" मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "
जीवन का सारा खेल एक नज़र और नज़रिये का ही तो होता है ,किसी को पथ्थर में भगवान नजर आते है किसी को भगवान भी पत्थर के नज़र आते है----
मेरे बारे में
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मंगलवार, 30 अप्रैल 2019
" भाग्य विधाता "- कौन ??
" मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "
शनिवार, 13 अप्रैल 2019
धर्म क्या हैं ??
धर्म क्या हैं ? धर्म क्यों हैं ?धर्म कैसा होना चाहिए ? क्या सचमुच हमारे जीवन में धर्म की आवश्यकता हैं ?धर्म का हमारे जीवन में क्या महत्व होना चाहिए ?मानव का सबसे बड़ा या पहला धर्म क्या होना चाहिए ? धर्म के बारे में ना जाने इस तरह के कितने सवाल हमारे मन मस्तिष्क में उठते रहते है।हर युग में,हर समाज में ,हर सम्प्रदाय में यहां तक की हर व्यक्ति अपने अपने तरीके से इन सवाल के खोज में लगा रहता हैं। धर्म के संबंध में बड़ी विभिन्ताएं देखने को मिलती हैं। एक देश और एक ही जाति के लोगो के धार्मिक आचरण में भी बड़ी अंतर् दिखाई देता हैं। सामान्य जन दान -पुण्य ,पूजा -पाठ और बाहरी कर्मकांडों को ही धर्म का नाम देते हैं। यही धार्मिक कर्मकांड धीरे -धीरे सामाजिक रीति -रिवाज का रूप धारण कर लेता हैं। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी बुद्धि से तर्क पूर्वक सोच समझ कर धर्म का आचरण करते हैं या यूँ भी कह सकते हैं कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझते हैं।
सभी धर्मो की यही मान्यता हैं कि उनका धर्म अनादि हैं। लेकिन एक बात सभी धर्मो में समान रूप से दिखाई देती हैं,सभी धर्म एक ही सत्य पर आधारित हैं कि कोई ऐसी शक्ति हैं जो हम पर नियंत्रण रखती हैं और जिसने कुछ नियम कानून बनाये हैं और उसका पालन करना ही हमारा परम् धर्म हैं। इन नियम कानून में भी समय समय पर पैगंबरो और अवतारो ने आकर उनका पुनरुथान भी करते रहे हैं। सारे धर्मो के अपने अपने धर्मग्रंथ हैं लेकिन सभी धार्मिक गुरुओ ने अपने कथन के अपूर्णता को भी स्वीकारा हैं। शायद यही कारण है कि अनादि काल से अब तक हर धर्म के स्वरूप में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। सभी धर्मो में नए सुधारक आते गए और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बता कर समय ,स्थान और परिस्थितियों के अनुसार उनमे परिवर्तन करते गये। अवतारी महापुरुषों ने अपने समय के परिस्थिति और स्थान को बहुत महत्व दिया था।
जब वैदिक युग में ब्रह्मोपासना आवश्यकता से अधिक बढ़ गई और लोग अपने कर्तव्य का पालन छोड़ पूजा पाठ में ही लगे रहते थे तब भौतिकवादी वाममार्ग की शुरुआत हुई ,जब भौतिकवादिता के कारण वाममार्गियों की हिंसा हद से ज्यादा बढ़ गयी तो महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया ,जब अहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शकराचार्य ने उसका खंडन कर वेदांत का निर्माण किया। इस तरह धर्म में समय समय पर बदलाव होते रहे हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार धर्मो में परिवर्तन हर धर्म के धार्मिक ग्रंथो में देखने को मिलेगी।
मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है। अनादि काल से ही मनुष्यो को जिस काम में अपना हित नजर आया उसने वही काम आरम्भ कर दिया और उसे ही धर्म का नाम दे दिया गया। गौ पालन ,तुलसी स्थापना ,गंगा स्नान ,तीर्थ यात्रा ,एकादशी व्रत ,ब्रह्मचर्य आदि कार्य मनुष्य के लिए लाभदायक हैं ,इसकी परीक्षा करने के बाद इन कार्यो को धर्म माना गया हैं। गाय पालन से हमे दूध ,गोबर और बछड़े मिलते हैं ,तुलसी अनेक रोगो को दूर करने वाली एक अमोध औषधि हैं ,तीर्थाटन से वायु परिवर्तन और सत्पुरषो के सतसंग का लाभ मिलता हैं ,एकादशी व्रत से हमे अनेक रोगो से लड़ने की क्षमता मिलती हैं ,ब्रह्मचर्य से शरीर बलवान रहता हैं। इस तरह हम देखेंगे की हर धार्मिक परम्परा हमे एक नियम कानून से बांध कर हमारे तन, मन और धन को लाभ पहुंचने के लिए ही बने हैं।
धर्म को पाप -पुण्य से जोड़ा गया ताकि लोग इससे डर कर इसके नियम को कठोरता से पालन करे। परन्तु जहाँ श्रेष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे और जो धर्म स्वेच्छा से अपनाई जाती थी उस पर डर का व्यवसाय चलाने लगे। कुछ ओछी मनोवृति के धर्मगुरुओ ने वक्तिगत लाभ के लिए नकली बातो को भी धर्म से जोड़ दिया। समय के साथ वो असली -नकली बाते एक दूसरे से जुड़ ऐसी शक्ल में आ गई कि आज ये पहचानने में भी कठिनाई होती हैं कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हैं उसमे कितनी सचाई हैं।
लेकिन अगर हम अपनी बुद्धि और विवेक से चिंतन करेंगे तो देखेंगे कि हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं। विद्या,स्वास्थ ,धन ,प्रतिष्ठा ,पवित्रता ,संगठन ,सच्चरित्रता ये सात महाबल माने गये हैं। अगर ये सातो बल आपके पास हैं और आप इन सातो गुणों के सहायता से समाज की उन्नति कर रहे हैं तो आप धार्मिक हैं। सारे धार्मिक ग्रंथो का एक ही सार है और वो यही कहते हैं कि - अपना कर्तव्य पालन ,दुसरो की सेवा ,परोपकार और संयम। अर्थात जिसके हृदय करुणा हैं सच्चा धर्मचारी वही हैं।
संक्षेप में कह हैं कि -अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी। जो तत्कालीन समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं। लेकिन धर्म का इतना हनन होने के वावजूद अभी भी धरती कायम हैं तो ये भी स्पष्ट हैं कि अभी भी पृथ्वी पर धर्माचारियों की कमी नहीं।
मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है। अनादि काल से ही मनुष्यो को जिस काम में अपना हित नजर आया उसने वही काम आरम्भ कर दिया और उसे ही धर्म का नाम दे दिया गया। गौ पालन ,तुलसी स्थापना ,गंगा स्नान ,तीर्थ यात्रा ,एकादशी व्रत ,ब्रह्मचर्य आदि कार्य मनुष्य के लिए लाभदायक हैं ,इसकी परीक्षा करने के बाद इन कार्यो को धर्म माना गया हैं। गाय पालन से हमे दूध ,गोबर और बछड़े मिलते हैं ,तुलसी अनेक रोगो को दूर करने वाली एक अमोध औषधि हैं ,तीर्थाटन से वायु परिवर्तन और सत्पुरषो के सतसंग का लाभ मिलता हैं ,एकादशी व्रत से हमे अनेक रोगो से लड़ने की क्षमता मिलती हैं ,ब्रह्मचर्य से शरीर बलवान रहता हैं। इस तरह हम देखेंगे की हर धार्मिक परम्परा हमे एक नियम कानून से बांध कर हमारे तन, मन और धन को लाभ पहुंचने के लिए ही बने हैं।
धर्म को पाप -पुण्य से जोड़ा गया ताकि लोग इससे डर कर इसके नियम को कठोरता से पालन करे। परन्तु जहाँ श्रेष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे और जो धर्म स्वेच्छा से अपनाई जाती थी उस पर डर का व्यवसाय चलाने लगे। कुछ ओछी मनोवृति के धर्मगुरुओ ने वक्तिगत लाभ के लिए नकली बातो को भी धर्म से जोड़ दिया। समय के साथ वो असली -नकली बाते एक दूसरे से जुड़ ऐसी शक्ल में आ गई कि आज ये पहचानने में भी कठिनाई होती हैं कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हैं उसमे कितनी सचाई हैं।
लेकिन अगर हम अपनी बुद्धि और विवेक से चिंतन करेंगे तो देखेंगे कि हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं। विद्या,स्वास्थ ,धन ,प्रतिष्ठा ,पवित्रता ,संगठन ,सच्चरित्रता ये सात महाबल माने गये हैं। अगर ये सातो बल आपके पास हैं और आप इन सातो गुणों के सहायता से समाज की उन्नति कर रहे हैं तो आप धार्मिक हैं। सारे धार्मिक ग्रंथो का एक ही सार है और वो यही कहते हैं कि - अपना कर्तव्य पालन ,दुसरो की सेवा ,परोपकार और संयम। अर्थात जिसके हृदय करुणा हैं सच्चा धर्मचारी वही हैं।
संक्षेप में कह हैं कि -अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी। जो तत्कालीन समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं। लेकिन धर्म का इतना हनन होने के वावजूद अभी भी धरती कायम हैं तो ये भी स्पष्ट हैं कि अभी भी पृथ्वी पर धर्माचारियों की कमी नहीं।