कितने ही अनगिनत गीत है जो आज भी जब सुनाई पड़ते हैं तो मन खुद-ब-खुद झूमने लगता है। 

"पीली पीली सरसों फूली 

पीले उड़े पतंग 

अरे पीली पीली उडी चुनरिया 

ओ पीली पगड़ी के संग 

गले लगा के दुश्मन को भी 

यार बना लो कहे मलंग 

आई झूम के बसंत,झूमो संग संग में 

आज रंग लो दिलों को एक रंग में 

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उपकार फिल्म का ये गाना सुनते ही  प्रकृति का वो मनोरम दृश्य आपको खुली आँखों से दिखाई देने लगता है। उदास मन भी झूम उठता है गुनगुनाने लगता है सारे गीले-शिकवे भूल किसी को गले लगाने को मन मचल उठता है। दरअसल ये सिर्फ गीत के बोल नहीं है ये तो हमारे मन के भाव है जो प्रकृति की सुंदरता को देखते ही खुद-ब-खुद  उमड़ने लगते हैं। अक्सर हमने महसूस किया है कि -हम कितने भी उदास हो कितनी भी परेशानियों में घिरे हो परन्तु किसी पार्क में या फूलों के बगियाँ में चले जाये,किसी झरने, नदी, ताल-तलईया या समुन्द्र के पास चले जाये, तो मन अथाह सुख के सागर में गोते लगाने लगता है। थोड़ी देर के लिए ही सही हम सारे गम भूल जाते हैं। आप अपने ही छोटे से गमले में लगे छोटी-छोटी फूलों के पास बैठ जाए यकीनन आपको थोड़ी देर के लिए सुकून जरूर मिल जायेगा। 


आखिर ऐसा क्यों होता है ?क्या हमने कभी इस बात पर गौर किया है ?

क्यूँ आज भी जबकि पहले जैसी आबो-हवा नहीं रही फिर भी फूलों का खिलना, भवरों का गुनगुनाना,बादलों का उमड़ना,घटाओं का गरजना,बूंदों का बरसना,मदमस्त वयारों का तन को छूकर निकल जाना हमें रोमांचित कर देता है ?क्यूँ पहाड़ों को देख,नदी, झरने को देख हमारा मन कवि बन जाता है ? आज भी क्यूँ कवियों का प्रिय विषय "प्रकृति" ही है? शहर की भीड़-भाड़,गाड़ियों का शोर,शॉपिंग मॉल की चमक-धमक,से ऊब हम छुट्टियां मनाने पहाड़ों पर ही  क्यूँ जाते हैं ? 

   इन सारे "क्यूँ" का एक ही जबाब है कि-हमारा जीवन ही नहीं हमारी खुशियों की शुरुआत भी प्रकृति से ही होती है और अंतिम मोक्ष भी वही मिलता है। मानव और प्रकृति एक दूसरे के पूरक है,एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव ही नहीं। मानव जन्म से मरण तक इसी प्रकृति के गोद में रहता है। प्रकृति हमें माँ की तरह पालती है,बाप की तरह पोषित करती है,एक मित्र की तरह हमें अनंत खुशियाँ देती है और हमारा मनोरंजन भी करती है,मूक प्रकृति  मौन रहकर भी पग-पग पर एक गुरु की भाँति हमें ज्ञान भी देती है और अंत समय में अपने आँचल में समेट कर खुद में हमें विलीन भी कर लेती है। तो इससे हमारा अटूट लगाव होना स्वभाविक ही है। इस बात को जानते हुए भी आज हम नासमझ बन बैठे है और इसकी नाकदरी करते रहते हैं। एक बार खुद का मंथन करना बहुत जरूरी है कि-हमारी ख़ुशी क्या है और किससे है ?

 "प्रकृति"का मतलब ही होता है "सर्वश्रेष्ठ कृति" ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना। 

ईश्वर ने अपने  ही स्वरूप को  प्रकृति के रूप में सजाया और इसका आनंद उठाने के लिए,इसका उपभोग करने के लिए और इसको संरक्षित करने के लिए सौप  दिया अपनी दूसरी श्रेष्ठ कृति "अपने मानस पुत्रो" के हाथों में। हमारी ख़ुशी से लेकर गमी तक में प्रकृति हमारी साथी और साक्षी दोनों बनी रहती है। प्रकृति से ही संगीत उत्पन होता है और प्रकृति की गोद में ही नृत्य का जन्म होता है। प्रकृति हमारी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक,सांस्कृतिक और आध्यत्मिक विकास की कारक बनी है। गौरवशाली परम्परा और अनूठी संस्कृति के देश हमारे भारत में तो प्रचीन काल से ही इसके साक्ष्य मिलते रहें हैं कि-प्रकृति हमारे लिए कितनी पूजनीय है। ऋग्वेद के अनुसार जल,वायु,अग्नि,समुद्र,नदी, वृक्ष ये सभी देवता स्वरूप है और आराधना करने योग्य है। धरती को माँ का स्थान मिला। हमारे तीज-त्योहारों में,पारंपरिक गीतों में आज भी प्रकृति पूजन का महत्व है। पति की लम्बी उम्र के लिए बरगद की पूजा करना,शादी के रस्मों में आम-महुआ का व्याह,मिट्टी और कुआ पूजन की रस्में होती ही है। 

परन्तु अफ़सोस ये सब अब सिर्फ दिखावा भर होता है अब हम बस लकीर पीटते हैं। इसके महत्व को हम कब का अनदेखा कर चुके हैं। अब सावन में झूले नहीं पड़ते...अब बसंती वयार अपने अल्हड़पन में नहीं बहती....अब बरखा की रिमझिम बुँदे नहीं बरसती.....अब तो आसमान से आफत बरसती है या आग। अब सावन के महीने में बेटियां अपने बाबुल के घर नहीं जाती.....ना ही सखियों के साथ झूला झूलते हुए गीत गुनगुनाती है। अब सर्दियों की वो मीठी धुप नहीं मिलती.....गर्मियों में आम के बगीचे की ठंढी छाँव नहीं मिलती....कोयल के सुर के साथ बच्चे अपना सुर नहीं मिलाते....बादलों को उमड़ते देख मोरनी का नाच देखना सबको नसीब नहीं है। 

ये सारी खुशियाँ अब हम से दूर हो चली है या यूँ कहे कि-भौतिक सुखों की लालसा में हमने खुद ही इससे मुख फेर लिया और आज जीवन में तनाव और डिप्रेशन को जगह दे दिया। अगर सचमुच ये भौतिक सुख हमें ख़ुशी और सुकून देती तो हम इनसे ऊब कर पहाड़ों पर छुट्टियां बिताने नहीं जाते। जो पहाड़ों की गोद में खेले बढे है उन्हें महल कभी रास नहीं आता। वो अपना जन्नत छोड़कर आना कभी नहीं चाहेंगे। क्योंकि असली सुकून वही है। 

आज सच पूछे तो हमारे जीवन से "ख़ुशी" शब्द ही खो गया है। अब तो त्योहारों का रूप भी कृत्रिम हो चुका है। कोई भी त्यौहार अब जीवन में क्षणिक खुशियाँ भी लेकर नहीं आती क्योंकि परिवार जो खंडित हो चूका है। हम सिर्फ भौतिक सुखों के मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे हैं। प्रकृति से नाता क्या तोडा ख़ुशी और सच्चे प्यार से भी नाता टूट गया। अब कहाँ है वो प्रेमी मन, जो गुनगुनाता था.... 

"इन हवाओं में,इन फिज़ाओं में तुझको मेरा प्यार पुकारे"

अब कहाँ किसी प्रेमिका के आने पर प्रेमी फूलों से गुहार करता है कि-

"बहारों फूल बरसाओं मेरा महबूब आया है"

अब तो दिल बस एक ही गीत गुनगुनाता है-"जाने कहाँ गए वो दिन...."

   फिर से दिल चाहता है....उन दिनों को देखना जब,फुलवारियों में फूलों के साथ हम झूमा करते थे.....जब,बारिश के पानी में नगधड़ंग बच्चे दौड़ लगते थे....जब आम के बगीचे में बुजुर्गो की चौपाल लगती थी....जब बसंत की बहार में सरसों के पीली-पीली फूलों के बीच दो दिल मिलते थे....जब सावन में  झूले पर झूलती हुई सखियाँ एक दूसरे से ठिठोली करती थी....

 फिर से दिल चाहता है..... सावन की राह तकते हुए कोई सच्चा प्यार ये कहे -

" तुम्हें गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो....." 









रविवार, 26 जून 2022

"तू कविता या गीतिका"





ना मैं कविता, ना ही गीतिका,

मैं तो नज़्म पुरानी हूँ। 

ना भुला पाओगे कभी जिसे,

मैं वो अधुरी कहानी हूँ।। 


तेरी लग्न में मस्त-मगन,

मैं एक प्रेम दीवानी हूँ। 

अटूट स्नेह की डोर बंधी, 

मैं तो तेरी रानी हूँ।।


मीरा की मैं भक्ति गीत हूँ, 

विरहन राधा प्यारी हूँ। 

सोहनी की मैं मधुर तान हूँ, 

हीर की नेत्रवारि हूँ।।


प्यार का एक नगमा हूँ, 

तेरे  होठों पे सजती हूँ। 

तेरी पावन-पवित्र आँखों में, 

बूंद बन सिसकती  हूँ।।


 सांसों में तेरी घुली हुई, 

तेरे दिल की मै धड़कन हूँ। 

रूह में तेरी बसी हुई,  

तेरे रगो की मैं शोणित हूँ।। 


 तेरी ख्वाबों की गलियों में, 

मैं दिन रात भटकती हूँ।

तेरी यादों की आँगन में,

बादल बन बरसती हूँ।।


ना पास तुम्हारे आ पाऊँ 

ना दुर तुमसे जा पाऊँ 

जो तुम को छू गुजर जाती है   

मैं वो पवन सुहानी हूँ  


माना, बंधी हूँ सीमाओं में 

फिर भी, मौजों की रवानी हूँ 

मर्यादाओं में बंधी हुई

मैं संस्कार पुरानी हूँ।।

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 (चित्र-गूगल साभार से ) कविता 

शुक्रवार, 17 जून 2022

"आ अब लौट चले"




"निकले थे कहाँ जाने के लिए,पहुँचे  है कहाँ मालूम नहीं 

        अब अपने भटकते क़दमों को,मंजिल  का निशां मालूम नहीं "


इस सदी के मानव जाति का आज यही ह्रस हो रहा है "कहाँ जाने के लिए निकले थे और कहाँ पहुँच गए है"।   

एक युग था जब मानव घर से  निकलता था आध्यात्म की तलाश में,निर्वाण की तलाश में,मानव कल्याण के मार्ग की तलाश में ,विश्व शांति के उपाय की तलाश में और खुद की तलाश में....जब लौट कर आता था तो खुद का ही नहीं सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण करता था। उन्हें पता होता था वो कहाँ और क्यों जा रहें और यकीन होता था कि  जब लौटेगे तो शुभ फल के साथ। जब जीने के मूल्य कुछ और थे,साधन कुछ और,प्राथमिकता  कुछ और होती थी। जब ऐश्वर्य की अधिकता के वावजूद "साधा जीवन और उच्च विचार" था। जब संघर्ष भी होता था तो सिर्फ  अपने मान-मर्यादा,स्वाभिमान-संस्कार और अधिकार  की रक्षा हेतु। जब प्रकृति भी भरपूर थी तब भी मानव तो मानव जानवर भी उससे उतना ही लेते थे जितने से उनकी क्षुधा पूर्ति हो  जाए। जितना लेते  थे उससे कही ज्यादा प्रकृति को वापस  भी करते थे संतुलन बना रहता था। घर,समाज और देश में शांति के साथ-साथ  वातावरण में भी शांति व्याप्त होता था।  उन दिनों की कल्पना करने मात्र से ही आज भी शांति की अनुभूति होती है। क्यूँ,सच कहा न ?

ज्यादा नहीं आज से तीस-पैतीस वर्ष पूर्व तक भी जीवन इतना मुश्किल तो नहीं था जितना अभी है। सूरजदेव कितनी भी तपिश बरसाए आम-बरगद और पीपल की  ठंडी छाँव हर जगह मिल  जाती थी,गर्मी बढ़ते ही बगीचे की ठंडी छाँव में खाट बिछ जाया करते थे,जब प्यास बुझाने  के लिए सिर्फ पशु-पक्षी और जानवरों  के लिए ही नहीं मानव के लिए भी नदी,ताल-तलईयां और कुपो में भरपूर स्वच्छ जल था। मट्टी के घड़े में सौंधी खशबू से भरा जल तन और मन दोनों को शीतलता प्रदान करने में सक्षम होता था। जीवन सुखद स्वप्नों सा था। आज तो शहर को छोड़े गांव में भी  यदा-कदा ही ये सब देखने को मिलता है। चंद सालों में क्या से क्या हो गया,है न  ??

अब कुछ लोगों का उत्तर होगा "जीवन बहुत आरामदायक और सुविधाओं से लेस हो गया,क्या कुछ नहीं पाया हमने,विज्ञान के चमत्कार ने हमारी हथेलियों में वो ऊर्जा भर दी कि क्षण भर में हम चाँद को छू लेते है,प्यास बुझाने लिए ताल-तलैया तक चलकर कौन जाए, घर में ही शीतल पेय की मशीन पड़ी है,पेड़ों की छाँव किसे चाहिए जब एक बटन दबाते ही सारा घर ठंडा-ठंडा,कूल-कूल हो जाए। शीतल ठंडी हवा का तो मोल ही ख़त्म हो गया,घर हो या ऑफिस चिल ही चिल है। अब इनसे कोई पूछे कि- जब इतने चिल हो ही तो फिर गर्मी-गर्मी क्यों चिल्लाना। अच्छा हाँ,एसी से  निकलते ही तुम्हारा कोमल तन सूरज की तपिश को नहीं सह पाता होगा न। वैसे जनाब हकीकत भी यही है कि-गर्मी आप जैसे लोगो के लिए है भी कहाँ,जलवायु परिवर्तन से आपको क्या ? गर्मी तो बस गरीबो और पशु-पक्षियों के लिए है,उनके एसी-कूलर और फ्रिज को तो तुमने तबाह बर्बाद कर दिया। अपने सुख-सुविधा और अत्यधिक की चाह में तुमने अपना वर्तमान ही नहीं भविष्य को भी जहनुम बना दिया। थूकेगी आने पीढ़ी तुम सब पर,तोहमत लगाएगी कि-तुम सब के किये की  सजा हम और हमारी आने वाली नस्लें भोगेगी। 

अविष्कार करना अनुचित नहीं होता,गलत होता है बिना सोचे-समझे उनका  ज़रूरत से ज्यादा उपभोग करना,उसके  हानिकारक पहलू के विषय में सोच-विचार नहीं करना। हमने भी यही किया -"कहाँ जाने की लिए निकले थे और कहाँ पहुँच गए है।"हम भी एक दिन घर से निकले थे अपने जीवन को सहुलियतो से भरने, चांद तारों पर घर बनाने, धरती से आकाश की दुरी को नापने, पाया भी बहुत कुछ परन्तु, क़ीमत क्या चुकाई ? हमारी नादानी ने हमें मौका ही नहीं दिया सोचने का कि प्रकृति से अप्राकृतिक होने की हमें सजा क्या मिलेगी?  आज सूरज आग उगल रहा है,दिन-ब-दिन गर्मी अपनी अपनी हदे पार करती जा रही है,नदी-तालाब सुख गए, पेड़ झुलस रहें हैं, धरती तप रही है, अम्बर जल रहा है। हमारे नौनिहालों का बचपन बदहाल है और वो घर में कैद रहने को मजबूर है,अब हमारे बनाये एसी-कूलर भी नाकाम हो रहें हैं, अब क्या करेंगे ??

ये अविष्कारों के जनक और हमारे बाप-दादाओ ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि- हम किस आग में झोंक रहे हैं अपनी नस्लों को और ना अभी तक हमें ही सोचने की फुर्सत मिली है।विज्ञान ने ही हमारा भला किया और विज्ञान ही हमारा विनाश भी कर रहा है क्योंकि कोई भी गतिविधि सीमावद्ध ही अच्छी और सार्थक होती है। जलवायु परिवर्तन और  बढ़ते तापमान ने हर एक जागरूक इन्सान की चिंता बढ़ा दी है। यदि इस पर अभी भी रोक लगाने का प्रयास नहीं किया गया तो आने वाले दिन इतनी डरावनी होगी जिसकी कल्पना मात्र से ही रूह कंपा जा रही है।

समस्या होती है तो सामाधान भी होता है। ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका सामाधान ना हो। इस तपते और बदलते वातावरण के साथ  दिनचर्या अर्थात सोने,उठने,काम करने,या स्कूल और दफ्तर के समय को बदलना विकल्प नहीं है। दिनचर्या बदलने से तापमान नहीं बदलने वाला, बदलना ही है तो खुद को बदलिए। अपने जीवन शैली को ही  बदलना होगा और कोई विकल्प है ही नहीं । अब ये ना कहे कि-एक हमारे करने से क्या होगा ? "हमें लौटना ही होगा अपनी भारतीय जीवन शैली की ओर"  जो प्रकृति और संस्कृति दोनों के करीब थी ।भारतीय सभ्यता सबसे पुरानी वेदिक सभ्यता है जहाँ "सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय" का सिद्धांत था। सर्वजन से अभिप्राय सिर्फ मनुष्य जाति से ही नहीं था इनमे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी,समेत सम्पूर्ण ब्रह्मांड आता था। बहुत जी लिये पश्चिमी जीवन शैली से, अब तो उन्हें भी एहसास हो गया है कि उनका तरीका सही नहीं था उन्होंने "यूटर्न" ले लिया है और हमारी सभ्यता अपना रहें हैं।लेकिन हम अभी भी अपनी छोड़ दूसरों के नकल में ही लगे है। अपनी मानसिकता बदलिए,सब कुछ बदलना आसान हो जायेगा। अब ये भी ना कहे कि सिर्फ भारत के लोगो के बदलने से क्या होगा बाकि दुनिया तो परमाणु युद्ध के कगार पर खड़ी है,रूस और यूक्रेन के युद्ध ने वातावरण का कितना नाश किया होगा ?? हम अपने हिस्से की जिम्मेदारी ले सकते हैं पूरी दुनिया की नहीं और हमें पूरी ईमानदारी से वही निभाना है।   

 सोशल मिडिया में जहाँ बहुत बुराई है वहाँ कुछ अच्छाई भी है ये हम पर निर्भर है कि- हम अच्छाई को बढ़ावा दे रहें हैं या बुराई को। सोशल मिडिया पर दिख रहा है कि -बहुत से ऐसे लोग है जो प्रकृति को लेकर फिक्रमंद है। प्रकृति के संरक्षण की दिशा में बहुत से जागरुक लोग नित्य नए प्रयास भी कर रहे हैं और सफल भी हो रहें हैं। उनमे से एक तो हमारे "आदरणीय संदीप जी" ही है। मुझे सोशल मिडिया पर ऐसे कई पेज मिलते है जहाँ पर परम्परागत पुरानी जीवन शैली को अपनाकर  प्रकृति को संरक्षित करने के प्रयास में जागरूक लोगो के बारे में बताया जाता है। जीवन शैली बदलेगी तो प्रकृति खुद को स्वतः ही बदल लेगी। करोना-काल में इस बात के प्रत्यक्षदर्शी हम स्वयं रहें हैं। एक सोशल पेज को में यहाँ साझा कर रही हूँ। इस पेज को साझा करते हुए मेरा उदेश्य सिर्फ इतना है कि-हम इनसे प्रेरणा ले सकते हैं। मैंने अपनी जीवन में इससे प्रेरित होकर बदलाव किये है। (मैं इस पेज को वक्तिगत फायदे के लिए प्रमोट नहीं कर रही) यकीन मानिये, हमारे छोटे-छोटे प्रयास वातावरण में बड़े-बड़े बदलाव लाने में सक्षम है। 

नोट-सोशल मिडिया पेज का नाम है-EcoFreaks by Anuj Ramatri (एक बार देखिएगा जरूर )

("प्रकृति दर्शन"पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित मेरा लेख,आदरणीय संदीप जी को बहुत बहुत धन्यवाद )


 



"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...