शनिवार, 11 जुलाई 2020

"प्रश्नचिन्ह" ?

     

    आज समाज में यत्र -तत्र -सर्वत्र ऐसे लोग मिल ही जाते हैं जिन्हें या तो शिकायत करना आता है या सिर्फ "प्रश्न" करना।प्रश्न माँ -बाप पर प्रश्न, रिश्ते -नातेदारों पर प्रश्न, समाज और उनके बनाएं कायदे-कानून पर प्रश्न, सरकार पर-इतना ही नहीं-प्रश्न इस सृष्टि और सृष्टिकर्ता पर,धर्म-संस्कार पर,आस्था-विश्वास पर,नारी के स्वाभिमान और मान-मर्यादा पर,यहां तक कि मनुष्य जाति के अस्तित्व पर कि-वो बन्दर की संतान हैं या देवता और ऋषि-मुनि की संतान।मुझे यकीन हैं ऐसे लोग खुद के होने पर भी "प्रश्नचिन्ह"जरूर लगाते होंगे। "सवाल उठाना"वो अपनी बुद्धिमता समझते हैं या अधिकार---- ये बात तो वही जाने---!

     उन महाज्ञानियों को कोई भी अपने उत्तर से संतुष्ट भी नहीं कर सकता  क्योँकि उनकी तार्किक प्रवृति उन्हें संतुष्ट होने ही नहीं देती।जैसे,समस्या है तो उसका समाधान भी है वैसे, ही यदि प्रश्न है तो उसका उत्तर भी है मगर इन बुद्धिजीवियों  को स्वयं उत्तर तलाशाने नहीं हैं, वो तो सिर्फ "प्रश्नकर्ता" हैं उन्हें उत्तर से दरकार नहीं, वो उत्तर तलाशने में अपना वक़्त जाया क्यूँ करें। वो तो सिर्फ इस मद में चूर हैं कि--" मेरी सोच समाज से "इतर" है, मेरी बुद्धि मेरे ख्यालात मॉडन हैं, मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ, मैं तार्किक हूँ।" 

     भगवान पर,वेद-पुराणों पर,रामायण,गीता और भहाभारत जैसे ग्रंथों पर,आस्था-विश्वास पर "प्रश्नचिन्ह" लगाना तो बहुत आसान है, अपने तर्कों से अपनी बातों को सिद्ध करना वो भी आसान है जो सभी करते आए  हैं, कर रहे हैं और आगे भी करते ही रहेंगे। मुश्किल तो हैं "खुद को समझना और समझाना" खुद पर प्रश्नचिन्ह लगाना।क्या आप कभी खुद का विश्लेषण कर खुद को ही समझा पाएं हैं? उत्तर बताना नहीं हैं खुद को ही देना हैं। 
एक बार खुद को तलाश तो लें,खुद से कुछ प्रश्न तो कर लें - "मैं कौन हूँ "?

      खैर, "मैं कौन हूँ" ये तो बड़ा मुश्किल सवाल हैं और इसका उत्तर ढूंढ पाना इन तार्किक प्रवृति वालों के बस की बात नहीं हैं वो तो बस इतना जबाब ढूंढ ले वही बहुत हैं कि- 
क्या मेरे आस-पास रहने वाले या मेरे दोस्त-रिश्तेदार,संगी-साथी सभी मेरा आदर-सम्मान करते हैं?
क्या कोई एक भी मुझे निश्छल स्नेह देता हैं?
क्या मैं अपनी बातों से, अपने तर्क से किसी को क्षण भर की भी ख़ुशी या संतुष्टि दे पाती /पाता हूँ ?
मेरी तार्किक बुद्धि के कारण मेरे व्यवहार से किसी का मन आहत तो नहीं होता ?
क्या मैं परिवार,समाज और देश के प्रति अपने दायित्वों को ईमानदारी से  निभा पाती /पाता हूँ ?
जिन विषयों पर मैंने "प्रश्नचिन्ह"लगाया है,क्या तथस्ट भाव से उसके उत्तर को तलाशने की मैंने स्वयं कोशिश की है?  
क्या सभी मुझे "ज्ञानी" समझते हैं?
(क्योँकि खुद को ज्ञानी समझना और ज्ञानी होने में बहुत फर्क हैं)

     यकीनन, अपने "प्रश्नों" से किसी के आस्था-विश्वास को,सम्मान और मर्यादा को छलनी करना ज्ञानियों का काम तो नहीं होता ये तो बस तार्किक प्रवृति के दंभी लोग ही कर सकते हैं जिन्हें सिर्फ प्रश्न करना आता है और उत्तर की जिम्मेदारी वो दूसरों पर डाल देते हैं। ऐसे लोग समाज के लिए खुद भी एक "प्रश्नचिन्ह" ही होते हैं। किसी ने बिलकुल सही कहा हैं -

"खुद से बहस करोगे तो सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे ।
अगर दूसरों से करोगे तो नए सवाल खड़े हो जाएंगे।। 

("तर्क में जीत जाना ज्ञानी होने का प्रमाण नहीं हैं" इस पर आगे चर्चा करेंगे ) 

गुरुवार, 9 जुलाई 2020

"रचना और रचनाकार"


बचपन में मेरी दादी एक कहानी सुनाया करती थी.....
     एक आदमी जो खुद को बड़ा ज्ञानी समझता था,वो सृष्टिकर्ता पर , सृष्टि की हर एक रचना पर ,समाज और उसके नियमों पर, हर एक सम्बन्ध पर प्रश्नचिन्ह लगा देता। उसे खुद के आगे हर कोई मूर्ख और कमअक्ल ही लगता था। एक बार उस के गॉव में एक महात्मा जी आये। गॉव के लोग बड़ी ही श्रद्धा से उनका प्रवचन सुनने जाते।महात्मा जी भगवान की और उनकी हर एक रचना की गुणगान करते। उस आदमी को ये सब बर्दाश्त नहीं होता। एक दिन वो प्रवचन के बाद उस महात्मा के पास पहुंच गया.उसने उन्हें खूब भला-बूरा कहा। उसने कहा -आप पाखंड करते हैं  भगवान के नाम पर आप सबको बेवकूफ बनाते है ,"भगवान" नाम का कोई अस्तित्व नहीं है. महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए पूछा -"कोई तो रचनाकार होगा न,जिसने इस सृष्टि की रचना की है" तो उस व्यक्ति ने कहा -"ये सब विज्ञान हैं भगवान नहीं,यदि भगवान है तो वो दिखता क्यूँ नहीं ,क्या आप मुझे भगवान से मिलवा सकते हैं ? महात्मा जी ने बड़े शांत स्वर में कहा-" बिलकुल मिलवा सकता हूँ मगर पहले तुम मेरे चंद प्रश्नो का उत्तर दे दो।" उस आदमी ने बड़ी ढिठाई से कहा -पूछिए।

    महात्मा जी ने पूछा -कोई एक व्यक्ति का नाम बताओ जिससे तुम अत्यधिक स्नेह करते हो? उस व्यक्ति ने अकड़ते हुए कहा -"मैं खुद से ज्यादा किसी से प्यार नहीं करता".... क्या अपने माता-पिता से भी नहीं ,उन्होंने तो तुम्हे जन्म दिया है,उनका तो आदर करते होगें न - महात्मा जी ने उसी शांत स्वर में पूछा। नहीं,मुझे जन्म देना एक जैविक प्रक्रिया थी और पालन-पोषण करना उनका कर्तव्य जो हर माता-पिता करते हैं ,उन्होंने कुछ विशेष नहीं किया........तुम्हारी पत्नी और बच्चें तो होंगे न -महात्मा जी ने पूछा। उनका क्या,वो तो मेरी अनुकम्पा पर जीते हैं उन्हें मेरा ऋणी होना चाहिए मुझे स्नेह करना चाहिए,मैं उनकी परवाह क्यूँ करूँ- उस आदमी ने गर्दन अकड़ा कर कहा..... कोई दोस्त,रिश्तेदार या पड़ोसी तो होगा - महात्मा जी ने फिर पूछा। नहीं-नहीं मैं किसी से संबंध नहीं रखता,सब मतलब के होते है,थोड़ा भाव दो सर पर चढ़ जाते है, इनकी सिरदर्दी मैं नहीं पालता,वैसे भी सब जाहिल है, देखा नहीं आपने मूर्खो की तरह आपकी बातों में उलझ जाते हैं -उसने झल्लाते हुए कहा।

    महात्मा जी मुस्कुराते हुए बोले -हाँ हाँ ,सही कहते हो तुम,कोई बात नहीं किसी जानवर,पशु-पक्षी, पेड़ -पौधे या पुष्प से तो तुम्हें जरूर लगाव होगा...... नहीं,जानवर बहुत गंदे होते है उन्हें कौन प्यार करेंगा और पक्षी तो हर जगह बीट करते रहते है,मैं उनसे दूर ही भला.... अच्छा ये बताओं सूरज चाँद ,सितारे ,धरती और आकाश के बारे में तुम्हारी क्या राय है  इनके अस्तित्व को मान कर इनकी उपासना तो तुम जरूर करते होंगे.....ये सभी एक खगोलिय पिंड है,विज्ञान के अनुसार इनकी उत्पति एक खगोलिय घटना के कारण हुआ, इनकी उपासना या पूजा क्यों करें हम, मेरे पूजा करने से ये औरों से ज्यादा मुझे रौशनी और ऊर्जा देंगे क्या ? अच्छा ये बताओं - तुमने वेद-पुराण का अध्ययन किया है? अरे नहीं,स्वामी जी वेद पुराण को भी तो आप जैसे महत्माओं ने ही लिखा है हमें नियम कानून में बांधने के लिए,ये सही है या गलत हमें क्या पता, हम तो अपनी बुद्धि-विवेक से समझेगें कि क्या सही हैं क्या गलत। ये तो बहुत अच्छी बात कही तुमने....बेटा,तब तो तुमने रामयण और महाभारत भी नहीं पढ़ी होगी,उनके बारे में भी नहीं जानते होंगे- स्वामी जी ने बड़े धीरज से पूछा। अरे नहीं स्वामी जी ,जानता तो सब हूँ,मगर मैं इन मूर्खों की तरह नहीं हूँ जो उनमे लिखी बातों को सत्य मान लूँ, ये तो एक काल्पनिक कथाएं है। स्वामी जी बड़े प्यार से बोले- बेटा,तुम तो बड़े ज्ञानी हो,भगवान को ना देखो ना समझों तो ही अच्छा हैं, मैं तुम्हे भगवान के दर्शन नहीं करा सकता। वो व्यक्ति खुद की जीत पर इतराता हुआ चला गया। 
    अगले दिन स्वामी जी ने अपना प्रवचन प्रांरभ करते हुए पूछा- क्या आप सब भगवान से मिलना चाहते है, उनका दर्शन करना चाहते हो? सबने एक स्वर में "हाँ" कहा। स्वामी जी ने कहा-  माता-पिता के स्नेह में भगवान है,पति-पत्नी के समर्पण में भगवान है,बच्चों की किलकारियों में भगवान है,पक्षियों के कलरव में भगवान है,फूलों की सुगंध में भगवान है अगर तुम इनके करीब हो तो भगवान के करीब हो,यदि और नजदीक से भगवान का दर्शन करना चाहते हो तो उगते सूरज में उन्हें देखों, ढलती शाम में उन्हें महसूस करो, किसी भूखे को तृप्त करके देखो, किसी रोते के मुख पर हँसी लाकर देखो, माता पिता की सेवा करोगे, सृष्टि के प्राणियों से स्नेह करोगे तो भगवान के दर्शन अवश्य होंगे, क्योँकि "कण-कण में भगवान है,तुम्हारे बाहर भगवान है,तुम्हारे भीतर भगवान है, प्रेम,दया, करुणा, परोपकार, आदर-सम्मान यही तो भगवान के रूप है मगर ये दर्शन महाज्ञानी नहीं कर सकते क्योँकि वो मद में अंधे होते है,ये दर्शन निश्छ्ल,पवित्र और करुणामयी आँखे ही कर सकती हैं. बच्चों, एक बात याद रखना -"जो रचना को नहीं समझ पाया वो रचनाकार को कभी नहीं समझ पायेंगा"
    सभा से दूर खड़ा वो व्यक्ति सब सुन रहा था मगर खुद को महाज्ञानी समझने वाले ने अपनी मन की आँखें बंद कर रखी थी वो ना सृष्टि को समझ सकता था ना सृष्टिकर्ता को। 

    कहानी सुनाने के बाद दादी कहती थी -बच्चों "अज्ञानी को ज्ञान दिया जा सकता है मगर जो खुद को महाज्ञानी समझ बैठा हो,उसे तो परमात्मा भी आकर नहीं समझा सकता।"




 

शुक्रवार, 26 जून 2020

पत्र-" दिल की जुबां "


" पत्र दिल की जुबां होती हैं। " पत्र लिखते वक़्त हम अपने दिल के काफी करीब होते हैं ठीक वैसे ही जैसे जब हम प्यार में होते है तो अपने दिल के इतने करीब होते है कि उसकी  धड़कनों को भी सुन सकते हैं और वो धक- धक किसी के पास होने का एहसास कराकर आँखों को स्वतः ही नम कर जाती हैं। अर्थात दिल के आस पास होने से दर्द में भी आनंद की अनुभूति होती है। स्मृतियाँ भी मधुर इसीलिए बन जाती है कि -दिल की सतह पर विचारों की तरंगे टकराकर सिहरन पैदा कर देती है। सचमुच ,दिल के दहलीज़ पर ही इंसान एहसास की जिंदगी जीता हैं और अपने से रूठे हुए या औरो से रूठे हुए दिलों को भी विचारों की थपकियों से मनाता हैं और पुनः उन तारों को दुरुस्त करता हैं जो झंकार के समय टूट गए थे या ढीले पड़ गए थे। 
   जब हम अपने प्रिय के साथ बिताये हुए उन मधुर पलों को याद  करते हैं तो हमारी सांसे कुछ पल के लिए थम सी जाती है और इसका प्रभाव दिल की धड़कनों पर भी सहज और स्वभाविक रूप से पड़ता हैं। फिर जब हम दिल को संतावना देते हैं तो सांसे स्वतः चलित हो जाती हैं।हमारी साँसे भी हमारी संवेदनाओं से झंकृत होती रहती हैं। 
   पत्र लिखते वक़्त भी कुछ ऐसी ही अनुभूति होती हैं वो अपना जिसे हम पत्र लिख रहें होते है वो सामने बैठा सा महसूस होता है। पत्र का विषय अगर खुशियों से भरा हो तो कलम उन शब्दों को पन्नो पर उकेरता है और मन उस पल को उस अपने के साथ जीने लगता हैं। उस वक़्त वो  कल्पनाओं की दुनिया इतनी हसीन हो जाती हैं कि -यथार्थ और कल्पना में फर्क ही नहीं रह जाता। वैसे ही उस अपने को अपनी विरह व्यथा लिखते वक़्त हम उसके कंधे को अपने करीब पाते हैं  जिस पर सर रख कर हम  रोना चाहते हैं,और कही अगर हमारे  दुःख से भरे  आँसू की एक बूँद भी कागज पर टपक पड़ी तो हम से हजारों मील दूर बैठे उस प्रिय का दामन हमारे  आँसुओं से भींग जाता हैं।अगर हमें  उस अपने को उलाहना देना हैं ,रंज जताना है ,नाराजगी या क्रोध जताना हैं तो एक एक शब्दों को लिखते वक़्त हमें ये एहसास और शुकुन भी हो जाता हैं कि -हमने अपना गुस्सा निकल लिया,हमने अपना दुःख जता दिया और हमारे प्रिय ने हमें समझ भी लिया। 
   पत्र लिखते वक़्त के एहसासों से इतर वो लम्हा होता है जब वो बंद लिफाफा किसी तक पहुँचता है।हृदय की बेचैनी के कारण  धड़कने उस पल भी बढ़ी होती हैं। हाथ में वो लिफाफ पकड़ते ही मन सेकड़ो ख्याल बुनने लगते हैं " क्या लिखा होगा,कैसे लिखा होगा ,मेरे  प्रिय ने अपने दिल के जज्बातों को ?पत्र पढ़ते वक़्त उन दो दिलों के एहसास एक अनदेखे तार से स्वतः ही जुड़ जाते हैं।  
   " चिठ्ठी " हमारे  एहसासों का पुलिंदा होता था जिसमें हम हमारे दिल के छोटे- छोटे,सुख -दुःख ,विरह -वेदना का भाव समेट लेते थे।हम उसे सालो सहेज कर भी रखते थे। वो एहसास आज के जमाने के "वीडियो- कॉलिंग" में भी नहीं। उस " चिठ्ठी "के दौर में दूर होकर भी पास होने का एहसास करती थी "चिठ्ठी" और आज पास होकर भी यानि आवाज सुनकर और सूरत देखकर भी दिल में दुरी बढ़ती जा रही हैं। 

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...