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रविवार, 30 अगस्त 2020

"प्रेम"


"प्रेम" शब्द तो छोटा सा है,परन्तु प्रेम में समाया  सत्य विराट से विराटतर है। इस ढाई अक्षर में तीनों लोक में व्याप्त परमात्मा समाया है। प्रेम एक ऐसी डगर है जो सीधे परमात्मा तक पहुँचता है।प्रेम एक ऐसी जगह है जहाँ स्वयं को खोया तो जा सकता है,लेकिन खोजा नहीं जा सकता। प्रेम एक ऐसी अनुभूति है,जहाँ प्रेमी पूरी तरह मिट जाता है,जहाँ से उसकी कोई खबर नहीं मिलती। प्रेम महाशून्य है,प्रेम महामृत्यु है।

     प्रेम करने वाला जहाँ शून्य हो जाता है,वही परमात्मा प्रकट होता है। जहाँ हम स्वयं को प्रेम में खो देते है,वही हृदय में परमात्मा की वीणा बज उठती है,उसकी अनंत स्वर-लहरियाँ हमारे सम्पूर्ण आस्तित्व को घेर लेती है। यह ऐसी विलक्षण अनुभूति है जिसे पा लेने के बाद कुछ कहने-सुनने या जानने को नहीं बचता। प्रेम को जानने वाला,जानने में ही खो जाता है,पिघल जाता है,बह जाता है। उसके पास बोलने को कुछ बचता ही नहीं।फिर अगर बोला  भी जाता है,तो वह मज़बूरी होती है। क्योँकि सामने वाला दूसरा व्यक्ति मौन को नहीं समझ पाता,इसलिए बोलना पड़ता है। हालाँकि बोलते समय भी यह बात कभी नहीं भूल पाती कि -जो पाया है,वह कहा नहीं जा सकेगा,क्योँकि कहने वाला भी शेष नहीं रहा,उसे पाने के बाद। प्रेम की शून्यता है ही कुछ ऐसी, जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता।
    हाँ,प्रेम के शून्य को गणित के शून्य के साथ देखा जाये तो थोड़ी एकरूपता हो सकती है। शून्य को एक के ऊपर रख दो तो दस बन जाते है,दस के ऊपर रख दो तो सौ। सारा गणित भी तो शून्य का ही फैलाव है। प्रेम के साथ भी तो कुछ ऐसा ही है। प्रेम करने वाला अर्थात प्रेमी हृदय जिस किसी के निकट होता है, उसका भी मूल्य बढ़ा देता है। लेकिन गणित का शून्य मानव निर्मित है,मानव के ना होने पर यह खो जाएगा,जबकि प्रेम का शून्य आदमी के ना होने पर भी बना रहेगा। जब दो पक्षी प्रेम में पड़ते है तो इसी शून्य में उतर जाते  हैं। धरती और आकाश जब प्रेम में डूबते हैं तो इसी शून्य में उतरते हैं। प्रेम की यही  शून्यता परमात्मा की अनुभूति कराती  है और यही अनुभूति जीवन का परम सत्य होता है। 

   मगर आज जिसे हम "प्रेम" कहते हैं वो इतना अपवित्र हो चुका है कि -खुद को प्रेमी कहने वाले परमात्मा तक तो छोड़े किसी की आत्मा तक भी नहीं पहुंच पाते। आज प्रेमी कहते हैं कि -"जब कोई प्रेम में होता है तो कुछ सही या गलत नहीं होता" परन्तु प्रेम का शाश्वत सत्य है कि -"जब कोई प्रेम में होता है तो वो कोई गलती कर ही नहीं सकता।" प्रेम करने वाला हृदय वो घर होता है जहाँ सिर्फ और सिर्फ प्यार,पवित्रता और  परमात्मा का वास ही होता है,दूजा कुछ नहीं।  





गुरुवार, 13 अगस्त 2020

स्वतंत्रता दिवस -" एक त्यौहार "

                                           
     15 अगस्त " स्वतंत्रता दिवस " यानि हमारी आज़ादी का दिन- लगभग 200 वर्षो तक गुलामी का दंश  झेलने के बाद ,लाखों लोगो की कुर्बानियों के फ़लस्वरुप, हमें ये दिन देखने का सौभाग्य मिला। "15 अगस्त" वो दिन, जिस दिन पहली बार हमारे देश का  ध्वज "तिरंगा" लहराया और हमें भी उन्मुक्त होकर उड़ने की आजादी मिली।हम हिन्दुस्तानियों  के लिए हर त्यौहार से बड़ा, सबसे पावन त्यौहार है ये।यकीनन होली, दिवाली ,दशहरा ,ईद ,बकरीद ये सारे त्यौहार हम सब कभी भी इतने उत्साह पूर्वक नहीं मना पाते अगर, ये आज़ादी के दिन हमें  नसीब नहीं होते। 
     वैसे तो हर त्यौहार पहले भी मनाया जाता था और अब भी मनाया जाता है। स्वतंत्रता दिवस भी तब भी मनाया जाता था और अब भी मनाया जाता है।  लेकिन याद कीजिये वो 80-90 के दशक के ज़माने, उफ़!
क्या होते थे वो दिन... हाँ, "याद आया न" सुबह- सुबह नहा-धोकर...स्कूल यूनिफार्म पहनकर...बिना कुछ खाएं-पीएं (जैसे किसी पूजा में जा रहें हो) स्कूल पहुँच जाते थे...क्योंकि  झंडा फहराना हमारे लिए किसी पूजा से कम नहीं था। झंडा फहराना, राष्ट्गान गाना, प्रधानाचार्य  के द्वारा बच्चों को शहीदोंं की गाथा सुनाकर आज़ादी का महत्व समझाना और फिर बच्चों के द्वारा रंगारग कार्यक्रम प्रस्तुत करना।।।जिसमें  सिर्फ और सिर्फ देशभक्ति गाने ही होते थे... फिर हमें  प्रसाद की तरह बूंदी या लाड्डू  मिलता था। घर आने पर माँ के हाथों के बनें अच्छे-अच्छे पकवान खाने को  मिलते थे। जैसे, माँ बाकी त्योहारोंं  में पकवान बनाती थी ठीक वैसे ही। खाना खाते-खाते माँ हमें आज़ादी की लड़ाई के  किस्से सुनाती और समझाती कि- इस आजादी को पाने के लिए कैसे औरतों ने भी अपना बलिदान दिया था....साथ ही साथ ये भी समझाती कि- "हमें अपनी आज़ादी की कद्र करनी चाहिए...अपने  देश  से प्यार करना उस पर सब कुछ लुटा देना ही हमारा पहला धर्म है।" 
     उस दिन T.V पर एक देशभक्ति फिल्म ज़रूर दिखाई जाती थी जो सारा परिवार एक साथ बैठकर देखता था और अपने पूर्वजों की कुर्बानियों को देखकर सब की आँखें  नम हो जाती थी।सारा दिन दिलो-दिमाग देशभक्ति के रंग में डूबा रहता था।शायद, यही कारण था कि- हमारे अंदर देशभक्ति का ज़ज़्बा कायम था और है भी ,आज भी हमारी पीढ़ी के लिए  "15 अगस्त"  एक पावन त्यौहार है। 
      लेकिन, क्या आज की पीढ़ी के दिलों में स्वतंत्रता दिवस के प्रति यही जुड़ाव है ?आज ये आज़ादी का दिन हमारे लिए क्या मायने रखता है ?अगर ये सवाल हम किसी से करें तो उनका सीधा सा जबाब होगा "एक दिन की सरकारी छुट्टी" .आज कल की पीढ़ी क्या समझ पाती है इस आज़ादी के ज़ज़्बे को, इस स्वतंत्रता दिवस के महत्व को ? 
कैसे समझेगी ? 
     आज तो 15 अगस्त यानि छुट्टी का दिन...देर तक सोना...पतंग उड़ाना...मौज़-मस्ती करना यही है आज़ादी का दिन। क्योंकि स्कूलों में एक दिन पहले ही झंडा फहरा लिया जाता है ( खासतौर पर दिल्ली में,यकीनन ये आजकल के माहौल को देख सुरक्षा की दृष्टि से ही होता है ) जो एक औपचारिकता भर होता है। बच्चों का रंगारंग कार्यक्रम भी होता है मगर उस कार्यक्रम का देश-भक्ति के भाव से जुड़ा होना आवश्यक नहीं होता है।
ना ही शिक्षको द्वारा बच्चों को "आज़ादी की कुर्बानियो" के किस्से सुनाकर ये एहसास ही दिलाया जाता है कि- हमें  ये आज़ादी कितनी तपस्या के बाद  मिली है। हम भी तो अपने बच्चों को अपने इतिहास से अवगत नहीं कराते।ये गाथाएं बच्चें माँ-बाप और शिक्षक से ही सुनते, सीखते और अपनाते हैं।आज़ादी की कद्र करना और देश भक्ति का ज़ज़्बा सिलेबस की किताबों  की पढ़ाई से नहीं आता है। आज सोशल मीडिया  के दौर में हर " day " का celebration करने का तरीका है बस,एक अच्छा सा फोटो वाला मैसेज भेज देना और ये समझना कि -मैंने अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया।क्या बस यही है " आज़ादी का दिन ? "
  " आज़ादी " शब्द से मुझे एक बात का और ख्याल आता है कि-क्या हम सचमुच आज़ाद हुए है? देश को आज़ाद हुए कितने साल हो गए। इतने सालों में हमारे देश ने हर क्षेत्र में काफी तरक्की की है।चाहे वो औद्योगिकी  में हो, टेक्नोलॉजी में या सामाजिक स्तर पर,फैशन के क्षेत्र में तो हम सोच से ज्यादा तरक्की कर चुके हैं। लेकिन क्या हम मानसिक तौर पर तरक्की कर पाएं हैं? एक बार सोचकर देखें,क्या हम आज भी मानसिक रूप से आज़ाद हुए है?
     हम आजाद सिर्फ जिस्म से हुए, मानसिक रूप से हम गुलाम ही रहें है,अंग्रेजीयत हम पर तब भी हावी थी , अब तो कुछ ज्यादा ही हावी है। हम अपनी सभ्यता-संस्कृति,अपना ज्ञान -विज्ञान ,वेद पुराण,योग-आयुर्वेद  ,परिवार-समाज, प्यार-अपनत्व, सब कुछ भूल चुके हैं।हमने अग्रेजों से आजादी पा ली थी पर अंग्रेजी सभ्यता के गुलाम बनकर रह गए। धीरे-धीरे हमने "आजादी " का मतलब  स्वछंद होना ,लापरवाह होना ,संस्कारविहीन होना, भावनाहीन होना समझ लिया।देश तो प्रगतिशील होता गया पर हम पतनशील होते गए।हमारी मानसिकता दोहरी हो गई है,एक तरफ तो हम खुद को पढ़े-लिखे और मॉर्डन कहते हैं और दूसरी तरफ हमारी सोच गवारोंं  से बदतर हो गई है। 
      हमारी मानसिकता और ज्यादा डरपोकों वाली, भेड़चाल वाली,अंधविश्वासों वाली नहीं हो गई है क्या ? 
अगर ऐसा नहीं होता...अगर हम मानसिक रूप से भी आज़ाद हुए होते...विकसित हुए होते तो आज हमारे देश में ढोंगी बाबाओं  का जाल कुकुरमुत्ते की तरह नहीं फैला होता...अगर हमारी भेड़-चाल नहीं होती तो कोई भी ऐरा- गैरा, अनपढ़, भ्रष्टाचारी, चरित्रहीन व्यक्ति हमारा नेता बनकर सांसद-भवन में बैठने का अधिकार नहीं पा सकता था। कहने को हमारे देश में लड़कियों को बहुत आज़ादी मिली है लेकिन आज भी जब लड़कियाँ घर से बाहर निकलती है तो माँ के हाथ हर वक़्त दुआ में उठे रहते हैं कि -"हे प्रभु! मेरी बेटी सही सलामत घर आ जाए." बाहर ही क्यों, बेटियाँ तो घर में भी सुरक्षित नहीं है।क्योंकि अभी भी हमारे देश में वो पुख्ता कानून नहीं बना जो एक बलात्कारी को फाँसी की सजा या कड़ी से कड़ी सजा दे सके, जिससे औरतो की तरफ बूरी नज़र करने वालों  की रूह काँप जाए। 
    नहीं दोस्तों ,अभी भी हम पूरी तरह से आज़ाद नही हुए है।अभी हमें बहुत सी आज़ादी हासिल करनी है खासतौर पर "मानसिक आज़ादी".अभी हमें  मानसिक रूप से विकसित होना बाकी है। हाँ ,लेकिन अपने पूर्वजों  की कुर्बानियों के फलस्वरूप जिस गुलामी के ज़ंजीरो से हमें  आज़ादी मिली है, हमें उसकी कद्र करनी चाहिए और इस स्वतन्त्रता दिवस को हमें एक जश्न के रूप में मानना चाहिए। "मानसिक आजादी" का ये मतलब कतई नहीं है कि- हम पश्चिमी सभ्यता का अंधाधुंध अनुसरण कर बे-लगाम हो जाए। जो कि हम कुछ ज्यादा ही कर रहे हैं। 
                                         " कितनी गिरहें  खोली हमने ,कितनी गिरहें  बाकी है"
                                          
                                               स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई हो 
                                                                  जय हिन्द