बुधवार, 19 दिसंबर 2018

समंदर - " मेरी नज़र में "

 

       क्या कभी आपने समंदर किनारे बैठ कर उसकी आती-जाती लहरों को ध्यान से देखा हैं ? सागर दिन में तो बिल्कुल शांत और गंभीर होता है। ऐसा लगता है जैसे, अपना विशाल आँचल फैलाये....और उसके अंदर अनेकों  राज छुपाये....एक खामोश लड़की हो.....जिसने सारे जहां के दर्द और सारी दुनिया की गन्दगियों को अपने दामन मे समेट रखा है। लेकिन फिर भी खामोश है....उसे किसी से कोई शिकायत नहीं....कोई दुःख नहीं ....कोई तड़प नहीं। ( वैसे हमेशा से सागर को पुरुष के रूप में ही सम्बोधित किया गया है लेकिन मुझे उसमे एक नारी दिखती है) हाँ, कभी कभी उसमें हल्की-फुल्की लहरें जरूर उठती रहती है।  उस पल ऐसा लगता है जैसे, दर्द सहते-सहते अचानक से वो तड़प उठी हो और उसके दिल की तड़प ने ही लहरों का रूप ले लिया हो।  

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

" परिवर्तन " या पीढ़ियों में अन्तर

  उम्र के तीसरे पड़ाव में हूँ मैं ,बचपन और जवानी के सारे खूबसूरत  लम्हों को गुजार कर प्रौढ़ता के सीढ़ी पर कदम रख चुकी हूँ। तीन पीढ़ियों को देख चुकी हूँ या यूँ कहें कि उनके साथ जी चुकी हूँ। परिवर्तन तो प्रक्रति का नियम है इसलिए घर-परिवार, संस्कार और समाज में भी निरंतर बदलाव होता रहा है और होता रहेंगा । शायद इसीलिए हर पीढ़ी ने दूसरे पीढ़ी को ये जुमला जरूर कहा हैं कि - " भाई हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं होता था ".लेकिन हमारी पीढ़ी ने वक़्त को जितनी तेज़ी से बदलते देखा है उतना शायद ही किसी और पीढ़ी ने देखा हो। और पढ़िये

सोमवार, 5 नवंबर 2018

टूटते - बिखरते रिश्ते


        आज कल के दौर में टूटते-बिखरते रिश्तों को देख दिल बहुत व्यथित हो जाता है और सोचने पर मज़बूर हो जाता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? आखिर क्या थी पहले के रिश्तो की खुबियां और क्या है आज के टूटते -बिखरते रिश्तों की वज़ह ? आज के इस व्यवसायिकता के दौड में रिश्ते- नातो को भी लाभ हानि के तराज़ू में ही तोला जाने लगा है। ज़िंदगी छोटी होती जा रही है और ख्वाहिशें बड़ी होती जा रही है। मैं ये नही कहूँगी कि मैं आप को रिश्तों को संभालना सिखाऊंगी,उसको निभाने की कोई टिप्स बताऊँगी। मैं ऐसा बिलकुल नहीं करुँगी क्यूँकि "रिश्ते" समझाने का बिषय बस्तु नहीं है। रिश्तों को निभाने के लिए समझ से ज्यादा  भावनाओं की जरुरत होती है। रिश्तों के प्रति आप का खूबसूरत एहसास, आप की भावनायें ही आप को रिश्ते निभाना सिखाता है और आज के दौर में इंसान भावनाहीन ही तो होता जा रहा है। मैं तो बस रिश्तों के बिखरने की वजह ढूंढना चाहती हूँ .और पढ़िये 



    एक शिशू जब माँ के गर्भ में पलता है तो वो सिर्फ माँ के शरीर के रक्तनलिकाओं और कोशिकाओं से ही नहीं जुड़ा होता, वो तो अपनी माँ की भावनाओ से, उसके एहसासों से भी जुड़ा होता है। जिस तरह माँ के शरीर के रोग-आरोग्य का शिशु के शरीर पर असर होता है उसी प्रकार माँ के भावनाओं का असर भी गर्भस्थ शिशु की मानसिकता पर भी होता है। यही नहीं माँ जिस वातावरण में रहती है उस वातावरण का भी पूरा असर बच्चे की मानसिकता पर होता है। ये एक वैज्ञानिक सत्य है जिसे लगभग सब जानते हैं, समझते हैं, मानते भी है पर अपनाते नहीं है। मेरी समझ से गलती की शुरुआत यही से होती है। 



     एक नन्हे से बीज को एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनाने के लिए एक अच्छी ज़मीन, अच्छी आबो-हवा और अच्छा खाद-पानी देना होता है तब वो एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनता है। तो जब एक पौधे के लिए हमें इतना सब कुछ करना होता है तो फिर क्या मानव के भ्रूण को एक स्वस्थ शिशु और एक अच्छा इंसान बनाने के लिए हमें एक स्वस्थ शरीर जहाँ वो भ्रूण पले, जब वो भ्रूण गर्भ में एक शिशु का आकर ले रहा हो तो उससे एक शुद्ध भावना के साथ बंधे रखने की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए ? जब वो शिशु जन्म लेता है तो क्या हमें उसे एक खुशियों से भरा हुआ घरेलू वातावरण नहीं देना चाहिए ? अगर हम ये सब उसे नहीं दे सकते तो फिर हम उस शिशु से कैसे उम्मीद रख सकते हैं कि वो एक अच्छा इंसान बनेगा ? जब वो एक अच्छा इंसान नहीं बनेगा तो भावनाओं  को क्या समझेगा और जब भावनायें ही नहीं समझेगा तो रिश्तों को क्या निभाएगा ?
     पुराने ज़माने में एक औरत जब गर्भवती होती थीं तो उसके खान-पान,रहन -सहन पर पूरा ध्यान दिया जाता था, उसे अधाय्तम से भी जोड़े रखा जाता था, बच्चा जब जन्म लेता था तो उसे प्यार और सहोद्र से भरा वातावरण मिलता था।बच्चा दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-मामा, बुआ-मौसी जैसे रिश्तों से घिरा होता था। ये सारे रिश्ते उसे अलग-अलग भावनाओं से जोड़ते और अलग-अलग तरीको से उसे ज्ञान भी देते थे। 
    दादा-दादी से वे प्यार दुलार पाते थे, और अपनी फ़रमाइशे भी मनवाते थे और बड़ो का आदर-सम्मान करना भी सीखते थे।  माँ-बाप से एक सुरक्षित देख-भाल पाते थे और अनुशासन सीखते थे। चाचा-मामा,बुआ- मौसी  उन्हें खेल-खिलौने देते थे और साझेदारी सिखाते थे। इस तरह ये सारे रिश्ते मिलकर उन्हें पालते और एक अच्छा इंसान बनाते थे। इस तरह शिशु को बचपन से ही अपने सारे रिश्तों का भान हो जाता था। उन्हें दादा-दादी का आदर करना भी आता था और लाड लगा कर अपनी फ़रमाइसे भी पूरी करवाना आता था। उन्हें ये एहसास होता था कि माँ मेरे लिए कितना दर्द सह कर रात-रात भर जाग कर मेरी देखभाल करती है, बाप अपनी सारी  इच्छाओं को अधूरा छोड़ मेरी हर ख़ुशी को पूरा करता है। ये एहसास ही उनके दिल में इन रिश्तों के प्रति वो भावनायें देता था जिनसे उसे रिश्तों को निभाने की प्रेरणा मिलती थी। उसे इन रिश्तों के प्रति अधिकार और कर्तव्य का भी बोध हो जाता था। वो अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते हुए देखते थे तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की सेवा करना अपना कर्तव्य लगता था जिसे उस वक़्त पुण्य का काम समझा जाता था। 
      अब आते हैं आधुनिकता के युग में, आधुनिक युग में अगर सबसे ज्यादा परिवर्तन हुआ तो नारियो में हुआ।  "नारी" जो हमेशा से एक सुसंस्कृत परिवार और एक सभ्य समाज की नीव रही है। नारियो ने इस युग में अपने आप को सुशिक्षित और स्वालम्बी बनाया है जो उनकी सब से बड़ी उपलब्थी है और प्रशंसा के काबिल भी है। नारियो ने अपना सम्मान तो पा लिया लेकिन अपनी सबसे बड़ी और कीमती धरोहर " संस्कार" को खोती चली गई। नारियो ने घर की दहलीज़ पार कर बाहर की दुनिया में अपने आप को स्थापित तो कर लिया परन्तु घर खाली करती चली गई। घर बाहर दोनों की दोहरी भूमिका निभाते-निभाते वो एक भरे पुरे सयुक्त परिवार को खो बैठी। 



      उनकी अत्यधिक आज़ादी की चाह ने धीरे-धीरे प्यार और रिश्तों के हर बंधन को खोल दिया।  इसका असर आने वाली पीढ़ियों पर कैसे पड़ा अब इस पर विचार करते हैं। आज़ादी की चाह ने सबसे पहले सयुक्त परिवार को एकल परिवार का रूप दिया। क्योंकि जहाँ सास-ससुर रहेंगे वहाँ थोड़ा तो बंधन और अनुशासन में रहना ही पड़ेगा। देवर-जेठ जैसे रिश्ते होंगे तो थोड़ा कर्तव्य भी निभाना ही पड़ेगा।  नए युग की नारियों ने अपने इस दोहरी जिम्मेदारी को निभाने की पूरी कोशिश की लेकिन उनकी सिर्फ एक लालसा "और आज़ादी" की चाह ने उन्हें ये जिम्मेदारी और रिश्तेदारी निभाने नहीं दिया और परिवार बिखरते चले गए।  



     एकल परिवार में माँ के शरीर की सही देख-भाल न होने के कारण भूण को एक स्वस्थ शिशु बन कर विकशित होने के लिए एक निरोगी काया न मिली और अध्यत्मिकता का वातावरण तो आज के समाज से बिलुपत ही हो गया है। इन कारणों से बच्चे को विकसित होने के लिएना स्वस्थ शरीर मिला ना अच्छी मानसिकता। दादा-दादी का सांनिध्य ना मिलने के कारण बच्चों ने आदर सम्मान करना नहीं सीखा, बच्चों की फ़रमाइशे बेहिसाब होती है जो पहले के रिश्ते मिलकर पूरी करते थे जो अकेले माँ-बाप का पूरा करना मुश्किल था तो बच्चें  जिद्दी हो गए, बच्चों के जिद्दी होने का एक कारण और भी था माँ-बाप अपने बच्चों के हर रिश्ते की कमी को स्वयं पूरा करना चाहते है और पूरा करते भी है जिसका बुरा प्रभाव ये हुआ की बच्चें "ना" सुनना ही नहीं चाहते हैं और जिद्दी होते चले जा रहे हैं। परिवार में चाचा-मामा आदि रिश्ते नहीं होने के कारण बच्चों ने साझेदारी भी नहीं सीखा।  एक बच्चे का चलन  बन जाने के कारण अपने से छोटो को प्यार करना भी उन्हें नहीं आया, बच्चों ने अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते भी नहीं देखा तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की परवाह नहीं रही।  हम रिश्तों के प्रति उनके दिल में कोई भावना ही नहीं दे पाए तो फिर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं  कि वो कोई रिश्ते निभायेगे ? उनके लिए हर रिश्ता " give and take " बन कर रह गया। 
     ये तो थी आधुनिक युग की बातें,अब तो इंटरनेट युग है और इस ज़माने की लड़कियाँ तो ये शर्त रखकर ही शादी करती है कि - "हमारे साथ आप के माता-पिता नहीं रहेंगे" मैंने पहले ही इस बात का उल्लेख किया है कि - "एक औरत ही सुसंस्क़ृत परिवार और सभ्य समाज की नीव होती है". पुरुष की भागीदारी इसमें द्वितीय किरदार के रूप में होती है। औरत में ही कर्तव्यपराण्यता, प्यार, सेवा, संस्कार, और त्याग जैसी भावनाये होती है। भारत का इतिहास ऐसी नारियो की गाथाओ से भरा पड़ा है. 

     मैं ये नहीं कहती कि हम नारियाँ अपना उत्थान ना करें, सदियों से हमारे स्वाभिमान को जो कुचला गया है और आज भी कुचला जा रहा है, उस स्वाभिमान को पूर्णतः हासिल करना हमारा पहला कर्तव्य है परन्तु, हम नारियों को अपने उत्थान और सम्मान के साथ-साथ अपने संस्कार को भी संजोये रखना होगा।  वो संस्कार जिसके कारण भारतवर्ष में नदियों को पूजा जाता है, वो संस्कार जिसके वजह से भारत में ईंट और गारे से बने मकान को "घर" कहा जाता है, वो संस्कार जिसमे जन्म देने वाले माँ-बाप को ईश्वर तुल्य समझा जाता है, इन संस्कारों को संभालना भी हम नारियों का ही कर्तव्य है . वरना एक-एक करके हमारे जीवन से हर रिश्ता और उसके प्यार की मिठास खोती चली जाएगी और इसके कसुरवार सिर्फ हम होंगे आनेवाली पीढ़ी नहीं.

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...